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Sunday, March 6, 2016

सोशल मीडिया पर नेताओं का मजाक उड़ाने पर जेल सोशल मीडिया हिट में गन्दगी की सफाई भी जरूरी है।

सोशल मीडिया पर नेताओं का मजाक उड़ाने पर जेल
सोशल मीडिया हिट में गन्दगी की सफाई भी जरूरी है। 
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लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
तमिलनाडु से खबर है कि सोशल मीडिया पर नेताओं का मजाक उड़ाने पर जेल की हवा खानी पड़ सकती है। ऐसा करने वालों के खिलाफ भारतीय दण्ड संहिता की धारा 188 के तहत कार्यवाही की जायेगी।
कुछ मित्रों को इस खबर के हवाले से यह बोलने और लिखने का मौक़ा मिल सकता है कि यह अभिव्यक्ति की आजादी पर सरकारी हमला है। मैं इससे सहमत नहीं हूँ।
सोशल मीडिया पर जिस दिन से जुड़ा था, उसी दिन से मेरा स्पष्ट मत है कि जो कोई भी सोशल मीडिया पर हल्की, अभद्र या स्तरहीन भाषा का इस्तेमाल करे, उसे केवल सजा ही नहीं, कठोर सजा मिलनी चाहिए। कारण भी बतला दूँ-
1. स्तरहीन भाषा और असत्य संवाद के कारण सोशल मीडिया को सरकार, प्रशासन और जनप्रतिनिधियों द्वारा गम्भीरता से नहीं लिया जाता है। जबकि वर्तमान में सोशल मीडिया आम व्यक्ति की आवाज है। जो लोग सोशल मीडिया का स्तर गिराते हैं, वे लोग आम व्यक्ति की अभिव्यक्ति के विश्वस्तरीय मुक्त मंच इंटरनेट और सोशल मीडिया की गरिमा को क्षति पहुंचाने के अपराधी हैं। ऐसे लोगों की अनदेखी आत्मघाती नीति होगी।
2. किसी भी गलत व्यक्ति, संगठन, राजनैतिक दल, राजनेता, धर्म, धार्मिक व्यक्ति, प्रतिनिधि, प्रशासक, सरकार या किसी भी गलत विषय की निंदा करने के लिए संसदीय और शिष्ट भाषा में भी विचार रखे जा सकते हैं, बल्कि ऐसे ही विचार अधिक प्रभावी होते हैं। इससे सोशल मीडिया और अंतर्जाल अर्थात इंटरनेट की गरिमा एवं मीडिया के रूप में प्रतिष्ठा भी कायम होती है।
3. सोशल मीडिया पर इन दिनों कोई भी ऐसा व्यक्ति जिसको इतिहास, क़ानून, संविधान, प्रेस एक्ट आदि का कोई ज्ञान नहीं। यहां तक कि जिन लोगों को भाषा तक का ज्ञान नहीं। जो लोग सार्वजनिक संवाद की मर्यादा को तक नहीं जानते, ऐसे लोग सोशल मीडिया के जरिया अशिष्ट, असंसदीय, अभद्र और कलुषित भाषा में अपने पूर्वाग्रह तथा अपनी भड़ास निकालने के लिए आम जनता की मुक्त आवाज सोशल मीडिया का दुरूपयोग कर रहे हैं। जिसके चलते जनप्रतिनिधि, सरकार और प्रशासन द्वारा सोशल मीडिया पर व्यक्त संजीदा विचारों और सही जानकारी तक को गम्भीरता से नहीं लिया जाता है। 
अत: मेरा स्पष्ट मत है कि सोशल मीडिया की प्रतिष्ठा कायम करनी है तो गन्दगी की सफाई जरूरी है। गन्दगी फैलाने वालों को जेल की हवा खिलाने में संजीदा लोगों को मदद करनी चाहिए। ऐसा होने से सोशल मीडिया और आम व्यक्ति की आवाज को ताकत मिलेगी।
जय भारत। जय संविधान।
नर-नारी सब एक समान।।
लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
9875066111/06-03-2016/09.28 AM
@—लेखक का संक्षिप्त परिचय : होम्योपैथ ​चिकित्सक और दाम्पत्य विवाद सलाहकार। +राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (BAAS), नेशनल चैयरमैन-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एन्ड रॉयटर्स वेलफेयर एसोसिएशन (JMWA), पूर्व संपादक-प्रेसपालिका (हिंदी पाक्षिक) और पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा एवं अजजा संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ 
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Thursday, January 19, 2012

अभिव्यक्ति और धर्म की आजादी के मायने!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

राजस्थान की राजधानी जयपुर में ‘जयपुर फेस्टीवल’ में शीर्ष साहित्यकारों को आमन्त्रित किया गया था, जिनमें भारत मूल के ब्रिटिश नागरिक सलमान रुश्दी को भी बुलावा भेजा गया| सलामन रुश्दी की भारत यात्रा के विरोध में अनेक मुस्लिम संगठन आगे आये और सरकार द्वारा उनके दबाव में आकर सलमान रुश्दी को भारत बुलाने का विचार त्याग दिया गया|

इस बात को लेकर देशभर में धर्मनिरपेक्षता, धर्म की आजादी की रक्षा और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की आजादी के विषय पर अनेक प्रकार की बातें सामने आ रही हैं| हालांकि मूल रूप से दो पक्ष हैं! एक मुस्लिम पक्ष है, जो सलमान रुश्दी के विचारों को इस्लाम के विरोध में मानता है और उनका मानना है कि सलमान रुश्दी ने इस्लाम के बारे में जो कुछ कहा है, उससे इस्लाम के अनुयाई खफा हैं| ऐसे में यदि सलमान रुश्दी को भारत में आने दिया गया तो इस्लाम के अनुयाई इससे आहत होंगे| दूसरा पक्ष कहता है कि भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है, जिसमें हर व्यक्ति को हर धर्म या हर विषय पर अपनी बात कहने की आजादी है| ऐसे में देश के करीब पन्द्रह फीसदी मुसलमानों के मुठ्ठीभर लोगों के विरोध के कारण संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी को नहीं छीना जा सकता है|

कहा यह जा रहा है कि सलमान रुश्दी का विरोध करने वालों का विरोध करने वाले मूलत: कट्टरपंथी हिन्दूवादी लोग हैं| जिनके बारे में यह कहा जा रहा है कि उन्होंने भारतीय नागरिक और प्रख्यात चित्रकार एम एफ हुसैन की अभिव्यक्ति की आजादी का इतना विरोध किया कि हुसैन को अन्तत: भारत छोड़ना पड़ा और उन्होंने जीवन की अन्तिम सांस भारत से बाहर ही ली|

ऐसे में कुछ अन्य लोगों का कहना है कि सलमान रुश्दी के साथ खड़े दिखाई देने वाले लोग केवल मुस्लिम कौम की खिलाफत करने के लिये अभिव्यक्ति की आजादी की बात कर रहे हैं| अन्यथा उनके मन में संविधान या अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के प्रति किसी प्रकार का कोई सम्मान नहीं है| इन हालातों में हमें इस बात की पड़ताल करनी होगी कि इस बारे में हमारा संविधान क्या कहता है?

संविधान का अनुच्छेद 19 (1) (क) भारत के सभी नागरिकों को वाक-स्वतन्त्रता और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का मूल अधिकार प्रदान करता है| जिसके आधार पर सलमान रुश्दी के पक्ष में दलीलें दी जा रही हैं, उन्हें अपने विचार व्यक्त करने से रोका जा रहा है| इसमें सबसे पहली बात तो यह है कि सलमान रुश्दी भारत का नागरिक ही नहीं है| अत: तकनीकी तौर पर उन्हें यह मूल अधिकार प्राप्त ही नहीं है| जबकि भारत का नागरिक होने के कारण एमएफ हुसैन को उक्त मूल अधिकार प्राप्त था, फिर भी उन्हें भारत छोड़ना पड़ा|

दूसरी और महत्वूपर्ण बात यह है कि इसी अनुच्छेद 19 के भाग (2) में साफ किया गया है कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता अबाध नहीं है| सरकार भारत की प्रभुता और अखण्डता, सुरक्षा, विदेशों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों, लोक व्यवस्था, शिष्टाचार, सदाचार के हितों में और न्यायिक अवमानना, अपराध करने को उकसाना आदि स्थिति निर्मित होने की सम्भावना हो तो अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर जरूरत के अनुसार प्रतिबन्ध भी लगा सकती है|

ये तो हुई अभिव्यक्ति के कानून की बात| निश्‍चय ही यह बात प्रमाणित है कि किसी को भी निर्बाध या अबाध आजादी या स्वतन्त्रता उसे तानाशाह बना देती है| अत: समाज या कानून या संविधान हर बात की सीमा का निर्धारण करता है| इसी बात को ध्यान में रखते हुए देश के दूरदर्शी संविधान निर्माताओं ने बोलने की आजादी देने के साथ-साथ साफ कर दिया कि जहॉं आप दूसरे की अभिव्यक्ति की आजादी में हस्तक्षेप करते हैं, वहीं से आपकी खुद की सीमा शुरू हो जाती है|

इस बात को अनेक बार अदालत ने भी गम्भीरतापूर्वक विचार करके निर्धारित किया है| लोक व्यवस्था के नाम पर सलमान रुश्दी को रोका गया है, जिसके बारे में बिहार राज्य बनाम शैलबाला, एआईआर, 1952 सुप्रीम कोर्ट, पृष्ठ-329 पर सर्वोच्च न्यायालय ने साफ किया है कि संविधान के अनुच्छेद 19 (2) में 'लोक व्यवस्था' पदावलि शब्द के परिणामस्वरूप देश में लोक व्यवस्था के साधारण भंग होने या अपराध करने के लिये उकसाने की सम्भावना के आधार पर भी नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है|

जहॉं पर राज्य सुरक्षा या लोकशान्ति और कानून व्यवस्था का मामला भी साथ में जुड़ा हो वहॉं पर तो स्थिति और भी गम्भीर मानी जानी चाहिये| एमएफ हुसैन और सलमान रुश्दी दोनों के ही मामले में संविधान के उपरोक्त उपबन्ध सरकार को यह अधिकार देते हैं कि सरकार ऐसे लोगों की अभिव्यक्ति की आजादी को छीन ले| सलमान रुश्दी के मामले में तो संविधान में कोई रुकावट है ही नहीं, क्योंकि जैसा कि पूर्व में लिखा गया है कि सलमान रुश्दी भारत का नागरिक ही नहीं है|

लेकिन अनेक अन्तर्राष्ट्रीय ऐसे समझौते तथा कानून हैं, जो अभिव्यक्ति की आजादी को हर देश में संरक्षण देने के लिये सभी सरकारों को निर्देश देते हैं| जिन पर भारत ने भी हस्ताक्षर किये हुए हैं| मानव अधिकारों में बोलने की आजादी को भी शामिल किया गया है| इसलिये सलमान रुश्दी की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को संरक्षण देना भी भारत का अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिमानों के अनुसार अनिवार्य दायित्व है| बशर्ते भारत के संविधान में इसकी स्वीकृति हो| यद्यपि इसके अनुसार भी भारत बाध्य नहीं है|

इन हालातों में भारत सरकार को अपने देश के हालात, देश के संविधान, लोक-व्यवस्था और शान्ति को बनाये रखने को प्राथमिकता देना पहली जरूरत है| इस प्रकार से सलमान रुश्दी को भारत आने से रोकने के निर्णय से किसी भी भारतीय या अन्तर्राष्ट्रीय कानून या समझौते का उल्लंघन नहीं होता है| एमएफ हुसैन के मामले में भी यही स्थिति थी|

हर व्यक्ति को अपनी आजादी के साथ-साथ दूसरों की आजादी का भी खयाल रखना होगा| तब ही संविधान या अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा सम्भव है| अन्यथा हमें जो-जो भी स्वतन्त्रताएँ या मूल अधिकार प्राप्त हैं, उन्हें न्यून या समाप्त करने या उन पर निर्बन्धन लगाने के लिये सरकारों और न्यायालयों के पास अनेक कारण होंगे| जिन्हें गलत ठहरा पाना असम्भव होगा|

इसी प्रकरण में एक अन्य पहलु भी समाहित है, वह यह कि संविधान देश के लोगों को धार्मिक स्वतन्त्रता का भी मूल अधिकार देता है| जिसके अनुसार इस्लाम के अनुयाईयों का कहना है कि उनको सलमान रुश्दी और बांग्लादेश की लेखिका तसलीमा नसरीन जैसे लोगों का और हिन्दुधर्मावलम्बियों का कहना है कि उनको एफएफ हुसैन जैसों का विरोध करने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है| इसलिये भी सरकार को दोनों ही धर्म के लोगों की भावनाओं का खयाल करना होगा|

इस बारे में भारत के संविधान के उपबन्ध किसी भी धर्म के अनुयाईयों का समर्थन नहीं करते हैं| क्योंकि संविधान द्वारा प्रदान की गयी धार्मिक आजादी का अर्थ यह कदापि नहीं है कि हम अपने धर्म की रक्षा के लिये दूसरों के मूल अधिकारों में अतिक्रमण करें| क्योंकि धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार भी अबाध या निर्बाध नहीं है| धर्म की स्वतन्त्रता पर अनेक कारणों से निर्बन्धन लगाये जा सकते हैं| धर्म की स्वतन्त्रता में मूल रूप से अन्त:करण की स्वतन्त्रता है| जिसे संविधान के अनुच्छेद-21 में अतिरिक्त संरक्षण भी प्रदान किया गया है| जिसके अन्तर्गत समुचित विधि या रीति से उपासना, ध्यान, पूजा, अर्चना, प्रार्थना करने या नहीं करने का मूल अधिकार शामिल है|

इसी अधिकार में अपने धर्म को अबाध रूप से मानने, धर्म के अनुसार आचरण करने और अपने धर्म का प्रचार-प्रसार करने का भी सम्पूर्ण अधिकार दिया गया है| जिसके तहत सभी नागरिकों को अपने धर्मानुकूल अनुष्ठान करने या कराने का मूल अधिकार भी है| जिसमें सभी हिन्दुओं को मन्दिरों में प्रवेश करके अपने आराध्य की प्रार्थना और पूजा अर्चना करने का मूल अधिकार है! (जिससे भारत में अधिकतर दलित वर्ग को वंचित किया हुआ है| लेकिन इसके विरुद्ध आवाज उठाने के लिए मीडिया या अन्य लोगों के पास वक्त नहीं है!) इसी प्रकार से सभी मुस्लिमों को मस्जिदों में नमाज अदा करने का हक है| लेकिन इसके तहत किसी भी व्यक्ति विशेष को ये हक नहीं है कि वह किसी विशेष मन्दिर या मस्जिद में जाकर के ही प्रार्थना/पूजा या नमाज अदा करेगा| ऐसा करने से उसे युक्तियुक्त कारणों से सरकार द्वारा रोका जा सकता है|

जहॉं तक धर्म के प्रचार-प्रसार के मूल अधिकार की बात है तो भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक बार, अनेक मामलों में स्पष्ट किया है कि भारत में हर एक धर्म के प्रचार-प्रसार की पूर्ण आजादी है, लेकिन इसका ये अर्थ कदापि नहीं है कि किसी को अपना धर्म बदलने के लिये उकसाया या विवश किया जावे| हॉं ये हक अवश्य है कि दूसरे धर्म के लोगों को धर्म-प्रचारक के धर्म के बारे में उचित रीति से सम्पूर्ण जानकारी दी जाने की पूर्ण आजादी हो| ताकि उसके धर्म की बातों से प्रभावित होकर कोई भी अन्य धर्म का व्यक्ति अपना धर्म बदलना चाहे तो वह अपना धर्म बदल सके| क्योंकि जब तक किसी को दूसरे के धर्म की बातों की अच्छाई के बारे में जानकारी नहीं होगी, तब तक वह अपना धर्म या आस्था बदलने के बारे में निर्णय कैसे ले सकेगा|

लेकिन सलमान रुश्दी के मामले में धार्मिक आजादी का मूल अधिकार मुस्लिम बन्धुओं को किसी भी प्रकार का संवैधानिक या कानूनी हक प्रदान नहीं करता है| क्योंकि जिस प्रकार से किसी भी धर्म के प्रचारक को अपने धर्म की अच्छी बातें बतलाने का संवैधानिक हक है, उसी प्रकार से धर्मनिरपेक्षता के अधिकार के तहत या धर्म की आजादी के मूल अधिकार के तहत भारत में हर व्यक्ति को ये मूल अधिकार भी प्राप्त है कि वह अपने या किसी भी अन्य धर्म की बुराईयों, खामियों के बारे में भी आलोचना या निन्दा कर सके| जिसे अनुच्छेद 19 (1) (क) में भी संरक्षण हैं, लेकिन साथ ही साथ अनुच्छेद 19 (2) के निर्बन्धन यहॉं पर भी लागू होंगे| लेकिन इस प्रकार के निर्बन्धन धार्मिक भावनाओं के संरक्षण के लिये स्पष्ट रूप से उपलब्ध नहीं हैं|

Sunday, November 13, 2011

पशुओं की हत्या कराने वाला यह ईश्वर कौन है?

तस्लीमा के बयानों को अपने पक्ष में अपने तरीके से इस्तेमाल किये जाने का मीडिया को जो भी लाभ मिलता हो उससे एक बड़ा नुकसान ये होता है कि तस्लीमा द्वारा कही गयी सही बातों, जिन पर कि व्यापक विमर्श संभव हो सकता है, सामने नहीं आ पातीं ...

तसलीमा आहत हैं,मगर हारी नहीं हैं.इस बार उन्हें देश की मीडिया से शिकायत है ,जो अपनी सुर्ख़ियों के लिए बार -बार उनका इस्तेमाल करता है और धर्म की आड़ में करने वालों के हाथों में हथियार थमा देता है.जिससे वो जब नहीं तब तसलीमा को छलनी करते रहते हैं.तसलीमा पर ताजा हमला बकरीद से पूर्व पशु हत्या को नाजायज कहे जाने से सम्बंधित ट्विट की वजह से हुआ है,जिसमे तस्लीमा ने किसी भी धर्म में पशु हत्या को नाजायज ठहराते हुए कहा था कि वो इश्वर महान कैसे हो सकता है जो निर्दोष प्राणियों की हत्या से खुश होता हो.
तस्लीमा के इस बयान को दैनिक भास्कर के हिंदी और अंग्रेजी संस्करणों ने जानबूझ कर इस तरह से प्रस्तुत किया मानो वो इस्लाम के खिलाफ बोल रही हों नतीजा ये हुआ कि पंजाब के शाही इमाम हबीब -उर -रहमान ने जुमे की नमाज के बाद तसलीमा को इस्लाम से निष्काषित किये जाने का फतवा सुना दिया.शाही इमाम का कहना था कि तसलीमा का दिमाग खराब हो गया है इसलिए वो अपने ही धर्म के खिलाफ बोल रही हैं ,उन्होंने ये भी कहा कि "तसलीमा मानवता पर काले धब्बे की तरह हैं इसलिए उन्हें और इस्लाम और ज्यादा बर्दाश्त नहीं कर सकता". 
गौरतलब है कि दुर्गा पूजा और उसके बाद बकरीद के दौरान पूरे देश में लाखों पशुओं की आस्था के नाम पर बलि चढ़ा दी जाती है. तसलीमा इस पूरे मामले पर एक बातचीत में कहती हैं "भास्कर ने मेरे बयान को इमानदारी से प्रस्तुत नहीं किया, शायद वो मेरे खिलाफ फतवे की अपेक्षा कर रहे थे और उन्होंने अंततः वो कर डाला. अपने ताजा बयान के सम्बन्ध में वो कहती हैं "मै दर्द रहित मृत्यु की कामना करती हूँ, पशुओं को भी इसका अधिकार होना चाहिए". 
तसलीमा के खिलाफ मीडिया के दुष्प्रचार का पहला मामला नहीं है, दरअसल देश का मीडिया उनके बयानों को अपनी टीआरपी के लिए इस्तेमाल करता रहा है. ऐसे में कई बार उनके द्वारा कही गयी बातें सही ढंग से लोगों के बीच नहीं आ पाती और नतीजा वो बार-बार फतवों का शिकार हो जाती हैं. इसके पूर्व मीडिया ने सत्य साई बाबा की मौत के बाद उन्हें कथित तौर पर दिए गए उस बयान को लेकर कटघरे में खड़ा करदिया था, जिसमे उन्होंने सत्य साईं बाबा के निधन के पहले सचिन तेंदुलकर द्वारा देश से प्रार्थना किये जाने की अपील से सम्बंधित उस ट्वीट को री ट्वीट कर दिया था, जिसमे कहा गया था कि "साई बाबा 86 साल के हो गए थे, उन्हें मरने देना चाहिए?" 
हुआ ये था कि तसलीमा ने किसी अन्य व्यक्ति के ट्वीट को री ट्विट कर दिया था, टाइम्स आफ इण्डिया ने उसे तस्लीमा का व्यक्तिगत बयान मान कर खबर छाप दी. तस्लीमा का कहना था कि आम आदमी री ट्विट के बारे में न जानता हो ये संभव है ये कैसे संभव है कि टाइम्स आफ इण्डिया को इसकी जानकारी न हो.
गौरतलब है कि इस खबर के प्राकशित होने के बाद तसलीमा के वीजा को रद्द किये जाने को लेकर मीडिया में बहस शुरू हो गयी थी. दरअसल तस्लीमा के बयानों को अपने पक्ष में अपने तरीके से इस्तेमाल किये जाने का मीडिया को जो भी लाभ मिलता हो उससे एक बड़ा नुकसान ये होता है कि तस्लीमा द्वारा कही गयी सही बात जिन पर व्यापक विमर्श संभव हो सकता है, सामने नहीं आ पाती. अक्सर उनके बारे में छापने वाली ख़बरों की शुरुआत ही विवादास्पद या फिर कंट्रोवर्शियल लेखिका तस्लीमा नसरीन ...से शुरू होती है. 
हिंदुस्तान की मीडिया को समझने की कोई भी कोशिश तस्लीमा को केन्द्र में रखकर आसानी से की जा सकती है, दरअसल जब कभी तस्लीमा कुछ बोलती है, अयोध्या और गुजरात से जुड़े अपने चरित्र को छोड़कर मीडिया तत्काल सेक्युलर हो जाता है, तस्लीमा के बयानों का प्रस्तुतीकरण उसके लिए वो माध्यम है, जिससे वो जब नहीं तब दिखने वाली अपनी भगवा छवि को उजला कर सकता है, ज्यादा से ज्यादा उजला दिखने की कोशिश में तस्लीमा पर हमले और भी तेज कर दिए जाते हैं.तसलीमा साफ़ कहती हैं "मीडिया मेरी बात क्यूँ कहेगा, क्या वो भी धर्म से प्रभावित हो रहा है ?" 
हमें नहीं याद है कि पश्चिम बंगाल में तसलीमा के प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगाए जाने के बाद देश के किसी भी अखबार ने लोकतांत्रिक मूल्यों की इस शर्मनाक अवहेलना पर एक शब्द भी नहीं लिखा, यूँ लग रहा था, जैसे नहीं तैसे तस्लीमा को पश्चिम बंगाल से क्या देश से ही खदेड़ दिया जाए. 
अफ़सोस ये है कि तसलीमा के खिलाफ मीडिया की इस मनमानी को लेकर देश के तमाम बुद्धिजीवी भी अपने होंठ सीए रहते हैं, इस मनमानी पर उनका सीधा तर्क होता है कि तसलीमा अतिवादी बयान दे रही हैं, जबकि सच्चाई ये है कि वो डरते हैं कि कहीं तसलीमा के पक्ष में खड़ा होकर वो खुद अन्सेक्युलर साबित हो जायेंगे. ऐसा नहीं है कि तसलीमा के बयानों से असहमति नहीं हो सकती, निश्चित तौर पर हो सकती है. लेकिन मीडिया उनके मामले में गेम खेलकर बहस के सारे रास्तों पर ही ताला लगा देती है. जहाँ तक फतवों का सवाल है, लगता है देश के तमाम इमाम और मौलवी इस इन्तजार में रहते हैं कि कब तसलीमा कुछ बोलें, जिसकी खबर बने और कब फतवा जारी कर दिया जाये. 
तसलीमा के खिलाफ जो भी हालिया फतवे जारी हुए हैं वो सभी कतरनों का करिश्मा हैं. बंगलादेश में तो ये असंभव था, लेकिन हिंदुस्तान में स्वतंत्र कहे जाने वाले मीडिया का वर्ग भी इन फतवों के खिलाफ कुछ नहीं बोलता, भास्कर ने शुक्रवार के फतवे को लेकर जो खबर छपी है उसे पढ़कर यूँ लगता है मानो वो दाउद इब्राहिम हो तसलीमा नहीं. पत्रकारिता में आदर्शों और मानकों की दुहाई देने वाली मीडिया कभी भी किसी भी खबर को छपने के पहले उस मामले में उनकी राय जानने की कोशिश नहीं करता, जो कुछ जहाँ मिलता है, उसे अपनी समझ और पाने लाभ के हिसाब से तोड़ फोड़ कर लगा दिया जाता है. 
अब वक्त आ गया है कि देश की मीडिया तसलीमा के साथ किये जा रहे अपने अन्याय पूर्ण व्यवहार की मीमांसा करे. आलोचना की वो कभी परवाह नहीं करती, निस्संदेह उनकी आलोचना हो, लेकिन सच भी शीशे की तरह साफ़ दिखना चाहिए. सोशल नेटवर्किंग के इस जमाने में जब धर्म, जाति, संप्रदायों से जुडी सभी नकारात्मक प्रवृतियाँ भर भरा कर टूट रही हैं, तसलीमा को उनकी बात साहस के साथ कहने में हमें मदद करनी ही होगी, नहीं तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सारे दावे बेमानी साबित तो होंगे ही, पत्रकारिता के पाखण्ड से भी पर्दा उठ जायेगा, जहाँ हम सब नंगे हैं.-स्त्रोत : आवेश तिवारी, जनज्वार, १३.११.११