कनक तिवारी
यह देश के लिए दुखद होगा कि जनलोकपाल आंदोलन को जन-पथ पर चलाते रहने के बदले उसे अंधी गलियों में भटकाया जा रहा है. मुख्य मुद्दा यही है कि भ्रष्टाचार के मुकाबले के लिए एक सशक्त लोकपाल कानून सर्वानुमति से बनाया जाए. भ्रष्टाचार मुट्ठी भर लोगों का यदि षड़यंत्र है तो देश के करोड़ों लोग उसके शिकार.
अन्ना हज़ारे का एक लंबा सार्वजनिक जीवन रहा है. वे महाराष्ट्र की सरहद में रहकर भ्रष्टाचार से बेलाग होकर लड़ते रहे हैं. उस वजह से कांग्रेस, भाजपा और शिवसेना वगैरह के नेताओं की अन्ना से अदावत रही है. यू.पी.ए. की सरकार के बड़े घोटालों के कारण देश भौचक हो गया है. इसके बाद अन्ना और उनकी टीम ने राष्ट्रीय आयाम और महत्व का बेहतर और सकारात्मक आंदोलन किया. अनिच्छुक केन्द्र सरकार को अन्ना के सामने झुकता दिखाया गया. लेकिन हकीकत यह है कि खुद अन्ना की टीम ने उनके अनशन के दौरान अपनी मांगों को इतना लचीला और छोटा बना दिया था कि उससे सहमत होने में सरकार को कोई दिक्कत नहीं हुई.
लातीनी अमरीकी देशों के बड़े क्रांतिकारी रेगी देब्रे ने कहा है कि क्रांति की गति वर्तुल या चक्रीय होती है. देब्रे का शायद यह आशय रहा होगा कि क्रांति अपने उफान के बाद अवसान की तरफ जाती भले दिखाई दे, वह दुबारा अपनी रीढ़ की हड्डी पर फिर खड़ी की जा सकती है.
इसी परिकल्पना को यदि क्षैतिज धरातल पर समझा जाए तो उसी तरह होगा जैसे शांत जल में एक पत्थर फेंक देने से गोल-गोल लहरें उठती हैं लेकिन वे धीरे-धीरे बड़ी होती जाती हैं. यह इतिहास का विपर्यय होगा, यदि भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना आंदोलन की दुर्गति हो जाए, क्योंकि इस आंदोलन को उसकी चक्रीय गति से वंचित होना पड़े.
आंदोलन के दो विरोधी साफ साफ नज़र आते हैं. एक तो केन्द्र सरकार के मंत्री और कांग्रेस के कुछ बड़बोले प्रवक्ता. लेकिन इसके साथ साथ अन्ना की टीम के चुनिंदा तीन चार बड़े सदस्य एक चंडाल चौकड़ी के रूप में भी उनके आलोचकों द्वारा सफलतापूर्वक प्रचारित किए जा रहे हैं.
मीडिया ने अन्ना के आंदोलन को बुलंदियों पर पहुंचाया था. अब मीडिया ही यह बता रहा है कि अरविन्द केजरीवाल एक खलनायक हैं. किरण बेदी झूठे यात्रा बिल बनाने का राष्ट्रीय कीर्तिमान बन गई हैं. जयप्रकाश और लोहिया भारत-पाक एकीकरण के स्वप्नशील प्रवक्ता थे. ठीक उसके विपरीत अन्ना टीम के वकील प्रशांत भूषण बकवास करते नज़र आए कि कश्मीर के लोगों को जनमत संग्रह का अधिकार होना चाहिए.
अन्ना इन सब मुद्दों को लेकर कोप भवन में कैकेयी की तरह मौन व्रत पर चले गए. अन्ना टीम के इन चतुर और वाचाल सिपाहियों ने उन्हें न केवल किसी तरह मना लिया बल्कि अपना दबाव कायम रखा है. एकता परिषद के राजगोपाल, मशहूर पानी विशेषज्ञ राजेन्द्र सिंह, जनलोकपाल प्रारूप समिति के सदस्य न्यायमूर्ति संतोष हेगड़े, प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर, अन्ना टीम के सदस्य कुमार विश्वास और पहले टीम में रहे स्वामी अग्निवेश के बाद अन्ना के ब्लॉगर रहे पुरुलेकर ने भी किनाराकशी कर ली है. अग्निवेश को छोड़कर बाकी के असंतोष की मुनासिब वजहें हैं.
यह साफ है कि अन्ना गांधीवादी नहीं हैं. उनकी वेशभूषा ग्रामीण बनावट, सहज लहज़ा और सपाटबयानी उनमें गांधी के युग की याद दिलाते हैं. गांधी लेकिन बीच-बीच में वीर शिवाजी की ज़रूरत आज़ादी के आंदोलन में महसूस नहीं करते थे जो अन्ना करते हैं.
इतिहास ने अन्ना को एक लोकप्रिय आंदोलन का विनम्रतापूर्वक नेतृत्व करने का अवसर दिया है. अन्ना टीम के सदस्य उसे एक युग प्रर्वतक का अवतार समझते हैं जो निहायत गलत है. गांधी को अपने राजनीतिक शत्रुओं अर्थात अंगरेजों तक से नफरत नहीं थी. वे अंगरेज़ियत के खिलाफ थे और अंगरेज़ों द्वारा हिन्दुस्तान पर थोपी गई सड़ी गली राजनीतिक, प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था के. अन्ना के समर्थकों को गांधी की सैद्धान्तिक समझ कहां है. वे संविधान की मौजूदा व्यवस्थाओं के अंदर कुछ पैबंद लगाने को गांधी विचार के वस्त्र बनाना समझते हैं. यह देश और अन्ना का दुर्भाग्य है कि अन्ना विचारक और बुद्धिजीवी नहीं हैं. जो लोग आज़ादी की लड़ाई में जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना आजा़द और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद वगैरह की बुद्धि के कायल थे, वे अब आश्वस्त हैं कि महात्मा गांधी केवल योद्धा नहीं थे. वे ही सबसे बड़े असाधारण बौद्धिक के रूप मंं रहकर इतिहास के स्थायी भाव हैं.
अन्ना आंदोलन अब किरण बेदी, प्रशांत भूषण और अरविन्द केजरीवाल के चेहरों को चमकाने की वर्जिश बनकर रह गया है. ये तीनों खुद को अपनी महत्वकांक्षाओं के नागपाश में बंधा पाते होंगे. इन तीनों का सार्वजनिक जीवन सेवा और त्याग का नहीं रहा है. सूचना के अधिकार अधिनियम को लेकर केजरीवाल ने संघर्ष किया है लेकिन अरुणा रॉय ने तो उनसे कहीं ज़्यादा. उनकी पटरी आपस में क्यों नहीं बैठती है.
प्रशांत भूषण जनहित याचिकाओं के जाने पहचाने वकील हैं लेकिन उनके वकील परिवार की आय के स्त्रोत बार-बार संदेह के घेरे में क्यों आते हैं. नोएडा में भूखंड लेने का मामला तो साफ पाक नहीं ही है. वैसे भी इस परिवार की इंदिरा गांधी के परिवार से राजनीतिक खुन्नस बहुप्रचारित है.
किरण बेदी पुलिसिया जबान का इस्तेमाल करती एक मर्दाना अफसर ज़्यादा रही हैं. सभी सुविधाओं का लाभ उठाते हुए प्रशासन में नए प्रयोग करना एक अच्छी बात है लेकिन उससे प्रशासक का चेहरा जनसेवक का नहीं बनता. वरिष्ठता में नज़र अंदाज़ होने के कारण उन्होंने पूरी व्यवस्था को चुनौती देने के लिए अन्ना का सहारा लेकर खुद को एक लोकसेवक के रूप में तराशना शुरू किया.
सिविल सोसायटी के जो सदस्य स्वयंसेवी संगठन चलाकर देश विदेश से करोड़ों रुपयों का चंदा ले सकते हैं, उन्हें जनआंदोलनों का भागीदार समझने में इतिहास को परहेज़ करना चाहिए.
अन्ना आंदोलन देश की जनता के सपनों को एक तरफ करता हुआ राजनीतिक भड़ास निकालने का शोशा बनता जा रहा है. हिसार की लोकसभा सीट पर कांग्रेस तो वैसे ही फिसड्डी रही है. वहां अन्ना टीम में भाजपा की सांठगांठ से भजनलाल के बेटे को सहयोग किया तब भी वह चैटाला के बेटे से बड़ी मुश्किल से जीता.
अन्ना एक दिन कहते हैं कि वे किसी पार्टी के खिलाफ प्रचार नहीं करेंगे. दूसरे दिन उनसे कहलाया जाता है कि यदि कांग्रेस ने लोकपाल बिल पास नहीं किया तो कांग्रेस की खुली खिलाफत की जाएगी. बीच-बीच में अन्ना यह भी कहते रहे कि यदि राहुल गांधी ने उनकी बातें मान लीं तो वे राहुल के साथ जनयात्राएं भी करेंगे.
कोई अन्ना तिकड़ी से पूछे कि क्या चुनावों में वोट एक मुद्दे पर दिए जाते हैं और वह भी बिना किसी भूमिका, इतिहास या जड़ से पैदा हुए अन्ना-वृक्ष पर चढ़ी अमरबेलों के कारण? क्या लोकतंत्र में ऐसे सामयिक मुद्दों को उभारने वाले वाचाल प्रवक्ताओं को समाज विज्ञान का विशेषज्ञ समझा जा सकता है.
दिग्विजय सिंह की केवल निंदा नहीं की जानी चाहिए. वे अन्ना आंदोलन के रथ का पहिया उठाए अभिमन्यु शैली में नहीं लड़ रहे हैं. दिग्विजय लगातार सैद्धान्तिक हमले कर रहे हैं. इसमें क्या छिपा हुआ है कि अन्ना का सक्रिय समर्थन संघ परिवार कर रहा है. लेकिन संघ परिवार कोई विदेशी शक्ति तो है नहीं. इसलिए उसका समर्थन यदि लिया जाता है तो वह देशद्रोह तो नहीं है. यही वजह है कि देश की तमाम वामपंथी ताकतें अन्ना आंदोलन के साथ नहीं हैं.
इस देश के मतदाताओं का बहुमत समाजवाद और पंथ निरपेक्षता सहित वामपंथ की ओर झुका हुआ है. डॉ. मनमोहन सिंह की कृपा से देश में गरीब परिवार इतनी तेजी से बढ़ रहे हैं कि वामपंथ का भविष्य तो उज्जवल है. अन्ना को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि यदि केन्द्र में कोई लूली लंगड़ी गैर कांग्रेसी सरकार कई राजनीतिक पार्टियों की बैसाखी पर चढ़कर आ भी गई तो वह भी अन्ना टीम के जनलोकपाल ड्राफ्ट को पूरी तौर पर स्वीकार नहीं करेगी. अन्ना टीम के वरिष्ठ संविधान सलाहकार शांति भूषण क्या यह गारंटी ले सकते हैं कि यदि उनके पूरे ड्राफ्ट को यदि सरकार मान ले तो उस पर सुप्रीम कोर्ट स्थगन नहीं दे देगा.
देश में सेवानिवृत्त नौकरशाहों, सेनाध्यक्षों, न्यायाधीशों और अन्य संविधानविदों की कमी नहीं है. उनकी एक विशेषज्ञ समिति बनाकर अन्ना टीम के नामचीन मझोले कद के नेताओं ने सलाह की ज़रूरत क्यों नहीं समझी. मंत्री, नौकरशाह और छोटे कर्मचारी घूस तो खाते हैं और उन्हें सज़ा भी मिलनी चाहिए लेकिन नीरा राडिया, रतन टाटा, अनिल अंबानी, बरखा दत्त, वीर सांघवी, चिदंबरम आदि नामों का क्या किया जाना चाहिए. देश की अमरीका से परमाणु संधि, वहशी निजीकरण और युवकों के भविष्य के लुटेरों के आर्थिक शोषकों को लेकर अन्ना टीम विचारशील क्यों नहीं है. वह केवल निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को खारिज करने और वापिस बुलाने के तिलिस्म से क्यों जूझ रही है?
फ्रांस की क्रांति के अमर विचारकों वॉल्तेयर और रूसो ने जनता के जनतंत्र और प्रतिनिधिक जनतंत्र में फर्क किया था. अन्ना टीम की निगाह में संसद सार्वभौम नहीं है क्योंकि वह तो निश्चित ही हम भारत के लोग हैं. ऐसी स्थिति में अन्ना के सिपेहसालार भी सिविल सोसायटी नहीं हैं और जनता भी नहीं है. वह भी तो हम भारत के लोग हैं.
अन्ना टीम का जनलोकपाल विधेयक निश्चित ही एक अच्छा दस्तावेज है, यदि उसमें से कुछ प्रावधान निकाल दिए जाएं. लेकिन क्या अन्ना टीम देश के सामने भ्रष्टाचार की परिभाषा के दायरे को विस्तृत करते हुए देश के अचानक पैदा हुए नव उद्योगपतियों, वैश्वीकरण, तथाकथित आर्थिक उदारवाद और इन सबसे पैदा हो रही विकृतियों का भंडाफोड़ करने का विचार साहस, जोखिम और प्रयोग करना चाहेगी? या वह देश के लाखों सरकारी कर्मचारियों को पकड़ लेने को अपने जीवन का उत्कर्ष मानेगी. स्त्रोत : http://raviwar.com/news/632_anna-hazare-and-team-anna-kanak-tiwari.shtml?utm_source=newsletter&utm_medium=email&utm_campaign=13112011
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