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Saturday, May 21, 2016

बुद्ध के ध्यान में उतरने के बाद ही ज्ञात होता है कि बुद्ध कितने पवित्र, निर्मल और निराग्रही व्यक्ति हैं।

बुद्ध के ध्यान में उतरने के बाद ही ज्ञात होता है कि
बुद्ध कितने पवित्र, निर्मल और निराग्रही व्यक्ति हैं।
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लेखक : Dr. Purushottam Meena 'Nirankush'
सोशल मीडिया पर हजारों—लाखों ऐसे लोगों से परिचय हुआ है, जिनसे मिलने या जिनको जानने की कभी कल्पना भी नहीं की गयी थी। अनेक प्रकार के मिजाज और विचारों के विद्वानों से इतना सीखने को मिला है कि मैंने कभी कल्पना तक नहीं की थी। इनमें से कुछ सदाशयी मित्रों की अनेक प्रकार की इच्छा और आकांक्षाएं होती हैं। यद्यपि सभी की आकांक्षाओं पर खरा उतरना कम से कम मेरे जैसे छोटे से व्यक्ति के लिये हमेशा सम्भव नहीं हो पाता है। ऐसे ही कुछ सदाशयी मित्रों का कहना है कि मैं बुद्ध के बारे में कुछ लिखूं।


महामानव बुद्ध के बारे में सोशल मीडिया पर इतना अधिक लिखा जाता है कि मुझ जैसे अनाम व्यक्ति के लिये महामानव बुद्ध के बारे में लिखना, बड़ी चुनौती है। मैं जितना समझ सका हूं, गौतम बुद्ध दूसरों की खुशी के लिये हारने में ही खुशी का अनुभव करते थे। बुद्ध ने कभी किसी पर अपने विचार थोपे नहीं। बुद्ध ने ईश्वरीय सत्ता को सिरे से नकारा, लेकिन अपने इन विचारों को मानने के लिये कभी किसी को मजबूर नहीं किया। अपने आप को महामानव बुद्ध ने कभी ईश्वरीय अवतार या भगवान घोषित नहीं किया। सिद्धार्थ के रूप में जन्मे बच्चे का महामानव बुद्ध के रूप में जन्म ही महामानव बुद्ध का वास्तविक जन्मदिन है। शैशवकाल में माँ का साया छिन जाने के बाद, राजा का पुत्र होते हुए भी बिन माँ के बच्चे का संसार को प्रकाश दिखाना और हर आम—ओ—खाश को अपने अन्दर के प्रकाश को प्रज्वलित करने को प्रेरित करना, कोई सामान्य कार्य नहीं था। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अभेद और असमानता से मुक्ति, तनाव और विभ्रम से ग्रस्त व्यक्ति को ध्यान की परामावस्था तक ले जाने का मार्ग, मानना नहीं जानना के साथ तर्क और विज्ञान को दैनिक जीवन से जोड़ना, अन्धश्रृद्धा और पाखण्ड से समूल मुक्ति, ऐसे दुरूह अभीष्ट क्या कोई सामान्य व्यक्ति के लिये सम्भव था? बुद्ध के ध्यान में उतरने के बाद ज्ञात होता है कि बुद्ध कितने पवित्र, कितने निर्मल और कितने निराग्रही व्यक्ति हैं। बुद्ध सा जीवन हजारों, लाखों वर्षों में किसी विरले को प्राप्त होता है। बुद्धिष्ट नहीं हाकर भी बुद्ध का अनुयायी होना भी अपने आप में गौरव की बात है। मुझे फक्र है कि मैं बुद्धानुयाई हूं! मैं हृदय से महामानव बुद्ध को नमन करता हूँ।


अन्त में बुद्ध के प्रति ईमानदार बने रहते हुए मुझे यह लिखना भी जरूरी है कि वर्तमान भारतीय परिदृश्य में कथित बुद्धिष्टों द्वारा बुद्ध को राजनीतिक हथियार की भांति उपयोग किया जा रहा है। ऐसे लोगों में से अनेक अपने आप को कट्टर बुद्धिष्ट तक कहते हैं, जबकि बुद्ध और कट्टर? बुद्ध के साथ इससे घटिया मजाक और क्या हो सकता है? इन्हीं लोगों के कारण लोग बुद्ध के बारे में भिन्न मत रखते हैं। ऐसे लोगों के बारे में यही कहा जा सकता है कि उनको बुद्ध का ककहरा भी नहीं पता। यही वजह है कि उनको बुद्ध से अधिक बुद्ध धर्म प्रिय है। बेशक वे बुद्ध धर्म को बुद्ध धम्म कहकर ज्ञान बांटते ​फिरते हैं।

हमारा मकसद साफ़।
सभी के साथ इंसाफ।
जय भारत। जय संविधान।
नर-नारी, सब एक समान।।
: डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
9875066111/21-05-2016, 07.40 PM


@—लेखक का संक्षिप्त परिचय : मूलवासी-आदिवासी अर्थात रियल ऑनर ऑफ़ इण्डिया। होम्योपैथ चिकित्सक और दाम्पत्य विवाद सलाहकार। राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (BAAS), नेशनल चैयरमैन-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एन्ड रॉयटर्स वेलफेयर एसोसिएशन (JMWA), पूर्व संपादक-प्रेसपालिका (हिंदी पाक्षिक) और पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा एवं अजजा संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ।

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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'/ 21 मई, 2016

Tuesday, May 3, 2016

वंचित वर्ग की राह के रोड़े और समाधान-असफल और आऊट डेटेड लोगों से मुक्ति पहली जरूरत है

वंचित वर्ग की राह के रोड़े और समाधान-असफल
और आऊट डेटेड लोगों से मुक्ति पहली जरूरत है
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लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
देश के दर्जनों राज्यों की यात्रा करने के बाद लगातार नये-नये लोगों से मिलने, संवाद करने, आम लोगों के बीच समय बिताने, विभिन्न विद्वानों के विचार पढ़ने/जानने और सुनने के बाद भी वंचित वर्ग की मुक्ति का कोई सर्वमान्य रास्ता जानने या सुनने को नहीं मिलता है। हर जगह कुछ न कुछ दिखावा, ढोंग और नाटक चल रहे हैं, लेकिन वास्तविक समाधान कहीं भी नजर नहीं आता। हजारों संगठन लगातार कार्य कर रहे हैं, फिर भी वंचित वर्ग के साथ हर पल शोषण, उत्पीड़न, भेदभाव, अत्याचार, बलात्कार, हिंसा, अपमान, न्यायिक विभेद और तिरस्कार क्यों जारी है? यह सवाल सोचने को विवश करता है। संवेदनाओं को झकझोरता है।

हर जगह सुनने को मिलता है कि देश की 85/90 फीसदी आबादी से कौन टकरा सकता है? इस सवाल के जवाब में मेरा हर बार यही सवाल/प्रतिप्रश्न होता है कि कौन नहीं टकरा सकता? हकीकत तो यह है कि देश का बहुसंख्यक वंचित वर्ग खुद ही गुमराह है, तब ही तो आपस में लड़ता रहता है। 90 फीसदी आबादी को 10 फीसदी लोग अपने इशारों पर नचाते रहते हैं। आदिवासी-दलित सौहार्द नहीं दिखता। ओबीसी-आदिवासी सौहार्द नहीं दिखता। दलित जातियां आपस में एक दूसरी जाति को छोटी या कमतर समझती हैं। आदिवासियों और ओबीसी जातियों की भी यही दशा है।

वंचित वर्ग के तथाकथित शिक्षित और उच्च पदस्थ लोग अपने ही जाति समाज के लोगों से दूरी बना रहे हैं। वास्तव में ब्राह्मण जनित मनुवादी व्यवस्था की रुग्ण शिक्षा, अंधश्रद्धा और नाटकीय संस्कारों के कारण हीनता के शिकार लोग, खुद को श्रेष्ठ समझने के नकारात्मक अहंकार से ग्रसित हो जाते हैं। दुष्परिणामस्वरूप एक ही जाति में असमानता के नये नये प्रतिमान स्थापित हो जाते हैं। नवधनाढ़य लोग खुद को श्रेष्ठता के शिखर पर स्थापित कर लेते हैं। ऐसे हालात में PAY BACK TO SOCIETY के बारे में कोई विचार ही नहीं करता। करने की जरूरत ही नहीं समझता।

इसके विपरीत वंचित वर्ग के कुछ कथित सामाजिक संगठन वंचित वर्ग के उत्थान के नाम की माला जपते रहते हैं, लेकिन हकीकत में समाज में नकारात्मक और विध्वंशक माहौल पैदा कर रहे हैं। उदाहरण के लिये "मूलनिवासी" शब्द को जोड़कर अनेक संगठन संचालित किये जा रहे हैं। जिनके संचालकों का मूल/उद्भव भारतीय मूल का नहीं है, लेकिन उनकी ओर से समाज में देशी और विदेशी की विनाशक विचारधारा का प्रचार किया जा रहा है। जबकि भारत में विदेशी मूल और देशी मूल के नाम से किसी भी क्षेत्र में न तो कोई विभेद होता है और न ही शोषण किया जाता है।

हकीकत में भारत में जन्मजातीय विभेद है, जिसके मूल में ब्राह्मणों की विदेशी मूल की नीति नहीं, बल्कि भारत में जन्मी वैदिक विचारधारा जिम्मेदार है। जिसे वर्तमान में विदेशी मूल के ब्राह्मण नहीं, बल्कि भारतीय मूल के आदिवासी, यूरेशिया मूल के आर्य-शूद्रों के वर्तमान भारतीय वंशज, अफ़्रीकी मूल के वर्तमान भारती वंशज (कथित अछूत), विदेशी हूँण, कुषाण, शक आदि विदेशी नस्लों के वर्तमान वंशज-ओबीसी इत्यादि लोग लागू कर रहे हैं। वर्तमान में बामण वैदिक व्यवस्था को वंचित वर्ग पर जबरन थोपने नहीं आ रहा है, बल्कि उक्त वर्णित लोग बामणों को और वैदिक व्यवस्था को खुद अपने खर्चे पर आमन्त्रित कर रहे हैं। वंचित वर्ग खुद वैदिक-मनुवादी व्यवस्था का प्रचार, प्रसार और विज्ञापन कर रहा है।

देशभर में सामाजिक न्याय के नाम पर संघर्ष करने वाले संगठन जन्मजातीत विभेद और मनुवादी शोषण से मुक्ति के लिए आज तक कोई ठोस और व्यावहारिक नीति पेश करने में असफल रहे हैं। बल्कि इसके विपरीत नयी पीढ़ी को हिन्दू धर्म को गाली देना सिखा रहे हैं। जैसे संघ ने मुसलमानों के विरोध में घृणा का वातावरण निर्मित किया, वही ऐसे संगठन हिंदुओं के विरुद्ध कर रहे हैं। जबकि ऐसे लोग खुद हिन्दू हैं। जिससे समाज में विभिन्न प्रकार के अपराध और अपकृत्य पनप रहे हैं। बामणवादी व्यवस्था की भाँति व्यक्ति पूजा को बढ़ावा दिया जा रहा है। महापुरुषों के कार्यों को रचनात्मक तरीके से आगे बढ़ाने के बजाय उनके नाम के नारे लगाये जा रहे हैं। उनके नाम की आरती, वन्दना और पूजा का बाजार विकसित हो रहा है। मनुवादी व्यवस्था में मूर्तियां थी, यहां तस्वीर, बिल्ले, कलेंडर, डायरी और ताम्र मूर्ति भी निर्मित करके बेची जा रही हैं। फ़ूहड़ नाचगांन और कानफोड़ू वाद्ययंत्रों के साथ पूजा-आरती की जा रही हैं।

फ़ूले, बिरसा, भीम, कांशीराम, पेरियार, एकलव्य, लोहिया, वीपी सिंह जैसे विशिष्ठ इंसानों को जबरन भगवान बनाया जा रहा है। इनके मन्दिर बनाये जा रहे हैं। इन कारणों से पहले बंटे लोग नये टुकड़ों में बंट रहे हैं। सामाजिक आयोजनों के शुरू में बुद्ध वन्दना को अनिवार्य कर के गैर-हिन्दू/हिन्दू आदिवासियों और हिन्दू/मुस्लिम ओबीसी पर दलितों द्वारा जबरन बुद्ध धर्म को थोपा जा रहा है। इनकी धार्मिक आजादी का सरेआम मजाक उड़ाया जा रहा है। जबकि बुद्ध धर्म हिन्दू धर्म की एक शाखा मात्र है। सभी बुद्धिष्ट भारत में हिन्दू लॉ से शासित होते हैं। सामाजिक न्याय के संघर्ष को जबरन बुध धर्म का आंदोलन बनाया जा रहा है। बाबा साहब को बुद्धिस्ट वर्ग द्वारा हाई जैक करके बाबा साहब को बुद्ध का अवतार घोषित करने की योजना पर काम कर रहे हैं। इस कारण बाबा साहब को दलितों और इन्साफ पसन्द लोगों से छीनकर बुद्ध धर्म की सीमाओं में कैद किया जा रहा है।

इन हालातों में 85/90 फीसदी आबादी की एकता की कल्पना या बात करना, खोखले गाल बजाना ही है। हकीकत में ऐसे लोग अपने छद्म दुराग्रहों के चलते वंचित समाज को गुमराह कर रहे हैं। ऐसे ही लोगों में कल तक रामदास अठावले, राम विलास पासवान, रामराज/उदितराज आदि भी शामिल थे, जो आज संघ की राजनैतिक शाखा भाजपा की गौद में बैठे हुए हैं।

खुद को कांशीराम जैसे महामानव की एक मात्र उत्तराधिकारी बताने वाली मायावती-उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहते अजा/जजा अत्याचार निवारण अधिनियम को निष्प्रभावी कर देती हैं। 2002 में गुजरात में मुसलमानों के एकतरफा कत्लेआम के कथित रूप से प्रमुख आरोपी माने गए, तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के पक्ष में गुजरात जाकर मायावती दलितों से वोट देने की मांग करती हैं। संविधान के प्रावधानों और सामाजिक न्याय की अवधारणा के बिलकुल विपरीत मायावती राज्यसभा में और फिर कुछ दिन बाद अपने जन्मदिन पर नरेंद्र मोदी की केंद्र सरकार से मांग करती हैं कि उच्च जातीय गरीबों को आर्थिक आधार पर आरक्षण प्रदान करने के लिये क़ानून बनाया जावे।

राजस्थान के आदिवासी राजनेता नमोनारायण मीणा (पूर्व आईपीएस) यूपीए की सरकार में 10 साल तक राज्य मंत्री रहे और अपने गृह कस्बे में लोगों को गुमराह करने वाला वक्तव्य देते हैं कि अजा/जजा के लिए नौकरियों का आरक्षण 10 साल के लिए था, जिसे इंदिरा, राजीव और सोनिया की मेहरबानी से बढ़ाया गया। मध्य प्रदेश के आदिवासी राजनेता कांति लाल भूरिया केंद्र में मंत्री रहे, लेकिन पार्टी की लाईन से हटकर आरक्षण व्यवस्था, जातिगत विभेद, उत्पीड़न या नक्सलवाद पर एक वाक्य तक नहीं बोल सके। राजस्थान की आदिवासी मीणा जनजाति के कथित रूप से सबसे बड़े राजनेता डॉ. किरोड़ी लाल मीणा के मुख से कभी भी मनुवादी व्यवस्था, दलित उत्पीड़न और नक्सलवाद के विरूद्ध एक शब्द सुनने को नहीं मिला और राजस्थान में तीसरे मोर्चे को सत्ता में लाने के सपने देखते रहते हैं! ऐसे दर्जनों नहीं, सैकड़ों नाम हैं, जो वंचित समाज के उत्थान के नाम पर अपना उत्थान कर रहे हैं।S

वंचित समाज के नाम पर राजनीति करने वाले ऐसे लोगों पर जब तक हम दाव लगाते रहेंगे, तब तक वंचित समाज ही दाव पर लगाया जाता रहेगा। आज जरूरत इस बात की है कि हम वास्तविक अर्थों में सच्चे, समर्पित और शिक्षित लोगों को हर क्षेत्र में आगे लाएं। हमें शिक्षा के वास्तविक अर्थ को समझना होगा। अभी तक का अनुभव है कि वंचित समाज के डिग्रीधारी और उच्चपदस्थ लोग ही सबसे अधिक समाजद्रोही सिद्ध हुए हैं। अत: हम वर्तमान में सामाजिक व्यवस्था के संक्रमण काल से गुजर रहे हैं। वंचित वर्ग के हर दल और हर राजनेता ने वंचित वर्ग को धोखा दिया है। जमकर गुमराह किया है। समाज के नाम पर खुद को और अपने कुटम्ब को आगे बढ़ाया है।

इसके बावजूद कुछ लोग समस्या को जानबूझकर समझना नहीं चाहते और समाजद्रोही राजनेताओं से मुक्ति के बजाय पहले नए विकल्प खोजने की बात करके चिंतन और सुधार की राह में रोड़े अटकाते रहते हैं। जबकि वास्तव में वंचित वर्ग में विकल्पों की कमी नहीं है, लेकिन सड़े-गले और असफल हो चुके पुराने विचार या सिस्टम से विरक्ति और नये के स्वागत के बिना बदलाव कैसे होगा? मनुवाद से मुक्ति के लिए जैसे बुद्ध के वैज्ञानिक एवं तार्किक विचार और आधुनिक विज्ञान सहायक सिद्ध हो रहा है, उसी तरह से नाकारा और असंवेदनशील नेतृत्व को भी बदलना होगा।

पुरुषों ने धोती को उतारकर की पायजामा और पेंट अपनाया। वंचित वर्ग की लड़कियां लहंगा चोली के बजाय साड़ी और सलवार सूट पहन रही हैं। नये के लिए बदलाव का साहसिक निर्णय जरूरी है। सच यह भी है कि हमारे वे लोग जिनके दिल में समाज का दर्द है, हम उनको पहचान नहीं पा रहे हैं या सच्चे लोग वर्तमान व्यवस्था का सामना करने के लिए सक्षम हैं, इस बात का हमको विश्वास नहीं है। ऐसे हालातों में वंचित वर्ग के हितैषीे बुद्धिजीवियों को गहन-गंभीर और निष्पक्ष चिंतन करने की जरूरत है। लेकिन असफल, आऊट डेटेड और समाजद्रोही सिद्ध हो चुके विचारों तथा लोगों से मुक्ति पहली जरूरत है।

जय भारत। जय संविधान।
नर-नारी, सब एक समान।।
: डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
9875066111/03-05-2016/07.54 PM
@—लेखक का संक्षिप्त परिचय : मूलवासी-आदिवासी अर्थात रियल ऑनर ऑफ़ इण्डिया। होम्योपैथ चिकित्सक और दाम्पत्य विवाद सलाहकार। राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (BAAS), नेशनल चैयरमैन-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एन्ड रॉयटर्स वेलफेयर एसोसिएशन (JMWA), पूर्व संपादक-प्रेसपालिका (हिंदी पाक्षिक) और पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा एवं अजजा संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ।

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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'/ 3 मई, 2016