Showing posts with label पुलिस. Show all posts
Showing posts with label पुलिस. Show all posts

Sunday, April 20, 2014

भारत में फलता-फूलता मुकदमेबाजी उद्योग


  1. इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता, जिसमें व्यापारी वर्ग को किसी शासन व्यवस्था से कभी कोई शिकायत रही हो, क्योंकि वे पैसे की शक्ति को पहचानते हैं तथा पैसे के बल पर अपना रास्ता निकाल लेते हैं। चाहे शासन प्रणाली या शासन कैसा भी क्यों न हो।
  2. “हमारा सबसे पहला कार्य वकीलों को समाप्त करना है।”-विलियम शेक्स्पेअर।
  3. न्यायाधीश पद पर नियुक्ति के लिए मात्र कानून का ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु वह व्यक्ति चरित्र, मनोवृति और बुद्धिमता के दृष्टिकोण से भी योग्य होना चाहिए, क्योंकि बुद्धिमान व्यक्ति के भी कुटिल होने का जोखिम बना रहता है।
  4. विधि आयोग की 197 वीं रिपोर्ट के अनुसार भारत में दोषसिद्धि की दर मात्र 2 प्रतिशत है, जिससे सम्पूर्ण न्यायतंत्र की क्षमता–योग्यता का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। जबकि अमेरिका के संघीय न्यायालयों की दोष सिद्धि की जो दर 1972 में 75 प्रतिशत, 1992 में 85 प्रतिशत और 2011 में 93 थी।
  5. जहां सामने सशक्त पक्ष हो तो न्यायाधीश भी अपने आपको असहाय और लाचार पाते हैं-उनकी श्रेष्ठ न्यायिक शक्तियां अंतर्ध्यान हो जाती हैं। जहां दोषी व्यक्ति शक्तिसंपन्न हो, वहां कानून के हाथ भी छोटे पड़ जाते हैं। देश के न्यायाधीशों की निष्पक्षता, तटस्थता और स्वतंत्रता खतरे में दिखाई देती है। देश का न्यायिक वातावरण दूषित है और इसकी गरिमा प्रश्नास्पद है। इस वातावरण में प्रतिभाशाली और ईमानदार लोगों के लिए कोई स्थान दिखाई नहीं देता है।
  6. उच्च न्यायालयों में भी सुनवाई के लिए वकील अनुकूल बेंच की प्रतीक्षा करते रहते हैं-स्थगन लेते रहते हैं, .... जिसका एक अर्थ यह निकलता है कि उच्च न्यायालय की बेंचें फिक्स व मैनेज की जाती हैं व कानून गौण हो जाता है। कोई भी मूल प्रार्थी, अपवादों को छोड़कर, किसी याचिका पर निर्णय में देरी करने के प्रयास नहीं करेगा, फिर भी देखा गया है कि मूल याची या याची के वकील भी अनुकूल बेंच के लिए प्रतीक्षा करते हैं।
मनीराम शर्मा, एडवोकेट
  
भारतीय न्यायातंत्र उर्फ मुकदमेबाजी उद्योग ने बड़ी संख्या में रोजगार उपलब्ध करवा रखा है। देश में अर्द्ध–न्यायिक निकायों को छोड़कर 20,000 से ज्यादा न्यायाधीश, 2,50,000 से ज्यादा सहायक स्टाफ, 25,00,000 से ज्यादा वकील, 10,00,000 से ज्यादा मुंशी टाइपिस्ट, 23,00,000 से ज्यादा पुलिसकर्मी इस व्यवसाय में नियोजित हैं और वैध–अवैध ढंग से जनता से धन ऐंठ रहे हैं। अर्द्ध-न्यायिक निकायों में भी समान संख्या और नियोजित है। फिर भी परिणाम और इन लोगों की नीयत लाचार जनता से छुपी हुई नहीं हैं। भारत में मुक़दमेबाजी उद्योग एक कुचक्र की तरह संचालित है, जिसमें सत्ता में शामिल सभी पक्षकार अपनी-अपनी भूमिका निसंकोच और निर्भीक होकर बखूबी निभा रहे हैं। प्राय: झगड़ों और विवादों का प्रायोजन अपने स्वर्थों के लिए या तो राजनेता स्वयं करते हैं या वे इनका पोषण करते हैं। अधिकाँश वकील किसी न किसी राजनैतिक दल से चिपके रहते हैं और उनके माध्यम से वे अपना व्यवसाय प्राप्त करते हैं, क्योंकि विवाद के पश्चात पक्षकार सुलह–समाधान के लिए अक्सर राजनेताओं के पास जाते हैं और कालांतर में राजनेताओं से घनिष्ठ संपर्क वाले वकील ही न्यायाधीश बन पाते हैं। इस बात का खुलासा सिंघवी सीडी प्रकरण ने भी कर दिया है। इस प्रकरण ने यह भी दिखा दिया कि न्यायाधीश बनने के लिए आशार्थी को किन कठिन परीक्षणों से गुजरना पड़ता है। भारत में किसी चयन प्रक्रिया में न्यायाधीशों या विपक्ष को भी शामिल करने का कोई लाभ नहीं है, क्योंकि जिस प्रक्रिया में जितने ज्यादा लोग शामिल होंगे; उसमें भ्रष्टाचार उतना ही अधिक होगा। प्रक्रिया में शामिल सभी लोग तुष्ट होने पर ही कार्यवाही आगे बढ़ पाएगी। यदि निर्णय प्रक्रिया में भागीदारों की संख्या बढाने या विपक्ष को शामिल करने से स्वच्छता आती तो हमें विधायिकाओं के अतिरिक्त किसी अन्य संस्था की आवश्यकता क्यों पड़ती। इसलिए प्रक्रिया में जितना प्रसाद मिलेगा, उसका बँटवारा प्रत्येक भागीदार की मोलभाव शक्ति के अनुसार होगा और अंतत: यह बंदरबांट का रूप ले लेगी। कहने को चाहे संवैधानिक न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति न्यायाधीश करते होंगे, किन्तु वास्तव में यह भी राजनीति की इच्छाशक्ति की सहमति से ही होता है। जहां राजनीति किसी नियुक्ति पर असहमत हो तो, देश में वकील और न्यायाधीश कोई संत पुरुष तो हैं नहीं, वे प्रस्तावित व्यक्ति के विरुद्ध किसी शिकायत की जांच खोलकर उसकी नियुक्ति बाधित कर देते हैं। अन्यथा दागी के विरुद्ध किसी प्रतिकूल रिपोर्ट को भी नजर अंदाज कर दबा दिया जाता है। विलियम शेक्स्पेअर ने भी (हेनरी 4 भाग 2 नाट्य 4 दृश्य 2) में कहा है , “हमारा सबसे पहला कार्य वकीलों को समाप्त करना है।”

वैसे भी भारत की राजनीति किसी दलदल से कम नहीं है और लगभग सभी नामी और वरिष्ठ वकील किसी न किसी राजनैतिक दल से जुड़े हुए हैं, जिसमें दोनों का आपसी हित है और दोनों एक दूसरे का संरक्षण करते हैं। न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया तो वैसे ही गोपनीय है और उसमें पारदर्शिता का नितांत अभाव है। न्यायाधीश पद पर नियुक्ति के लिए मात्र कानून का ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु वह व्यक्ति चरित्र, मनोवृति और बुद्धिमता के दृष्टिकोण से भी योग्य होना चाहिए, क्योंकि बुद्धिमान व्यक्ति के भी कुटिल होने का जोखिम बना रहता है। अमेरिका में न्यायाधीश पद पर नियुक्ति के समय उसकी पात्रता–बुद्धिमता, योग्यता, निष्ठा, ईमानदारी आदि की कड़ी जांच होती है और प्रत्येक पद के लिए दो गुने प्रत्याशियों की सूची राज्यपाल को नियुक्ति हेतु सौंपी जाती है, जबकि भारत में ऐसा कदाचित नहीं होता है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायाधीशों पर यौन शोषण के आरोप लगे और यह पाया गया कि उन्होंने शाराब का सेवन किया तथा पीड़ित महिला को भी इसके लिए प्रस्ताव रखा। इससे यह प्रामाणित होता है कि वे लोग अभक्ष्य पदार्थों का भक्षण करने वाले रहे हैं, जिनमें सात्विक और सद्बुद्धि की कल्पना नहीं की जा सकती। निश्चित रूप से ऐसे चरित्रवान लोगो को इन गरिमामयी पदों पर नियुक्त करने में देश से भारी भूलें हुई हैं, चाहे उन्हें दण्डित किया जाता है या नहीं। न्यायाधीश होने के लिए मात्र विद्वान होना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु वह मन से सद्बुद्धि और सात्विक होना चाहिए। अन्यथा सद्चरित्र के अभाव में ऐसा पांडित्य तो रावण के समान चरित्र को ही प्रतिबिंबित कर सकता है और इसके अतिरिक्त कुछ नहीं।

विधि आयोग की 197 वीं रिपोर्ट के अनुसार भारत में दोषसिद्धि की दर मात्र 2 प्रतिशत है, जिससे सम्पूर्ण न्यायतंत्र की क्षमता–योग्यता का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। जबकि अमेरिका के संघीय न्यायालयों की दोष सिद्धि की जो दर 1972 में 75 प्रतिशत थी, वह बढ़कर 1992 में 85 प्रतिशत हो गयी है। वहीं वर्ष 2011 में अमरीकी न्याय विभाग ने दोष सिद्धि की दर 93 प्रतिशत बतायी है। भारत में आपराधिक मामलों में पुलिस अनुसंधान में विलंब करती है, फिर भी दोष सिद्धियाँ मात्र 2 प्रतिशत तक ही सीमित रह जाती हैं। इसका एक संभावित कारण है कि पुलिस वास्तव में मामले की तह तक नहीं जाती, अपितु कुछ कहानियां गढ़ती है और झूठी कहानी गढ़ने में उसे समय लगना स्वाभाविक है। दोष सिद्धि की दर अमेरिकी राज्य न्यायालयों में भी पर्याप्त ऊँची है। रिपोर्ट के अनुसार यह टेक्सास में 84 प्रतिशत, कैलिफ़ोर्निया में 82 प्रतिशत, न्यूयॉर्क में 72 प्रतिशत उतरी कैलिफ़ोर्निया में 67 प्रतिशत और फ्लोरिडा में 59 प्रतिशत है। इंग्लॅण्ड के क्राउन कोर्ट्स में भी दोष सिद्धि की दर 80 प्रतिशत है। हांगकांग के सत्र न्यायालयों में 92 प्रतिशत, वेल्स के सत्र न्यायालयों में 80 प्रतिशत, कनाडा के समान न्यायालयों में 69 प्रतिशत और ऑस्ट्रेलिया के न्यायालयों में 79 प्रतिशत है। ऐसी स्थिति में क्या भारत में मात्र 2 प्रतिशत दोष सिद्धि जनता पर एक भार नहीं हैं? क्या इतना परिणाम यदि देश में बैंकिंग या अन्य उद्योग दें तो सरकार इसे बर्दास्त कर सकेगी? फिर न्यायतंत्र के ऐसे निराशाजनक परिणामों को सत्तासीन और विपक्ष दोनों क्योंकर बर्दास्त कर रहे हैं? इससे न्यायतंत्र के भी राजनैतिक उपयोग की बू आती है। देश में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा वसूली हेतु दायर किये गए मामलों में भी, जहां पूरी तरह से सुरक्षित दस्तावेज बनाकर ऋण दिए जाते हैं, वसूली मात्र 2 प्रतिशत वार्षिक तक सीमित है, जबकि इनमें लागत 15 प्रतिशत आ रही है। देश की जनता को न्यायतंत्र की इतनी विफलता में क्रमश: न्यायपालिका, विधायिका, पुलिस व वकीलों के अलग-अलग योगदान को जानने का अधिकार है। 

जहां तक नियुक्ति या निर्णयन की किसी प्रक्रिया में पक्ष-विपक्ष को शामिल करने का प्रश्न है, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता, क्योंकि जो पक्ष आज सता में है-कल विपक्ष में हो सकता है और ठीक इसके विपरीत भी। अत: इन दोनों समूहों में वास्तव में आपस में कोई संघर्ष-टकराव नहीं होता है, जो भी संघर्ष होता है-वह मात्र सस्ती लोकप्रियता व वोट बटोरने और जनता को मूर्ख बनाने के लिए होता है। यद्यपि प्रजातंत्र कोई मूकदर्शी खेल नहीं है, अपितु यह तो जनता की सक्रिय भागीदारी से संचालित शासन व्यवस्था का नाम है। जनतंत्र में न तो जनता जनप्रतिनिधियों के बंधक है और न ही जनतंत्र किसी अन्य द्वारा निर्देशित कोई व्यवस्था का नाम है। न्यायाधिपति सौमित्र सेन पर महाभियोग का असामयिक पटाक्षेप और राजस्थान उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश भल्ला द्वारा अपर सत्र न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले को देश की जनता देख ही चुकी है, जहां मात्र अनुचित नियुक्तियों को निरस्त ही किया गया और किसी दोषी के गिरेबान तक कानून का हाथ नहीं पहुँच सका। जिससे यह प्रमाणित है कि जहां दोषी व्यक्ति शक्तिसंपन्न हो, वहां कानून के हाथ भी छोटे पड़ जाते हैं। देश के न्यायाधीशों की निष्पक्षता, तटस्थता और स्वतंत्रता खतरे में दिखाई देती है। देश का न्यायिक वातावरण दूषित है और इसकी गरिमा प्रश्नास्पद है। इस वातावरण में प्रतिभाशाली और ईमानदार लोगों के लिए कोई स्थान दिखाई नहीं देता है। न्यायाधीशों के पदों पर नियुक्ति हेतु आशार्थियों की सूची को पहले सार्वजनिक किया जाना चाहिए, ताकि अवांछनीय और अपराधी लोग इस पवित्र व्यवसाय में अतिक्रमण नहीं कर सकें। वर्तमान में तो इस व्यवसाय के संचालन में न्याय-तंत्र का अनुचित महिमामंडन करने वाले वकील, उनके सहायक, न्यायाधीश और पुलिस ही टिक पा रहे हैं।

हाल ही में उच्च न्यायालयों में मुख्य न्यायाधीश की पदस्थापना के लिए यह नीति बनायी गयी कि मुख्य न्यायाधीश किसी बाहरी राज्य का हो,  किन्तु यह नीति न तो उचित है और न ही व्यावहारिक है। न्यायाधीश पूर्व वकील होते हैं और वे राजनीति के गहरे रंग में रंगे होते हैं। इस वास्तविकता की ओर आँखें नहीं मूंदी जा सकती। अत: देशी राज्य के वकीलों का ध्रुवीकरण हो जाता है और बाहरी राज्य का अकेला मुख्य न्यायाधीश अलग थलग पड़ जाता है तथा वह चाहकर भी कोई सुधार का कार्य हाथ में नहीं ले पाता, क्योंकि संवैधानिक न्यायालयों में प्रशासनिक निर्णय समूह द्वारा लिए जाते हैं। वैसे भी यह नीति देश की न्यायपालिका में स्वच्छता व गतिशीलता रखने और स्थानान्तरण की सुविचारित नीति के विरूद्ध है। जहां एक ओर सत्र न्यायाधीशों के लिए समस्त भारतीय स्तर की सेवा की पैरवी की जाती है, वहीं उच्च न्यायालयों के स्तर के न्यायाधीशों के लिए इस तरह की नीति के विषय में कोई विचार तक नहीं किया जा रहा है, जिससे न्यायिक उपक्रमों में स्वच्छता लाने की मूल इच्छा शक्ति पर ही संदेह होना स्वाभाविक है। उच्च न्यायालयों द्वारा आवश्यकता होने पर पुलिस केस डायरी मंगवाई जाती है, किन्तु उसे बिना न्यायालय के आदेश के ही लौटा दिया जाता है। जिससे यह सन्देश जाता है कि न्यायालय और पुलिस हाथ से हाथ मिलाकर कार्य कर रहे हैं न कि वे स्वतंत्र हैं। क्या न्यायालय एक आम नागरिक द्वारा प्रस्तुत दस्तावेज को भी बिना न्यायिक आदेश के लौटा देते हैं? केरल उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने एक बार राज्य के महाधिवक्ता द्वारा प्रकरणों में तैयार होकर न आने पर न्यायालय से ही वाक आउट कर दिया, बजाय इसके कि कार्यवाही को आगे बढ़ाते अथवा महाधिवक्ता पर समुचित कार्यवाही करते अर्थात जहां सामने सशक्त पक्ष हो तो न्यायाधीश भी अपने आपको असहाय और लाचार पाते हैं-उनकी श्रेष्ठ न्यायिक शक्तियां अंतर्ध्यान हो जाती हैं। भारत का आम नागरिक तो न्यायालयों में चलने वाले पैंतरों, दांव-पेंचों आदि से परिचित नहीं हैं, किन्तु देश के वकीलों को ज्ञान है कि देश में कानून या संविधान का अस्तित्व संदिग्ध है। अत: वे अपनी परिवेदनाओं और मांगों के लिए दबाव बनाने हेतु धरनों, प्रदर्शनों, हड़तालों, विरोधों आदि का सहारा लेते हैं। आखिर पापी पेट का सवाल है। कदाचित उन्हें सम्यक न्यायिक उपचार उपलब्ध होते तो वे ऐसा रास्ता नहीं अपनाते। सामान्यतया न्यायार्थी जब वकील के पास जाता है तो उसके द्वारा मांगी जानी वाली आधी राहतों के विषय में तो उसे बताया जाता है कि ये कानून में उपलब्ध नहीं हैं और शेष में से अधिकाँश देने की परम्परा नहीं है अथवा साहब देते नहीं हैं।

पारदर्शिता और भ्रष्टाचार में कोई मेलजोल नहीं होता है, इस कारण न्यायालयों एवं पुलिस का स्टाफ अपने कार्यों में कभी पारदर्शिता नहीं लाना चाहता है। देश के 20,000 न्यायालयों के कम्प्यूटरीकरण की ईकोर्ट प्रक्रिया 1990 में प्रारंभ हुई थी और यह आज तक 20 उच्च न्यायालयों के स्तर तक भी पूर्ण नहीं हो सकी है। दूसरी ओर देखें तो देश की लगभग 1,00,000 सार्वजनिक क्षेत्र की बैंक शाखाओं के कम्प्यूटरीकरण का कार्य 10 वर्ष में पूर्ण हो गया। इससे न्यायतंत्र से जुड़े लोगों की कम्प्यूटरीकरण में अरुचि का सहज अनुमान लगाया जा सकता है जो माननीय कहे जाने वाले न्यायाधीशों के सानिध्य में ही संचालित हैं। देश के न्यायालयों में सुनवाई पूर्ण होने की के बाद भी निर्णय घोषित नहीं किये जाते तथा ऐसे भी मामले प्रकाश में आये हैं, जहां पक्षकारों से न्यायाधीशों ने मोलभाव किया और निर्णय जारी करने में 6 माह तक का असामान्य विलम्ब किया। वैसे भी निर्णय सुनवाई पूर्ण होने के 5-6 दिन बाद ही घोषित करना एक सामान्य बात है। कई बार पीड़ित पक्षकार को अपील के अधिकार से वंचित करने के लिए निर्णय पीछे की तिथि में जारी करके भी न्यायाधीश पक्षकार को उपकृत करते हैं। जबकि अमेरिका में निर्णय सुनवाई पूर्ण होने के बाद निश्चित दिन ही जारी किया जाता है और उसे अविलम्ब इन्टरनेट पर उपलब्ध करवा दिया जाता है। अपने अहम की संतुष्टि और शक्ति के बेजा प्रदर्शन के लिए संवैधानिक न्यायालय कई बार भारी खर्चे भी लगाते हैं, जबकि इसके लिए उन्होंने ऐसे कोई नियम नहीं बना रखे हैं, क्योंकि नियम बनाने की उन्हें कोई स्वतंत्र शक्तियां प्राप्त भी नहीं हैं। एक मामले में बम्बई उच्च न्यायालय की दो सदस्यीय पीठ ने 40 लाख रुपये खर्चा लगाया जो उच्चतम न्यायालय ने घटाकर मात्र 25 हजार रुपये कर दिया। इस दृष्टांत से स्पष्ट है कि न्यायाधीश लोग निष्पक्ष की बजाय पूर्वाग्रहों पर आधारित होते हैं व देश की अस्वच्छ राजनीति की ही भांति उनका आपसी गठबंधन व गुप्त समझौता होता है और समय पर एक दूसरे के काम आते हैं। अत: निर्णय चाहे एक सदस्यीय पीठ दे या बहु सदस्यीय पीठ दे, उसकी गुणवता में कोई ज्यादा अंतर नहीं आता है। न्यायालयों द्वारा कई बार नागरिकों पर भयावह खर्चे लगाए जाते हैं, जबकि खर्चे शब्द का शाब्दिक अर्थ लागत की पूर्ति करना होता है और उसमें दंड शामिल नहीं है व लागत की गणना भी किया जाना आवश्यक है। जिस प्रकार न्यायालय पक्षकारों से अपेक्षा करते हैं। यदि किसी व्यक्ति पर किसी कानून के अंतर्गत दंड लगाया जाना हो तो संविधान के अनुसार उसे उचित सुनवाई का अवसर देकर ही ऐसा किया जा सकता है, किन्तु वकील ऐसे अवसरों पर मौन रहकर अपने पक्षकार का अहित करते हैं। 

वकालत का पेशा भी कितना विश्वसनीय है, इसकी बानगी हम इस बात से देख सकते हैं कि परिवार न्यायालयों, श्रम आयुक्तों, (कुछ राज्यों में) सूचना आयुक्तों आदि के यहाँ वकील के माध्यम से प्रतिनिधित्व अनुमत नहीं है अर्थात इन मंचों में वकीलों को न्याय पथ में बाधक माना गया है। फिर वकील अन्य मंचों पर साधक किस प्रकार हो सकते हैं? उच्च न्यायालयों में भी सुनवाई के लिए वकील अनुकूल बेंच की प्रतीक्षा करते रहते हैं-स्थगन लेते रहते हैं, यह तथ्य भी कई बार सामने आया है। जिसका एक अर्थ यह निकलता है कि उच्च न्यायालय की बेंचें फिक्स व मैनेज की जाती हैं व कानून गौण हो जाता है। कोई भी मूल प्रार्थी, अपवादों को छोड़कर, किसी याचिका पर निर्णय में देरी करने के प्रयास नहीं करेगा, फिर भी देखा गया है कि मूल याची या याची के वकील भी अनुकूल बेंच के लिए प्रतीक्षा करते हैं, जिससे उपरोक्त अवधारणा की फिर पुष्टि होती है।

देश में आतंकवादी गतिविधियाँ भी प्रशासन, पुलिस और राजनीति के सहयोग और समर्थन के बिना संचालित नहीं होती हैं। आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों में भी परिवहन, व्यापार आदि चलते रहते हैं, जो कि पुलिस और आतंकवादियों व संगठित अपराधियों दोनों को प्रोटेक्शन मनी देने पर ही संभव है। वैसे भी इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता, जिसमें व्यापारी वर्ग को किसी शासन व्यवस्था से कभी कोई शिकायत रही हो, क्योंकि वे पैसे की शक्ति को पहचानते हैं तथा पैसे के बल पर अपना रास्ता निकाल लेते हैं। चाहे शासन प्रणाली या शासन कैसा भी क्यों न हो। पुलिस के भ्रष्टाचार का अक्सर यह कहकर बचाव किया जाता है कि उन्हें उचित प्रशिक्षण प्राप्त नहीं है। अत: कार्य सही नहीं किया गया, किन्तु रिश्वत लेने का भी तो उन्हें कोई प्रशिक्षण नहीं होता फिर वे इसके लिए किस प्रकार रास्ता निकाल लेते हैं। ठीक इसी प्रकार एक व्यक्ति को गृहस्थी के संचालन का भी प्रारम्भ में कोई अनुभव नहीं होता, किन्तु अवसर मिलने पर वह आवश्यकतानुसार सब कुछ सीख लेता है। देश में प्रतिवर्ष लगभग एक करोड़ गिरफ्तारियां होती हैं, जिनमें से 60 प्रतिशत अनावश्यक होती हैं। ये गिरफ्तारियां भी बिना किसी अस्वच्छ उद्देश्य के नहीं होती हैं, क्योंकि राजसत्ता में भागीदार पुलिस, अर्द्ध-न्यायिक अधिकारी व प्रशासनिक अधिकारी आदि को इस बात का विश्वास है कि वे चाहे जो मर्जी करें, उनका कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं है और देश में वास्तव में ऐसा कोई मंच नहीं है जो प्रत्येक शक्ति-संपन्न व सत्तासीन दोषी को दण्डित कर सके। जहां कहीं भी अपवाद स्वरूप किसी पुलिसवाले के विरुद्ध कोई कार्यवाही होती है, वह तो मात्र नाक बचाने और जनता को भ्रमित करने के लिए होती है। यदि पुलिस द्वारा किसी मामले में गिरफ्तारी न्यायोचित हो तो वे, घटना समय के अतिरिक्त अन्य परिस्थितियों में, गिरफ्तारी हेतु मजिस्ट्रेट से वारंट प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु न तो ऐसा किया जाता है और न ही देश का न्याय तंत्र ऐसी कोई आवश्यकता समझता है और न ही कोई वकील अपने मुवक्किल के लिए कभी मांग करता देखा गया है। यदि न्यायपालिका पुलिस द्वारा अनुसंधान में के मनमानेपन को नियंत्रित नहीं कर सकती, जिससे मात्र 2 प्रतिशत दोष सिद्धियाँ हासिल हो रही हों, तो फिर उसे दूसरे नागरिकों पर नियंत्रण स्थापित करने का नैतिक अधिकार किस प्रकार प्राप्त हो जाता है?

Sunday, March 3, 2013

बलात्‍कार के कानून का दुरूपयोग!

राजीव कुमार

बलात्‍कार का कानून इसलिये बनाया गया है कि किसी लड़की के साथ बलात्‍कार हुआ है तो उसे इंसाफ मिले, लेकिन इसका मतलब यह नही कि इस कानून की आड़ में लड़की या पुलिस किसी बेगुनाह को फंसाये या उसके परिवार से ब्‍लैक‍मेलिंग करे। इसलिये कानून के रखवालों को चाहिये कि वे इसके दुरूपयोग करने वाले को सख्‍त से सख्‍त सजा का प्रावधान करें वर्ना कुछ दुष्‍ट महिलाओं व पुलिस के लिये यह पैसा उगाहने का एकमात्र साधन बनकर रह जायेगा।

ज्ञात हो कि श्री लक्ष्‍मीनारायण गुप्‍ता, निवासी खलीलाबाद, जिला संत कबीर नगर, उ.प्र. के पुत्र दीपक गुप्‍ता से धर्मेश गुप्‍ता (काल्‍पनिक नाम), निवासी एफ-67, गली नं0 2, सुभाष विहार, उत्‍तरी घोण्‍डा, दिल्‍ली-53 की पुत्री अनन्‍या (काल्‍पनिक नाम) के विवाह की बात चली, किन्‍तु समगोत्र होने से वर पक्ष ने रिश्‍ता करने से इंकार कर दिया।

धर्मनाथ गुप्‍ता और उसकी पुत्री अनन्‍या ने रिश्‍ता न होने पर काफी तिलमिला गये और दीपक गुप्‍ता को फर्जी मामले में जेल भेजने की धमकी दी। आगे अनन्‍या और उसके पिता ने यह धमकी दी थी कि आपने शादी तोड़ी है इसके एवज में हमें 15 लाख रूपये दीजिये, वर्ना हम आप सबको फंसवा देंगे हमारी पुलिस में काफी पकड़ है।

अनन्‍या गुप्‍ता ने 1 जनवरी 2013 को दिल्‍ली के थाना मण्‍डावली में प्राथमिकी संख्‍या 3/2013 दर्ज कराई कि 24 जून 2012 को दीपक गुप्‍ता उनके घर आया और 25 जून 2012 को अक्षरधाम मन्दिर घुमाने के बहाने अपने जीजा अजय गुप्‍ता के साथ एक कमरे पर ले गया जहां दोनों ने पेप्‍सी में नशीला पदार्थ पिलाकर बेहोश किया इसके बाद दोनों ने बारी-बारी से उसके साथ बलात्‍कार किया तथा वीडियो भी बनाया।

इसके बाद आनन-फानन में मण्‍डावली थाने की भ्रष्‍ट पुलिस ने बलात्‍कार के आरोप में दीपक गुप्ता और अजय गुप्‍ता को बिना किसी सबूतों की जांच-पड़ताल किये बिना गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल भेज दिया, दोनों आरोपी अभी तिहाड़ जेल में हैं। वहीं पुलिस किसी भी सबूत को देखना नही चाहती है यहां तक कि डीसीपी तक भी सबूत को बिना जांचे-परखे उसे फर्जी बता रहे हैं। इसका क्‍या मतलब हो सकता है? इसका तो यही मतलब निकलता है कि लड़की के पक्ष ने एक मोटी रकम देकर इन पुलिस वालों की तोंदे फुला दी तभी तो वे आरोपी पक्ष के कोई बेगुनाही के सबूत को देखना तक भी मुनासिब नही समझ रहे हैं।

सही मायने में देखा जाय तो दीपक गुप्‍ता 24 जून, 2012 को संत कबीर नगर, उ0प्र0 में एक रिश्‍तेदार की शादी में था जिसका प्रमाण शादी की वीडियो, तस्‍वीरें और शादी का प्रमाण पत्र है। तो लड़की का झूठ का पर्दाफाश यहीं हो जाता है कि वो पूरी तरह से गलत आरोप लगा रही है। यदि लड़की के साथ बलात्‍कार हुआ तो छह महीने बाद क्‍यों पुलिस को जानकारी दी, अगर उसे अपने बनाये एमएमएस का डर था तो वह डर छह महीने बाद कैसे समाप्‍त हो गया। वहीं बलात्‍कार का दूसरा आरोपी अजय गुप्‍ता उस दिन फरीदाबाद, हरियाणा स्थित अपने घर में अपनी पत्‍नी के पास था। इसलिये प्रथम दृष्‍टया बलात्‍कार का यह आरोप पूरी तरह से झूठा नजर आता है।
सच्‍चाई कुछ और ही है

अनन्‍या के साथ बलात्‍कार 25/06/2012 को हुआ। उसने आरोप लगाया कि उसके साथ बलात्‍कार दीपक और उसके जीजा दोनों ने मिलकर किया। उसने प्राथमिकी 01/01/2013 को कराया। आखिर प्राथमिकी दर्ज कराने में इतनी देरी क्‍यों? और तो और छह महीने से ज्‍यादा बीत जाने के बाद वो किसलिये चुप बैठी थी। लड़के पक्ष वालों का कहना है शादी टूटने पर 15 लाख रूपये की मांग परोक्ष रूप से किया गया जिसके न देने पर लड़की ने फंसाया। दूसरी मांग लड़की वालों ने यह की कि हमें दिल्‍ली में 50 गज जमीन दे दी जाये और अब लड़की पक्ष वाले मामला बिगड़ता देख कह रहे हैं कि लड़का शादी करले हम पूरा मामला वापस ले लेंगे।

इधर दीपक गुप्‍ता के बेगुनाही का दूसरा सबूत यह है कि उसने आरोप वाले दिन खैलाबाद, संत कबीर नगर के एचडीएफसी के एटीएम से दिन में सुबह 9:06 के करीब 1500 रूपये निकाले थे, उस एटीएम की वी‍डियो फुटेज उसकी बेगुनाही का पुख्‍ता सबूत है। और तो और पुलिस ने बिना किसी सबूतों-सच्‍चाई की जांच-परख के दीपक और अजय को जेल में डाल दिया, इससे यही प्रतीत होता है कि पुलिस अनन्‍या और उसके पूरे परिवार से मिली हुयी है।

इस मुद्दे पर अखिल भारत हिन्‍दू महासभा के दिल्‍ली प्रदेश अध्‍यक्ष रविन्‍द्र द्विवेदी की प्रशंशा करनी चाहिये कि उन्‍होंने इन दो बेगुनाहों को बचाने के लिये 4 फरवरी, 2013 को पुलिस मुख्‍यालय पर प्रदर्शन किया व संबोधित ज्ञापन भी पु‍लिस आयुक्‍त को सौंपा। इसके बाद 18 फरवरी, 2013 को पुन: जंतर-मंतर पर धरना-प्रदर्शन किया, अपनी गिरफ्तारी दी, तत्‍पश्‍चात प्रधानमंत्री को ज्ञापन भी सौंपा। 

पुलिस का रवैया बेहद नकारात्‍मक

इस घटना को लेकर पुलिस का रवैया बेहद नकारात्‍मक व शर्मनाक है। जब बलात्‍कार के आरोपी के बेगुनाही के सबूत दिये जा रहे हैं तो पुलिस उन प्रमाणों को क्‍यों नजरंदाज कर रही है? पुलिस लड़की की ही बात क्‍यों सुन रही है? पुलिस एटीएम से निकाले गये पैसे का दिन, समय व वीडियो फुटेज क्‍यों नजरंदाज कर रही है जिसके गर्भ में ठोस सबूत छिपे हैं?

आखिर पुलिस एटीएम के वीडियो फुटेज क्‍यों नही देखना चाह रही है? एटीएम के वीडियो फुटेज से सब दूध का दूध पानी का पानी हो जायेगा। इससे तो एक बात पूरी तरह से साबित हो जाता है कि पुलिस पूरी तरह से लड़की पक्ष से मिली हुयी है और मोटा रिश्‍वत डकारी है जिसके एवज में बलात्‍कार के आरोपी पक्ष के मजबूत व पुख्‍ता सबूतों को पूरी तरह नजरंदाज कर दे रही है। पुलिस बिना किसी प्रमाण के ही दो बेगुनाहों को जेल में इसलिये डाल रखा है क्‍योंकि लड़की ने झूठा आरोप लगाया है, जिसमें पुलिस की पूरी मिलीभगत है। यह पुलिस व दुष्‍ट लड़की का एक ऐसा षडयंत्र है जिसमें बलात्‍कार के कानून का डर दिखाकर भारी धन-दोहन किया जा सके।

दुर्भाग्‍यवश कोई लड़की यदि किसी पर झूठा आरोप मढ़े तो पुलिस बिना किसी तथ्‍यों को देखे बिना उसे तिहाड़ भेज देगी। जबकि होना यह चाहिये था कि पुलिस आयुक्‍त व पूर्वी दिल्‍ली के डीसीपी के समक्ष यह विषय आया तो इसकी निष्‍पक्ष तहकीकात कराना चाहिये था, मगर पुलिस किसी तथ्‍य को बिना जांच कराये ही फर्जी बताने पर आमादा है। छोटे अधिकारी तो छोटे है बड़े अधिकारी भी अपने अविवेक का ही परिचय दे रहे हैं।

कानून का दुरूपयोग करने वालों को सख्‍त सजा होनी चाहिये

बलात्‍कार का कानून इसलिये बनाया गया है ताकि किसी महिला के साथ अन्‍याय न हो, उसे न्‍याय मिले लेकिन यदि इस कानून का दुरूपयोग कोई दुष्‍ट महिला करे तो उसे कठोर से कठोर सजा मिलनी चाहिये ताकि भविष्‍य में इस तरह के कानून का कोई दुरूपयोग करने का दुस्‍साहस न कर सके। 

बलात्‍कार का झूठा केस बनाने वाले ऐसे पुलिस अधिकारियों को भी सख्‍त सजा मिलनी चाहिये जिससे वे भविष्‍य में इस तरह की गलतियों का पुनरावृत्ति न कर सके आने वाले पुलिस अधिकारी उससे सबक लेते हुये उसका दुरूपयोग करने से परहेज करें।

जरा सोचें कि कल यदि दीपक गुप्‍ता व अजय गुप्‍ता यदि बेगुनाह छूट जाते हैं तो क्‍या उनकी पूरे समाज में जो सम्‍मान की क्षति हुयी है, क्‍या उसे भरा जा सकता है? आरोपी युवक व उनका पूरा परिवार जिस मानसिक पीड़ा के दौर से गुजर रहा है क्‍या उसकी भरपायी हो पायेगी? कानून के रखवालों, कानून के बनाने वालों को एक बार सोचना होगा कि इस तरह के कानून का कैसे दुरूपयोग रूके ताकि कोई बेगुनाह फिर बलात्‍कार के झूठे मामले में पुलिस या दुष्‍ट महिलाओं के शिकार होने से बच सके। इसके लिये जनता को सड़कों पर आकर आंदोलन करना होगा वर्ना खाकी वर्दी वाले गुंडे-दरिंदे इस तरह की दुष्‍ट महिलाओं के साथ मिलकर बेगुनाह जनता को ऐसे ही फंसाते रहेंगे और हम और आप सिवाय रोने-सिसकने के कुछ नही कर पायेंगे।

इस यू ट्यूब लिंक में दीपक गुप्‍ता 24/06/2012 के विवाह समारोह में शामिल हुआ था फिर उसने रेप कैसे किया? दीपक गुप्‍ता कत्‍थई रंग के शर्ट में: स्त्रोत : क्रान्ति४पीपुल, 02.03.2013
- See more at: http://kranti4people.com/article.php?aid=3459#sthash.ccOIGHri.dpuf

Friday, January 11, 2013

एसपी राजेश मीणा तो एक बहाना है! असली मकसद तो मीणा आदिवासियों को मिटाना है!!

मनुवादी किसी भी सूरत में आदिवासियों को ताकतवर होते हुए नहीं देख सकते हैं| उनके लिये यह असहनीय हो रहा है कि राजस्थान का पुलिस महा निदेशक एक आदिवासी अर्थात् मीणा है| जिसे बदनाम करने के लिये पुलिस को भ्रष्ट दिखाना और वो भी उसी की जाति के राजेश मीणा को भ्रष्टाचार और घूसखोर सिद्ध करना, क्या किसी की समझ में नहीं आ रहा है? केवल इतना ही नहीं राजस्थान की राज्यपाल पुलिस महानिदेशक को बुलाकर कहती हैं कि राज्य में स्त्रियों पर अत्याचार और पुलिस में भ्रष्टाचार बढ रहा है| ये बात गृह मंत्री की ओर से भी कही जा सकती थी, लेकिन जानबूझकर पुलिस महानिदेशक को दबाव में लाने और इस खबर को मीडिया के जरिये जनता के समक्ष लाने की सरकार की नीति को मीणा जनजाति के लोगों को समझना होगा और साथ ही इस बात को भी समझना होगा कि केवल बड़े बाबू बनने या एक पार्टी छोड़कर सत्ताधारी पार्टी का दामन थामकर लाल बत्ती प्राप्त कर लेने मात्र से आदिवासियों का उत्थान नहीं हो सकता! आदिवासी समाज की सेवा करनी है तो लालबत्ती नहीं, आदिवासियों की हरियाली की वफादारी की भावना को जिन्दा रखना होगा|

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

पिछले दिनों राजस्थान के अजमेर जिले के पुलिस अधीक्षक पद पर तैनात राजेश मीणा को कथित रूप से अपने ही थानेदारों से वसूली करते हुए राजस्थान के भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ने दलाल के साथ रंगे हाथ पकड़ा गया | यह कोई पहली घटना नहीं है, जिसमें किसी लोक सेवक को रिश्‍वत लेते हुए पकड़ा गया हो! हर दिन कहीं न कहीं, किसी न किसी लोक सेवक को रिश्‍वत लेते पकड़ा ही जाता रहता है| ऐसे में किसी को रिश्‍वत लेते पकड़े जाने पर, किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये| सरकार और प्रशासन अपने-अपने काम करते ही रहते हैं| इसी दिशा में हर एक राज्य का भ्रष्टाचार निरोधक विभाग भी अपना काम करता रहता है| इसी क्रम में राज्य की भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो भी अपना काम कर ही रही है|

सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि जिस दिन से राजेश मीणा को कथित रूप से घूस लेते हुए पकड़ा है, उसी दिन से स्थानीय समाचार-पत्रों में इस खबर को इस प्रकार से प्रसारित और प्रचारित किया जा रहा है, मानो केवल मीणा जनजाति के सम्पूर्ण अधिकारी और कर्मचारी ही चोर हैं, बाकी सारे के सारे दूध के धुले हुए हैं| राजस्थान की मीणा जनजाति सहित सारे देश के सम्पूर्ण जनजाति समाज में इस बात को लेकर भयंकर रोष व्याप्त है| रोष व्याप्त होने का प्रमुख कारण ये है कि राजेश मीणा की मीडिया ट्रायल की जा रही है, जबकि दक्षिणी राजस्थान में अपनी मजदूरी मांगने जाने वाले एक आदिवासी मीणा के उच्च जाति के एक ठेकेदार द्वारा सरेआम हाथ काट दिये जाने की सही और क्रूरतम घटना को सही तरह से प्रकाशित और प्रसारित करने में इसी मीडिया को अपना धर्म याद नहीं रहा|

इसके अलावा पिछले दिनों दलित परिवार के दो नवविवाहिता जोड़ों को मन्दिर से धक्के मारकर भगा देने की घटना को इसी मीडिया द्वारा जानबूझकर दबा दिया गया| भ्रूण हत्या के आरोपों में पकड़े जाने वाले उच्च जातीय डॉक्टरों के रंगे हाथ पकड़े जाने के उपरान्त भी खबर को अन्दर के पन्नों पर दबा दिया जाता है| जब पिछड़े वर्ग से आने वाले राजनेता महीपाल मदेरणा का प्रकरण सामने आया तो उसकी भी जमकर मीडिया ट्रायल की गयी| जबकि दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग के लोगों के विरुद्ध होने वाले अपराधों में पकड़े जाने वाले मनुवादी अपराधियों के क्रूर और घृणित अपराधों को जानबूझकर मीडिया द्वारा और प्रशासन द्वारा दबा दिया जाता है|

इन सब बातों का साफ और सीधा मतलब है कि चाहे कानून और संविधान कुछ भी कहता हो जो भी जाति या व्यक्ति मनुवादी व्यवस्था से टकराने का प्रयास करेगा उसे निपटाने मे मनुवादी मीडिया और प्रशासन एवं सत्ता पर काबिज मनुवादी कोई कोर कसर नहीं छोड़ेंगे| महीपाल मदेरणा और राजेश मीणा दोनों ही मामलों में मनुवादियों की ओर से पिछड़ों और आदिवासियों को यही संकेत दिया गया है| 

राजस्थान में मीणा जाति के बच्चे कड़ा परिश्रम करते हैं| उनके माता-पिता कर्ज लेकर, अपने बच्चों को जैसे-तैसे पढा-लिखाकर योग्य बनाते हैं| जब वे अफसर या कर्मचारी नियुक्त होते हैं तो उस वर्ग की आँखों में खटकने लगते हैं, जो सदियों से मलाई खाता आ रहा है और आज भी सत्ता की असली ताकत उसी के पास है| जबकि जानबूझकर के मीणा जनजाति को बदनाम किया जा रहा है और अफवाह फैलायी जाती है कि मीणा सभी विभागों में और सभी क्षेत्रों में भरे पड़े हैं| जबकि सच्चाई इसके ठीक उलट है|

राजस्थान में आजादी से आज तक एक भी दलित या आदिवासी वकील को, वकीलों के लिये निर्धारित 67 फीसदी वकील कोटे से हाई कोर्ट का एक भी जज नियुक्त नहीं किया गया| इसका अर्थ क्या ये लगाया जाये कि दलित-आदिवासी वकील हाई कोर्ट के जज की कुर्सी पर बैठने लायक नहीं हैं या हाई कोर्ट के जज की कुर्सी दलित-आदिवासियों के बैठने से अपवित्र होने का खतरा है या दलित-आदिवासियों को जज नियुक्त करने पर मनुवादियों को खतरा है कि उनकी मनमानी रुक सकती हैं| कारण जो भी हो, लेकिन राजस्थान हाई कोर्ट में अपवादस्वरूप पदोन्नति कोटे से एक मात्र यादराम मीणा के नाम को छोड़ दिया जाये तो आजादी के बाद से एक भी व्यक्ति सरकार को या जज नियुक्त करने वाले लोगों को ऐसा नजर नहीं आया, जिसे जज के पद पर नियुक्त किया जा सकता!

मीणा क्यों बहुतायत में दिखते हैं? इस बात को भी समझ लेना जरूरी है| चूँकि आदिवासी वर्ग के लोग सरल व भोली प्रवृत्ति के होते हैं, इस कारण वे मनुवादियों की जैसी चालाकियों से वाकिफ नहीं होते हैं और इसी का नुकसान राजस्थान की आदिवासी मीणा जनजाति के लोगों को उठाना पड़ रहा है| सबके सब अपने नाम के आगे ‘मीणा’ सरनैम लिखते हैं| जिसके चलते सभी लोगों को हर एक क्षेत्र में मीणा ही मीणा नजर आते हैं| यदि मीणा अपने गोत्र लिखने लगें, जैसे कि-मरमट, सेहरा, मेहर, धणावत, घुणावत, सपावत, सत्तावत, जोरवाल, बारवाड़, बमणावत आदि तो क्या किसी को लगेगा कि मीणा जाति के लोगों की प्रशासन में बहुतायत है, लेकिन अभी भी मीणा जनजाति के लोगों को इतनी सी बात समझ में नहीं आ पायी है|

यह तो एक बड़ा और दूरगामी सवाल है, जिस पर फिर कभी चर्चा की जायेगी| लेकिन फिलहाल राजस्थान की मजबूत और ताकतवर कही जाने वाली मीणा जनजाति की नौकरशाही को इस बात को समझना होगा कि वे इस मुगालते में नहीं रहें कि वे बड़े बाबू बन गये तो उन्होंने कोई बहुत बड़ा तीर नहीं मार लिया है| क्योंकि सारा देश जानता है कि राजस्थान की ही नहीं, बल्कि सारे देश की पुलिस व्यवस्था अंग्रेजों की बनायी पटरी पर चल रही है| जिसके तहत प्रत्येक पुलिस थाने की बोली लगती है| थानेदार उगाही करके एसपी को देता है और एसपी ऊपर पहुँचाता है, जिसको अंतत: सत्ताधारी पार्टी को पहुँचाया जाता है| हर विभाग में इस तरह की उगाही होती है| पिछले दिनों एक एक्सईएन बतला रहे थे कि राजस्थान का प्रत्येक एक्सईन अपने चीफ इंजीनियर को हर माह पचास हजार रुपये पहुँचाता है, जिसमें से सीएमडी के पास से होते हुए हर माह मोटी राशी सरकार के पास पहुँचायी जाती है|

कहने का तात्पर्य यह है कि सरकारें स्वयं अफसरों से उगाही करवाती हैं और जब कभी कोई अफसर या अफसरों का कोई धड़ा नियम कानून या संविधान के अनुसार काम करने लगता है तो वही सरकार एक पल में ऐसे अफसरों को उनकी औकात दिखा देती है| कौन नहीं जानता कि किस-किस राजनेता का चरित्र कैसा है, लेकिन महीपाल मदेरणा को ठिकाने लगाना था तो लगा दिया| इसी प्रकार से जाट जाति के बाद राजस्थान में दूसरी ताकतवर समझी जाने वाली मीणा जनजाति के अफसरों को ठिकाने लगाने की राजेश मीणा से शुरूआत करके मीणा जाति के सभी अफसरों और कथित मीणा मुखियाओं को सन्देश दिया गया है कि यदि किसी ने अपनी आँख दिखाने का साहस किया तो उसका हाल राजेश मीणा जैसा होगा|

जहॉं तक इस प्रकार के मामले को मीडिया द्वारा उछाले जाने की बात है तो कोई भी नागरिक सूचना के अधिकार के तहत सरकार से पूछ सकता है कि उसकी ओर से किस-किस समाचार-पत्र को कितने-कितने करोड़ के विज्ञापन दिये गये हैं| जिन अखबारों को हर माह करोड़ों रुपये के विज्ञापन सरकार की ओर से भेंटस्वरूप दिये जाते हैं, उन समाचार-पत्रों की ओर से सरकार का हुकम बजाना तो उनका जरूरी धर्म है|

आजकल मीडिया व्यवसाय हो गया है| जिस पर भारत में केवल और केवल मनुवादियों का कब्जा है| मनुवादी किसी भी सूरत में आदिवासियों को ताकतवर होते हुए नहीं देख सकते हैं| उनके लिये यह असहनीय हो रहा है कि राजस्थान का पुलिस महानिदेशक एक आदिवासी अर्थात् मीणा है| जिसे बदनाम करने के लिये पुलिस को भ्रष्ट दिखाना और वो भी उसी की जाति के राजेश मीणा को भ्रष्टाचार और घूसखोर सिद्ध करना, क्या किसी की समझ में नहीं आ रहा है? केवल इतना ही नहीं राजस्थान की राज्यपाल पुलिस महानिदेशक को बुलाकर कहती हैं कि राज्य में स्त्रियों पर अत्याचार और पुलिस में भ्रष्टाचार बढ रहा है| ये बात गृह मंत्री की ओर से भी कही जा सकती थी, लेकिन जानबूझकर पुलिस महानिदेशक को दबाव में लाने और इस खबर को मीडिया के जरिये जनता के समक्ष लाने की सरकार की नीति को मीणा जनजाति के लोगों को समझना होगा और साथ ही इस बात को भी समझना होगा कि केवल बड़े बाबू बनने या एक पार्टी छोड़कर सत्ताधारी पार्टी का दामन थामकर लाल बत्ती प्राप्त कर लेने मात्र से आदिवासियों का उत्थान नहीं हो सकता! आदिवासी समाज की सेवा करनी है तो लालबत्ती नहीं, आदिवासियों की हरियाली की वफादारी की भावना को जिन्दा रखना होगा| एसपी राजेश मीणा तो एक बहाना है! असली मकसद तो मीणा आदिवासियों को मिटाना है|

Friday, December 21, 2012

बलात्कार से निजात कैसे?


एक पुलिस का जवान कानून व्यवस्था का हिस्सा बनने के लिये पुलिस में भर्ती होता है, लेकिन पुलिस अधीक्षक उसे अपने घर पर अपनी और अपने परिवार की चाकरी में तैनात कर देता है। (जो अपने आप में आपराधिक न्यासभंग  का अपराध है और इसकी सजा उम्र कैद है) जहॉं उसे केवल घरेलु कार्य करने होते हैं-ऐसा नहीं है, बल्कि उसे अफसर की बीवी-बच्चियों के गन्दे कपड़े भी साफ करने होते हैं। क्या यह उस पुलिस कॉंस्टेबल के सम्मान का बलात्कार नहीं है?

Monday, February 27, 2012

पुलिस अभिरक्षा में मृत्यु, कानून द्वारा शासित सभ्य समाज में एक कलंक है

दाण्डिक अपील संख्या ८५७/ १९९६ शकीला अब्दुल गफार खान बनाम वसंत रघुनाथ ढोबले में निर्णय सुनते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सरकार सर्वशक्तिमान और सर्वत्र व्याप्त अध्यापक की तरह लोगों के सामने उदाहरण प्रस्तुत करती है, यदि सरकार ही कानून तोडने वाली हो जाये तो यह कानून के अपमान को जन्म देती

Sunday, February 26, 2012

सूचना प्राप्त करने के लिए एक व्यक्ति को यातना देना निश्चित रूप से इसमें शामिल नहीं है

सुप्रीम कोर्ट द्वारा दाण्डिक अपील संख्या ९१९/१९९९ मुंशी सिंह गौतम बनाम मध्यप्रदेश राज्य के निर्णय दिनांक १६.११.२००४ में कहा गया है कि न्यायालयों को, विशेष रूप से हिरासत में अपराधों के सम्बन्ध में, अपने रुख,प्रवृति और विचारधारा में परिवर्तन लाने और अधिक संवेदनशीलता दिखाने तथा संकीर्ण तकनीकि सोच के स्थान पर वास्तविक विचारधारा अपनानी चाहिए, हिरासती हिंसा के मामलों की प्रक्रिया में यथा संभव अपनी शक्तियों के भीतर, सत्य का पता लगाया जाय व दोषी बच नहीं जाए ताकि अपराध से पीड़ित को संतोष हो सके कि आखिर कानून की श्रेष्ठता जीवित है| एक अपराध की रिपोर्ट प्राप्त होने पर पुलिस का कर्तव्य है कि सत्य का पता लगाने के लिए साक्ष्यों का संग्रहण करे जिन्हें विचारण के समय प्रस्तुत किया जा सके| सूचना प्राप्त करने के लिए एक व्यक्ति को यातना देना निश्चित रूप से इसमें शामिल नहीं है चाहे वह अभियुक्त हो अथवा साक्षी हो| यह कर्तव्य कानून की चारदीवारी के भीतर होना चाहिए| कानून लागू करने वाले साक्ष्य संग्रहण के नाम पर कानून को अपने हाथ में नहीं ले सकते | यह तर्क कि मृतक पुलिस थाने पर अत्यंत गंभीर हालत में आया था और अपना नाम बताने के बाद मर गया, झूठा लगता है क्योंकि अभियुक्त ने धारा ३१३ के अपने बयानों में स्पष्ट कहा है कि सूचना प्राप्त होने पर जहाँ कि मृतक घायल अवस्था में बेहोश पड़ा था| इस दृष्टिकोण से जहां तक अभियुक्त गुलाबसिंह पर हिरासती यातना का आरोप है , साबित हो गया है |

Thursday, December 22, 2011

पुलिसिया ज्यादतियां

पैशाचिक पिटाई से पुलिस अभिरक्षा में हुई मृत्यु के प्रमुख मामले गौरीशंकर  शर्मा बनाम उ0प्र0 राज्य (ए.आई.आर. 1990 सु.को. 709) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि यह एक गंभीर अपराध है क्योंकि ऐसे व्यक्ति द्वारा किया गया है जिससे नागरिकों की रक्षा करने की अपेक्षा की जाती है न कि अपनी वर्दी व अधिकारों का अपनी अभिरक्षा में रहे व्यक्तियों पर राक्षसी हमला करने की। पुलिस अभिरक्षा में मृत्यु को गंभीरता से लिया जाना चाहिए अन्यथा हम पुलिस राज की स्थापना करने में सहायक होंगे। इसे भारी हाथ से रोका जाना चाहिए। ऐसे मामलों में दण्ड ऐसा होना चाहिए जो ऐसे व्यवहार में लिप्त होने से अन्य को रोके। इसमें नरमी के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। अतः निचले न्यायालय द्वारा दिये गये दण्ड को घटाना न्यायोचित नहीं होगा और निचले न्यायालय द्वारा दी गई कठोर कारावास की सजा को यथावत रखा गया।
न्यायालय द्वारा मांगे जाने पर पुलिस द्वारा डायरी न्यायालय को उपलब्ध नहीं करवाये जाने पर न्यायालय ने एक माह का वेतन दण्ड स्वरूप जमा कराने का आदेश दिया था ।इस निर्णय के विरूद्ध पुलिस अधिकारी ने राजस्थान उच्च न्यायालय में पुनरीक्षण याचिका सूर्यप्रकाश माथुर बनाम राजस्थान राज्य (1994 (2) डब्ल्यू एल एन 571) दायर की जिसके निर्णय में उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि हमारे विचार से पुलिस अधिकारी ने पुलिस अधिकारों की श्रेष्ठता व विशेषाधिकार प्रदर्शित करने के लिए उक्त आचरण किया है जिसे हतोत्साहित किया जाना चाहिए। सम्पूर्ण देश में न्यायालयों की यह परम्परा रही है कि पुलिस केस डायरी को पुलिस का विशेषाधिकार प्रलेख समझा जावे जिसका अवलोकन करने के बाद लौटा दिया जाता है। उच्च न्यायालय ने निचले न्यायालय द्वारा दी गई  सजा को यथावत रखा गया।

Wednesday, December 21, 2011

यह भी जानें

क्या आप जानते हैं कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा २ (घ) में परिवाद की दी गयी परिभाषा  के अनुसार मजिस्ट्रेट द्वारा कार्यवाही किये जाने की दृष्टि से लिखित या मौखिक में किये गए अभिकथन से है कि किसी व्यक्ति ने , चाहे वह ज्ञात हो या अज्ञात , अपराध किया है | किन्तु व्यवहार में मजिस्ट्रेट मौखिक परिवाद पर कार्यवाही नहीं करते हैं |इसी प्रकार प्रसंज्ञान अपराध का लिया जाता है न कि अपराधी  का किन्तु मजिस्ट्रेट एवं पुलिस अज्ञात ( अपराधी के) नाम की सूचना देने पर कार्यवाही नहीं करना चाहती है |दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा ४४ (२) के अनुसार कोई मजिस्ट्रेट किसी भी समय अपनी स्थानीय अधिकारिता के भीतर किसी ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है जिसकी गिरफ़्तारी के लिए वह उस समय और उन परिस्थितियों में वारंट जारी करने के लिए सक्षम है | राजस्थान में सामान्य नियम (दाण्डिक) में यह प्रावधान किया गया है कि मजिस्ट्रेट बिना पूर्वानुमति के मुख्यालय नहीं छोडेगा और वह हर समय उपलब्ध रहेगा | अन्य राज्यों में भी लगभग समानांतर प्रावधान हैं |आपराधिक न्याय तंत्र में पुलिस पहिये हैं तो मजिस्ट्रेट उसकी धुरी है |हमारी संसद का भी मंतव्य इस सन्दर्भ में बड़ा स्पष्ट रहा है और उसने दण्ड प्रक्रिया संहिता में एकल शब्द मजिस्ट्रेट प्रयोग किया है और कहीं भी मजिस्ट्रेट न्यायालय शब्द का प्रयोग नहीं किया है| जबकि इसके विपरीत सिविल प्रक्रिया संहिता में न्यायालय शब्द का प्रयोग  किया गया है| एक लोक सेवक मजिस्ट्रेट हमेशा ड्यूटी पर रहता है जबकि न्यायालय के लगने का निर्धारित समय है |

यह स्पष्ट है कि कानून में गिरफ़्तारी आदि के लिए जिस प्रकार पुलिस शब्द प्रयोग किया गया है न कि पुलिस थाने का उसी प्रकार मजिस्ट्रेट या न्यायाधीश शब्द का प्रयोग किया गया है अर्थात गिरफ़्तारी करने , जमानत लेने , प्रसंज्ञान लेने आदि कार्य, यथा स्थिति, मजिस्ट्रेट या न्यायधीश कभी भी कर सकता है उसके लिए न्यायालय लगा होना आवश्यक नहीं है | दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 91 (१) के अनुसार न्यायालय किसी ऐसी चीज या दस्तावेज जिसे पेश किया जाना आवश्यक या वांछनीय है तो उसे पेश करने के लिए आदेश जारी कर उसे पेश करने के लिए या उपस्थित होकर पेश करने के लिए आदेश जारी कर सकता है| किन्तु अनुसंधानकर्ता पुलिस अधिकारी रुचिहीन प्रकरणों में लंबे समय तक कार्यवाही नहीं करते और मजिस्ट्रेटों द्वारा भी उनके विरुद्ध इस धारा के अंतर्गत कोई कार्यवाही नहीं की जाती है | मात्र अपने अहम की तुष्टि के लिए आपवादिक प्रकरणों में ही पुलिस के विरुद्ध इस धारा की शक्तियों का प्रयोग किया जाता है जिससे पुलिस अपने आपको सर्वोपरि समझती रहती है और कानून का उल्लंघन करने का उसका दुस्साहस बढता रहता है |
पाश्चात्य देशों में जमानत को अधिकार बताया गया है किन्तु हमारे यहाँ तो धन खर्च करके स्वतंत्रता खरीदनी पड़ती है | उत्तर प्रदेश में तो सत्र न्यायाधीशों द्वारा अग्रिम जमानत लेने का अधिकार ही दिनांक ०१.०५.१९७६ से छीन लिया गया है और इस लोक तंत्र में स्वतंत्रता के अधिकार को  एक फरेब व मजाक बनाकर रख दिया है |एक तरफ भारतीय कानून के अनुसार एक व्यक्ति तब तक निर्दोष है जब तक कि उसे उचित अन्वीक्षण में दोषी नहीं पा  लिया जाता है तथा दोष सिद्ध व्यक्ति को भी सदाचार के वचन पर परिवीक्षा पर छोड़ा जा  सकता है  व दूसरी ओर एक अन्वीक्षण के  अधीन  अभियुक्त, जिसे दोषी नहीं ठहराया  गया हो, को भी जमानत से इंकार कर दिया जाता है| यहाँ तक कि एक अभियुक्त को राजीनामे द्वारा लोक अदालत में भी मुक्ति दे दी जाती है| इस मायाजाल से जमानत के पीछे छिपे रहस्य को समझा जा सकता है| यह देखा गया है कि कई बार जब न्यायालय में कोई जमानत आवेदन नहीं आता तो न्यायधीश और उनका स्टाफ उदास हो जाता है | यह भारत में न्यायिक दुष्चक्र है |

Sunday, December 18, 2011

एफ आई आर में आनाकानी

पुलिस अक्सर एफ.आई.आर. दर्ज करने में आनाकानी करती है, विभिन्न बहाने गढ़ती है। यद्यपि कानून में स्पष्ट प्रावधान है कि क्षेत्राधिकार या किसी भी अन्य मुद्दे को लेकर पुलिस एफ.आई.आर. दर्ज करने से मना नहीं कर सकती। यहां तक कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 155 तथा राजस्थान पुलिस नियम 1965 के नियम 5.1 में स्पष्ट उल्लेख है कि यदि मामला असंज्ञेय अपराध का है तो भी रोजनामचा में प्रविष्टि की जायेगी किन्तु व्यवहार में पुलिस तो संज्ञेय मामलों में भी अपराध दर्ज नहीं करती है। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 में यह प्रावधान है कि यदि प्रभारी पुलिस थाना एफ.आई.आर. दर्ज करने से मना करे तो जिला पुलिस अधीक्षक को लिखित में सूचना देकर एफ.आई.आर. दर्ज करवायी जा सकती है। वैकल्पिक रूप में धारा 190, 200 या 156 के अन्तर्गत मजिस्ट्रेट न्यायालय में भी आवेदन प्रस्तुत किया जा सकता है। अक्सर नागरिकों को पुलिस द्वारा यह कहा जाता है कि थाना प्रभारी बाहर गये हुए हैं अतः उनके आने पर एफ.आइ.आर. दर्ज की जावेगी। जबकि वास्तविक स्थिति यह है कि प्रभारी अधिकारी हमेशा थाने पर उपलब्ध रहता है। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (ण) में हैड कांस्टेबल स्तर तक का पुलिस अधिकारी थाना प्रभारी हो सकता है। राजस्थान पुलिस नियम, 1965 के नियम 3.8 में कहा गया है कि पुलिस थाना लिपिक पुलिस थाना छोड़कर बाहर नहीं जायेगा। नियम 3.64 में लिपिक का कर्त्तव्य उच्च अधिकारियों की अनुपस्थिति में प्रभारी के तौर पर इस प्रकार कार्य करना बताया गया है ।थाना प्रभारी का पद कभी खाली नहीं रहता अतएव इस आधार पर पुलिस कभी भी एफ.आई.आर. दर्ज करने से मना नहीं कर सकती। एफ.आई.आर. दर्ज करने मात्र से ही किसी पक्षकार को कोई क्षति नहीं पहुंचती और न ही एफ.आई.आर. दर्ज करते ही अभियुक्त को गिरफ्तार करना आवश्यक है। राष्ट्रीय पुलिस आयोग की तीसरी रिपोर्ट के अनुसार 60 प्रतिशत गिरफ्तारियां अनावश्यक तथा भ्रष्टाचार का प्रमुख स्रोत है जिन पर जेलों पर होने वाले व्यय का 43.2 प्रतिशत भाग व्यय किया गया है।
राजस्थान पुलिस अधिनियम 2007 की धारा 31 में कहा गया है जहां एक व्यक्ति जिला पुलिस अधीक्षक को सूचना देता या भेजता है जो कि प्रथम दृश्टया संज्ञेय अपराध का गठन करती है और यह आरोपण करता है कि क्षेत्राधिकार वाले पुलिस थानों के प्रभारी ने सूचना दर्ज करने से मना कर दिया है तो जिला पुलिस अधीक्षक ऐसे पुलिस या प्रभारी के विरूद्ध तुरन्त अनुशासनिक कार्यवाही  करेगा अथवा करवायेगा ।
राजस्थान पुलिस नियम, 1965 के नियम 6.10 में कहा गया है कि अपराध की सूचना मिलने पर तुरन्त एक पुलिस ऑफिसर घटनास्थल के लिए रवाना होगा और मामले से सम्बन्धित तथ्यों का संग्रहण करेगा ताकि गड़बड़ी को रोका जा सके।
विभिन्न संवैधानिक न्यायालयों ने भी एफ.आई.आर. सम्बन्धित प्रावधानों की निम्नानुसार व्याख्या की है। हिमाचल उच्च न्यायालय ने मुन्नालाल बनाम राज्य (1992 क्रि.ला.ज. 1558 हि.प्र.) में कहा है कि पुलिस के पास एफ.आई.आर. दर्ज करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है और उसके बाद अनुसंधान प्रारम्भ होता है। गुजरात उच्च न्यायालय ने जयन्तीभाई लालू भाई पटेल बनाम गुजरात राज्य (1992 क्रि.ला.ज. 2377 गुजरात) के मामले में कहा है कि अभियुक्त के विरूद्ध एफ.आई.आर. दर्ज कर उसकी एक प्रति संहिता के प्रावधानों के अनुसार मजिस्ट्रेट को भेजी जाती है। एफ.आई.आर. ऐसा सार्वजनिक दस्तावेज है जिस पर दं.प्र.सं. की धारा 162;(हस्ताक्षरित न होना और साक्ष्य में काम में न लेना) लागू नहीं होती।

Wednesday, December 14, 2011

पुलिस की मुठी में बंद स्वतंत्रता का अधिकार

सात वर्ष तक सजा के अधिकांश मामलों में व्यक्ति के गायब होने , गिरफ़्तारी को टालने या अपने सामान्य निवास स्थान से भागने की संभावनाएं बहुत कम हैं .ऐसे मामलों में मात्र उपस्थित होने का नोटिस या समन , जैसी भी स्थिति हो , पर्याप्त होना चाहिए .मात्र उन मामलों में जहाँ आशंका हो कि व्यक्ति नोटिस / समन की अनुपालना नहीं करेगा और यह विश्वास है कि उसे पुनः गिरफ्तार करने में अनावश्यक खर्चा व श्रम होगा तब उसे दमनात्मक उद्देश्य के लिए गिरफ्तार किया जाना चाहिए .सामान्य कानून की परम्परा पुलिस अधिकारियों को अनुसंधान की विस्तृत शक्तियां सौंपने की रही है .इसकी हमेशा प्रवृति रही है कि व्यक्ति की स्वतंत्रता या सम्पति में दखल देने की शक्ति और अधिकृति सख्त रूप से सीमित की जाये .

इस विचार विमर्श और बहस के पश्चात विधि आयोग निम्नानुसार प्रस्तावित करता है : 
जिन अपराधों को संहिता द्वारा जमानती एवं असंज्ञेय कहा गया है में कोई वारंट जारी नहीं किया जायेगा और किसी को भी गिरफ्तार नहीं किया जायेगा .अभिव्यक्ति जमानत योग्य को बदला जाये .ऐसे मामलों में मात्र समन जोकि सिविल अधिकारी द्वारा तामिल हेतु न कि पुलिस अधिकारी द्वारा भेजे जायं .आपवादिक मामलों को छोड़कर जमानतीय और संज्ञेय मामलों में गिरफ़्तारी नहीं होनी चाहिए यदि इस बात के विश्वास के लिए आधार नहीं हों कि अभियुक्त गायब होने वाला है और उसे पकडना मुश्किल होगा या वह आदतन अपराधी है .इस श्रेणी के लिए भी जमानतीय शब्द को हटा देना चाहिए .किसी भी अपराध में मात्र संलिप्तता के संदेह के आधार पर गिरफ़्तारी नहीं होनी चाहिए .

सुप्रीम कोर्ट द्वारा डी के बासु के मामले में निर्धारित दिशानिर्देशों का दण्ड प्रक्रिया संहिता में समावेश होना चाहिए .गैर सरकारी संगठनों के प्रतिनिधियों को पुलिस थानों का दौरा कर अवैध गिरफ्तारी और दुर्व्यवहार की जाँच करने का अधिकार होना चाहिए .धारा 107 से 110 सपठित धारा 41 (2) द प्र स के अंतर्गत कोई गिरफ़्तारी नहीं होनी चाहिए . राजीनामे योग्य अपराधों को बढ़ाया जाना चाहिए . अपराधों के मामले में , गंभीर अपराधों को छोड़कर , सामान्यतया जमानत दी जानी चाहिए सिवाय जहाँ यह अंदेशा हो कि अपराधी गायब हो सकता है और गिरफ़्तारी टाल सकता है या उसे और अपराध करने से रोकने के लिए ऐसा करना आवश्यक हो .मात्र पूछताछ के लिए कोई गिरफ़्तारी नहीं की जावेगी और न ही किसी को रोका जावेगा .

रोके गए व्यक्ति की सुरक्षा और कुशलक्षेम सुनिश्चित करना रोकने वाले अधिकारी का दायित्व है और इस सम्बन्ध में उपेक्षा के लिए कार्यवाही की जा सकती है .अभिरक्षा का रिकॉर्ड प्रत्येक पुलिस थाने पर विवरण सहित रखा जाना चाहिए जोकि वकीलों और मानवाधिकार में रुचिबद्ध पंजीकृत सरकारी संगठनों के प्रतिनिधियों द्वारा निरिक्षण के लिए खुला होगा .यातना के लिए राज्य के दायित्व कानून में संशोधन किया जाना चाहिए .द प्र स धारा 172 की कड़ाई से अनुपालना होनी चाहिए .

स्वतंत्रता से वंचित करना अर्थात 24 घंटे से अधिक समय के लिए पुलिस अभिरक्षा में बंदी बनाये रखना सम्पति से एक वर्ष से अधिक समय के लिए वंचित करने से भी अधिक खराब है . यह सत्य है कि न्यायालय गत कई दशकों से कहते रहे हैं कि गिरफ्तार करने की शक्ति किसी औचित्य के बिना प्रयोग नहीं की जा सकती और पुलिस अधिकारियों को इस शक्ति का प्रयोग औचित्य व ईमानदारी के साथ प्रयोग करना चाहिए .ठीक इसी समय न्यायालय ने यह भी कहा है कि दी गयी परिस्थितियों में एक मामले में गिरफ्तार करने की तर्कसंगतता या औचित्य का निर्धारण पुलिस अधिकारी को करना है और यह सम्पूर्ण रूप से निर्धारित नहीं किया जा सकता कि धारा 41 (1) (क) में विश्वसनीय सूचना या तर्कसंगत शिकायत या तर्कसंगत संदेह का क्या अर्थ है .परिणाम यह है कि धारा 41 के अंतर्गत पुलिस के अधिकार अनियंत्रित रह जाते हैं. यह देखना रुचिकर है कि कितने मामलों में न्यायालय पुलिस अधिकारियों को गलत या अनुचित गिरफ़्तारी के लिए दण्डित करते हैं . यह 1 प्रतिशत भी नहीं होगा .

ठीक इसी प्रकार समझिए कि एक प्रावधान कहता है कि एक लोक सेवक को संदेह के आधार पर जाँच के चलते हुए निलंबित किया जा सकता है तो यह कैसा लगेगा ?यह कहा जा सकता है कि जाँच के चलते निलंबन कोई दण्ड नहीं है यह एक अस्थायी तरीका है और यदि वह दोषी नहीं पाया जाता है तो अंत में उसे पूर्व के सभी सेवा लाभ देकर बहाल किया जा सकता है .हम यह दोहराना चाहते हैं कि स्वतंत्रता एक सेवक के सेवा में भविष्य से अधिक महत्वपूर्ण है . रूपये के मूल्य में गिरावट को देखते हुए धारा 379,381,406,407,411, और 414 के अंतर्गत राजिनामे के लिए राशि को बढाकर रूपये 25000 करने की सिफारिश की जाती है .

जेलें प्रायः भीडभाड युक्त और कुप्रबंधित हैं जिस पर और व्यय भार को सहन नहीं दिया जा सकता .करावासित व्यक्तियों पर निर्भर लोगों के भरण पोषण की अलग से समस्या उनमें अपराधी प्रवृति पनपने की गंभीर समस्या के साथ और है .इस प्रकार जेल हमेशा सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति नहीं करती है . वर्तमान में परीक्षणाधीन की समस्या भी अविवेकपूर्ण गिरफ्तारियां और जेल की बजाय जमानत के विकल्प का प्रयोग नहीं करना है .

सर्वाधिक दुखः की बात यह है कि जमानत से सम्बंधित सम्पूर्ण कानून में यहाँ तक कि जमानत की परिभाषा को नहीं ढूंढा जा सकता है .क्या जमानत योग्य अपराध में जमानत एक अधिकार है या अभियुक्त के पक्ष में कोई विवेकाधिकार का प्रयोग है यह बहस अंतहीन दिखाई देती है . आयोग ने हाज़िर होने ,समर्पण करने के दायित्व पर बिना जमानतदारों के छोड़ने के, जिसका उल्लंघन एक अपराध हो, जमानतीय अपराधों की श्रेणी बढ़ाने की सिफारिश की है .यह उल्लेख करना उचित होगा कि इंग्लॅण्ड में सभी अपराधों में जमानत के पक्ष में अधिकार की सी मान्यता है .यह नहीं हो सकता कि पुलिस जिसे चाहे रोके और उससे पूछताछ करे कि क्या उसने संज्ञेय अपराध किया है .इस प्रकार की निरपेक्ष शक्ति हमारे संवैधानिक ढांचे में नहीं मानी जा सकती . यदि अनुसंधान के उद्देश्य से किसी संज्ञेय अपराध के व्यक्ति से पूछताछ आवश्यक हो तो उससे पुलिस अधिकारी द्वारा या तो उसके निवास पर या उस व्यक्ति द्वारा सुझाये गए और पुलिस अधिकारी द्वारा सहमत अन्य स्थान पर पूछताछ की जा सकती है .

व्यवहार में देखें तो पुलिस द्वारा जमानतीय अपराध में भी बलपूर्वक गिरफ्तार करने का मौखिक विरोध करने वालों पर राजकार्य में बाधा का अभियोग लगाकर तथा शारीरिक बाधा द्वारा विरोध करने वालों पर हत्या के प्रयास का अभियोग लगाकर स्वयं विरोधियों को भी गिरफ्तार करने के अनियंत्रित अधिकार का प्रयोग किया जाता है और मजिस्ट्रेट ऐसी गिरफ्तारी को भी अवैध ठहराकर गिरफ्तार व्यक्ति को बिना शर्त मुक्त करने अथवा पुलिस आचरण की भ्रत्सना करने से परहेज करते हैं!