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Monday, August 13, 2012

भ्रष्टाचार की शुरुआत कहाँ से...?

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

आजादी के बाद से अनेक मोर्चों पर मनमानी और भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ छोटे-बड़े अनेक आन्दोलन देश में होते रहे हैं। जिनमें से अधिकतर का इतिहास है कि वे भ्रष्टाचार की गंगोत्री में डुबकी लगाने के बाद समाप्त होते रहे हैं। पिछले एक वर्ष के दौरान समाज के एक वर्ग और कार्पोरेट घरानों के इशारों पर कदमताल करते मीडिया ने इस बात का पूरी तरह से प्रमाणित करने का भरसक प्रयास किया कि अन्ना हजारे के नेतृत्व में देश का सबसे बड़ा जनान्दोलन उठ खड़ा हुआ है, जो भ्रष्टाचारियों तथा भ्रष्ट व्यवस्था को उखाड़ फेंक-कर ही दम लेगा। लेकिन जो कुछ हुआ है, वोे देश की सारी जनता के सामने आ गया। देशवासियों को ज्ञात हो गया है कि अन्ना टीम के मुख्य कर्ताधर्ता एवं भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिये बनाये जाने वाले जन लोकपाल के रचनाकारों में से प्रमुख स्वयं भूषण पिता-पुत्र मायावती की भ्रष्ट गंगा में डुबकियॉं लगाते रहे हैं।

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज रहे हेगड़े संविधान को धता बताकर के देश के दमित वर्गों के हितों के विरुद्ध निर्णय सुनाकर एक हृदयहीन और शोषक वर्गों के हितसाधक व्यक्ति के रूप में पहले से ही पहचाने जाते रहे हैं।

किरण बेदी चाहे स्वयं को कितनी ही पाकसाफ बतलाने की कोशिश करती रही हों। लेकिन काजल की कोठरी में कोई भी बेदाग नहीं निकल सकता? पुलिस की नौकरी में उन्होंने बड़े-बड़े काम करके दिखाने के बहुप्रचारिक काम या कारनामे किये, जिसके लिये उनको अनेक बार और अनेक स्तरों पर सम्मानित भी किया गया, लेकिन उनका असली चेहरा आज देश के समक्ष प्रकट हो चुका है। 

विदेशी संस्थाओं से अनुदान के नाम पर मोटी रकम लेने वाली संस्थाओं के कार्यक्रमों में जाने के लिये बेदी की ओर से लिये जाने वाले हवाई जहाज के टिकिट के किराये और असल में भुगतान किये जाने वाले किराये में भारी अन्तर देखा गया, जिसे स्वयं किरण बेदी ने अपनी गलती के रूप में स्वीकार कर लिया है। ऐसी संस्थाओं के कार्यक्रमों में जाने की बेदी को क्या जरूरत थी जो भ्रष्टाचार को बढावा देने में पूरी तरह से डूबी हुई हैं?

अरविन्द केजरीवाल को तो उनके अपने साथी ही तानाशाह की उपाधि दे चुके हैं। उन पर भी अनेक प्रकार के आरोप हैं। यही नहीं उन पर तो स्वयं अन्ना हजारे को दिग्भ्रमित करने तक के आरोप हैं। उनके साथियों का मानना है कि केजरीवाल देश के अगले प्रधान मंत्री बनने का ख्वाब पाले बैठे हैं।

इस प्रकार के हालातों के बीच अन्ना हजारे के नेतृत्व में संचालित भ्रष्टाचार विरोधी अन्दोलन जनता के लिये अनपेक्षित दुर्गति को प्राप्त होता दिख रहा है। जबकि हमने शुरू में ही इसे एक प्रायोजित नाटक करार दिया था। जिसके उपरोक्त के अलावा भी अनेक और भी कारण हैं, जिन पर देश के प्रबुद्ध लोग चिन्तन कर रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे। फिलहाल हमें ये देखना है कि भ्रष्टाचार को समाप्त करने वाले ही भ्रष्ट व्यवस्था में स्वयं को समाहित क्यों कर लेते हैं? 

भारत के सन्दर्भ में देखा जाये तो एक समय था, जब केवल शीर्ष स्तर पर ही गलत काम हुआ करते थे। शीर्ष नेतृत्व द्वारा ऐसे लोगों को अभयदान प्राप्त था। जिसके लिये वाकायदा धर्म ग्रंथों में अभयदान देने की व्यवस्था की गयी थी। धर्मग्रंथकारों ने अपने वर्ग को संरक्षित करने के साथ-साथ सबसे पहले ऐसी व्यवस्था की, जिसमें शासक वर्ग को इस आपराधिक गठजोड़ में कहीं भय दिखाकर तो कहीं सजा से छूट प्रदान करके शामिल किया जाये और सत्ता को पोषित करने वाले व्यापारी वर्ग को भी मिला लिया।

जिसके परिणामस्वरूप मुठ्ठीभर इन तीनों वर्गों की तिकड़ी ने देश के तमाम लोगों और सम्पूर्ण व्यवस्था को अपने कैंजे में ले लिया। जिसके बारे में कुछ ऐसे उदाहरण प्रस्तुत किया जाना भी जरूरी है, जिनसे ये बात प्रमाणित होती है कि मनमानी या भ्रष्टाचार की शुरुआत करने वाले कौन थे।

‘‘राजा यदि परम संकट की परिस्थिति में तो भी उसे ब्राह्मणों को कुपित नहीं करना चाहिये, (आज के सन्दर्भ में इसे आईएएस, आईपीएस और उनके मातहतों को समझा जा सकता है) क्योंकि कुपित ब्राह्मण सेना तथा वाहन सहित राजा (प्रधानमंत्री- मुख्यमंत्री व उनके मंत्री) का विनाश कर सकता है।’’-मनुस्मृति 9/312,

इसमें साफ संकेत दिया गया है कि मनमानी करने वाले ब्राह्मण के विरुद्ध किसी भी प्रकार की दण्डात्मक कार्यवाही के लिये राजा द्वारा सोचा भी नहीं जाना चाहिये।

आगे-मनुस्मृति 9/316, में ये भी साफ कर दिया कि ब्राह्मण चाहे विद्वान हो या मूर्ख वह नि:सन्देह पूज्यनीय ही होता है।

मनुस्मृति 9/319, में कहा गया है कि ब्राह्मण (आईएएस लॉबी) जिनका (प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री व उनके मंत्री) पथ प्रदर्शन करते हैं, वही क्षत्रिय (प्रधानमंत्री/ मुख्यमंत्री व उनके मंत्री) प्रगति कर सकते हैं। मतलब शासक वर्ग को प्रगति करनी है तो ब्राह्मण का पथप्रदर्शन चाहिये ही होगा और वो तब ही मिलेगा, जबकि उसे हर हाल में खुश रखा जाये। उसके कार्मों को अनदेखा किया जाये।

इस प्रकार से ब्राह्मण वर्ग ने स्वयं को सबसे पहले सबसे बड़ा वीआईपी का दर्जा दिलवाया और बाद में क्षत्रिय एवं वैश्य को छोटा वीआईपी बनाकर उन्हें मनमानी करने की व्यवस्था का पोषण किया। निम्न वर्गों (जनता) को इन वर्गों के कर्मों के बारे में सवाल उठाने पर पाबन्दी लगा दी और इस प्रकार से उच्च वर्ग की मनमानी और भ्रष्ट व्यवस्था का जन्म हुआ। यही व्यवस्था आज सरकार और प्रशासन में हर जगह पर देखी जा सकती है, जिसमें मंत्रियों, सचिवों, अफसरों और इंस्पेक्टरों को मनचाही करने और उसके पक्ष में सुरक्षा-संरक्षण के अनेक प्रकार के कानूनी सुरक्षाकवच प्राप्त हैं। जबकि आम जनता अभी भी सूद्र की भांति कुकर्मी या सुकर्मी सभी शासकों का सम्मान करने को विवश है!

इस व्यवस्था को बदलने के लिये देश में नवब्राह्मण बनाने की व्यवस्था को समाप्त करना होगा, जिसके लिये देश के हर व्यक्ति के अवचेतन में व्याप्त पुरानी ब्राह्मणवादी व्यवस्था को समाप्त समूल नष्ट करने के लिये, आगे बढकर ब्राह्मणवादी व्यवस्था के जनक और पोषक लोगों को काम करना होगा। जब तक कोई भी बीमारी जड़ से समाप्त नहीं होगी, ऊपरी दिखावटी उपचारों से उसका शमन सम्मव नहीं है।

Friday, August 3, 2012

अन्ना के समर्थकों के समक्ष निराशा का आसन्न संकट?

आखिरकार अन्ना ने सत्ता के बजाय व्यवस्था को बदलने के लिये कार्य करने की सोच को स्वीकार कर ही लिया है। जिसकी लम्बे समय से मॉंग की जाती रही है। जहॉं तक अन्ना की प्रस्तावित राजनैतिक विचारधारा का सवाल है तो सबसे पहली बात तो ये कि यह सवाल उठाने का देश के प्रत्येक व्यक्ति को हक है!
दूसरी बात ये कि अन्ना और उसकी टीम की करनी और कथनी में कितना अंतर है या है भी या नहीं! ये भी अपने आप में एक सवाल है, जो अनेक बार उठा है, लेकिन अब इसका उत्तर जनता को मिलना तय है।

अन्ना की ओर से अपना नजरिया साफ करने से पूर्व ही इन सारी बातों पर, विशेषकर ‘‘वैब मीडिया’’ पर ‘‘गर्मागरम बहस’’ लगातार जारी है, जिसमें अभद्र और अश्‍लील शब्दावली का खुलकर उपयोग और प्रदर्शन हो रहा है। अनेक "न्यूजपोर्टल्स" ने शायद इस प्रकार की सामग्री और टिप्पणियों के प्रदर्शन और प्रकाशन को ही अन्ना टीम की भॉंति खुद को पापुलर करने का "सर्वोत्तम तरीका" समझ लिया है।

कारण जो भी हों, लेकिन किसी भी विषय पर "चर्चा सादगी और सभ्य तरीके से होनी चाहिए" और अन्ना के उन समर्थकों को जो कुछ समय बाद "अन्ना विरोधी" होने जा रहे हैं! उनको अब अन्ना को छोड़कर शीघ्र ही कोई नया मंच तलाशना होगा! उनके सामने अपने अस्तित्व को बचाने का एक आसन्न संकट मंडराता दिख रहा है। उन्हें ऐसे मंच की जरूरत है जो जो मीडिया के जरिये देश में सनसनी फ़ैलाने में विश्‍वास करता हो तथा इस प्रकार के घटनाक्रम में आस्था रखता हो! हॉं बाबा रामदेव की दुकान में ऐसे लोगों को कुछ समय के लिए राहत की दवाई जरूर मिल सकती है! हालांकि वहॉं पर भी कुछ समय बाद "सामाजिक न्याय तथा धर्मनिरपेक्षता रूपी राजनैतिक विचारधारा" को "शुद्ध शहद की चासनी" में लपेटकर बेचे जाने की पूरी-पूरी सम्भावना व्यक्त की जा रही है।

मैं यहॉं साफ कर दूँ यह मेरा राजनैतिक अनुमान है, कि धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के मुद्दों को अपनाये बिना, इस देश में कोई राजनैतिक पार्टी स्थापित होकर राष्ट्रीय स्तर पर सफल हो ही नहीं सकती और इसे "अन्ना का दुर्भाग्य कहें या इस देश का"-कि अन्ना की सभाओं में या रैलियों में अभी तक जुटती रही भीड़ को ये दोनों ही संवैधानिक अवधारणाएँ कतई भी मंजूर नहीं हैं! बल्कि कड़वा सच तो यही है कि अन्ना अन्दोलन में अधिकतर वही लोग बढचढकर भाग लेते रहे हैं, जिन्हें देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप में कतई भी आस्था नहीं है। जिन्हें इस देश में अल्पसंख्यक, विशेषकर मुसलमान फूटी आँख नहीं सुहाते हैं और जो हजारों वर्षों से गुलामी का दंश झेलते रहे दमित वर्गों को समानता का संवैधानिक हक प्रदान किये जाने के सख्त विरोध में हैं। जो स्त्री को घर की चार दीवारी से बाहर शक्तिसम्पन्न तथा देश के नीति-नियन्ता पदों पर देखना पसन्द नहीं करते हैं।

यह भी सच है कि इस प्रकार के लोग इस देश में पॉंच प्रतिशत से अधिक नहीं हैं, लेकिन इन लोगों के कब्जे में वैब मीडिया है। जिस पर केवल इन्हीं की आवाज सुनाई देती है। जिससे कुछ मतिमन्दों को लगने लगता है कि सारा देश अन्ना के साथ या आरक्षण या धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ चिल्ला रहा है। जबकि सम्भवत: ये लोग ही इस देश की आधुनिक छूत की राजनैतिक तथा सामाजिक बीमारियों के वाहक और देश की भ्रष्ट तथा शोषक व्यवस्था के असली पोषक एवं समर्थक हैं।

इस कड़वी सच्चाई का ज्ञान और विश्‍वास कमोबेश अन्ना तथा बाबा दोनों को हो चुका है। इसलिये दोनों ने ही संकेत दे दिये हैं कि अब देश के सभी वर्गों को साथ लेकर चलना होगा। बाबा का रुख कुछ दिनों में और अधिक साफ हो जाने वाला है| जहाँ तक अन्ना का सवाल है तो अभी तक के रुख से यही लगता है कि अन्ना चाहकर भी न तो साम्प्रदायिकता का खुलकर समर्थन कर सकने की स्थिति में हैं और न हीं वे देश के दबे-कुचले वर्गों के उत्थान की नीति और स्त्री समानता का विरोध कर सकते हैं, जो "सामाजिक न्याय की आत्मा" हैं। इसलिये अन्ना के कथित समर्थकों के समक्ष निराशा का भारी आसन्न संकट मंडरा रहा है। उनके लिये इससे उबरना आसान नहीं होगा।

इसलिये अन्ना टीम की विचारधारा की घोषणा सबसे अधिक यदि किसी को आहत करने वाली है तो अन्ना के कथित कट्टर समर्थकों को ही इसका सामना करना होगा। इसके विपरीत जो लोग अभी तक अन्ना का विरोध कर रहे थे या जो अभी तक तटस्थ थे या जिन्हें अन्ना से कोई खास मतलब नहीं है और न हीं जिन लोगों को देश की संवैधानिक या राजनैतिक विचारधारा से कोई खास लेना देना है। ऐसे लोगों के लिये अवश्य अन्ना एक प्रायोगिक विकल्प बन सकते हैं और यदि अन्ना टीम कोई राजनैतिक पार्टी बनती है तो इससे सबसे अधिक नुकसान "भारतीय जनता पार्टी" को होने की सम्भावना है, क्योंकि अभी तक जो लोग अन्ना के साथ "भावनात्मक या रागात्मक" रूप से जुड़े दिख रहे हैं, वे "संघ और भाजपा" के भी इर्दगिर्द मंडराते देखे जाते रहे हैं।-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

Wednesday, March 14, 2012

विधानसभा चुनाव परिणामों के संकेत-अन्ना और बाबा ने भ्रष्टाचार की लड़ाई को कई वर्ष पीछे धकेल दिया है।

पॉंच राज्यों के चुनाव परिणामों से जो सन्देश निकलकर सामने आया है, उसके ये संकेत तो स्पष्ट रूप से प्रकट हो ही चुके हैं कि मतदाता ने केवल कॉंग्रेस, भाजपा और बसपा को ही धूल नहीं चटायी है, बल्कि इसके साथ-साथ अन्ना हजारे और रामदेव को भी मटियामेट कर दिया है। जो इस देश के भ्रष्टाचार से त्रस्त आम लोगों के लिये दु:खद बात है। क्योंकि पूरे देश में सेवारत हजारों सच्चे सामाजिक कार्यकर्ताओं के दशकों के सतत और कड़े प्रयासों से भ्रष्टाचार जो वास्तव में देशभर में मुद्दा बन चुका था, उस मुद्दे का अन्ना और बाबा ने सत्यानाश कर दिया है। इन्होंने भ्रष्टाचार की लड़ाई को कई वर्ष पीछे धकेल दिया है।
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

मणीपुर, गोआ, पंजाब, उत्तराण्ड और उत्तर प्रदेश सहित 5 राज्यों की विधान सभाओं के चुनाव परिणामों ने इलेक्ट्रॉलिक मीडिया, प्रिंट मीडिया, स्वतंत्र पत्रकार और राजनेताओं सहित सभी को चौंका दिया है। सभी के अंदाज और कयासों को फैल कर दिया है। जीतने वाले और हारने वाले दलों को प्राप्त परिणामों ने सकते में डाल दिया है। जोड़तोड़ के दौर में जहॉं मणीपुर में लगातार तीसरी बार कॉंग्रेस का सत्ता में आना अनहोनी घटना लगती है, वहीं चालीस वर्ष बाद किसी भी दल का लगातार दुबारा सत्ता में आना पंजाब के मतदाता का ही कमाल है। उत्तराखण्ड में भाजपा को दण्डित करते समय मतदाता ने कॉंग्रेस को भी साफ संकेत दिया है कि कॉंग्रेस किसी मुगालते में नहीं रहे! मतदाता की नजर में भाजपा और कॉंग्रेस दोनों ही सत्ता के योग्य नहीं हैं। ये अलग बात है कि गणितीय समीकरणों, सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता में राजनैतिक आस्था के कारण उत्तराखण्ड की सत्ता कॉंग्रेस के हिस्से में आ गयी है। आज के युग में इसी को लोकतन्त्र का गठजोड़ीय चमत्कार कहा जाता है। गोआ में भाजपा की ताजपोशी स्वयं भाजपा के नेताओं के लिये भी अप्रत्याशित बतायी जा रही है।

उपरोक्त चार राज्यों के मतदाता ने एक बार फिर से सत्ता की धुरी को हिलाकर और घुमाकर सत्ताधीशों को बतला दिया है कि वे किसी भी मुगालते में नहीं रहें! जनता जो चाहेगी वही होने वाला है। जिसका परिणाम सबके सामने है, लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा के परिणामों ने सभी राजनीतिक पण्डितों के छक्के छुड़ा दिये हैं। सारे एग्जिट पोल और प्रिइलेक्शन पोलों के परिणामों की पोल खोल कर रख दी। उत्तर प्रदेश के वोटर ने तो राष्ट्रीय दलों को तो अपनी औकात बतला ही दी है, साथ ही डॉ. अम्बेड़कर तथा कांशीराम के आदर्शों को तिलांजलि देकर भी स्वयं को दलितों की मसीहा कहाने वाली मायावती के जातीय गणित तथा निजी अहंकार को भी बेरहमी से चकनाचूर कर दिया है।

उत्तर प्रदेश में कहने को तो समाजवादी पार्टी की जीत हुई है। मुलायम सिंह, आजम खान और अखिलेश यादव की जीत हुई है, लेकिन गहराई में जाकर देखा जाये तो उत्तर प्रदेश में सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा की जमीनी जरूरत को मतदाता ने पुष्ट किया है। ऐसा लगता है, मानों मण्डल आयोग के बाद की राजनैतिक धारा को उत्तर प्रदेश की जनता ने फिर से सही दिशा में मोड़ दिया है। इसकी दुसरे दौर की शुरूआत बिहार से हो चुकी थी, लेकिन साम्प्रदायिक कही जाने वाली और संघ के इशारों पर शासन चलाने के आरोप झेलने वाली भाजपा के साथ गठजोड़ करके सरकार चलाने के कारण नीतीश कुमार की जीत को शुरू में सीधे तौर पर सामाजिक न्याय एवं धर्म निरपेक्षता की विजय नहीं माना गया था। यद्यपि नीतीश कुमार की बिहार में दुबारा ताजपोशी करके बिहार के मतदाता ने नीतीश कुमार को साफ तौर पर यह संकेत दे दिया है कि उन्हें बिहार की सत्ता भाजपा के सहयोग के कारण नहीं, बल्कि जनतादल द्वारा मण्डल कमीशन को लागू किये जाने के बाद देश के जिस बड़े वर्ग को आत्मसम्मान की अनुभूति हुई है, उस वर्ग के सम्मान की रक्षा के लिये सत्ता प्राप्त हुई है। जिसे नीतीश को संभालना होगा। उत्तर प्रदेश में भी साफ तौर पर यही संकेत दिख रहा है।

मुलायम सिंह की विजय धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय और मण्डल कमीशन के बाद की राजनीतिक जमीन में जनतादल द्वारा बोयी गयी फसल का सुफल है। जिसे मुलायम, आजम और अखिलेश ने बेहतर तरीके से काटा है। समाजवादी पार्टी को आने वाले पॉंच वर्षों में इस नयी, जमीनी हकीकत और बहुसंख्यक दबे-कुचले भारतीय मतदाता की राजनीतिक समझ को केवल समझना ही नहीं होगा, अपितु इसे अपनी संवैधानिक शक्ति और राजनैतिक कौशल से सींचना भी होगा। उत्तर प्रदेश विधानसभा के ताजा परिणाम इस बात की ओर इशारा कर रहे हैं कि अब मतदाता को समझ में आ गया है, कि हजारों वर्षों से देश और देश के बहुसंख्यकों का क्रूरतापूर्वक शोषण करने वाला दो फीसदी वर्ग, देश का और देश के बहुसंख्यकों का शुभचिंतक नहीं है। अत: इस वर्ग को सत्ता से उठाकर फेंक दिया जाये और जिन लोगों का ये देश है, उन्हीं लोगों को उनके सम्पूर्ण हक, पूर्ण सम्मान और आदर के साथ मिलें।

यहॉं पर हमें ये नहीं भूलना चाहिये कि दो फीसदी वर्ग द्वारा पोषित भ्रष्ट और अकर्मण्य नौकरशाही इस प्रकार के देश-हितकारी प्रयासों को कभी भी आसानी से सफल नहीं होने देगी। जिसके लिये नीतीश कुमार और मुलायम सिंह को नौकरशाही पर कूटनीतिक तरीके से न मात्र लगाम लगानी होगी, बल्कि नौकरशाही को इस बात का अहसास भी करवाना होगा कि नौकरों का काम जनता की सेवा करना है, न कि जनता का शोषण करना!

यद्यपि अभी से कुछ कहना बहुत जल्दबाजी होगी, लेकिन फिर भी विधानसभा चुनाव परिणामों के सन्दर्भ में यदि 2014 के लोकसभा चुनावों की तैयारी की बात करें तो परिणाम मिलेजुले दिख रहे हैं। इससे पूर्व राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे बड़े राज्यों की विधान सभाओं के चुनाव होने हैं। जहॉं पर स्थिति अत्यन्त चिन्ताजनक हैं। जहॉं एक ओर गहलोत सरकार में भ्रष्ट नौकरशाही को विश्‍वस्त मानकर, नौकरशाही के भरोसे ही सत्ता का संचालन किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर लगता है मनो मध्य प्रदेश में नौकरशाही को लूट में सीधे-सीधे राझीदार बना लिया गया है। ऐसे हालात में बिना कुछ किये कॉंग्रेस और भाजपा आलाकमान द्वारा मतदाता को बेवकूफ समझने वाले प्रान्तीय राजनेताओं को आगामी विधानसभा चुनावों में अपनी जमीनी हकीकत से दो-चार होने से बचा पाना बहुत मुश्किल होगा। 

अन्त में एक और महत्वूपर्ण बात पॉंच राज्यों के चुनाव परिणामों से जो सन्देश निकलकर सामने आया है, उसके ये संकेत तो स्पष्ट रूप से प्रकट हो ही चुके हैं कि मतदाता ने केवल कॉंग्रेस, भाजपा और बसपा को ही धूल नहीं चटायी है, बल्कि इसके साथ-साथ अन्ना हजारे और रामदेव को भी मटियामेट कर दिया है। जो इस देश के भ्रष्टाचार से त्रस्त आम लोगों के लिये दु:खद बात है। क्योंकि पूरे देश में सेवारत हजारों सच्चे सामाजिक कार्यकर्ताओं के दशकों के सतत और कड़े प्रयासों से भ्रष्टाचार जो वास्तव में देशभर में मुद्दा बन चुका था, उस मुद्दे का अन्ना और बाबा ने सत्यानाश कर दिया है। इन्होंने भ्रष्टाचार की लड़ाई को कई वर्ष पीछे धकेल दिया है।

Friday, December 30, 2011

लोकपाल-हमाम में सभी नंगे!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’


लोकपाल विधेयक के बहाने कॉंग्रेस के नेतृत्व वाले सत्ताधारी गठबन्धन यूपीए और भाजपा के नेतृत्व वाले मुख्य विपक्षी गठबन्धन एनडीए सहित सभी छोटे-बड़े विपक्षी दलों एवं ईमानदारी का ठेका लिये हुंकार भरने वाले स्वयं अन्ना और उनकी टीम के मुखौटे उतर गये! जनता के समक्ष कड़वा सत्य प्रकट हो गया!

जो लोग भ्रष्टाचार की गंगोत्री में डुबकी लगाते रहे हैं, वे संसद में भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिये आँसू बहाते नजर आये! सशक्त और स्वतन्त्र लोकपाल पारित करवाने का दावा करने वाले यूपीए एवं एनडीए की ईमानदारी तथा सत्यनिष्ठा की पोले खुल गयी! सामाजिक न्याय को ध्वस्त करने वाली भाजपा की आन्तरिक रुग्ण मानसिकता को सारा संसार जान गया! भाजपा देश के अल्प संख्यकों के नाम पर वोट बैंक बढाने की घिनौनी राजनीति करने से यहॉं भी नहीं चूकी|

भाजपा और उसके सहयोगी संगठन एक ओर तो अन्ना को उकसाते और सहयोग देते नजर आये, वहीं दूसरी ओर मोहनदास कर्मचन्द गॉंधी द्वारा इस देश पर जबरन थोपे गये आरक्षण को येन-केन समाप्त करने के कुचक्र भी चलते नजर आये!

स्वयं अन्ना एवं उनके मुठ्ठीभर साथियों की पूँजीपतियों के साथ साठगॉंठ को देश ने देखा| भ्रष्टाचार के पर्याय बन चुके एनजीओज् के साथ अन्ना टीम की मिलीभगत को भी सारा देश समझ चुका है| सारा देश यह भी जान चुका है कि गॉंधीवादी होने का मुखौटा लगाकर और धोती-कुर्ता-टोपी में आधुनिक गॉंधी कहलवाने वाले अन्ना, मनुवादी नीतियों को नहीं मानने वाले अपने गॉंव वालों को खम्बों से बॉंधकर मारते और पीटते हैं!

भ्रष्टाचार मिटाने के लिये अन्ना भ्रष्टाचार फैलाने वाले कॉर्पोरेट घरानों और विदेशों से समाज सेवा के नाम पर अरबों रुपये लेकर डकार जाने वाले एनजीओज् को लोकपाल के दायरे में क्यों नहीं लाना चाहते, इस बात को देश को समझाने के बजाय बगलें झांकते नजर आये! जन्तर-मन्तर पर लोकपाल पर बहस करवाने वाली अन्ना टीम ने दिखावे को तो सभी को आमन्त्रित करने की बात कही, लेकिन दलित संगठनों को बुलाना तो दूर, उनसे मनुवादी सोच को जिन्दा रखते हुए लम्बी दूरी बनाये रखी है!

संसद में सभी दल अपने-अपने राग अलापते रहे, लेकिन किसी ने भी सच्चे मन से इस कानून को पारित कराने का प्रयास नहीं किया| विशेषकर यदि कॉंग्रेस और भाजपा दोनों अन्दरूनी तौर पर यह तय कर लिया था कि लोकपाल को किसी भी कीमत पर पारित नहीं होने देना है और देश के लोगों के समक्ष यह सिद्धि करना है कि दोनों ही दल एक सशक्त और स्वतन्त्र लोकपाल कानून बनाना चाहते हैं| वहीं दूसरी और सपा, बसपा एवं जडीयू जैसे दलों ने भी लोकपाल कानून को पारित नहीं होने देने के लिये संसद में बेतुकी और अव्यावहारिक बातों पर जमकर हंगामा किया| केवल वामपंथियों को छोड़कर कोई भी इस कानून को पारित करवाने के लिये गम्भीर नहीं दिखा| यद्यपि बंगाल को लूटने वाले वामपंथियों की अन्दरूनी सच्चाई भी जनता से छुपी नहीं है|

Tuesday, November 15, 2011

क्या भारत का मतदाता भहरूपियों को नयी दिल्ली की गद्दी सौंपने को तैयार है?


इस समय देश की दिशा और दशा दोनों ही डगमगाने लगी हैं| सम्पूर्ण भारत में मंहगाई सुरसा की भांति विकराल रूप धारण करती जा रही है| जिसके प्रति केन्द्र सरकार तनिक भी चिन्तित नहीं दिखती है| परिणामस्वरूप जहॉं एक ओर गरीब मर रहा है| उसके लिये जीवनयापन भी मुश्किल हो गया है| किसान आत्महत्या कर रहे हैं| जबकि इसके विपरीत सम्पन्न और शासक वर्ग दिनोंदिन धनवान होकर विलासतपूर्ण जीवन जीने और उसका प्रदर्शन करने से भी नहीं चूक रहा है|

इन हालातों में जहॉं एक ओर युवा वर्ग निराशा और अवसाद से ग्रस्त होकर सृजन के बजाय विसृजन तथा आपराधिक कार्यों की ओर प्रवृत्त हो रहा है| जिसके चलते सड़क पर चलती औरतों के जैवर लूटे जा रहे हैं, चोरी-डकैतियॉं और एटीम मसीनों को चुराने तक की घटनाओं में भारत का भविष्य अर्थात् युवावर्ग लिप्त हो रहा है|

प्रतिपक्ष जिसका कार्य, सत्ताधारी दल की राजनैतिक असफलताओं, कमजोरियों और मनमानी नीतियों को उजागर करके देश और समाज के सामने लाना है, वह निचले दबके और अल्पसंख्यकों के प्रति पाले हुए स्थायी दुराग्रहों और धर्मान्धता की बीमारी से मुक्त नहीं हो पा रहा है| स्वयं प्रतिपक्षी पार्टी के लोग जो कभी ‘चाल, चरित्र और चेहरे’ की बात किया करते थे, खुद भी उसी प्रकार से सत्ताधारियों की भांति भ्रष्ट हैं और गिरगिट की भांति रंग बदल रहे हैं| जिस प्रकार से कांशीराम के अवसान के बाद मायावती ने ‘तिलक, तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार’ के नारे को भूलकर ब्राह्मणों के साथ दिखावटी दोस्ती करके सत्ता पर काबिज हो चुकी हैं| यही नहीं माया ने अन्य सभी राजनैतिक दलों को अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने को भी मजबूर कर दिया है|

सत्ताधारियों और सत्ता से बेदखल लोगों का चरित्र कहॉं है, आम लोग समझ ही नहीं पाते हैं| जो पार्टी सिर्फ सोनिया तथा मनमोहन की पूँजीवादी नीतियों के इर्दगिर्द घूमती रही है, उस पार्टी को मिश्रित अर्थव्यवस्था के जन्मदाता जवाहर लाल नेहरू को अचानक अपने बैनरों पर छाप देना और इन्दिरा, लाल बहादुर, राजीव और नरसिम्हाराव को एक ओर कर देना अपने आप में अनेक भ्रम और भ्रान्तियों का शिकार होने का द्योतक है| इसका मतलब ये समझा जाये कि अब मनमोहन सिंह के दिन लद गये हैं? जबकि स्वयं यूपीए का कहना है कि दुनिया के तमाम देश आर्थिक संकट से त्रस्त हैं, लेकिन भारत में अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री होने के कारण ही भारत की अर्थव्यवस्था बच सकी है?

भारत की सबसे बड़ी दूसरी पार्टी भाजपा का रिमोट कंट्रोल संघ भी अब अपने आपको इस कदर नीचे गिरा चुका है कि जबरन अन्ना के पीछे लग रहा है, जबकि अन्ना मानने को ही तैयार ही नहीं है| यह बात अलग है कि अब तो सारा देश जान चुका है कि अन्ना भाजपा और संघ का ही संयुक्त उत्पाद है| इसके बावजूद अन्ना अभी भी संघ और भाजपा से दूरी बनाये रखने में क्या कोई ऐसी राजनीति खेल रहे हैं, जिसके परिणाम यूपीए को उसकी बेवकूफियों और हठधर्मिता का दुष्परिणाम भोगने को विवश कर देंगे?

अब तो कॉंग्रेस से दशकों से जुड़े कट्टर कॉंग्रेसी भी यह मानने लगा है कि कॉंग्रेस दिशाभ्रम की शिकार होने के साथ-साथ भाजपा-संघ-हिन्दुत्वादी ताकतों के चक्रव्यूह में इतनी बुरी तरह से फंसती जा रही है कि २०१४ के चुनाव में कॉंग्रेस की नैया पार लगना आसान नहीं होगा| वहीं दूसरी ओर कॉंग्रेस की राजनीतिक सूझबूझ के जानकारों का कहना है कि २०१४ आने तक तो देश का परिदृश्य ही बदल चुका होगा| उनका कहना है कि नीतीश कुमार भाजपा से पीछा छुड़ा चुके होंगे और आडवाणी, मोदी, स्वराज, जेटली, राजनाथ सिंह और गडकरी की प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षाओं से टकराकर भाजपा बिखरने के कगार पर पहुँच चुकी होगी| जबकि कुछ दूसरे जनाकारों का कहना है कि यदि हालात ऐसे ही रहे तो भाजपा के नेतृत्व की कमान पण्डित मुरली मनोहर जोशी को मिल सकती है, जो लम्बे समय से इन्तजार में हैं|

इन हालातों में भारत की दिशा और दशा दोनों ही पटरी से उतरी हुई लगती हैं, जिसके चलते न मात्र देश का शासकीय भविष्य भ्रष्ट ब्यूराक्रेट्स की मनमानी नीतियों का शिकार है, बल्कि अन्ना हजारे, बाबा रामदेव और श्रीश्री रविशंकर जैसे लोग भी नीति और अनीति को भूलकर इसी स्थिति का लाभ उठाकर तथा एकजुट होकर अपनी पूरी ताकत झोंक देने का रिस्क ले चुके हैं और हर हाल में इस देश में मुस्लिम, दमित, दलित, पिछड़ा, आदिवासी और महिला उत्थान के विराधी होने और साथ ही साथ हिन्दुत्वादी राष्ट्र की स्थापना करने की बातें करने का समय-समय पर नाटक करने वाले लोगों को भारत की सत्ता में दिलाने के हर संभव प्रयास कर रहे हैं| 

अब सबसे बड़ा सवाल यही है की क्या भारत का धर्मनिरपेक्ष, सामाजिक न्याय को समर्पित और सौहार्दपूर्ण संस्कारों में आस्था तथा विश्‍वास रखने वाला आम मतदाता, मंहगाई और भ्रष्टाचार से तंग होकर ऐसे भहरूपियों को नयी दिल्ली की गद्दी सौंपने को तैयार है? लगता तो नहीं, लेकिन यूपीए सरकार की वर्तमान आम आदमी विरोधी नीतियों से निजात पाने के लिये मतदाता गुस्से में कुछ भी गलती कर सकता है!

Monday, November 14, 2011

अन्ना का कंधा, टीम का धंधा!

कनक तिवारी

यह देश के लिए दुखद होगा कि जनलोकपाल आंदोलन को जन-पथ पर चलाते रहने के बदले उसे अंधी गलियों में भटकाया जा रहा है. मुख्य मुद्दा यही है कि भ्रष्टाचार के मुकाबले के लिए एक सशक्त लोकपाल कानून सर्वानुमति से बनाया जाए. भ्रष्टाचार मुट्ठी भर लोगों का यदि षड़यंत्र है तो देश के करोड़ों लोग उसके शिकार.

अन्ना हज़ारे का एक लंबा सार्वजनिक जीवन रहा है. वे महाराष्ट्र की सरहद में रहकर भ्रष्टाचार से बेलाग होकर लड़ते रहे हैं. उस वजह से कांग्रेस, भाजपा और शिवसेना वगैरह के नेताओं की अन्ना से अदावत रही है. यू.पी.ए. की सरकार के बड़े घोटालों के कारण देश भौचक हो गया है. इसके बाद अन्ना और उनकी टीम ने राष्ट्रीय आयाम और महत्व का बेहतर और सकारात्मक आंदोलन किया. अनिच्छुक केन्द्र सरकार को अन्ना के सामने झुकता दिखाया गया. लेकिन हकीकत यह है कि खुद अन्ना की टीम ने उनके अनशन के दौरान अपनी मांगों को इतना लचीला और छोटा बना दिया था कि उससे सहमत होने में सरकार को कोई दिक्कत नहीं हुई. 

लातीनी अमरीकी देशों के बड़े क्रांतिकारी रेगी देब्रे ने कहा है कि क्रांति की गति वर्तुल या चक्रीय होती है. देब्रे का शायद यह आशय रहा होगा कि क्रांति अपने उफान के बाद अवसान की तरफ जाती भले दिखाई दे, वह दुबारा अपनी रीढ़ की हड्डी पर फिर खड़ी की जा सकती है. 

इसी परिकल्पना को यदि क्षैतिज धरातल पर समझा जाए तो उसी तरह होगा जैसे शांत जल में एक पत्थर फेंक देने से गोल-गोल लहरें उठती हैं लेकिन वे धीरे-धीरे बड़ी होती जाती हैं. यह इतिहास का विपर्यय होगा, यदि भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना आंदोलन की दुर्गति हो जाए, क्योंकि इस आंदोलन को उसकी चक्रीय गति से वंचित होना पड़े. 

आंदोलन के दो विरोधी साफ साफ नज़र आते हैं. एक तो केन्द्र सरकार के मंत्री और कांग्रेस के कुछ बड़बोले प्रवक्ता. लेकिन इसके साथ साथ अन्ना की टीम के चुनिंदा तीन चार बड़े सदस्य एक चंडाल चौकड़ी के रूप में भी उनके आलोचकों द्वारा सफलतापूर्वक प्रचारित किए जा रहे हैं. 

मीडिया ने अन्ना के आंदोलन को बुलंदियों पर पहुंचाया था. अब मीडिया ही यह बता रहा है कि अरविन्द केजरीवाल एक खलनायक हैं. किरण बेदी झूठे यात्रा बिल बनाने का राष्ट्रीय कीर्तिमान बन गई हैं. जयप्रकाश और लोहिया भारत-पाक एकीकरण के स्वप्नशील प्रवक्ता थे. ठीक उसके विपरीत अन्ना टीम के वकील प्रशांत भूषण बकवास करते नज़र आए कि कश्मीर के लोगों को जनमत संग्रह का अधिकार होना चाहिए. 

अन्ना इन सब मुद्दों को लेकर कोप भवन में कैकेयी की तरह मौन व्रत पर चले गए. अन्ना टीम के इन चतुर और वाचाल सिपाहियों ने उन्हें न केवल किसी तरह मना लिया बल्कि अपना दबाव कायम रखा है. एकता परिषद के राजगोपाल, मशहूर पानी विशेषज्ञ राजेन्द्र सिंह, जनलोकपाल प्रारूप समिति के सदस्य न्यायमूर्ति संतोष हेगड़े, प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर, अन्ना टीम के सदस्य कुमार विश्वास और पहले टीम में रहे स्वामी अग्निवेश के बाद अन्ना के ब्लॉगर रहे पुरुलेकर ने भी किनाराकशी कर ली है. अग्निवेश को छोड़कर बाकी के असंतोष की मुनासिब वजहें हैं. 

यह साफ है कि अन्ना गांधीवादी नहीं हैं. उनकी वेशभूषा ग्रामीण बनावट, सहज लहज़ा और सपाटबयानी उनमें गांधी के युग की याद दिलाते हैं. गांधी लेकिन बीच-बीच में वीर शिवाजी की ज़रूरत आज़ादी के आंदोलन में महसूस नहीं करते थे जो अन्ना करते हैं. 

इतिहास ने अन्ना को एक लोकप्रिय आंदोलन का विनम्रतापूर्वक नेतृत्व करने का अवसर दिया है. अन्ना टीम के सदस्य उसे एक युग प्रर्वतक का अवतार समझते हैं जो निहायत गलत है. गांधी को अपने राजनीतिक शत्रुओं अर्थात अंगरेजों तक से नफरत नहीं थी. वे अंगरेज़ियत के खिलाफ थे और अंगरेज़ों द्वारा हिन्दुस्तान पर थोपी गई सड़ी गली राजनीतिक, प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था के. अन्ना के समर्थकों को गांधी की सैद्धान्तिक समझ कहां है. वे संविधान की मौजूदा व्यवस्थाओं के अंदर कुछ पैबंद लगाने को गांधी विचार के वस्त्र बनाना समझते हैं. यह देश और अन्ना का दुर्भाग्य है कि अन्ना विचारक और बुद्धिजीवी नहीं हैं. जो लोग आज़ादी की लड़ाई में जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना आजा़द और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद वगैरह की बुद्धि के कायल थे, वे अब आश्वस्त हैं कि महात्मा गांधी केवल योद्धा नहीं थे. वे ही सबसे बड़े असाधारण बौद्धिक के रूप मंं रहकर इतिहास के स्थायी भाव हैं. 

अन्ना आंदोलन अब किरण बेदी, प्रशांत भूषण और अरविन्द केजरीवाल के चेहरों को चमकाने की वर्जिश बनकर रह गया है. ये तीनों खुद को अपनी महत्वकांक्षाओं के नागपाश में बंधा पाते होंगे. इन तीनों का सार्वजनिक जीवन सेवा और त्याग का नहीं रहा है. सूचना के अधिकार अधिनियम को लेकर केजरीवाल ने संघर्ष किया है लेकिन अरुणा रॉय ने तो उनसे कहीं ज़्यादा. उनकी पटरी आपस में क्यों नहीं बैठती है. 

प्रशांत भूषण जनहित याचिकाओं के जाने पहचाने वकील हैं लेकिन उनके वकील परिवार की आय के स्त्रोत बार-बार संदेह के घेरे में क्यों आते हैं. नोएडा में भूखंड लेने का मामला तो साफ पाक नहीं ही है. वैसे भी इस परिवार की इंदिरा गांधी के परिवार से राजनीतिक खुन्नस बहुप्रचारित है. 

किरण बेदी पुलिसिया जबान का इस्तेमाल करती एक मर्दाना अफसर ज़्यादा रही हैं. सभी सुविधाओं का लाभ उठाते हुए प्रशासन में नए प्रयोग करना एक अच्छी बात है लेकिन उससे प्रशासक का चेहरा जनसेवक का नहीं बनता. वरिष्ठता में नज़र अंदाज़ होने के कारण उन्होंने पूरी व्यवस्था को चुनौती देने के लिए अन्ना का सहारा लेकर खुद को एक लोकसेवक के रूप में तराशना शुरू किया. 

सिविल सोसायटी के जो सदस्य स्वयंसेवी संगठन चलाकर देश विदेश से करोड़ों रुपयों का चंदा ले सकते हैं, उन्हें जनआंदोलनों का भागीदार समझने में इतिहास को परहेज़ करना चाहिए. 

अन्ना आंदोलन देश की जनता के सपनों को एक तरफ करता हुआ राजनीतिक भड़ास निकालने का शोशा बनता जा रहा है. हिसार की लोकसभा सीट पर कांग्रेस तो वैसे ही फिसड्डी रही है. वहां अन्ना टीम में भाजपा की सांठगांठ से भजनलाल के बेटे को सहयोग किया तब भी वह चैटाला के बेटे से बड़ी मुश्किल से जीता. 

अन्ना एक दिन कहते हैं कि वे किसी पार्टी के खिलाफ प्रचार नहीं करेंगे. दूसरे दिन उनसे कहलाया जाता है कि यदि कांग्रेस ने लोकपाल बिल पास नहीं किया तो कांग्रेस की खुली खिलाफत की जाएगी. बीच-बीच में अन्ना यह भी कहते रहे कि यदि राहुल गांधी ने उनकी बातें मान लीं तो वे राहुल के साथ जनयात्राएं भी करेंगे. 

कोई अन्ना तिकड़ी से पूछे कि क्या चुनावों में वोट एक मुद्दे पर दिए जाते हैं और वह भी बिना किसी भूमिका, इतिहास या जड़ से पैदा हुए अन्ना-वृक्ष पर चढ़ी अमरबेलों के कारण? क्या लोकतंत्र में ऐसे सामयिक मुद्दों को उभारने वाले वाचाल प्रवक्ताओं को समाज विज्ञान का विशेषज्ञ समझा जा सकता है. 

दिग्विजय सिंह की केवल निंदा नहीं की जानी चाहिए. वे अन्ना आंदोलन के रथ का पहिया उठाए अभिमन्यु शैली में नहीं लड़ रहे हैं. दिग्विजय लगातार सैद्धान्तिक हमले कर रहे हैं. इसमें क्या छिपा हुआ है कि अन्ना का सक्रिय समर्थन संघ परिवार कर रहा है. लेकिन संघ परिवार कोई विदेशी शक्ति तो है नहीं. इसलिए उसका समर्थन यदि लिया जाता है तो वह देशद्रोह तो नहीं है. यही वजह है कि देश की तमाम वामपंथी ताकतें अन्ना आंदोलन के साथ नहीं हैं. 

इस देश के मतदाताओं का बहुमत समाजवाद और पंथ निरपेक्षता सहित वामपंथ की ओर झुका हुआ है. डॉ. मनमोहन सिंह की कृपा से देश में गरीब परिवार इतनी तेजी से बढ़ रहे हैं कि वामपंथ का भविष्य तो उज्जवल है. अन्ना को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि यदि केन्द्र में कोई लूली लंगड़ी गैर कांग्रेसी सरकार कई राजनीतिक पार्टियों की बैसाखी पर चढ़कर आ भी गई तो वह भी अन्ना टीम के जनलोकपाल ड्राफ्ट को पूरी तौर पर स्वीकार नहीं करेगी. अन्ना टीम के वरिष्ठ संविधान सलाहकार शांति भूषण क्या यह गारंटी ले सकते हैं कि यदि उनके पूरे ड्राफ्ट को यदि सरकार मान ले तो उस पर सुप्रीम कोर्ट स्थगन नहीं दे देगा. 

देश में सेवानिवृत्त नौकरशाहों, सेनाध्यक्षों, न्यायाधीशों और अन्य संविधानविदों की कमी नहीं है. उनकी एक विशेषज्ञ समिति बनाकर अन्ना टीम के नामचीन मझोले कद के नेताओं ने सलाह की ज़रूरत क्यों नहीं समझी. मंत्री, नौकरशाह और छोटे कर्मचारी घूस तो खाते हैं और उन्हें सज़ा भी मिलनी चाहिए लेकिन नीरा राडिया, रतन टाटा, अनिल अंबानी, बरखा दत्त, वीर सांघवी, चिदंबरम आदि नामों का क्या किया जाना चाहिए. देश की अमरीका से परमाणु संधि, वहशी निजीकरण और युवकों के भविष्य के लुटेरों के आर्थिक शोषकों को लेकर अन्ना टीम विचारशील क्यों नहीं है. वह केवल निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को खारिज करने और वापिस बुलाने के तिलिस्म से क्यों जूझ रही है? 

फ्रांस की क्रांति के अमर विचारकों वॉल्तेयर और रूसो ने जनता के जनतंत्र और प्रतिनिधिक जनतंत्र में फर्क किया था. अन्ना टीम की निगाह में संसद सार्वभौम नहीं है क्योंकि वह तो निश्चित ही हम भारत के लोग हैं. ऐसी स्थिति में अन्ना के सिपेहसालार भी सिविल सोसायटी नहीं हैं और जनता भी नहीं है. वह भी तो हम भारत के लोग हैं. 

अन्ना टीम का जनलोकपाल विधेयक निश्चित ही एक अच्छा दस्तावेज है, यदि उसमें से कुछ प्रावधान निकाल दिए जाएं. लेकिन क्या अन्ना टीम देश के सामने भ्रष्टाचार की परिभाषा के दायरे को विस्तृत करते हुए देश के अचानक पैदा हुए नव उद्योगपतियों, वैश्वीकरण, तथाकथित आर्थिक उदारवाद और इन सबसे पैदा हो रही विकृतियों का भंडाफोड़ करने का विचार साहस, जोखिम और प्रयोग करना चाहेगी? या वह देश के लाखों सरकारी कर्मचारियों को पकड़ लेने को अपने जीवन का उत्कर्ष मानेगी. स्त्रोत : http://raviwar.com/news/632_anna-hazare-and-team-anna-kanak-tiwari.shtml?utm_source=newsletter&utm_medium=email&utm_campaign=13112011

Wednesday, October 19, 2011

अन्ना हज़ारे और केजरीवाल तानाशाह: राजेंद्र सिंह

टीम अन्ना कोर कमेटी के सदस्य रहे मैगसेसे पुरस्कार विजेता राजेंद्र सिंह ने बीबीसी से बातचीत में अन्ना हज़ारे और अरविंद केजरीवाल को ‘तानाशाह’ बताया है और कहा है कि आंदोलन दलगत राजनीति की ग़लत दिशा में जा रहा है.

Tuesday, October 18, 2011

मैंने क़सम ली-मैं फासिस्ट राजनीति और उसके कारिंदों के खिलाफ कुछ नहीं लिखूंगा

शेष नारायण सिंह

प्रशांत भूषण की पिटाई के बाद इस देश की राजनीति ने करवट नहीं कई पल्थे खाए हैं . जिन लोगों को अपना मान कर प्रशांत भूषण क्रान्ति लाने चले थे उन्होंने उनकी विधिवत कुटम्मस की .टी वी पर उनकी हालत देख कर मैं भी डर गया हूँ . जिन लोगों ने प्रशांत जी की दुर्दशा की वही लोग तो पोर्टलों पर मेरे लेख पढ़कर गालियाँ लिखते हैं . लिखते हैं कि मेरे जैसे देशद्रोहियों को देश से निकाल दिया जाएगा. मार डाला जाएगा, काट डाला

Saturday, August 27, 2011

अन्ना ब्राह्मणवादी!

उन्हें अन्ना हजारे का रवैया बहुत गहरे तक ब्राह्मणवादी लगता है। शराब, तंबाकू यहां तक कि केबल टीवी पर वहां पाबंदी है। दलित परिवारों को भी शाकाहारी भोजन करने पर मजबूर किया जाता है। जो इन नियमों या आदेशों को तोड़ता है, उसे एक खंबे से बांधकर उसकी पिटाई की जाती है।

Saturday, August 20, 2011

मैं अन्ना हजारे क्यों नहीं हूँ!

मुझे अच्छी तरह से पता है कि लोकपाल प्रशासन की खामियों को दूर करने की कोई रामबाण दवा नहीं है।

दक्षिण मुंबई की एक गली में सूफी दरगाह के बाहर एक बैनर लगा है- ‘जो घूस देता है या लेता है, वह नरक में जाएगा।’ उस बैनर पर यह बात हदीस शरीफ के सूरा 786/92 के हवाले-से लिखी गई