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Wednesday, December 21, 2011

यह भी जानें

क्या आप जानते हैं कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा २ (घ) में परिवाद की दी गयी परिभाषा  के अनुसार मजिस्ट्रेट द्वारा कार्यवाही किये जाने की दृष्टि से लिखित या मौखिक में किये गए अभिकथन से है कि किसी व्यक्ति ने , चाहे वह ज्ञात हो या अज्ञात , अपराध किया है | किन्तु व्यवहार में मजिस्ट्रेट मौखिक परिवाद पर कार्यवाही नहीं करते हैं |इसी प्रकार प्रसंज्ञान अपराध का लिया जाता है न कि अपराधी  का किन्तु मजिस्ट्रेट एवं पुलिस अज्ञात ( अपराधी के) नाम की सूचना देने पर कार्यवाही नहीं करना चाहती है |दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा ४४ (२) के अनुसार कोई मजिस्ट्रेट किसी भी समय अपनी स्थानीय अधिकारिता के भीतर किसी ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है जिसकी गिरफ़्तारी के लिए वह उस समय और उन परिस्थितियों में वारंट जारी करने के लिए सक्षम है | राजस्थान में सामान्य नियम (दाण्डिक) में यह प्रावधान किया गया है कि मजिस्ट्रेट बिना पूर्वानुमति के मुख्यालय नहीं छोडेगा और वह हर समय उपलब्ध रहेगा | अन्य राज्यों में भी लगभग समानांतर प्रावधान हैं |आपराधिक न्याय तंत्र में पुलिस पहिये हैं तो मजिस्ट्रेट उसकी धुरी है |हमारी संसद का भी मंतव्य इस सन्दर्भ में बड़ा स्पष्ट रहा है और उसने दण्ड प्रक्रिया संहिता में एकल शब्द मजिस्ट्रेट प्रयोग किया है और कहीं भी मजिस्ट्रेट न्यायालय शब्द का प्रयोग नहीं किया है| जबकि इसके विपरीत सिविल प्रक्रिया संहिता में न्यायालय शब्द का प्रयोग  किया गया है| एक लोक सेवक मजिस्ट्रेट हमेशा ड्यूटी पर रहता है जबकि न्यायालय के लगने का निर्धारित समय है |

यह स्पष्ट है कि कानून में गिरफ़्तारी आदि के लिए जिस प्रकार पुलिस शब्द प्रयोग किया गया है न कि पुलिस थाने का उसी प्रकार मजिस्ट्रेट या न्यायाधीश शब्द का प्रयोग किया गया है अर्थात गिरफ़्तारी करने , जमानत लेने , प्रसंज्ञान लेने आदि कार्य, यथा स्थिति, मजिस्ट्रेट या न्यायधीश कभी भी कर सकता है उसके लिए न्यायालय लगा होना आवश्यक नहीं है | दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 91 (१) के अनुसार न्यायालय किसी ऐसी चीज या दस्तावेज जिसे पेश किया जाना आवश्यक या वांछनीय है तो उसे पेश करने के लिए आदेश जारी कर उसे पेश करने के लिए या उपस्थित होकर पेश करने के लिए आदेश जारी कर सकता है| किन्तु अनुसंधानकर्ता पुलिस अधिकारी रुचिहीन प्रकरणों में लंबे समय तक कार्यवाही नहीं करते और मजिस्ट्रेटों द्वारा भी उनके विरुद्ध इस धारा के अंतर्गत कोई कार्यवाही नहीं की जाती है | मात्र अपने अहम की तुष्टि के लिए आपवादिक प्रकरणों में ही पुलिस के विरुद्ध इस धारा की शक्तियों का प्रयोग किया जाता है जिससे पुलिस अपने आपको सर्वोपरि समझती रहती है और कानून का उल्लंघन करने का उसका दुस्साहस बढता रहता है |
पाश्चात्य देशों में जमानत को अधिकार बताया गया है किन्तु हमारे यहाँ तो धन खर्च करके स्वतंत्रता खरीदनी पड़ती है | उत्तर प्रदेश में तो सत्र न्यायाधीशों द्वारा अग्रिम जमानत लेने का अधिकार ही दिनांक ०१.०५.१९७६ से छीन लिया गया है और इस लोक तंत्र में स्वतंत्रता के अधिकार को  एक फरेब व मजाक बनाकर रख दिया है |एक तरफ भारतीय कानून के अनुसार एक व्यक्ति तब तक निर्दोष है जब तक कि उसे उचित अन्वीक्षण में दोषी नहीं पा  लिया जाता है तथा दोष सिद्ध व्यक्ति को भी सदाचार के वचन पर परिवीक्षा पर छोड़ा जा  सकता है  व दूसरी ओर एक अन्वीक्षण के  अधीन  अभियुक्त, जिसे दोषी नहीं ठहराया  गया हो, को भी जमानत से इंकार कर दिया जाता है| यहाँ तक कि एक अभियुक्त को राजीनामे द्वारा लोक अदालत में भी मुक्ति दे दी जाती है| इस मायाजाल से जमानत के पीछे छिपे रहस्य को समझा जा सकता है| यह देखा गया है कि कई बार जब न्यायालय में कोई जमानत आवेदन नहीं आता तो न्यायधीश और उनका स्टाफ उदास हो जाता है | यह भारत में न्यायिक दुष्चक्र है |

Wednesday, December 14, 2011

पुलिस की मुठी में बंद स्वतंत्रता का अधिकार

सात वर्ष तक सजा के अधिकांश मामलों में व्यक्ति के गायब होने , गिरफ़्तारी को टालने या अपने सामान्य निवास स्थान से भागने की संभावनाएं बहुत कम हैं .ऐसे मामलों में मात्र उपस्थित होने का नोटिस या समन , जैसी भी स्थिति हो , पर्याप्त होना चाहिए .मात्र उन मामलों में जहाँ आशंका हो कि व्यक्ति नोटिस / समन की अनुपालना नहीं करेगा और यह विश्वास है कि उसे पुनः गिरफ्तार करने में अनावश्यक खर्चा व श्रम होगा तब उसे दमनात्मक उद्देश्य के लिए गिरफ्तार किया जाना चाहिए .सामान्य कानून की परम्परा पुलिस अधिकारियों को अनुसंधान की विस्तृत शक्तियां सौंपने की रही है .इसकी हमेशा प्रवृति रही है कि व्यक्ति की स्वतंत्रता या सम्पति में दखल देने की शक्ति और अधिकृति सख्त रूप से सीमित की जाये .

इस विचार विमर्श और बहस के पश्चात विधि आयोग निम्नानुसार प्रस्तावित करता है : 
जिन अपराधों को संहिता द्वारा जमानती एवं असंज्ञेय कहा गया है में कोई वारंट जारी नहीं किया जायेगा और किसी को भी गिरफ्तार नहीं किया जायेगा .अभिव्यक्ति जमानत योग्य को बदला जाये .ऐसे मामलों में मात्र समन जोकि सिविल अधिकारी द्वारा तामिल हेतु न कि पुलिस अधिकारी द्वारा भेजे जायं .आपवादिक मामलों को छोड़कर जमानतीय और संज्ञेय मामलों में गिरफ़्तारी नहीं होनी चाहिए यदि इस बात के विश्वास के लिए आधार नहीं हों कि अभियुक्त गायब होने वाला है और उसे पकडना मुश्किल होगा या वह आदतन अपराधी है .इस श्रेणी के लिए भी जमानतीय शब्द को हटा देना चाहिए .किसी भी अपराध में मात्र संलिप्तता के संदेह के आधार पर गिरफ़्तारी नहीं होनी चाहिए .

सुप्रीम कोर्ट द्वारा डी के बासु के मामले में निर्धारित दिशानिर्देशों का दण्ड प्रक्रिया संहिता में समावेश होना चाहिए .गैर सरकारी संगठनों के प्रतिनिधियों को पुलिस थानों का दौरा कर अवैध गिरफ्तारी और दुर्व्यवहार की जाँच करने का अधिकार होना चाहिए .धारा 107 से 110 सपठित धारा 41 (2) द प्र स के अंतर्गत कोई गिरफ़्तारी नहीं होनी चाहिए . राजीनामे योग्य अपराधों को बढ़ाया जाना चाहिए . अपराधों के मामले में , गंभीर अपराधों को छोड़कर , सामान्यतया जमानत दी जानी चाहिए सिवाय जहाँ यह अंदेशा हो कि अपराधी गायब हो सकता है और गिरफ़्तारी टाल सकता है या उसे और अपराध करने से रोकने के लिए ऐसा करना आवश्यक हो .मात्र पूछताछ के लिए कोई गिरफ़्तारी नहीं की जावेगी और न ही किसी को रोका जावेगा .

रोके गए व्यक्ति की सुरक्षा और कुशलक्षेम सुनिश्चित करना रोकने वाले अधिकारी का दायित्व है और इस सम्बन्ध में उपेक्षा के लिए कार्यवाही की जा सकती है .अभिरक्षा का रिकॉर्ड प्रत्येक पुलिस थाने पर विवरण सहित रखा जाना चाहिए जोकि वकीलों और मानवाधिकार में रुचिबद्ध पंजीकृत सरकारी संगठनों के प्रतिनिधियों द्वारा निरिक्षण के लिए खुला होगा .यातना के लिए राज्य के दायित्व कानून में संशोधन किया जाना चाहिए .द प्र स धारा 172 की कड़ाई से अनुपालना होनी चाहिए .

स्वतंत्रता से वंचित करना अर्थात 24 घंटे से अधिक समय के लिए पुलिस अभिरक्षा में बंदी बनाये रखना सम्पति से एक वर्ष से अधिक समय के लिए वंचित करने से भी अधिक खराब है . यह सत्य है कि न्यायालय गत कई दशकों से कहते रहे हैं कि गिरफ्तार करने की शक्ति किसी औचित्य के बिना प्रयोग नहीं की जा सकती और पुलिस अधिकारियों को इस शक्ति का प्रयोग औचित्य व ईमानदारी के साथ प्रयोग करना चाहिए .ठीक इसी समय न्यायालय ने यह भी कहा है कि दी गयी परिस्थितियों में एक मामले में गिरफ्तार करने की तर्कसंगतता या औचित्य का निर्धारण पुलिस अधिकारी को करना है और यह सम्पूर्ण रूप से निर्धारित नहीं किया जा सकता कि धारा 41 (1) (क) में विश्वसनीय सूचना या तर्कसंगत शिकायत या तर्कसंगत संदेह का क्या अर्थ है .परिणाम यह है कि धारा 41 के अंतर्गत पुलिस के अधिकार अनियंत्रित रह जाते हैं. यह देखना रुचिकर है कि कितने मामलों में न्यायालय पुलिस अधिकारियों को गलत या अनुचित गिरफ़्तारी के लिए दण्डित करते हैं . यह 1 प्रतिशत भी नहीं होगा .

ठीक इसी प्रकार समझिए कि एक प्रावधान कहता है कि एक लोक सेवक को संदेह के आधार पर जाँच के चलते हुए निलंबित किया जा सकता है तो यह कैसा लगेगा ?यह कहा जा सकता है कि जाँच के चलते निलंबन कोई दण्ड नहीं है यह एक अस्थायी तरीका है और यदि वह दोषी नहीं पाया जाता है तो अंत में उसे पूर्व के सभी सेवा लाभ देकर बहाल किया जा सकता है .हम यह दोहराना चाहते हैं कि स्वतंत्रता एक सेवक के सेवा में भविष्य से अधिक महत्वपूर्ण है . रूपये के मूल्य में गिरावट को देखते हुए धारा 379,381,406,407,411, और 414 के अंतर्गत राजिनामे के लिए राशि को बढाकर रूपये 25000 करने की सिफारिश की जाती है .

जेलें प्रायः भीडभाड युक्त और कुप्रबंधित हैं जिस पर और व्यय भार को सहन नहीं दिया जा सकता .करावासित व्यक्तियों पर निर्भर लोगों के भरण पोषण की अलग से समस्या उनमें अपराधी प्रवृति पनपने की गंभीर समस्या के साथ और है .इस प्रकार जेल हमेशा सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति नहीं करती है . वर्तमान में परीक्षणाधीन की समस्या भी अविवेकपूर्ण गिरफ्तारियां और जेल की बजाय जमानत के विकल्प का प्रयोग नहीं करना है .

सर्वाधिक दुखः की बात यह है कि जमानत से सम्बंधित सम्पूर्ण कानून में यहाँ तक कि जमानत की परिभाषा को नहीं ढूंढा जा सकता है .क्या जमानत योग्य अपराध में जमानत एक अधिकार है या अभियुक्त के पक्ष में कोई विवेकाधिकार का प्रयोग है यह बहस अंतहीन दिखाई देती है . आयोग ने हाज़िर होने ,समर्पण करने के दायित्व पर बिना जमानतदारों के छोड़ने के, जिसका उल्लंघन एक अपराध हो, जमानतीय अपराधों की श्रेणी बढ़ाने की सिफारिश की है .यह उल्लेख करना उचित होगा कि इंग्लॅण्ड में सभी अपराधों में जमानत के पक्ष में अधिकार की सी मान्यता है .यह नहीं हो सकता कि पुलिस जिसे चाहे रोके और उससे पूछताछ करे कि क्या उसने संज्ञेय अपराध किया है .इस प्रकार की निरपेक्ष शक्ति हमारे संवैधानिक ढांचे में नहीं मानी जा सकती . यदि अनुसंधान के उद्देश्य से किसी संज्ञेय अपराध के व्यक्ति से पूछताछ आवश्यक हो तो उससे पुलिस अधिकारी द्वारा या तो उसके निवास पर या उस व्यक्ति द्वारा सुझाये गए और पुलिस अधिकारी द्वारा सहमत अन्य स्थान पर पूछताछ की जा सकती है .

व्यवहार में देखें तो पुलिस द्वारा जमानतीय अपराध में भी बलपूर्वक गिरफ्तार करने का मौखिक विरोध करने वालों पर राजकार्य में बाधा का अभियोग लगाकर तथा शारीरिक बाधा द्वारा विरोध करने वालों पर हत्या के प्रयास का अभियोग लगाकर स्वयं विरोधियों को भी गिरफ्तार करने के अनियंत्रित अधिकार का प्रयोग किया जाता है और मजिस्ट्रेट ऐसी गिरफ्तारी को भी अवैध ठहराकर गिरफ्तार व्यक्ति को बिना शर्त मुक्त करने अथवा पुलिस आचरण की भ्रत्सना करने से परहेज करते हैं!