सुप्रीम कोर्ट द्वारा दाण्डिक अपील संख्या ९१९/१९९९ मुंशी सिंह गौतम बनाम मध्यप्रदेश राज्य के निर्णय दिनांक १६.११.२००४ में कहा गया है कि न्यायालयों को, विशेष रूप से हिरासत में अपराधों के सम्बन्ध में, अपने रुख,प्रवृति और विचारधारा में परिवर्तन लाने और अधिक संवेदनशीलता दिखाने तथा संकीर्ण तकनीकि सोच के स्थान पर वास्तविक विचारधारा अपनानी चाहिए, हिरासती हिंसा के मामलों की प्रक्रिया में यथा संभव अपनी शक्तियों के भीतर, सत्य का पता लगाया जाय व दोषी बच नहीं जाए ताकि अपराध से पीड़ित को संतोष हो सके कि आखिर कानून की श्रेष्ठता जीवित है| एक अपराध की रिपोर्ट प्राप्त होने पर पुलिस का कर्तव्य है कि सत्य का पता लगाने के लिए साक्ष्यों का संग्रहण करे जिन्हें विचारण के समय प्रस्तुत किया जा सके| सूचना प्राप्त करने के लिए एक व्यक्ति को यातना देना निश्चित रूप से इसमें शामिल नहीं है चाहे वह अभियुक्त हो अथवा साक्षी हो| यह कर्तव्य कानून की चारदीवारी के भीतर होना चाहिए| कानून लागू करने वाले साक्ष्य संग्रहण के नाम पर कानून को अपने हाथ में नहीं ले सकते | यह तर्क कि मृतक पुलिस थाने पर अत्यंत गंभीर हालत में आया था और अपना नाम बताने के बाद मर गया, झूठा लगता है क्योंकि अभियुक्त ने धारा ३१३ के अपने बयानों में स्पष्ट कहा है कि सूचना प्राप्त होने पर जहाँ कि मृतक घायल अवस्था में बेहोश पड़ा था| इस दृष्टिकोण से जहां तक अभियुक्त गुलाबसिंह पर हिरासती यातना का आरोप है , साबित हो गया है |
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