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Thursday, March 3, 2016

पंतजलि द्वारा कैंसर का भय दिखाना क्या नैतिक है? क्या कानून सम्मत है?

पंतजलि द्वारा कैंसर का भय दिखाना
क्या नैतिक है? क्या कानून सम्मत है?
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लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
आज 03 मार्च, 2016 को राजस्थान पत्रिका के जयपुर संस्करण के मुखपृष्ठ पर एक विज्ञापन के शीर्षक ने चौंका दिया। पतंजलि की ओर से जारी विज्ञापन में कहा गया है कि 'आपके खाने के तेल में कैंसर कारक तत्वों की मिलावट तो नहीं—जरा सोचिए' यह 'जरा सोचिये', जरा सी बात नहीं, बल्कि भयानक बात हो सकती है और उपभोक्ताओं के विरुद्ध भयानक षड़यंत्र हो सकता है? लोगों को 'जरा सोचिये' के बहाने ​कैंसर का भय दिखलाकर पतंजलि द्वारा अपना सरसों का तेल परोसा जा रहा है। क्या यह सीधे-सीधे आम और भोले-भाले लोगों को भय दिखाकर अपना तेल खरीदने के लिये मानसिक दबाव बनान नहीं? क्या यह उपभोक्ताओं की मानसिक ब्लैक मेलिंग नहीं है?
दिमांग पर जोर डालिये रामदेव वही व्यक्ति है—जो 5-7 साल पहले अपने कथित योगशिविरों में जोर-शोर से योग अपनाने की सलाह देकर घोषणा करता था कि उनके योग के कारण बहुत जल्दी डॉक्टर और मैडीकल दुकानदार मक्खी मारेंगे। वर्तमान हकीकत सबके सामने है, कोई भी मक्खी नहीं मार रहा। हां यह जरूर हुआ है कि इन दिनों कथित योगशिविरों में योग कम और पतंजलि की दवाईयों का विज्ञान अधिक किया जाता है। इन दिनों शिविरों में योग के बजाय हर बीमारी के लिये केवल पतंजलि की दवाई बतलाई जाती है। जिसका सीधा सा मतलब यही है कि रामदेव का कथित योग असफल हो चुका है। रामदेव के योग शिविरों में सरकार के योगदान की तेजी के साथ-साथ वृद्धि हो रही है, लेकिन योग निष्प्रभावी हैं, क्यों रागियों और रोगों में तेजी से बढोतरी हो रही है। रामदेव के शिविरों के नियमित कथित योगी भी डॉक्टरों की शरण में हैं, लेकिन बेशर्मी की हद यह है कि अब लोगों को योग के साथ-साथ पतंजलि के उत्पादों के नाम गुमराह करने के साथ-साथ दिग्भ्रमित भी किया जा रहा है। केवल इतना ही नहीं, डराया और धमकाया जा रहा है। विज्ञापनों से जो संदेश प्रसारित हो रहा है, वह यह है कि पतंजलि के अलावा जितने भी तेल उत्पाद हैं, उनमें कैंसर कारक तत्वों की मिलवाट हो सकती है!
यह सीधे-सीधे भारतीय कंज्यूमेबल मार्केट पर रामदेव का कब्जा करने और कराने की इकतरफा मुहिम है, जिसमें केन्द्र और अनेक राज्यों की सरकार के साथ-साथ, बकवासवर्ग समर्थक मीडिया भी शामिल है। मेरा मानना है कि अब आम व्यक्ति को जरा सा नहीं, बल्कि गम्भीरता से इस बात पर भी गौर करना चाहिये कि पहले योग के नाम पर और अब उत्पादों की शुद्धता के नाम पर जिस प्रकार से उपभोक्ताओं को गुमराह और भयभीत किया जा रहा है, उसका लक्ष्य और अंजाम क्या हो सकता है? यह भी विचारणीय है कि रामदेव किस विचारधारा के समर्थक हैं?
अन्त में सबसे महत्वपूर्ण बात : कानूनविदों को इस बात का परीक्षण करना चाहिये कि उपभोक्ता अधिकार संरक्षण अधिनियम तथा विज्ञापन क़ानून क्या इस प्रकार से उपभोक्ताओं को भ्रमित और गुमराह करके या डराकर विज्ञापन के जरिये कैंसर का भय परोसा जाना क्या नैतिक रूप से उचित है? क्या ऐसा विज्ञापन करना कानून सम्मत है?

जय भारत। जय संविधान।

नर-नारी सब एक समान।।
लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
9875066111/03.03.2016/05.42 PM
@—लेखक का संक्षिप्त परिचय : होम्योपैथ ​चिकित्सक और दाम्पत्य विवाद सलाहकार। +राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (BAAS), नेशनल चैयरमैन-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एन्ड रॉयटर्स वेलफेयर एसोसिएशन (JMWA), पूर्व संपादक-प्रेसपालिका (हिंदी पाक्षिक) और पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा एवं अजजा संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ 
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Saturday, October 19, 2013

किसी कानून से नहीं डरते बाबा लोग, पढ़िए कुछ बाबाओं की कुंडली

किसी कानून से नहीं डरते बाबा लोग, पढ़िए कुछ बाबाओं की कुंडली

इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी


एक नाबालिग से यौन शोषण के आरोप में पकड़े गए आसाराम बापू फिर से कुकर्म के लिए चर्चा में आ गए हैं। इससे पहले भी इन पर कई तरह के आरोप लगते रहे हैं, लेकिन सख़्त कानूनी कार्रवाई अब तक नहीं हो पाई है। यही वजह है कि आसाराम ने अपने कुकर्मों और अनैतिक-गैर कानूनी कार्यों से खुद को रोकने के लिए शायद सोचा तक नहीं।

देश की कानून व्यवस्था जो राजनैतिक इच्छा पर ही निर्भर करती है। किसी भी बड़े बाबा या राजनीतिज्ञ पर कार्रवाई तभी करती है जब उस प्रदेश या देश की सरकार ऐसा चाहे और सरकार चलाने वाले लोग इस तरह का निर्णय सही या गलत के आधार पर न लेकर अपने राजनैतिक हितों और वोट बैंक को ध्यान में रखकर ही करते हैं। आसाराम और इनके तरह के अन्य बाबा इसी का लाभ उठाते हैं।

बाबाओं को अच्छी तरह से पता है कि उनके भक्तों की प्रतिक्रियायें ऐसा माहौल बना देंगी, जिसके आगे सरकार और पुलिस घुटने टेक देगी और वे आसानी से बच निकलेंगे। यह बात स्पष्ट रूप से उस दिन और साफ हो गई, जिस दिन आसाराम ने हिन्दू जन जागरण मंच के कार्यकर्ताओं से बात करते हुए कहा कि मुझे गिरफ्तार करने की हिम्मत पुलिस में नहीं है, मेरे भक्त ऐसा कभी नहीं होने देंगे। अपने इस वक्तव्य से पहले तक लगातार 12 दिनों से आसाराम फरार चल रहे थे, पुलिस उन्हें तलाश रही थी। इस तरह की बात क्या कोई आम आदमी कह सकता है। देश का संविधान स्पष्ट करता है कि कानून सभी के लिए एक समान है। लेकिन देश के बड़े राजनीतिज्ञ और आसाराम की तरह बाबा देश के कानून का धता बताने में जरा भी देर नहीं लगाते। यही वजह है कि आज आसाराम की तरह कई बाबाओं पर गैर कानूनी कार्य करने के आरोप हैं, बालात्कार, हत्या और ज़मीन हड़पने जैसे अनेकानेक मामले अदालतों में कई बाबाओं पर चल रहे हैं। कई मिसालें ऐसी भी हैं, जिनमें अदालती आदेश का बावजूद स्थानीय प्रशासन कार्रवाई नहीं करता, क्योंकि सरकार चलाने वाले राजनीतिज्ञ ऐसा नहीं चाहते।

दिल्ली में दामिनी प्रकरण के बाद बालात्कार जैसे अपराध के लिए नया सख्त कानून बना है। इस कानून के बाद आसाराम पर एक नाबालिग लड़की का यौन शोषणा का मामला सामने आया है। अब तक की कार्यवाही से जो संकेत दिख रहे हैं, उससे इस बात की संभावना काफी बढ़ गई है कि आसाराम इस आरोप से आसानी से मुक्त नहीं हो पाएंगे। जिन धाराओं में मामला दर्ज किया गया, उसके साबित होने पर उन्हें उम्रकैद तक की सजा हो सकती है। दरअसल, होना यह चाहिए कि चाहे राजनीतिज्ञ हो, बाबा हों, या किसी भी धर्म का ऐसा धर्मगुरू जो लोगों की आस्था का फायदा उठाकर गैरकानूनी कार्य करता हो, उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई सख्ती से की जानी चाहिए। ऐसे लोग एक तरह से समाज के लिए मॉडल का काम भी करते हैं, ऐसे में अगर इन पर गंभीर आरोप लगता है तो तत्परता से सख़्त कार्रवाई होनी ज़रूरी है, ताकि आस्था खिलवाड़ का विषय न बने।

बाबाओं की सैद्धांतिक और कागजी बातों की बात की जाए तो इन सबका दावा है कि वे समाज का उद्धार करने के लिए ही अपना जीवन समर्पित करते हैं। लेकिन इनमें से कोई यह बताने को तैयार नहीं है कि उनके पास जो अकूत संपति है, वे उन्हें किन स्रोतों ने किस प्रकार के लोगों ने दी है। बड़े-बड़े दान देने वाल लोगों की कमाई क्या एक नंबर की दौलत है। इस तरह का सवाल किसी भी बाबा से किया जाता है तो तिलमिला जाते हैं।देश के कुछ बाबाओं की संपति और कार्यप्रणाली की विवरण इस प्रकार है-

आसाराम बापू
आसाराम की संपति इस समय दस हजार करोड़ से भी अधिक की है। दिल्ली में आसाराम के चार मंदिर-आश्रम हैं। सीलमपुर का आश्रम बाबा ने मंदिर पर कब्जा करके बनाया है, करोलबाग वाला बाबा का मंदिर व राजोकरी का आश्रम वनभूमि पर बना है तो नजफगढ़ का मंदिर ग्राम पंचायत की भूमि पर कब्जा करके बनाया गया है। ऋषिकेश का आश्रम किसानों की भूमि पर बना है, ग्वालियर में शिवपुरी रोड पर बना आश्रम गांव की चरनोई भूमि पर है। छिंदवाड़ा में बापू का आश्रम आदिवासियों की जमीन पर कब्जा करके बनाया गया है, मामला अदालत में है। मेघनगर में 108 एकड़ ज़मीन पर बने बापू के आश्रम की भूमि के असली मालिक आदिवासी हैं, अदालत ने भी इसे मान लिया है। रतलाम में 500 एकड़ की भूमि पर आश्रम खड़ा किया है, जिसकी मालकिन उनकी भक्तिन प्रेमा बहन है। गुजरात के पेठमाला में किसानों की जमीन कब्जा करके आश्रम बनाया गया है, जिसकी कीमत लगभग 350 करोड़ रुपये है। वाराणसी में आसाराम के आश्रम की भूमि का मामला अदालत में चल रहा है। चंडीगढ़ में तो उन्होंने इन हदों को भी पार कर दिया। इन्होंने अपने भक्तों को फ्लैट देने के लिए पांच-पांच लाख रुपये जमा करा लिया, इस तरह उन्होंने 500 करोड़ अर्जित कर लिया, लेकिन फ्लैट आज तक नहीं बने। पांच-पांच लाख रुपये देने वाले लोग जब इंतज़ार करके थक गए तो अदालत की शरण में जा पहुंचे हैं। आसाराम के बारे में इंटरनेट पर सबसे अधिक सामग्री उपलब्ध है। जिसमें इनके और इनके भक्तों द्वारा खूब गुणगान किया गया है। ऐसे गुणगानों में तमाम अनैतिक आधारहीन बातों का वर्णन किया गया है। वे अपने गलत कामों पर पर्दा डालने के लिए दावा करते हैं कि उनकी यौन इच्छाओं की पूर्ति करना भगवान की इच्छाओं की पूर्ति करना है। इनका पुत्र नारायण सिंधी पर भी कई बार बालात्कार के आरोप लग चुके हैं, मामले दर्ज हुए हैं। हैरानी की बात तो यह है कि इनकी पुत्री भारती भी अपने पिता की पाश्विक यौन इच्छाओं की पूर्ति के लिए उनकी मदद करती है। इंटरनेट पर उलब्ध सामग्री के अनुसार वह आश्रम में आयी महिलाओं को यह समझाती है कि बापू की किसी भी बात से इंकार किया तो भगवान नाराज हो जाएंगे। उसके अनुसार बापू के साथ बिताए गए पल भगवान संग बिताए गए पल की तरह हैं। जिस नाबालिग लड़की के साथ यौन उत्पीड़न के मामले में बापू पर इस वक्त कानूनी कार्यवाही चल रही है, उसके माता-पिता आसाराम के अंध भक्त थे, उन्हें भगवान की तरह पूजते थे, लेकिन अब उनकी पुत्री के सााथ जब यह घटना हो गई है, उसके बाद से वे आसाराम को फांसी की सजा देने तक की मांग कर रहे हैं।

सत्यसाईं बाबा
इन्होंने अपने आपको भगवान बताया था, और अपनी मृत्यु की तारीख भी बता दी थी। इनके बताने के मुताबिक 96 वर्ष की आयु में इनकी मृत्यु वर्ष 2022 में होनी चाहिए थी, मगर वर्ष 2011 में ही चल बसे। खुद के बारे में की गई इतनी बड़ी भविष्यवाणी गलत होने के बावजूद इनके भक्तों की आंखें नहीं खुलीं। अब तक ज्ञात स्रोतों के मुताबिक सत्यसाईं अपने पीछे 40 हजार करोड़ की संपत्ति छोड़ गए हैं। इस संपत्ति को अर्जित करने में इन्होंने सिर्फ दान का सहारा नहीं लिया है, बल्कि अपने भक्तों को लूटा भी है, उनके साथ धोखाधड़ी भी की है। जिसके खिलाफ मुकदमे भी चले, लेकिन सरकार चलाने वाले लोग इनका पैर छूते हैं, जिसकी वजह से कार्रवाई नहीं हो सकी। ये अपने भक्तों के सामने चमत्कार करते थे। जिसमें हवा में हाथ फैलाकर घड़ियां, सोने के चेन, अंगूठी, रुद्राक्ष आदि ले आते थे। इनकी इस करिश्मे को जादूगर पीसी सरकार ने चैलेंज भी किया था, उसका कहना था बाबा द्वारा चमत्कार का दावा किया जाना गलत है, मैं इसे करके उनके सामने दिखा सकता हूं। पीसी सरकार ने बाबा के सामने ये सब करके दिखाने का दावा किया था, लेकिन बाबा ने उससे मिलने से ही इंकार कर दिया था। सत्यासाईं के समलैंगिग यौनाचार के तमाम मामले सामने आये थे, जिसे सरकार की दबाव में दबा दिया जाता रहा है। यौनाचार का विरोध करने वाले कई लोगों की हत्या अथवा गायब करने का भी आरोप लगते रहे हैं, इन पर। ये आमतौर पर 11 से 15 साल के लड़कों को अपनी हवस का शिकार बनाते थे।

रविशंकर महाराज
ये अपने को श्री श्री रविशंकर कहते हैं, क्योंकि इस देश के एक विश्व विख्यात संगीतज्ञ का नाम है रविशंकर। इस रविशंकर के आगे कहीं इनका नाम दब न जाए इसलिए इन्होंने अपना नाम श्रीश्री रविशंकर रख लिया। इनका दावा है कि इन्होंने चार साल की उम्र से ही भगवत गीता की कथा कहने लगे थे, 17 साल की उम्र में स्नातक कर लिया था और 1982 में सुदर्शन क्रिया सीख लिया है। ये सारी बातें रहस्य के दायरे में आती हैं। श्रीश्री का सालाना आय 450 करोड़ की है। दुनियाभर के 140 देशों में इनके आश्रम हैं। राजाओं की मुकुट पहनते हैं। किसी कार्यक्रम में जब ये प्रवेश करते हैं तो भगवान की तरह अवतरित होते हैं। राजाओं की तरह मुकुट पहनते हैं। ये ज्ञान के साथ मुस्कान की भी शिक्षा देते हैं। अब कोई समझाये कि 78 फीसदी जनता जो 20 रुपये रोज से गुजारा करती है, उनके चेहरों पर मुस्कान कैसे आयेगी, ये आर्ट ऑफ लीविंग की शिक्षा किस तरह ग्रहण करेंगे।

बाबा रामदेव
ये कालेधन के खिलाफ आंदोलन चला रहे हैं। मगर खुद कानून के हिसाब से चलना नहीं चाहते।कनखल में इनके औषधि संस्थानों में औषधियों के रूप में उत्पाद तैयार होते हैं। कानून के अनुसार इन संस्थानों का पंजीयन फैक्टृी एक्ट के तहत होना चाहिए, लेकिन इन्होंने पंजीयन नहीं कराया। इनके संस्थानों में काम करने वाले श्रमिकों की सुरक्षा के लिए श्रम कानूनों का पालन किया जाना चाहिए। उन्हें हाजिरी कार्ड, न्यूनतम वेतन, आठ घंटे का काम व इससे अधिक काम करने का ओवरटाइम दिया जाना चाहिए।नियमित किये जाने चाहिए और भविष्य निधि काटी जानी चाहिए। लेकिन बाबा इन सब के लिए तैयार नहीं हैं। क्या इन सब कानूनों के परे रहकर धन एकत्र करना काले धन की की श्रेणी में नहीं आता? आखिर बाबा के कालेधन की परिभाषा क्या है? बाबा की कंपनियों में बनी रही दवाओं के लेकर भी विवाद है। उपभोक्ता कानून के तहत हर उपभोक्ता को यह जानने का अधिकार है कि वो जो उत्पाद खरीद रहा है, उसमें क्या-क्या मिला है? दवा अधिनियम के तहत तो हर दवा में उसमें पाये जाने वाले तत्व, उनकी मात्रा,अनुपात और उसके निर्माण की तारीख के साथ ही एक्सपायरी डेट डालना भी ज़रूरी है।बाबा इन नियमों का पालन नहीं कर रहे थे, मामला अदालत में पहुंचा, जिसके बाद कुछ चीजों का पालन करने लगे हैं, लेकिन अभी सभी नियमों को पालन नहीं करते। बाबा की घोषित संपत्ति 1147 करोड़ रुपये की है, हालांकि इन्होंने 45 कंपनियों की संपत्ति को छिपाया है, जिसके निदेशक उनके निकटत सहयोगी बालकृष्ण हैं। एक दशक पहले तक रामदेव साइकिल से गांव-गांव जाकर योग की शिक्षा देते थे, दस साल में इतनी बड़ी संपत्ति आखिर कैसे अर्जित कर ली।पतंजलि योग पीठ किसानों की जमीन हड़प कर बनाया गया है।हाईकोर्ट के आदेश का पालन करने का भी प्रशासन साहस पैदा नहीं कर पा रहा था, बाद में बाबा को जमीन वापस करने की घोषण करनी पड़ी। मध्यप्रदेश की शिवराज चौहान सरकार ने जबलपुर में बाबा को चार सौ एकड़ भूमि देने की घोषणा की है। इस जमीन पर आदिवासी पीढ़ियों से खेती कर रहे हैं। इन गरीबों का रोजगार छीनकर बाबा अपना औषधि संस्थान खोलेंगे।बाबाक ी दवाओं के बारे में जो जानकारियां आईं थीं, उसके अनुसार इन दवाओं में मानव हड्डियों और यौन ताकत देने वाली दवाओं में बंदर के शरीर के कुछ अंग डाले जाते हैं। उत्तराखंड में ही कुछ संतों ने बाबा पर आरोप लगाया कि उन्होंने प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री को 25 लाख की रिश्वत देकर जांच रिपोर्ट को प्रभावित किया।

इस तरह के मामलों का एक दूसरा पहलू यह भी है कि लोग जरूरत से ज्यादा अंधभक्त हो जाते हैं। बाबाओं को भगवान समझने लगते हैं, उनके द्वारा बताये गए एक शब्द-शब्द अक्षरतः भगवान का शब्द समझते हैं। इसी वजह से जहां भारी भरकम राशि उन्हें दान में देने लगते हैं वहीं अपने घर की महिलाओं को उनके लिए अकेले में छोड़ देते हैं। बाबा लोग इसी का फायदा उठाते हुए सारे कुकर्म बिना किसी भय के करते हैं।

कानून अपना काम इसलिए नहीं कर पाता कि राजनीतिक इच्छा शक्ति उन्हें हासिल नहीं होती। आसाराम के इस मामले में तो उनके भक्त ऐसे भी दिखाई दे रहे हैं, जो सबकुछ देखते-जानते हुए भी उनका बचाव कर रहे हैं। यहां तक कि पत्रकारों पर हमले किया जा रहे हैं। आखिर हम किस युग-देश में रह रहे हैं कि ऐसी हालात का सामना करना पड़ रहा है। क्या किसी आरोपी पर कानून के हिसाब से कार्यवाही भी नहीं होनी चाहिए। हमें जागना होगा, ऐसे अंधभक्ति- अंधविश्वास के खिलाफ खड़ा होना होगा ताकि ऐसे अपराध करने का मौका किसी बाबा को न मिले।

लेखक इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी से संपर्क 09335162091 या 09889316790 के जरिए किया जा सकता है.
स्त्रोत : भड़ास४मीडिया  

Wednesday, October 16, 2013

मानव-निर्मित धर्म की क्रूरता से खुद को बचायें

मानव-निर्मित धर्म की क्रूरता से खुद को बचायें

संसार में जितने भी युद्ध हुए हैं, उनमें से अधिकतर के पीछे धार्मिक कारण रहे हैं। धर्म या धार्मिक लोगों या कथित धार्मिक महापुरुषों ने कितने लोगों को जीवनदान दिया, इसका तो कोई पुख्ता और तथ्यात्मक सबूत नहीं है, लेकिन हम देख रहे हैं कि धर्म हर रोज ही लोगों को लीलता जा रहता है। ऐसे में क्या मानव निर्मित धर्म के औचित्य के बारे में हमें गम्भीरता से सोचने की जरूरत नहीं है?
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’ 

मध्य प्रदेश के दतिया जिले से लगभग 60 किलोमीटर दूर रतनगढ़ स्थित देवी के मंदिर में नवरात्रि के अंतिम दिन देवी के दर्शन के लिए दूर-दूर से आये हजारों श्रृद्धालुओं में पुलिस लाठीचार्ज के कारण मची भगदड़ में अकाल मृत्यु के शिकार लोगों की संख्या 100 से पार पहुँच गयी। मरने वालों में ज्यादातर निर्दोष बच्चे और महिलाएं थे।

सूचना माध्यमों को लोगों की मौत का जो आंकड़ा मध्य प्रदेश प्रशासन द्वारा बताया गया, असल में वह सही नहीं था। क्योंकि स्थानीय लोगों का कहना है कि अनेक ग्रामीण बिना पोस्टमार्टम कराये ही अपने सगे-संबंधियों के शव लेकर अपने-अपने गांव चले गए। ऐसे में, इस हादसे में मरने वालों की संख्या प्रशासन द्वारा बतायी जा रही संख्या से कहीं अधिक होने की पूरी सम्भावना है।

यहाँ पर यह सवाल उठाना भी प्रासंगिक लगता है कि हादसों में मरने वाले निर्दोष लोगों को मुआवजा देने की शर्त के साथ मृतकों का पोस्टमार्टम कराये जाने की कानूनी शर्त क्यों प्रभाव में है? जबकि ऐसे मामलों में पोस्टमार्टम करवाने से मृतक परिवार अधिक आहत होते हैं। जिसके चलते इस हादसे में मरे लोगों के परिजन मुआवजे की चिन्ता किये बिना अपने सगे-सम्बन्धियों के शवों को पोस्टमार्टम से बचाने के लिये सीधे अपने-अपने गांव ले गये। जिन्हें मुआवजा इसी कारण नहीं मिलने वाला है। दूसरी ओर इस कारण से हादसे में मरने वालों की संख्या का वास्तविक आंकड़ा भी देश के सामने कभी नहीं आ सकेगा। इसलिये इस प्रकार के बेहूदा कानून को तत्काल बदले जाने की जरूरत है।

हिन्दू धर्म में जोरशोर से मनाये जाने वाले नवरात्री त्यौहार के अंतिम दिन रविवार 13 अक्टूबर को बड़ी संख्या में श्रद्धालु रतनगढ़-माता के मंदिर में दर्शन करने पहुंचे थे। मंदिर से पहले सिंध नदी पुल पर भारी भीड़ थी। पुल के संकरा होने और उस पर बड़ी संख्या में टैक्टरों के पहुंचने से जाम की स्थिति बन गई। जाम के कारण भीड़ बेकाबू हो गई। जिसे काबू करने के लिये पुलिस ने वहां बल प्रयोग कर दिया, जिससे भगदड़ मच गई। एक तरफ श्रृद्धालु जहां एक-दूसरे को कुचलते हुए भागने की कोशिश में लगे थे, वहीं दूसरी ओर कई लोग जान बचाने के लिए नदी में छलांग लगा दी।

उक्त दर्दनाक घटना पर प्रदेश और देश के राजनैतिक प्रतिनिधियों ने संवेदनाएं व्यक्त की और मृतकों तथा घायलों के परिवारजनों को फौरी राहत पहुंचाने के लिये मुआवजे की घोषणाएं की गयी। सरकार ने जांच के आदेश दे दिये हैं, जिससे कि विधानसभा चुनावों से ठीक पूर्व सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ जनता में उपजे आक्रोश को कुछ सीमा तक नियन्त्रित किया जा सके। लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो ये है कि हम इस प्रकार के हादसों से कब तक सबक नहीं सीखेंगें?

सबसे बड़ा सवाल तो ये है कि हजारों-लाखों जानें धार्मिक यात्राओं, धर्मस्थलों या धर्म के नाम पर चलने वाले युद्धों के कारण जाती रही हैं। हमारे देश में ही नहीं, बल्कि संसार में जितने भी युद्ध हुए हैं, उनमें से अधिकतर के पीछे धार्मिक कारण रहे हैं। धर्म या धार्मिक लोगों या कथित धार्मिक महापुरुषों ने कितने लोगों को जीवनदान दिया, इसका तो कोई पुख्ता और तथ्यात्मक सबूत नहीं है, लेकिन हम देख रहे हैं कि धर्म हर रोज ही लोगों को लीलता जा रहता है। ऐसे में क्या मानव निर्मित धर्म के औचित्य के बारे में हमें गम्भीरता से सोचने की जरूरत नहीं है? 

जो धर्म एक ओर तो वर्ग विशेष को आजीवन, आजीविका प्रदान करने का पुख्ता साधन बना हुआ है, वहीं दूसरी ओर भोले-भाले लोगों के शोषण का कारण भी बना हुआ है। जिसमें महाकुम्भ में रेल पुल का हादसा हो जाता है। केदारनाथ दर्शन को जाने वाले लोग बेमौत मारे जाते हैं। अनेकों स्थानों पर देवी और बालाजी के दर्शन करने के बजाय मौत को गले लगा लेते हैं। इसी धर्म की आड़ में नित्यानन्द और आशाराम जैसे लोग पैदा होते हैं। यही धर्म की बीमारी लोगों को धर्म में बांटकर देश के विकास के मुद्दों से विमुख कर देती है।

इसी धर्म की ओट में स्वयं को हिन्दूवादी वोटरों का सबसे बड़ा पेरोकार दिखाने की होड़ में 2014 में होने जा रहे लोक सभा चुनावों से पूर्व ही भारतीय जनता पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी स्वयं को राष्ट्रभक्त या राष्ट्रवादी कहने के बजाय हिन्दू राष्ट्रवादी कहकर हिन्दूओं की भावनाओं को भड़काने और गैर-हिन्दुओं की भावनाओं को आहत करने से पीछे नहीं रहते हैं।

टीवी पर न जाने कितने कथित संत और संतानी धर्म के नाम पर अपनी दुकान चला रहे हैं और सरेआम देश के लोगों को ठग रहे हैं। जिनमें सबसे बड़े ठग हैं-रामदेव। आज से पांच वर्ष पूर्व जिनका कहना था कि योग से सारी बीमारियों का यहां तक कि एड्स एवं कैंसर तक का इलाज सम्भव है। इसके साथ-साथ रामदेव अपने योग शिविरों में सारे डॉक्टरों और अस्पतालों के बन्द और बेरोजगार हो जाने का दावा किया करते थे। वही रामदेव आज अपने योग शिविरों में योग से रोग भगाने की बात को प्राथमिकता देने के बजाय, खुद के द्वारा निर्मित की गयी हर रोग की दवा, आटा और साबुन बेच रहे हैं। रामदेव देश के लोगों का इलाज करने के लिये शिविरों में भारतीय जनता पार्टी नामक दवा भी बेच रहे हैं। जिसके लिये हिन्दुत्व को हथियार बना रखा है।

ऐसे में आज देश के लोगों को ये समझने की सख्त जरूरत है कि वास्तव में धर्म क्या है और धर्म की मानव को किसलिये और कितनी जरूरत है? क्या मानव निर्मित धर्म मानव का सच में उत्थान करने वाला है या मानव को पुलों से नदियों और रेल की पटरियों पर धकेल कर उनकी जिन्दगी छीनने वाला है? या केदारनाथ, देवियों, बालाजियों या महाकुम्भों के दर्शन करने या धार्मिक आयोजनों में आस्था एवं श्रृद्धा लिये जाने वाले लोगों के बच्चों को अनाथ, पत्नियों को विधवा, पतियों को विधुर और माता-पिताओं को बेसहारा बनाने वाला है?

हमारी रुग्ण और विकृत मनोस्थिति के लिये हमारे धर्म और संस्कृति की उपज हमारा पारिवारिक व सामाजिक परिवेश और निराशावादी माहौल जिम्मेदार है, जो प्रारम्भ से ही हमारे नजरिये और हमारी सोच को नकारात्मक, संकीर्ण, रुग्ण और विध्वंसात्मक बना देता है। जिसके चलते अनेक लोग निराशा, अवसाद, दुख, तकलीफ और तनावों में डूबकर अस्वास्थ्यकर रास्तों को अपनाने लगते हैं। इस प्रकार लोग एक परेशानी या दुख से मुक्ति पाने की आशा में अनेकों प्रकार की की न मिटने वाली मानसिक और शारीरिक पीड़ाओं तथा अनेक प्रकार की मुसीबतों में हर दिन घिरते ही चले जाते हैं। इस मानव निर्मित धार्मिक दुष्चक्र में फंसकर सम्पूर्ण मानवता बुरी तरह से तड़प रही है।

इसी मानवनिर्मित धर्म की कथित धार्मिक लोगों द्वारा निर्मित शास्त्रीय राह पर चलने और चलाने वाले आशाराम और नित्यानन्द जैसे कथित संतों के कारण लोगों को अपने ही स्वजनों से चाहे अनचाहे अनेक ऐसे दुखद विचार संस्कारों में मिलते रहते हैं, जो पीड़ा के सिवाय और कुछ नहीं देते हैं। धर्म का चोला ओड़कर स्वयं को धार्मिक दिखाने वाले ये कथित धार्मिक संत नकारात्मक, निराशावादी या जीवन से पलायन करने वाली बातें कहने वाले, आम और भोले भाले लोगों को जाने-अनजाने हर दिन मानसिक और शारीरिक रूप से बीमार बना रहें हैं, उनके अन्तर्मन में डर और निराशा का बीज बो रहे हैं। जिसके चलते लोगों के शारीरिक स्वास्थ्य एवं आर्थिक हालातों और पारिवारिक, सामाजिक, कार्यालयीन तथा व्यावसायिक रिश्तों और दाम्पत्य सम्बन्धों पर निश्चित रूप से कुप्रभाव पड़ रहा होगा।

इसके बावजूद भी धर्म के चंगुल में फंसे लोग कुछ नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि वे इस माहौल को और इसके प्रभाव को बदलने की स्थिति में नहीं है। अर्थात् इतनी सारी नकारात्मक और निराशा से भरी एवं भय पैदा करने वाली बातों से बचाव का सही एवं सफल रास्ता उनको ज्ञात ही नहीं हैं। ऐसे में मानवनिर्मित धर्म की शरण में जाना उनकी जन्मजात सामाजिक मजबूरी बना हुआ है। यदि हम अपने आपको स्वस्थ बनाये रखना चाहते हैं और हम सुखी तथा सफल होना चाहते हैं तो हमको इस स्थिति पर तत्काल काबू पाना होगा, लेकिन सबसे बड़ी समस्या यह है कि सम्पूर्ण समाज ही धर्म जनित नकारात्मकता एवं निराशा में डूबा हुआ है, ऐसे में धार्मिक चंगुल में फंसे लोगों को कैसे रोका या बदला जा सकता है? बदलना सम्भव भी है या नहीं? लगता है कि मुश्किल है। बिलकुल सही, क्योंकि दूसरों को बदलना असम्व है, लेकिन हमारे पास एक रास्ता तो है-दूसरों को न सही हम खुद अपने आपको तो बदल ही सकते हैं।

Tuesday, January 17, 2012

‘रामदेव के सहयोगी बालकृष्ण की डिग्रियां जाली’

बुलंदशहर।। केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) गहन जांच-पड़ताल के बाद इस नतीजे पर पहुंची है कि आचार्य बालकृष्ण की चारों डिग्रियां, पूर्व मध्यमा (हाई स्कूल), मध्यमा (इंटरमीडिएट), शास्त्री (ग्रेजुएट) और आचार्य (पोस्ट ग्रेजुएट), जाली हैं। अब इस मामले में सीबीआई को खुर्जा कस्बे में स्थित राधाकृष्णन संस्कृत कॉलेज के प्रिंसिपल की तलाश है। प्रिंसिपल पर योग गुरु रामदेव के सहयोगी बालकृष्ण को जाली डिग्री बांटने का आरोप लगाया गया है।

खुर्जा कॉलेज के प्रिंसिपल नरेश चंद द्विवेदी पर बालकृष्ण को आचार्य (एम. ए.) की जाली डिग्री देने का भी आरोप लगाया गया है, जिसका इस्तेमाल बालकृष्ण ने 1996 में कथित रूप से पासपोर्ट हासिल करने के लिए किया था। राधाकृष्णन संस्कृत कॉलेज वाराणसी के संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय से संबद्ध है। वहां जांच-पड़ताल के दौरान सीबीआई ने पाया कि बालकृष्ण नाम के किसी व्यक्ति ने कभी इस विश्वविद्यालय में दाखिला ही नहीं लिया था।

उच्च पदस्थ पुलिस सूत्रों के अनुसार सीबीआई इस मामले की जांच के बाद इस नतीजे पर पहुंची है कि आचार्य बालकृष्ण के पास मौजूद पूर्व मध्यमा, मध्यमा, शास्त्री और आचार्य की डिग्री फर्जी है। गौरतलब है कि इन सभी डिग्रियों पर खुर्जा कॉलेज के प्रिंसिपल नरेश चंद द्विवेदी के हस्ताक्षर हैं।
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