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Monday, April 11, 2016

वंचितों पर जिन्दा वंचित वर्ग विरोधी पत्रिका का संघ की सह पर आरक्षण विरोधी अभियान जारी

वंचितों पर जिन्दा वंचित वर्ग विरोधी पत्रिका का
संघ की सह पर आरक्षण विरोधी अभियान जारी
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लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश' 
एक तरफ तो राजनैतिक लाभ उठाने के लिये बकवास@ वर्ग द्वारा देशभर में बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेड़कर की 125वीं जयन्ति मनाने का षड़यंत्रपूर्ण नाटक खेला जा रहा है। जिसकी छद्म और छलपूर्ण खबरें मीडिया में छायी हुई हैं। वहीं दूसरी और वंचित मोस्ट@ वर्ग की ओर से बाबा साहब की जयन्ति मनाने की वास्तविक और देश को जगाने वाली खबरों को बकवासवर्गी मीडिया द्वारा जानबूझकर दबाया जा रहा है। तीसरी ओर बकवासवर्गी मीडिया की ओर से देश के लोगों को लगातार गुमराह करके आरक्षण के विषय पर भड़काया जा रहा है। इस सबके कारण सामाजिक न्याय विषय पर अनारक्षित वर्ग के संविधान के प्रावधानों और आरक्षण व्यवस्था से अनजान युवा लोगों की अज्ञानता को बढावा देकर, रुग्ण मानसिकता को हवा दी जा रही है।

इसी क्रम में राजस्थान पत्रिका के 11 अप्रेल, 2016 के जयपुर शहर संस्करण के सम्पादकीय पृष्ठ आठ आर्य पुत्र एसएन शुक्ला, (महासचिव—लोकप्रहरी) का लेख प्रकाशित किया गया है, जिसका शीर्षक है—'आरक्षण—जातिगत आधार से निकलकर सभी धर्मों के गरीबी रेखा से नीचे वाले लोगों को मिले लाभ अब आर्थिक आधार अपनाने का वक्त'। जिसमें मूल रूप से दो गलत, आपत्तिजनक, असंवैधानिक और भ्रामक बातें लिखी/प्रकाशिक की गयी हैं :—

पहली सुप्रीम कोर्ट के हवाले से कहा गया है कि पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया है कि ''आरक्षण केवल जातिगत आधार पर नहीं दिया जा सकता।'' जबकि इन आर्यपुत्र लेखक शुक्ला और आर्यपुत्र पत्रिका प्रकाशक गुलाबचन्द कोठारी को शायद अच्छी तरह से ज्ञान है कि संविधान में जातिगत आधार आरक्षण है ही नहीं और न केवल पिछले साल, बल्कि​ संविधान लागू होने के तत्काल बाद से सुप्रीम कोर्ट अनेकों बार इस बात को निर्णीत कर चुका है कि आरक्षण जातिगत आधार पर नहीं दिया जा सकता। क्योंकि आरक्षण जातियों को नहीं, बल्कि जातियों के समूह अर्थात् समाज के वंचित वर्गों को प्रदान किया गया है। आरक्षण के लिये सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ी एक समान जातियों को वर्गीकरण करके मिलते-जुलते वर्गों में बांटकर आरक्षण प्रदान किया गया है। जिसकी संवैधानिकता की पुष्टि करते हुए पश्चिम बंगाल बनाम अनवर अली सरकार, एआईआर 1952 एसएसी 75, 88 में सुप्रीम कोर्ट ने साफ शब्दों में कहा है कि
''चूंकि जब तक कानून उन सबके लिये, जो किसी एक वर्ग के हों, एक जैसा व्यवहार करता है, तब तक समान संरक्षण के नियम का अतिक्रमण नहीं होता, (अनुच्छेद 14 समान संरक्षण की बात कहता है) इसलिये व्यक्तियों का तथा जिनकी स्थितियां सारभूत रूप से एक जैसी हों उन्हें एक ही प्रकार की विधि के नियमों के अधीन (आरक्षण प्रदान करके) रखने का असंंदिग्ध अधिकार विधायिका को प्राप्त है।''
डॉ. प्रद्युम्न कुमार त्रिपाठी द्वारा लिखित ग्रंथ 'भारतीय संविधान के प्रमुख तत्व' के पृष्ठ 277 को आर्यपुत्र लेखक शुक्ला, पत्रिका प्रकाशक कोठारी और उन जैसे पूर्वाग्रही एवं रुग्ण मानसिकता के लोगों को निम्न पंक्तियों को समझना चाहिये। जिसमें स्पष्ट शब्दों में लिखा गया है कि—
समानता के मूल अधिकार का संवैधानिक प्रावधान करने वाला ''अनुच्छेद 14 विभेद की मनाही नहीं करता, वह केवल कुटिल विभेद की मनाही करता है, वर्गीकरण की मनाही नहीं करता, प्रतिकूल वर्गीकरण की मनाही करता है।'' इस प्रकार आरक्षण जातिगत नहीं है। अत: यह जाति आधारित विभेद नहीं है, बल्कि जाति आधारित कुटिल विभेद मिटाने के लिये वंचित जातियों के लोगों का न्यायसंगत वर्गीकरण है।
पत्रिका में प्रकाशित उक्त लेख में आर्य—पुत्र लेखक शुक्ला और प्रकाशक कोठारी ने समाज में वैमनस्यता फैलाने वाली दूसरी बात लिखी है कि—'मण्डल आयोग के बाद प्रशासनिक दक्षता नीचे गयी।'' इन दोनों आर्य पुत्रों को क्या यह ज्ञात नहीं है कि मण्डल आयोग की सिफारिशों के आधार पर करीब 55 फीसदी ओबीसी आबादी को बकवासवर्गी सरकारों ने मात्र 27 फीसदी आरक्षण ही प्रदान किया था और अभी तक नीति—नियन्ता प्रशासनिक पदों पर ओबीसी को एक फीसदी भी आरक्षण नहीं मिला है? अजा एवं अजजा को साढे बाईस फीसदी आरक्षण के होते हुए प्रथम श्रेणी प्रशासनिक पदों पर पांच फीसदी भी प्रतिनिधत्व नहीं हैं और नीति—नियन्ता पदों पर प्रतिनिधित्व शून्य है।

ऐसे में प्रशासनिक दक्षता गिरने के लिये आरक्षण व्यवस्था को दोषी ठहराना सार्वजनिक रूप से सम्पूर्ण समाज को गुमराह करने का गम्भीर अपराध है। जिसके लिये ऐसे दुराग्रही लेखक औ प्रकाशक के विरुद्ध सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने, लोगों को संविधान के विरुद्ध उकसाने, वंचित वर्गों के संवैधानिक हकों को छीनने और देशद्रोह का मुकदमा चलाया जाना चाहिये। मगर दु:ख है कि वंचित वर्ग के लोग ऐसे मामलों में चुप्पी साधे बैठे रहते हैं और वंचित वर्ग के संवैधानिक राजनैतिक तथा प्रशासनिक प्रतिनिधि बकवास वर्ग की गुलामी करने में मस्त रहते हैं। जिसका दुखद दुष्परिणाम है—शुक्ला और कोठारी जैसों द्वारा खुलकर संविधान की अवमानना करने वाले लेख लिखकर प्रकाशित करना और समाज को गुमराह करते रहना।
शब्दार्थ :
@बकवास (BKVaS= Brahman + Kshatriy+ Vaishay + Sanghi)
@मोस्ट (MOST=Minority+OBC+SC+Tribals)/ 
- : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
9875066111/03-04-2016/09.02 AM
@—लेखक का संक्षिप्त परिचय : मूलवासी-आदिवासी अर्थात रियल ऑनर ऑफ़ इण्डिया। होम्योपैथ चिकित्सक और दाम्पत्य विवाद सलाहकार। राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (BAAS), नेशनल चैयरमैन-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एन्ड रॉयटर्स वेलफेयर एसोसिएशन (JMWA), पूर्व संपादक-प्रेसपालिका (हिंदी पाक्षिक) और पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा एवं अजजा संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ।
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Monday, April 13, 2015

एनसीआरटी की स्थापना से आज तक अजा/अजजा के कर्मचारियों के साथ भेदभाव जारी कार्यवाही हेतु हक रक्षक दल के प्रमुख ने प्रधानमंत्री और मानव संसाधन मंत्री को लिखा पत्र

एनसीआरटी की स्थापना से आज तक अजा/अजजा के कर्मचारियों के साथ भेदभाव जारी
कार्यवाही हेतु हक रक्षक दल के प्रमुख ने प्रधानमंत्री और मानव संसाधन मंत्री को लिखा पत्र
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जयपुर। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) में अजा/अजजा के कर्मचारियों के मौलिक अधिकारों का हनन, अत्याचार, भेदभाव और मनमानी के विरुद्ध दण्डात्मक कार्यवाही करने के सम्बन्ध में हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन के राष्ट्रीय प्रमुख डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ने प्रधानमंत्री, भारत सरकार, नयी दिल्ली और मानव संसाधन मंत्री भारत सरकार, नयी दिल्ली को पत्र लिखकर मांग की है कि अजा एवं अजजा वर्गों के कर्मचारियों को जानबूझकर क्षति पहुंचाने वाले गैर अजा/अजजा प्रशासकों के खिलाफ कठोर दंडात्मक कार्यवाही की जावे और अभियान चलाकर अजा एवं अजजा वर्गों के कर्मचारियों को पदोन्नतियां प्रदान की जावें।
पत्र में डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ने लिखा है कि हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन के राष्ट्रीय प्रमुख डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ने प्रधानमंत्री, भारत सरकार, नयी दिल्ली और मानव संसा को प्राप्त जानकारी के अनुसार-भारत सरकार के मानव संसाधन विभाग के अधीन संचालित राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद में इसकी स्थापना से आज तक अजा एवं अजजा के कर्मचारियों को संविधान में निर्धारित प्रावधानों और सरकारी नीति तथा प्रक्रियानुसार पदोन्नति में आरक्षण प्रदान करने के लिये विधिवत रोस्टर बनाकर लागू नहीं किया गया है। रोस्टर में जानबूझकर विसंगतियॉं छोड़ने वाले कर्मचारियों को अनारक्षित वर्ग के उच्चाधिकारियों का दुराशयपूर्ण संरक्षण प्राप्त है। अजा एवं अजजा वर्गों के कर्मचारियों के उच्च श्रेणी में पद रिक्ति होने के वर्षों बाद तक डीपीसी का गठन नहीं किया जाता है। यही नहीं अजा एवं अजजा वर्गों के कर्मचारियों की पदोन्नति की पात्रता में किसी भी प्रकार की छूट का नियम लागू नहीं किया गया है। जबकि भारत सरकार की सभी मंत्रालयों में इस प्रकार की छूट के स्पष्ट प्रावधान लागू हैं।

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ने आगे लिखा है कि इस प्रकार उपरोक्त कारणों से राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद की स्थापना से आज तक अनारक्षित वर्ग के उच्च पदस्थ प्रशासकों द्वारा निम्न से उच्च पदों पर अजा एवं अजजा के कर्मचारियों की पदोन्नति दुराशयपर्वक बाधित की जाती रही हैं और इस कारण राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद की स्थापना से आज तक उच्चतम पदों पर अजा एवं अजजा वर्गों का संविधान के अनुच्छेद 16 (4) के अनुसार पर्याप्त और निर्धारित प्रतिनिधित्व सम्भव नहीं हो पाया है। जिसके चलते अजा एवं अजजा के निम्न स्तर के कर्मचारियों का संरक्षण और उनका उत्थान असंसभव हो चुका है। परिषद के उच्च पदस्थ गैर-अजा एवं अजजा वर्ग के प्रशासकों का यह कृत्य अजा एवं अजजा अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 की धारा 3 (1) (9) के तहत दण्डनीय अपराध की श्रेणी में आता है।

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ने उपरोक्त तथ्यों से अवगत करवाकर प्रधानमंत्री और मानव संसाधन मंत्री  से आग्रह है कि-

1. अजा एवं अजजा वर्गों के कर्मचारियों को पदोन्नति की क्षति पहुँचाने वाले गैर-अजा एवं अजजा वर्गों के उपरोक्तानुसार लिप्त रहे सभी प्रशासकों के विरुद्ध अजा एवं अजजा अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 की धारा 3 (1) (9) के तहत आपराधिक मुकदम दर्ज करवाकर उन्हें कारवास की सजा दिलवाई जावे और साथ ही साथ ऐसे प्रशासकों के विरुद्ध विभागीय सख्त अनुशासनिक कार्यवाही भी की जावे। जिससे भविष्य में अजा एवं अजजा वर्गों के हितों को नुकसान पहुँचाने की कोई गैर-अजा एवं अजजा वर्गों का प्रशासक हिम्मत नहीं जुटा सके।
2. राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद की स्थापना से आज तक अजा एवं अजजा वर्गों को हुए नुकसान की भरपाई करने के लिये किसी बाहरी स्वतन्त्र और निष्पक्ष ऐजेंसी से सभी पदों का सही रोस्टर बनवाया जावे और भारत सरकार की नीति के अनुसार पदोन्नति पात्रता में शिथिलता प्रदान करते हुए अजा एवं अजजा वर्गों के समस्त रिक्त पदों को अभियान चलाकर तुरन्त प्रभाव से भरवाये जाने के आदेश प्रदान किये जावें।
पत्र के अंत में डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ने लिखा है की पत्र पर की जाने वाली कार्यवाही सेहक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन को अवगत करवाने का कष्ट करें।

(डॉ. पुरुषोत्तम मीणा)
राष्ट्रीय प्रमुख
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लिखा गया पात्र  ----------------------------------------------------------------------------
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प्रेषक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा, राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन 
राष्ट्रीय कार्यालय : 7, तंवर कॉलोनी, खातीपुरा रोड, जयपुर-302006 (राजस्थान)
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पत्रांक : /भारत सरकार/पत्र/2 दिनांक : 13.04.2015
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प्रतिष्ठा में :
प्रधानमंत्री, भारत सरकार, नयी दिल्ली।
शिक्षामंत्री, भारत सरकार, नयी दिल्ली।

विषय : राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) में अजा/अजजा के कर्मचारियों के मौलिक अधिकारों का हनन, अत्याचार, भेदभाव और मनमानी के विरुद्ध दण्डात्मक कार्यवाही करने के सम्बन्ध में।
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इस संगठन को प्राप्त जानकारी के अनुसार-

भारत सरकार के मानव संसाधन विभाग के अधीन संचालित राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद में इसकी स्थापना से आज तक अजा एवं अजजा के कर्मचारियों को संविधान में निर्धारित प्रावधानों और सरकारी नीति तथा प्रक्रियानुसार पदोन्नति में आरक्षण प्रदान करने के लिये विधिवत रोस्टर बनाकर लागू नहीं किया गया है। रोस्टर में जानबूझकर विसंगतियॉं छोड़ने वाले कर्मचारियों को अनारक्षित वर्ग के उच्चाधिकारियों का दुराशयपूर्ण संरक्षण प्राप्त है। अजा एवं अजजा वर्गों के कर्मचारियों के उच्च श्रेणी में पद रिक्ति होने के वर्षों बाद तक डीपीसी का गठन नहीं किया जाता है। यही नहीं अजा एवं अजजा वर्गों के कर्मचारियों की पदोन्नति की पात्रता में किसी भी प्रकार की छूट का नियम लागू नहीं किया गया है। जबकि भारत सरकार की सभी मंत्रालयों में इस प्रकार की छूट के स्पष्ट प्रावधान लागू हैं।

इस प्रकार उपरोक्त कारणों से राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद की स्थापना से आज तक अनारक्षित वर्ग के उच्च पदस्थ प्रशासकों द्वारा निम्न से उच्च पदों पर अजा एवं अजजा के कर्मचारियों की पदोन्नति दुराशयपर्वक बाधित की जाती रही हैं और इस कारण राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद की स्थापना से आज तक उच्चतम पदों पर अजा एवं अजजा वर्गों का संविधान के अनुच्छेद 16 (4) के अनुसार पर्याप्त और निर्धारित प्रतिनिधित्व सम्भव नहीं हो पाया है। जिसके चलते अजा एवं अजजा के निम्न स्तर के कर्मचारियों का संरक्षण और उनका उत्थान असंसभव हो चुका है। परिषद के उच्च पदस्थ गैर-अजा एवं अजजा वर्ग के प्रशासकों का यह कृत्य अजा एवं अजजा अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 की धारा 3 (1) (9) के तहत दण्डनीय अपराध की श्रेणी में आता है।

अत: आपको उपरोक्त तथ्यों से अवगत करवाकर आग्रह है कि-

  • 1. अजा एवं अजजा वर्गों के कर्मचारियों को पदोन्नति की क्षति पहुँचाने वाले गैर-अजा एवं अजजा वर्गों के उपरोक्तानुसार लिप्त रहे सभी प्रशासकों के विरुद्ध अजा एवं अजजा अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 की धारा 3 (1) (9) के तहत आपराधिक मुकदम दर्ज करवाकर उन्हें कारवास की सजा दिलवाई जावे और साथ ही साथ ऐसे प्रशासकों के विरुद्ध विभागीय सख्त अनुशासनिक कार्यवाही भी की जावे। जिससे भविष्य में अजा एवं अजजा वर्गों के हितों को नुकसान पहुँचाने की कोई गैर-अजा एवं अजजा वर्गों का प्रशासक हिम्मत नहीं जुटा सके।
  • 2. राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद की स्थापना से आज तक अजा एवं अजजा वर्गों को हुए नुकसान की भरपाई करने के लिये किसी बाहरी स्वतन्त्र और निष्पक्ष ऐजेंसी से सभी पदों का सही रोस्टर बनवाया जावे और भारत सरकार की नीति के अनुसार पदोन्नति पात्रता में शिथिलता प्रदान करते हुए अजा एवं अजजा वर्गों के समस्त रिक्त पदों को अभियान चलाकर तुरन्त प्रभाव से भरवाये जाने के आदेश प्रदान किये जावें।
  • 3. उक्त पत्र पर की जाने वाली कार्यवाही से इस संगठन को अवगत करवाने का कष्ट करें।

भवदीय 
(डॉ. पुरुषोत्तम मीणा)
राष्ट्रीय प्रमुख

Tuesday, April 7, 2015

माधुरी पाटिल केस के दुष्प्रभाव को काम करने हेतु छह घंटे में विधेयक बनकर दोनों सदनों में पारित

माधुरी पाटिल केस की सिफारिशों के चलते-
"एक भाई सामान्य और दूसरा भाई जनजाति"
लेकिन फिर भी मीणाओं के कथित महानायकों द्वारा इसे राजस्थान में लागू
करवाया जा रहा है और महाराष्ट्र में इसके खिलाफ 6 घंटे में विधेयक पारित!
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हक़ रक्षक दल बहुत पहले से ही आगाह करता आ रहा है कि करीब तीन दशक पहले से मनुवादियों द्वारा न्यायपालिका के मार्फ़त माधुरी पाटिल केस की सिफारिशों को लागू करके अजा, अजजा और ओबीसी के आरक्षित अस्तित्व को समाप्त किया जाने का सुनियोजित षड्यंत्र रचा गया था। लेकिन इससे भी दुखद बात तो यह है कि इस माधुरी पाटिल केस की असंवैधानिक सिफारिशों को लागू करवाने के लिए खुद मीणाओं के कथित महानायकों (क़ानून के कथित महा विद्वानों) की और से राजस्थान हाई कोर्ट में याचिका दायर की गयी और मीणा-मीना विवाद के समाधान के नाम पर एकत्रित धन को इस असंवैधानिक निर्णय को लागू करवाने के लिए खर्च किया गया। सबसे दुखद तो यह है कि जो हाई कोर्ट राज्य सरकार की इस बात को तो सुनने को तैयार नहीं कि मीना और मीणा (Mina/Meena) में केवल स्पेलिंग का अंतर है, अन्यथा दोनों जाति एक ही हैं। वही हाई कोर्ट माधुरी पाटिल केस की अन्यायपूर्ण सिफारिशों को लागू करने हेतु दायर याचिका को तुरंत स्वीकार कर चुका है। राज्य सरकार अब माधुरी पाटिल केस की असंवैधानिक सिफारिशों के क्रियान्वयन के लिए कानूनी सिस्टम बनाने में लगी हुई है। जिसके लागू होने पर वो होगा जो महाराष्ट्र में हो रहा है-अर्थात

"एक भाई सामान्य और दूसरा भाई जनजाति"

माधुरी पाटिल केस के लागू होने के कारण महाराष्ट्र में डेढ़ लाख जाति पड़ताल की अर्जियां पेंडिंग हैं। जिसके चलते लोग चुनाव नहीं लड़ पाते हैं, आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों के नियुक्ति/नौकरी आवेदन निरस्त हो जाते हैं। इसी कारण से राजनैतिक जनप्रतिनिधियों के चुनाव लड़ने में बाधक माधुरी पाटिल केस की सिफारिशों से राजनेताओं को मुक्ति दिलाने के लिए महाराष्ट्र विधान मंडल के दोनों सदनों ने छह घंटे में विधेयक पारित किया। आप भी पढ़ें :-

माधुरी पाटिल केस के दुष्प्रभाव को काम करने हेतु
छह घंटे में विधेयक बनकर दोनों सदनों में पारित
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अनुराग त्रिपाठी, मुंबई
महाराष्ट्र विधानमंडल के इतिहास में शायद ही इस तरह का घटना हुई होगी। दोपहर 12 बजे राज्य सरकार ने तय किया कि उसे जाति पड़ताल से चुनाव लड़ने वालों को राहत देनी है। आरक्षित सीटों पर चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार जाति सर्टिफिकेट चुनाव जीतने के छह महीने बाद जमा करवा सकेंगे। विधानसभा और विधानपरिषद की दिन भर की 'कार्यक्रम पत्रिका' में इसका कोई जिक्र तक नहीं था। विधायकों को दोपहर तक इसकी भनक तक नहीं लगी थी।
दोपहर से बनना शुरू हुआ विधेयक
सरकार के स्तर पर फैसला हुआ और अधिकारियों की फौज इसके लिए विधेयक बनाने में जुट गई। विधानसभा और विधानपरिषद, दोनों सदनों का राजनीतिक वातावरण तपा हुआ था। परिषद तो दोपहर से भूमि अधिग्रहण पर सरकारी अधिसूचना को लेकर आठ बार स्थगित हो चुकी थी। यहां सभी पक्षों को मंजूर हो सके, ऐसा विधेयक तैयार करके उसे दोनों सदनों में पारित करवाना था।
ड़ेढ लाख अर्जियां पेंडिंग हैं
जाति पड़ताल की शर्त रखे जाने की स्थिति को नजरअंदाज करना मुमकिन नहीं था। हुआ यूं था कि स्थानीय निकाय में आरक्षित सीटों पर चुनाव लड़ने वाले सैंकड़ों मामलों में जाति सर्टिफिकेट फर्जी पाए गए। इसके बाद पिछली कांग्रेस-एनसीपी सरकार ने हर सर्टिफिकेट की पड़ताल के लिए उच्चस्तरीय समिति बना दी थी। समिति का काम इतनी धीमी गति से चल रहा था कि महाराष्ट्र भर में डेढ़ लाख जाति पड़ताल की अर्जियां पेंडिंग हैं। सभी राजनीतिक दलों को इससे परेशानी हो रही थी।
कई बार बदला गया ड्राफ्ट
आनन-फानन में नए विधेयक का ड्राफ्ट बना। शुरुआत में तय हुआ कि महानगरपालिकाओं में यह सुविधा लागू की जाए। फिर बाकी नगरपालिकाओं में इसकी सुविधा क्यों न दी जाए, यह सवाल उठा, तो एक बार फिर ड्राफ्ट बदला गया। होते-होते यह तय हुआ कि जिला परिषदों और पंचायतों को यह सुविधा क्यों न दी जाए। शाम होते-होते कई प्रारूप बदले जाने के बाद विधेयक बनकर तैयार हुआ।
हंगामें में विधेयक पारित
विधानसभा में संसदीय कार्य मंत्री गिरीश बापट ने सदन को बताया कि विधानपरिषद में विधेयक पर चर्चा हो रही है। जबकि परिषद में हंगामा कायम रहा और विधानसभा विधेयक पारित करके दिन भर के लिए स्थगित हो गई। तब तक चर्चा नहीं हो पाई। वरिष्ठ मंत्री एकनाथ खडसे ने विधेयक सदन में रखने का काफी प्रयास किया, मगर वे सफल नहीं सके। देर शाम शोरगुल और हंगामे के बीच बिना किसी चर्चा के विधानपरिषद में उपसभापति वसंत डावखरे ने विधेयक पारित होने की घोषणा की। विधेयक के लिए दिन भर जुटे पड़े मंत्री समूह और वरिष्ठ अधिकारियों के मुरझाए चेहरे खिल उठे। छह घंटे में विधेयक बनाकर उसे दोनों सदनों में पारित करने की बधाई एक-दूसरे देते हुए विधानभवन से हंसते-मुस्कुराते घरों को रवाना हुए।
क्या है नए विधेयक में
-महानगरपालिका, नगरपालिका, जिला परिषद और पंचायतों की आरक्षित सीटों पर चुने जनप्रतिनिधियों को रियायत
-चुनाव जीतने के छह महीने बाद जाति पड़ताल सर्टिफिकेट जमा कराने की छूट
-यह रियायत 2017 तक के स्थानीय निकाय चुनावों तक लागू रहेगी।
'यह वास्तव में एक तरह का इतिहास रचा गया है। दोपहर 12 बजे से हम (अधिकारी) इस काम में जुटे हुए थे। विधेयक दोनों सदनों में पारित होने के बाद मन को संतोष हुआ।'
-मनीषा म्हैसकर
सचिव, नगर विकास
स्रोत : http://navbharattimes.indiatimes.com/…/article…/46829755.cms 

Wednesday, April 24, 2013

कुछ रोचक और महत्वपूर्ण ख़बरों तथा आलेखों के लिंक्स. (24 अप्रेल, 2013 को प्रकाशित)

केरल धमाके पर चुप्पी क्यों?-मामला आरएसएस से जुड़ा है, इसलिए मीडिया खामोश है...


अपना बिजली बिल जमा क्यों कर रही है टीम केजरीवाल ?


झाबुआ: राजनीतिक उत्पीडन में आदिवासी पर ही लगा मारा एस.टी. एक्ट

पुण्‍य प्रसून वाजपेयी ने कहा, ये मजदूर नहीं मवाली हैं!

बिना पेंदी के लोटा हुये लालू प्रसाद यादव !

Friday, February 1, 2013

देश का माहौल बिगाड़ने वाले तथाकथित बड़े लोग


"मनुवादी आशीष नन्दी कहते हैं कि भ्रष्टाचार के जनक अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लोक सेवक हैं। आशीष नन्दी को ये सब कहने का साहस इस कारण से हुआ कि कुछ ही दिन पूर्व प्रवीण तोगड़िया ने कहा कि यदि वह भारत का प्रधानमंत्री बन जाये तो मुसलमानों से सभी प्रकार के संवैधानिक हकों को एक झटके में छीन लेंगे। इस बयान पर देश के शूद्र, तथाकथित बुद्धिजीवी, संविधान के रक्षक चुप्पी साधे रहे। सभी जानते हैं कि देश के 90 फीसदी से अधिक मुसलमानों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जाति और अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल जातियों के पूर्वजों के वंशज हिन्दुओं से धर्मपरिवर्तित होकर मुसलमान बने हैं, जो मनुवादियों के लिये आज भी शूद्र ही हैं।"

डॉ पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

यदि हम इतिहास उठाकर देखें तो पायेंगे कि हर क्षेत्र में हर बार भारत का सौहार्द बिगाड़ने का काम भारत के तथाकथित बड़े कहलाने वाले लोगों ने ही किया है। इसकी शुरूआत कभी भी भारत के आम आदमी ने नहीं की है। चाहे बात अखण्ड भारत के स्वतन्त्रता सेनानी और पाकिस्तान के जनक मुहम्मत अली जिन्ना से शुरू की जाये या भारत के बहुसंख्यक शूद्रों (दलित, आदिवासियों और पिछड़ों) के सेपरेट इलेक्ट्रोल के अधिकार को छीनने के लिये अनशन को हथियार बनाने वाले मोहनदास कर्मचन्द गॉंधी की करें या अहिंसा के नाटककार पुजारी मो. क. गॉंधी के हत्यारे और कट्टरपंथी हिन्दू नाथूराम गोडसे की बात की जाये।

आगे चलकर अयोध्या-बाबरी विवाद को जानबूझकर भड़काने वाले लालकृष्ण आडवाणी की बात करें या कट्टर हिन्दुत्व को भड़काकर अपनी रोटी सेकने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के उत्पाद प्रवीण तोगड़िया, उमा भारती, विनय कटारिया, नरेन्द्र मोदी जैसे मुसलमान विरोधी लोगों की बात करें या शिव सेना के बाला साहेब ठाकरे, उद्धव ठाकरे, राज ठाकरे और उनके गुण्डों के कुकर्मों को देखें या फिर कथित बुद्धिजीवी कहलाने वाले समाज विज्ञानी और प्रोफेसर आशीष नन्दी की बात करें। स्त्री एवं शूद्र विरोधी ढोंगी संत आसाराम या हिंदुत्व के ठेकेदार संघ के मुखिया मोहन भागवत की बात करें। ये सब के सब इस देश के बहुसंख्यक लोगों (अर्थात शूद्रों), स्त्रियों और मुसलमानों को दूसरे, तीसरे और चौथे दर्जे का नागरिक मानते हैं। शूद्र, स्त्री एवं मुसलमानों को देश की कुल आबादी में से घटाने के बाद बचे शेष कुलीन मुनवादी लोग इस देश पर विगत हजारों सालों की भांति आगे भी हजारों सालों तक अपना अमानवीय राज कायम रखने के लिये तरह-तरह के पेंतरे चलते रहते हैं। जिसके लिये इन लोगों ने शूद्रों, स्त्रियों और मुसलमानों में से भी कुछ समाज-द्रोहियों को ललचाकर अपने मिला लिया है। जिन्हें दिखावटी तौर पर आगे रखकर ये सभी वर्गों के हितचिन्तक होने का ढोंग करते रहते हैं!

हिन्दुत्व के ये कथित संरक्षण अपनी संविधानेत्तर और कथित धार्मिक सत्ता और मनुवादी विचारधारा को हर कीमत पर कायम रखने के लिये अपनी खुद की गुण्डा-पुलिस रखते हैं। जो 14 फरवरी को वेलैटाइंस डे पर, मुम्बई से उत्तर भारतीयों को खदेड़ते समय, दलितों को मन्दिरों से लतियाते समय और स्त्रियों को धार्मिक आयोजनों पर बहिष्कृत करते हुए और छेड़ते समय अपना कमाल दिखाती रहती है। ये पुलिस देश में धर्म के नाम पर तरह-तरह के कुकर्म करती रहती है। जिसके सुफल गुजरात के डाण्डिया रास के बाद गर्भपात क्लीनिकों के आंकड़ों से प्रमाणित होते हैं। जिसे रोकने के लिये अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने तो बाकायदा डाण्डिया रास स्थलों के आसपास सरकारी खर्चे पर लाखों गर्भनिरोधक पिल्स और कण्डोम वितरित करवाकर इस बात को प्रमाणित किया था कि धार्मिक आयोजन कुलीन हिन्दुओं के लिये आज भी ऐश-ओ-आराम के सुअवसर होते हैं। आजाद भारत में जबकि देवदासी बनाने की अमानवीय हिन्दू प्रथा संवैधानिक तौर पर समाप्त हो चुकी है तो ऐसे धार्मिक कार्यक्रमों का भव्यता से आयोजन किया जाने लगा है, जिनमें युवा लड़कियां धर्म के नाम पर घर से बाहर निकलती हैं और उनके साथ मनुवादियों की स्व-घोषित पुलिस के कमाण्डर और पैदल सेना के लोग यौनसुख भोगने को उसी प्रकार से आजाद होते हैं, जैसे कि देवदासियों के साथ उनके पूर्वज हुआ करते थे। इसी का परिणाम है कि आज डाण्डिया रास गुजरात से निकलकर अनेक प्रान्तों में अपने पैर पसार चुका है!

इसके उपरान्त भी मनुवादी आशीष नन्दी कहते हैं कि भ्रष्टाचार के जनक अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लोक सेवक हैं। आशीष नन्दी को ये सब कहने का साहस इस कारण से हुआ कि कुछ ही दिन पूर्व प्रवीण तोगड़िया ने कहा कि यदि वह भारत का प्रधानमंत्री बन जाये तो मुसलमानों से सभी प्रकार के संवैधानिक हकों को एक झटके में छीन लेंगे। इस बयान पर देश के शूद्र, तथाकथित बुद्धिजीवी, संविधान के रक्षक चुप्पी साधे रहे। सभी जानते हैं कि देश के 90 फीसदी से अधिक मुसलमानों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जाति और अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल जातियों के पूर्वजों के वंशज हिन्दुओं से धर्मपरिवर्तित होकर मुसलमान बने हैं, जो मनुवादियों के लिये आज भी शूद्र ही हैं।

शूद्रों को अजा, अजजा, ओबीसी और मुसलमानों के नाम पर मनुवादी लगातार गालियॉं देते रहते हैं और शूद्र चुपचाप सब कुछ सहते और सुनते रहते हैं। यही कारण है कि शूद्र विरोधी भारतीय न्यायपालिका के कुछ जजों ने ऐसे निर्णय दिये हैं, जिनके कारण इस देश के सामाजिक माहौल को बिगाड़ने का काम किया है। इन निर्णयों से इस देश का माहौल मनुवाद को मजबूत करने में सहायक का काम कर रहा है। सभी जानते हैं कि शूद्रों को हजारों सालों तक भारत में मानव नहीं समझा गया। इसी वजह से उन्हें सरकारी क्षेत्र में प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिये आरक्षण प्रदान किया गया। जिसे अमलीजामा पहनाने के लिये संविधान के अनुच्छेद 16 (4) में साफ़ तौर पर प्रारम्भ से ही ये सुस्पष्ट व्यवस्था की गयी थी कि आरक्षण "नियुक्ति के समय" अर्थात् "नौकरी प्राप्त करते समय" और "पदों पर" अर्थात् "पदोन्नति के समय" दिया जायेगा। जिसकी मनुवादी विचारधारा के पोषक जजों ने बार-बार, मनुवादियों और आरक्षणविरोधियों के पक्ष में और संसद की भावना के विपरीत व्याख्या की गयी, जिसे संसद ने अनेक बार ख़ारिज किया और शूद्रों को आरक्षण के हक से वंचित करने के लिये अनेकों बार न्यायिक शक्ति की आड़ में सताया गया! ये सिलसिला अनवरत आज भी जारी है। इस प्रकार इस देश के सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और न्यायिक माहोल को बिगाड़ने में सबसे अधिक यदि किसी का योगदान है तो वे हैं शूद्र-विरोधी-मनुवादी तथाकथित बड़े-बुद्धिजीवी, राजनेता, धर्मनेता और जज|

Tuesday, February 28, 2012

आरक्षित उम्मीदवारों के मैरिट में चयन का औचित्य!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

कुछ समय पूर्व मैंने एक खबर पढी थी कि अजा, अजजा एवं अन्य पिछड़ा वर्ग के लिये आरक्षित उनंचास फीसदी आरक्षित कोटे के अलावा शेष बचे सामान्य वर्ग के इक्यावन फीसदी पदों पर अजा, अजजा एवं अन्य पिछड़ा वर्ग के तीस फीसदी प्रत्याशी मैरिट के आधार पर नियुक्त हो गये। इसे मीडिया द्वारा सामान्य वर्ग के हिस्से पर आरक्षित वर्गों का डाका बताकर प्रचारित किया गया। मीडिया के अनुसार सामान्य वर्ग के लोगों के लिये शेष बचे इक्यावन फीसदी का तीस फीसदी कोटा आरक्षित वर्ग द्वारा मैरिट के नाम पर हथिया लिया जाता है, जो अनुचित है। जिस पर रोक लगनी चाहिये। केवल इतना ही नहीं इस मामले में कुछ संगठनों की द्वारा औपचारिक रूप से विरोध भी जताया गया। जिसे आरक्षित वर्ग विरोधी मीडिया द्वारा बढाचढाकर प्रकाशित किया।

विरोध करने वालों के अपने-अपने तर्क हैं, जबकि मैरिट के आधार पर नियुक्ति पाने वाले अजा, अजजा एवं अन्य पिछड़ा वर्ग के मैरिट में स्थान प्राप्त करने वालों के पक्ष में संविधान और न्यायपालिका का पूर्ण समर्थन है। यही नहीं प्राकृतिक न्याय का सिद्धान्त भी उनके पक्ष में है, लेकिन इसके बाद भी सामान्य वर्ग के प्रत्याशियों की पीड़ा को भी नकारा नहीं जा सकता।

यह एक ऐसा विषय है, जिस पर निष्पक्ष रूप से विचार करके देखा जाये तो आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि अजा, अजजा एवं अन्य पिछड़ा वर्ग की कुल आबादी देश की कुल आबादी का पिच्यासी फीसदी बतायी जाती है, लेकिन पिच्यासी फीसदी आरक्षित वर्ग के लोगों को मात्र उनंचास फीसदी ही आरक्षण प्रदान किया जा रहा है। ऐसे में शेष अर्थात् छत्तीस फीसदी लोगों का सरकारी सेवाओं में आनुपातिक प्रतिनिधित्व किस प्रकार से सम्भव होगा? इस विषय पर संविधान की मूल भावना अर्थात् सामाजिक न्याय की अवधारणा के प्रकाश में निष्पक्षता पूर्वक विचार नहीं किये जाने के कारण ही ऐसी अप्रिय स्थिति निर्मित की जा रही हैं। जिसके लिये तथाकथित आरक्षण विरोधी राष्ट्रीय मीडिया भी कम दोषी नहीं है।

मीडिया द्वारा आरक्षण के मुद्दे पर आपवादिक अवसरों को छोड़कर अधिकतर केवल भावनात्मक बातों को ही बढावा दिया जाता है। जबकि पृथक निर्वाचक पद्धति की मंजूरी, पृथक निर्वाचक पद्धति का एम के गांधी द्वारा दुराशय पूर्वक विरोध और अन्तत: दबे-कुचले वर्गों के ऊपर पूना पैक्ट को थोपे जाने से लेकर के आज तक के सन्दर्भ में खुलकर चर्चा और विचार करने की सख्त जरूरत है। लेकिन अपने पूर्वाग्रहों से ग्रस्त भारत का मीडिया इन ऐतिहासिक और संवैधानिक मुद्दों को कभी भी निष्पक्षता से पेश नहीं करता है। जिसके चलते आरक्षित और अनारक्षित वर्गों के बीच में लगातार खाई बढती पैदा की जा रही है। जिससे समाज का माहौल लगातार खराब हो रहा है। इस बारे में तत्काल सकारत्मक कदम उठाये जाने की जरूरत है। विशेषकर मीडिया को अपना सामाजिक धर्म निभाना होगा।

इसके साथ-साथ भारत सरकार को भी इस बारे में नीतिगत निर्णय लेकर उसे कड़ाई से लागू करना होगा।वर्तमान में जारी जाति आधारित जनगणना के नतीजे इस विषय को हमेशा के लिये सुलझाने के लिये सरकार का मार्गप्रशस्त करेंगे। क्योंकि प्राप्त नतीजों से इस बात का तथ्यात्मक ज्ञान हो सकेगा कि अजा, अजजा एवं अन्य पिछड़ा वर्ग की ओर से अपनी जनसंख्या के बारे में किये जाने वाले दावों की सत्यता की पुष्टि हो सकेगी और सरकार को अजा, अजजा एवं अन्य पिछड़ा वर्ग की जनसंख्या के अनुपात में उन्हें सरकारी सेवाओं में प्रतिनिधित्व तथा शिक्षण संस्थानों में प्रवेश देने में किसी प्रकार की संवैधानिक या कानूनी अड़चन नहीं होगी। 

एक बार दबे-कुचले वर्गों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व प्रदान करना सुनिश्‍चित कर दिया गया तो फिर मैरिट के आधार पर अजा, अजजा एवं अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों की तथाकथित घुसपैठ को रोकना आसान हो जायेगा। और कम से कम इस कारण से सामान्य वर्ग के प्रत्याशियों के मनोमस्तिष्क में पैदा होने वाले भावनात्मक दुराग्रहों को सदैव के लिये दूर किया जा सकेगा। ऐसे में जाति आधारित जनगणना के नतीजे आने का हम सबको सकारात्मक रूप से इन्तजार और स्वागत करने को तैयार रहना होगा।

Thursday, February 9, 2012

एम के गॉंधी के-निष्ठुर, हृदयहीन तथा धोखेभरे निर्णयों को सहना ही होगा!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

पॉंच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों में किसका ऊंट किस करवट बैठेगा, इस बात का सही-सही पता तो चुनाव परिणामों के बाद ही चलेगा, लेकिन हर ओर उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव परिणामों के बारे में सर्वाधिक चर्चा हो रही है| हो भी क्यों नहीं, जब दिल्ली की सत्ता का किला उत्तर प्रदेश के रास्ते ही फतह किया जा सकने की सारी सम्भावनाएँ हैं|

यूपीए की केन्द्रीय सरकार को उत्तर प्रदेश चुनावों से ठीक पहले आबीसी के अन्दर अल्पसंख्यकों को अलग से आरक्षण प्रदान करने की बात याद आ रही है| यही नहीं भाजपा को भी उत्तर प्रदेश की सत्ता के लिये राम का नाम और राम मन्दिर याद आने लगा है| यही नहीं भाजपा और भाजपा से सम्बद्ध संगठनों को पहली बार अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण की चिन्ता भी सताने लगी है| जबकि सामान्यत: ये सारे कथित राष्ट्रवादी, हिन्दूवादी और भारतीय संस्कृति के महारक्षक हर राजनैतिक और गैर-राजनैतिक मंच से सामाजिक न्याय की संवैधानिक अवधारणा के विरोध में बयान जारी करते रहते हैं|

इसी सोच के चलते इन लोगों ने जाति आधारित जनगणना का कड़ा विरोध करने में भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी| जिसकी भी असली वजह है, कि ये महामहिम राष्ट्रवादी लोग चाहते ही नहीं कि इस देश के सभी वर्गों और सभी जातियों के लोगों को उनकी जनसंख्या के अनुसार सत्ता, प्रशासन और संसाधनों में संवैधान की मूल भावना के अनुसार समान हिस्सेदारी मिले| ये लोग चाहते हैं कि अन्य पिछड़ा वर्ग सहित, सभी आरक्षित वर्गों की सही-सही जनसंख्या का देश की सरकार को पता ही नहीं चलना चाहिये| अन्यथा इनके पास कोर्ट को भ्रमित करने के सारे रास्ते बन्द हो जायेंगे|

यही नहीं इन सबकी नजर में सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ों को भी यदि बहुत जरूरी हो तो आरक्षण देने का प्रावधान केवल और केवल आर्थिक आधार पर ही नजर आता है और दूसरी ओर आर्थिक रूप से पिछड़े अन्य पिछड़ा वर्ग को उच्च शिक्षा में आरक्षण प्रदान करने पर ये ही लोग गला फाड़-फाड़ कर उसका विरोध करने के लिये सड़कों पर उतर आते हैं| आज इन लोगों को भी ओबीसी के आरक्षण में से साढे चार फीसदी हिस्सा अल्पसंख्यकों को दे देने पर, महान भारत राष्ट्र के खण्डित होने के खतरे सहित, ओबीसी के साथ कथित रूप से हो रहे घोर अन्याय के कारण हार्ट अटैक आने जैसी वेदना हो रही है|

जबकि कड़वी सच्चाई यही है कि अल्पसंख्यकों की केवल और केवल उन्हीं पिछड़ी जातियों को ही साढे चार फीसदी आरक्षण प्रदान किया गया है, जो ओबीसी वर्ग में पूर्व से ही शामिल हैं और जिनका समानुपातिक दृष्टि से साढे चार फीसदी हक ओबीसी के सत्ताईस फीसदी आरक्षण में बनता है|

यही नहीं ऐसा निर्णय करने से पूर्व भारत सरकार ने हर प्रकार से अध्ययन और जानकारी एकत्रित करके इस बात को जॉंचा-परखा है कि अल्पसंख्यकों की जातियों को ओबीसी वर्ग में कितनी हिस्सेदारी मिल रही है| जिसके बाद ही अलग से आरक्षण प्रदान करने का निर्णय लिया गया है| यह अलग बात है कि यह निर्णय राजनैतिक लाभ पाने के लिये पॉंच राज्यों के विधानसभा चुनावों से ठीक पूर्व लिया गया है| जिसे संवैधानिक भावना के अनुकूल नहीं माना जा सकता| इस सबके उपरान्त भी लगातार आरक्षण और आरक्षित वर्गों के हितों का विरोध करने को ही राष्ट्रहित बतलाने वाली भाजपा और भाजपा के अनुसांगिक संगठनों को भारत सरकार के इस निर्णय का विरोध करने का कोई औचित्य समझ में नहीं आता है|

जहॉं तक धर्म के आधार पर अल्पसंख्यकों को आरक्षण प्रदान करने की बात है तो ये बात तो प्रारम्भ से ही लागू की जाती रही है| ओबीसी की सूची में इस्लाम से सम्बन्धित जातियों को शामिल किया गया है| यही नहीं अजा एवं अजजा वर्गों की सूचियों में भी किस-किस धर्म की कौन-कौन सी धर्म-परिवर्तित जातियों को आरक्षण प्राप्त होगा और किस-किस धर्म की धर्म-परिवर्तित जातियों को आरक्षण प्राप्त नहीं होगा| इस बारे में स्पष्ट नीति बनाकर लागू की हुई है| जिसका आज तक इसी आधार पर विरोध क्यों नहीं किया गया? इस बात पर भी चर्चा होनी चाहिये| भाजपा और भाजपा के अनुसांगिक संगठनों को क्या यह नहीं पता कि आदिवासियों के सत्तर फीसदी हक को केवल कुछ मुठ्ठीभर ईसाई आदिवासी छीन रहे हैं| इस बारे में एक भी आवाज सामने नहीं आती है| क्योंकि निरीह आदिवासियों के बारे में भाजपा और उससे सम्बद्ध लोग क्योंकर अपनी ऊर्जा खपाने लगे?

इसी सन्दर्भ में यह बात भी स्पष्ट कर देना जरूरी है कि वेब मीडिया सहित अनेक मंचों पर यह सवाल उठाया जाता रहा है कि आने वाले दिनों में यदि अजा एवं अजजा वर्गों में शामिल अल्पसंख्यक जातियों को भी अलग से आरक्षण प्रदान किया जायेगा, तब अजा एवं अजजा के प्रतिनिधियों, कार्यकर्ताओं, विचारकों और बुद्धिजीवियों का क्या विचार (तर्क) होगा| मैं इस बारे में यहॉं पर यह कहना बेहद जरूरी समझता हूँ कि जिन मानदण्डों और जिन पैमानों के आधार पर ओबीसी वर्ग की सूची में शामिल अल्पसंख्यक वर्ग की जातियों को अलग से साढे चार फीसदी आरक्षण दिया गया है| यदि उन्हीं सब मानदण्डों और पैमानों पर अध्ययन करने के बाद यह निष्कर्ष निकलता है कि अजा एवं अजजा वर्गों में शामिल अल्पसंख्यक धर्मावलम्बियों की जातियों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण का लाभ नहीं मिल रहा है तो अवश्य ही उन्हें उनकी जनसंख्या के अनुपात में अलग से ‘आरक्षण के अन्दर आरक्षण’ दिया ही जाना चाहिये| केवल यही नहीं-अजा एवं अजजा वर्ग में शामिल हिन्दू या अहिंदू या अन्य धर्मावलम्बी जातियों में भी विभाजन होना चाहिये| जिससे सभी जातियों और समूहों को संविधान की सामाजिक न्याय की मंसा के अनुरूप सत्ता और प्रशासन में अपने-अपने प्रतिनिधि भेजने का अवसर मिल सकें| आखिर हमें, हमारे संविधान की भावना का आदर तो करना ही होगा| 

बेशक यह सब हमें सेपरेट इलेक्ट्रोल के हक को मोहनदास कर्मचन्द गॉंधी द्वारा धोखे से छीने जाने के कारण सहना और करना पड़ रहा है| अन्यथा यदि डॉ. भीमराव अम्बेड़कर की सैपरेट इलेक्ट्रोल की न्यायसंगत मांग को मानकर के भी गॉंधी द्वारा छलपूर्वक देश पर पूना पैक्ट नहीं थोपा गया होता तो सरकारी सेवाओं में और सरकारी शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण नाम की कोई अवधारणा भारत में होती ही नहीं! गॉंधी की विरासत को संभालते हुए हमें एम के गॉंधी के निष्ठुर और हृदयहीनता के पिरचायक धोखेभरे निर्णयों को भी तो सहना ही होगा|

Wednesday, January 25, 2012

आरक्षण समाप्त करना है तो आरक्षित वर्ग के वर्गद्रोही अफसर तत्काल बर्खास्त किये जायें!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

भारत के संविधान के बारे में जानकारी रखने वाले सभी विद्वान जानते हैं कि हमारे संविधान के भाग तीन अनुच्छेद-14, 15 एवं 16 में जो कुछ कहा गया है, उसका साफ मतलब यही है कि धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर किसी भी नागरिक के साथ किया जाने वाला विभेद असंवैधानिक होगा| समानता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा| इस स्पष्ठ और कठोर प्रावधान के होते हुए अनुच्छेद 16 (4) में कहा गया है कि-
‘‘इस अनुच्छेद (उक्त) की कोई बात राज्य (जिसे आम पाठकों की समझ के लिये सरकार कह सकते हैं, क्योंकि हमारे यहॉं पर प्रान्तों को भी राज्य कहा गया है|) को पिछड़े हुए नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, नियुक्तियों में या पदों के आरक्षण के लिए उपबन्ध करने से निवारित नहीं (रोकेगी नहीं) करेगी|’’

उक्त प्रावधान को अनेकों बार हमारे देश की सर्वोच्च न्यायपालिका ने उचित और न्याय संगत ठहराया है और साथ ही यह भी कहा है कि अनुच्छेद 14 से 16 में समानता की जो भावना संविधान में वर्णित है, वह तब ही पूरी हो सकती है, जबकि समाज के असमान लोगों के बीच समानता नहीं, बल्कि समान लोगों के बीच समानता का व्यवहार किया जावे|

इसी समानता के लक्ष्य को हासिल करने के लिये उक्त संवैधानिक प्रावधान में पिछड़े वर्ग लोगों को सरकारी सेवाओं में प्रतिनिधित्व प्रदान करने पर जोर दिया गया है| संविधान निर्माताओं का इसके पीछे मूल ध्येय यही रहा था कि सरकारी सेवओं में हर वर्ग का समान प्रतिनिधित्व हो ताकि किसी भी वर्ग के साथ अन्याय नहीं हो या सकारात्मक रूप से कहें तो सबके साथ समान रूप से न्याय हो सके| क्योंकि इतिहास को देखने से उन्हें ज्ञात हुआ कि कालान्तर में वर्ग विशेष के लोगों का सत्ता एवं व्यवस्था पर लगातार वंशानुगत कब्जा रहने के कारण समाज का बहुत बड़ा तबका (जिसकी संख्या पिच्यासी फीसदी बताई जाती है) हर प्रकार से वंचित और तिरष्कृत कर दिया गया|

ऐसे हालातों में इन वंचित और पिछड़े वर्गों को सरकारी सेवाओं में प्रतिनिधित्व प्रदान करने की पवित्र सोच को अमलीजामा पहनाने के लिये अनुच्छेद 16 में उक्त उप अनुच्छेद (4) जोड़कर अजा, अजजा एवं अन्य पिछडा वर्ग के लोगों को नौकरियों में कम अंक प्राप्त करने पर भी आरक्षण के आधार पर नौकरी प्रदान की जाती रही हैं| 

यदि आज के सन्दर्भ में देखें तो इसी संवैधानिक प्रावधान के कारण कथित रूप से 70 प्रतिशत से अधिक अंक पाने वाले अनारक्षित वर्ग के प्रत्याशियों को नौकरी नहीं मिलती, जबकि आरक्षित वर्ग में न्यूनतम निर्धारित अंक पाने वाले प्रत्याशी को 40 या 50 प्रतिशत या कम अंक अर्जित करने वालों को सरकारी नौकरी मिल जाती है| अनराक्षित वर्ग के लोगों की राय में इस विभेद के चलते अनारक्षित वर्ग के लोगों, विशेषकर युवा वर्ग में भारी क्षोभ, आक्रोश तथा गुस्सा भी देखा जा सकता है|

इसके बावजूद भी मेरा मानना है कि पूर्वाग्रही, अल्पज्ञानी, मनुवादी और कट्टरपंथियों को छोड़ दें तो उक्त प्रावधानों पर किसी भी निष्पक्ष, आजादी के पूर्व के घटनाक्रम का ज्ञान रखने वाले तथां संविधान के जानकार व्यक्ति कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये, क्योंकि इस प्रावधान में सरकारी सेवाओं में हर वर्ग का समान प्रतिनिधित्व स्थापित करने का न्यायसंगत प्रयास करने का पवित्र उद्देश्य अन्तर्हित है| परन्तु समस्या इस प्रावधान के अधूरेपन के कारण है|

मेरा विनम्र मत है कि उक्त प्रावधान पिछड़े वर्ग के लोगों को प्रतिनिधित्व देने के लिये निर्धारित योग्यताओं में छूट प्रदान करने सहित, विशेष उपबन्ध करने की वकालत तो करता है, लेकिन इन वर्गों का सही, संवेदनशील, अपने वर्ग के प्रति पूर्ण समर्पित एवं सशक्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने पर पूरी तरह से मौन है| इस अनुच्छेद में या संविधान के अन्य किसी भी अनुच्छेद में कहीं भी इस बात की परोक्ष चर्चा तक नहीं की गयी है कि तुलनात्मक रूप से कम योग्य होकर भी अजा, अजजा एवं अ.पि.वर्ग में आरक्षण के आधार पर उच्च से उच्चतम पदों पर नौकरी पाने वाले ऐसे निष्ठुर, बेईमान और असंवेदनशील आरक्षित वर्ग के लोक सेवकों को भी क्या सरकारी सेवा में क्यों बने रहना चाहिये, जो सरकारी नौकरी पाने के बाद अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व करना तो दूर अपने आचरण से अपने आपको अपने वर्ग का ही नहीं मानते?

मैं अजा एवं अजजा संगठनों के अखिल भारतीय परिसंघ (जिसके राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. उदित राज हैं और इण्डियन जस्टिस पार्टी के भी अध्यक्ष है|) का राष्ट्रीय महासचिव रह चुका हूँ| अखिल भारतीय भील-मीणा संघर्ष मोर्चा मध्य प्रदेश का अध्यक्ष रहा हूँ| ऑल इण्डिया एसी एण्ड एसटी रेलवे एम्पलाईज एसोसिएशन में रतलाम मण्डल का कार्यकारी मण्डल अध्यक्ष रहा हूँ| अखिल भारतीय आदिवासी चेतना परिषद का परामर्शदाता रहा हूँ| वर्तमान में ऑल इण्डिया ट्राईबल रेलवे एम्पलाईज एसोसिएशन का राष्ट्रीय अध्यक्ष हूँ| इसके अलावा अजा, अजजा तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के अनेक संगठनों और मंचों से भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सम्बद्ध रहा हूँ|

इस दौरान मुझे हर कदम पर बार-बार यह अनुभव हुआ है कि आरक्षित वर्ग के मुश्किल से पॉंच प्रतिशत अफसरों को अपने वर्ग के नीचे के स्तर के कर्मचारियों तथा अपने वर्ग के आम लोगों के प्रति सच्ची सहानुभूति होती है| शेष पिच्यानवें फीसदी आरक्षित वर्ग के अफसर उच्च जाति के अनारक्षित अफसरों की तुलना में अपने वर्ग के प्रति असंवेदनशील, विद्वेषी, डरपोक होते हैं और अपने वर्ग से दूरी बनाकर रखते हैं| जिसके लिये उनके अपने अनेक प्रकार के तर्क-वितर्क या बहाने हो सकते हैं, जैसे उन्हें अपने वर्ग का ईमानदारी से प्रतिनिधित्व करने पर अनारक्षित वर्ग के उच्चाधिकारी उनके रिकार्ड को खराब कर देते हैं| इस बात में एक सीमा तक सच्चाई भी है, लेकिन इस सबके उपरान्त भी उक्त और अन्य सभी तर्क कम अंक पाकर भी आरक्षण के आधार पर नौकरी पाकर अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करने के अपराध को कम नहीं कर पाते हैं! क्योंकि सरकारी सेवा में ऐसे डरपोक लोगों के लिये कोई स्थान नहीं होता है, जो अपने कानूनी और संवैधानिक दायित्वों का ईमानदारी, निष्ठा और निर्भीकतापूर्वक निर्वहन नहीं कर सकते|

इस बारे में, मैं कुछ अन्य बातें भी स्पष्ट कर रहा हूँ-अजा एवं अजजा के अधिकतर ऐसे उच्च अफसर जिनके पास प्रशासनिक अधिकार होते हैं और जिनके पास अपने वर्ग को भला करने के पर्याप्त अधिकार होते हैं| अपने मूल गॉंव/निवास को छोड़कर सपरिवार सुविधासम्पन्न शहर या महानगरों में बस जाते हैं| गॉंवों में पोस्टिंग होने से बचने के लिये रिश्वत तक देते हैं और हर कीमत पर शहरों में जमें रहते हैं| अनेक अपनी जाति या वर्ग की पत्नी को त्याग देते हैं (तलाक नहीं देते) और अन्य उच्च जाति की हाई-फाई लड़की से गैर-कानूनी तरीके से विवाह रचा लेते हैं| अनारक्षित वर्ग के अफसरों की ही भॉंति कार, एसी, बंगला, फार्म हाऊस, हवाई यात्रा आदि साधन जुटाना इनकी प्राथमिकताओं में शामिल हो जाते हैं|

ऐसे अफसरों द्वारा अपने आरक्षित वर्ग का सरकारी सेवा में संविधान की भावना के अनुसार प्रतिनिधित्व करना तो दूर, ये अपने वर्ग एवं अपने वर्ग के लोगों से दूरी बना लेते हैं और पूरी तरह से राजशाही का जीवन जीने के आदी हो जाते हैं| इस प्रकार के असंवेदनशील और वर्गद्रोही लोगों द्वारा अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करने पर भी, इनका सरकारी सेवा में बने रहना हर प्रकार से असंवैधानिक और गैर-कानूनी तो है ही, साथ ही संविधान के ही प्रकाश में पूरी तरह से अलोकतान्त्रिक भी है| क्योंकि उक्त अनुच्छेद 16 के उप अनुच्छेद (4) में ऐसे लोगों को तुलनात्मक रूप से कम योग्य होने पर भी अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व करने के एक मात्र संवैधानिक उद्देश्य से ही इन्हें सरकारी सेवा में अवसर प्रदान किया जाता है|

ऐसे में अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करके, अपने वर्ग से विश्वासघात करने वालों को सरकारी सेवा में बने रहने का कोई कानूनी या नैतिक औचित्य नहीं रह जाता है| इस माने में संविधान का उक्त उप अनुच्छेद आरक्षित वर्गों को सरकारी सेवाओं में प्रतिनिधित्व प्रदान करने की भावना को पूर्ण करने के मामले में अधूरा और असफल सिद्ध हुआ है| यही कारण है कि आज भी अजा एवं अजजा वर्ग लगातार पिछड़ता जा रहा है| जबकि सरकारी सेवाओं में आरक्षित वर्गों का सशक्त और संवेदनशील प्रतिनिधित्व प्रदान करने के उद्देश्य से ही आरक्षित वर्ग के लोगों को पीढी दर पीढी आरक्षण प्रदान करने को न्याय संगत ठहराया गया है|

मेरा मानना है कि यदि इस सन्दर्भ में प्रारम्भ से ही संविधान में यह प्रावधान किया गया होता कि आरक्षण के आधार पर नौकरी पाने वाले लोगों को तब तक ही सेवा में बने रहने का हक होगा, जब तक कि वे अपने वर्ग का ईमानदारी से सरकारी सेवाओं में प्रतिनिधित्व करते रहेंगे, तो मैं समझता हूँ कि हर एक आरक्षित वर्ग का अफसर अपने वर्ग के प्रति हर तरह से संवेदनशील और समर्पित होता| जिससे आरक्षित वर्गों का उत्थान भी होता जो संविधान की अपेक्षा भी है और इस प्रकार से मोहन दास कर्मचन्दी गॉंधी द्वारा सैपरेट इलेक्ट्रोल के हक को छीनकर जबरन थोपे गये आरक्षण के अप्रिय प्रावधान से हम एक समय में जाकर हम मुक्त होने के लक्ष्य को भी हो भी हासिल कर पाते| जो वर्तमान में कहीं दूर तक नज़र नहीं आ रहा है!

अतः अब हर एक जागरूक और राष्ट्र भक्त मंच से मांग उठनी चाहिये कि जहॉं एक ओर आरक्षित वर्ग के अफसरों को सरकारी सेवाओं में अपने वर्ग का निर्भीकता पूर्वक प्रतिनिधित्व करने के लिये अधिक सशक्त कानूनी संरक्षण प्रदान किया जावे| उनका रिकार्ड खराब करने वालों को दण्डित किया जावे और इसके उपरान्त भी आरक्षित वर्ग के अफसर यदि अपने वर्ग का निष्ठा, निर्भीकता और ईमानदारी से प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं तो ऐसे अफसरों को तत्काल सेवा से बर्खास्त किया जावे| यदि हम ऐसा प्रावधान नहीं बनवा पाते हैं तो आरक्षण को जरी रखकर आरक्षण के आधार पर कम योग्य लोगों को नौकरी देकर कथित रूप से राष्ट्र के विकास को अवरुद्ध करने और समाज में सौहार्द के स्थान पर वैमनस्यता का वातावरण पैदा करने को स्वीकार करने का कोई न्यायसंगत कारण या औचित्य नजर नहीं आता है|

अत: संविधान और संविधान द्वारा प्रदत्त सामाजिक न्याय की अवधारणा में विश्‍वास रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को चाहिये कि भारत सरकार को इस बात के लिये बाध्य किया जाये कि संविधान में इस बात का भी प्रावधान किया जावे कि आरक्षित वर्गों का सरकारी सेवाओं में प्रतिनिधित्व करने के उद्देश्य से अनारक्षित वर्ग के लोगों की तुलना में कमतर होकर भी आरक्षण के आधार पर नौकरी पाने वालों को पूर्ण समर्पण और संवेदनशीलता के साथ अपने वर्ग और अपने वर्ग के लोगों का सकारात्मक प्रतिनिधित्व करना चाहिये और ऐसा करने में असफल रहने वाले आरक्षित वर्ग के वर्गद्रोही अफसरों या कर्मचारियों को सरकारी सेवा से बर्खास्त करने की सिफारिश करने के लिये अजा और अजजा आयोगों का संवैधानिक रूप से सशक्त किया जाना चाहिये| अन्यथा न तो कभी आरक्षण समाप्त होगा और न हीं आरक्षित वर्गों का सरकारी सेवाओं में संवैधानिक भावना के अनुसार सच्चा प्रतिनिधित्व ही स्थापित हो सकेगा|