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Friday, April 29, 2016

भारत की संयुक्त राष्ट्र संघ में घेराबंदी??

भारत की संयुक्त राष्ट्र संघ में घेराबंदी??
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लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
इस बात में कोई दो राय नहीं कि वर्तमान भाजपा की केंद्र सरकार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की विचारधारा का 100 फीसदी नेतृत्व करती है। यह भी सर्वविदित है कि संघ मनुवादी आतंक, जनजातीय विभेद, वर्गवाद, वर्णवाद, जातिवाद, अमानवीयता, साम्प्रदायिकता, अंधश्रद्धा, अंधभक्ति, अंधविश्वास, बामणवाद, सामन्तशाही, भ्रष्टचार, अत्याचार, उत्पीड़न, लिंग भेद, स्त्री अत्याचार जैसी हजारों बुराईयों का पोषक है। अत: ऐसी बुराइयां भारत में अचानक पैदा नहीं हुई हैं, बल्कि सदियों से व्याप्त रही हैं। इसके बावजूद अचानक भारत के मन्दिरों और मस्जिदों/दरगाहों में स्त्रियों के प्रवेश का मुद्दा राष्ट्रीय ही नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गर्माया रहा है। जिसके लिए देशभर में संघ, मनुवाद, भाजपा, बामणवाद, आदि को कोसा जा रहा है। कोसा जाना भी चाहिए, लेकिन इसके पीछे निहित मकसद को भी समझने की जरूरत है। क्योंकि जो कुछ या जिन बुराईयों को प्रचारित किया जा रहा है, वे न तो अचानक पैदा हुई हैं और न ही नयी हैं और न हीं वर्तमान भाजपा की केंद्र सरकार की दैन हैं। अत: इसके पीछे दो कारण हो सकते हैं:-

1. संयुक्त राष्ट्र संघ में वीटो पावर प्राप्त करना भारत का दशकों से सपना रहा है। जिसके लिए पिछले 15 वर्षों में बहुत काम किया गया है। ऐसे में भारत को रोकने के लिये विश्व के सामने भारत की छवि की ध्वस्त करना कुछ विश्वव्यापी ताकतों का दुराशय हो सकता है। अत: सम्भव है कि भारत में स्त्रियों के मानवाधिकारों के हनन को मुद्दा बनाकर भारत को घेरने की योजना पर काम हो रहा है। जिसमें प्राथमिक सफलता मिल चुकी है।
2. दूसरा कारण, जिसका भारत को फायदा होगा। वह, यह कि भाजपा को बदनाम करने के लिए प्रोपेगण्डा चलाया जा रहा है।
पहला मुद्दा अत्यंत गम्भीर और विचारणीय है।

जय भारत। जय संविधान।
नर-नारी, सब एक समान।।
: डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
9875066111/28-04-2016/10.26 PM
@—लेखक का संक्षिप्त परिचय : मूलवासी-आदिवासी अर्थात रियल ऑनर ऑफ़ इण्डिया। होम्योपैथ चिकित्सक और दाम्पत्य विवाद सलाहकार। राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (BAAS), नेशनल चैयरमैन-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एन्ड रॉयटर्स वेलफेयर एसोसिएशन (JMWA), पूर्व संपादक-प्रेसपालिका (हिंदी पाक्षिक) और पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा एवं अजजा संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ।
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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

Monday, February 9, 2015

यदि भाजपा मांझी को समर्थन देती है तो मांझी का अत्यंत बुरा अंत तय है।

यदि भाजपा #मांझी को समर्थन देती है तो मांझी का अत्यंत बुरा अंत तय है।

बिहार के सबसे विवादास्पद मुख्यमंत्री बना दिए गए #जीतनराम मांझी जनता दल में शामिल होने से पहले कांग्रेसी हुआ करते थे। वह डॉ. जगन्नाथ मिश्र की राज्य सरकार में राज्यमंत्री भी रहे। जनतादल में बिखराव के बाद में जीतनराम मांझी लालू प्रसाद के साथ गए और राष्ट्रीय जनता दल की सरकार मे मंत्री रहे। फिर वह लालू को छोड़ कर नीतीश के साथ हो गये और उनकी सरकार में मंत्री बने। मुख्य मंत्री बनने से पूर्व तक मध्य बिहार में जीतनराम मांझी की छवि एक सीधे-सादे गैर-विवादास्पद राजनेता की रही है। 

जीतनराम मांझी के बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में लगभग आठ महिने के कार्यकाल को देखें तो अपने दामाद को मुख्यमंत्री कार्यालय में पदस्थापित कराने के अलावा उन्होंने ऐसा कोई काम नहीं किया, जिसे गरिमाहीन या अनैतिक कहा जा सके। दामाद के मामले में भी उन्होंने फ़ौरन कार्रवाई की और उन्हें पदमुक्त कर दिया। 

मनुवादी मीडिया ने मांझी के हर एक सच्चे बयान को विवादित बतलाने और बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। #जनता दल (यू) के नेताओं-विधायकों की मांझी के बयानों पर तीखी प्रतिक्रिया को भी मीडिया द्वारा ऐसे पेश किया गया, जैसे कि मांझी नीतीश के खिलाफ या सवर्णों और आर्यों के बारे में सच्ची बात बोलकर अपराध कर रहा हैं। 

इस प्रष्ठभूमि में देखा जाए तो बिहार के मुख्‍यमंत्री जीतनराम मांझी का कद केवल बिहार के #महादलितों में ही नहीं, बल्कि बहुत कम समय में देशभर के #दलितों, #पिछड़ों और #आदिवासियों में भी तेजी बढ़ा। जिसे नीतीश और जनता दल (यू) ने बगावत करार दिया। 

जीतनराम मांझी के बगावती तेवर और नीतीश के मुख्‍यमंत्री बनने की जल्‍दबाजी ने 'जनता परिवार' के एकीकरण का सारा खेल बिगाड़ दिया है। ऐसे में सवाल उठता है कि आपात स्थिति में नीतीश कुमार ने जिस मांझी को सरकार रूपी नैया की पतवार सौंपी थी, वही आज बगावती सुर अलापकर नैया मझधार में डुबोने पर क्‍यों अमादा हैं?

सारा देश जनता है कि लोकसभा चुनाव में जनता दल (यू) के अत्यधिक घटिया प्रदर्शन की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार 19 मई, 2014 को अपनी कार से जीतन राम मांझी के साथ राजभवन पहुंचे थे। सरकार की कमान संभालने के लायक उन्होंने जीतन राम मांझी को ही समझा था। वही मांझी आज उनके लिए खतरा दिखाई दे रहा है। लेकिन इसके पीछे के कारणों की पड़ताल करना भी जरूरी है। 

मांझी ने 20 मई, 2014 को 17 अन्य मंत्रियों के साथ मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। नीतीश ने कहा था कि मांझी सरकार चलाएंगे और वह (नीतीश) संगठन का काम देखेंगे। सवाल यह है कि इन आठ महीनों में ऐसा क्या हो गया? क्‍यों बागी हुए जीतनराम मांझी, जानिये ये रहे असली कारण :-

-नीतीश मांझी को रिमोट से चलाना चाहते थे जो मांझी को कतई भी मंजूर नहीं था। 

-बिहार के भाजपा के कद्दावर नेता सुशील कुमार मोदी सारे विकल्प खुले रहने के बयान देकर भाजपा के समर्थन के स्पष्ट संकेत दिए। दूसरी और उमा भारती ने अपने पटना दौरे के दौरान मांझी से मुलाकात की थी और उन्हें सार्वजनिक रूप से 'गरीबों का मसीहा' बताया था। जिससे मांझी भाजपा के संपर्क में माने जाने लगे।

-राजनीति के जानकार कहते हैं कि इतने दिनों में मांझी की तेजी से महत्वकांक्षा बढ़ती  गई है। प्रारंभ से ही मांझी महादलित नेता के तौर पर खुद को स्थापित करने में लगे थे। मांझी बहुत कम दिनों में अपने समाज के नेता बन गए। कई लोग मांझी के पीछे खड़े नजर आते हैं। इसमें कई मंत्री और विधायक भी शामिल हैं। ऐसे में मांझी का हौसला बुलंद हुआ।

-मांझी के सही और कडवे बयानों से जद (यू) नेतृत्व परेशान हो चुका था। ऐसे में पार्टी नेतृत्व ने मांझी से जब इस्तीफा मांगा तो मांझी बागी से दिखने लगे।

-मांझी की नाराजगी लगातार उनके कामों में हस्तक्षेप को लेकर भी है। पिछले दिनों उनके काम को लेकर पार्टी के प्रवक्ताओं द्वारा की गई बयानबाजी से मांझी खासा नाराज हुए थे। इसके बाद भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों के स्थानांतरण को भी दो मंत्रियों ने नियम विरुद्ध बताते हुए मुख्य सचिव से शिकायत की थी।

-कुछ सूत्रों का यह दावा है कि कुछ दिनों पूर्व राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के अध्यक्ष लालू प्रसाद ने भी मांझी को खरी-खोटी सुनाई थी। इस कारण मांझी को लेकर जनता दल (यू) में नाराजगी काफी दिनों से थी, परंतु पार्टी अध्यक्ष शरद यादव द्वारा उनसे बिना पूछे पार्टी विधानमंडल दल की बैठक बुलाना आग में घी का काम कर गया और जदयू की नाव हिचकोले खाने लगी। 

अब देखना यह है कि मांझी और जनता दल (यू) की यह नाव किस किनारे लगती है। यदि भाजपा मांझी को समर्थन देती है तो वो मांझी का अत्यंत बुरा अंत तय है। क्योंकि भाजपा रामबिलास पासवान जैसो की भांति मांझी को भी अपनी छत्र छाया में लाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ने वाली। आखिर भाजपा का मकसद दलित और आदिवासियों को नेतृत्व विहीन करना जो है!-डॉ. #पुरुषोत्तम मीणा '#निरंकुश', 

Tuesday, November 25, 2014

जन्मजातीय ईश्वरीय शक्ति से सम्पन्न आर्य श्रृष्टि के सर्वश्रेष्ठ मनुष्य हैं!

जन्मजातीय ईश्वरीय शक्ति से सम्पन्न आर्य श्रृष्टि के सर्वश्रेष्ठ मनुष्य हैं!
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

केंद्र में भाजपा के स्पष्ट बहुमत वाली सरकार के सत्तासीन होने के बाद नेट के चार्जेज लगातार बढ़ रहे हैं! क्यों इस सवाल को कोई भी (यानी मीडिया) किसी से भी (यानी सरकार से) नहीं पूछ रहा! क्यों नहीं पूछ रहा इस बारे में हम आम लोग भी चुप हैं, क्योंकि शायद हम को भी कुछ पता नहीं!

मगर बहुतों को पता भी है-चुनाव में अनाप-सनाप विदेशी पैसा, देशी मीडिया को भेंट करके नए नए जुमलों और सपनों को बेचकर जनता को जमकर गुमराह किया गया। अब अपरोक्ष रूप से धन भेजने वाले विदेशियों द्वारा सरकार की मौन स्वीकृति से नेट दरें बढ़ा दी गई तो देशी मीडिया बदले में देशी-विदेशी सभी के प्रति अपना आपसी बन्दर बाँट का धर्म चुका कर मौन साधे हुए है!

इसका सीधा असर सरकारी खर्चे (जनता की कमाई) पर नेट चलाने वाले अफसरों, धनी लोगों और काले धन के मालिकों पर कुछ नहीं होगा, मगर वंचित, पिछड़े, दलित, आदिवासी वर्गों के जागरूक लोगों और विशेषकर युवा पीढ़ी को सोशल मीडिया से दूर रखने का ये घुमा फिराकर एक उलटा-सीधा, गैर सरकारी, सरकारी हथकंडा है।

मगर इन मूर्खों को नहीं पता कि ये अपनी अमानवीय मनुवादी विचारधारा को भी तो इसी सोशल मीडिया के मार्फ़त ही तो निम्न तबकों में फ़िर से फैला रहे हैं। यदि वंचित, पिछड़े, दलित, आदिवासी वर्गों को सोशल मीडिया से दूर रहने को मजबूर किया गया तो उस अमानवीय मनुवादी विचारधारा को चासनी में लपेटकर पिलाने वाली (कु) नीति का क्या हश्र होगा? 

ओहो सॉरी....... भूल हो गयी अब इन भू-देवों को सोशल मीडिया की कहाँ जरूरत रह गयी है? अब तो ये देश के मालिक हैं!

अब तो पेड इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के मार्फ़त ही जनता के धन से अपनी विचारधारा आसानी से परोसी जा सकेगी।

जैसा कि पिछले दिनों मानवता के विरोधी मनु की आदमकद मूर्ति की छत्र छाया में संचालित राजस्थान हाई कोर्ट परिसर में "सामाजिक न्याय" के नाम पर आयोजित सेमीनार में सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री की मौजूदगी में संविधान को धता बताते हुए असंवैधानिक आर्थिक आरक्षण को मंत्री सहित सभी ने सामाजिक न्याय की जरूरत और समानता का आधार बताया गया। लच्छेदार भाषण दिए गए और आर्यों के मनुवादी मीडिया द्वारा इसे बेशर्मी से प्रकाशित किया गया! मगर किसी भी कथित बुद्धिजीवी (आर्य या अनार्य) ने एक शब्द इस बारे में नहीं लिखा कि ये कौनसा सामाजिक न्याय है?

अब राम राज्य आने वाला है। बल्कि आ ही गया है!
अभी से ही अनेक उदाहरण दिख रहे है-

आर्य मनुवादियों के हजारों सालों के अन्याय, भेदभाव और शोषण से शोषित और वंचित अनार्यों (विशेषकर दलित, आदिवासी और पिछड़ों) को सामाजिक न्याय और संवैधानिक अधिकार देने की संवैधानिक जिम्मेदारी का नाटक करने को मजबूर राजस्थान सरकार में सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय का मंत्री एक ब्राह्मण आर्य को बना रखा है!

सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के सचिव रघुवीर मीणा (आदिवासी) को समता आंदोलन समिति (जो संघ के निर्देश से काम करती है) की छोटी सी निराधार शंका पर राज्य सरकार (जो संघ के आशीर्वाद से काम करती है) ने तत्काल हटा दिया गया। आज वही अन्यायी लोग इस मंत्रालय को संचालित कर रहे हैं, जिनके अन्याय और विभेद से से बचने के लिए यह मंत्रालय संयुक्त राष्ट्र संघ से दबाव में तत्कालीन सरकार गठित किया गया था। मगर पूर्व में इस विभाग का मंत्री कोई दलित या आदिवासी ही हुआ करता था!

भाजपा सांसद साक्षी महाराज घोषणा कर चुके हैं कि-

"राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ" वर्तमान युग का भगवान हैं। 

संघ के हिन्दू मुखोटे विश्व हिन्दू परिषद के गिरिराज किशोर सिंघल (बनिया आर्य) नरेंद्र मोदी (बनिया आर्य) को आठ सौ साल के बाद में भारत का पहला स्वाभिमानी हिन्दू शासक प्रमाणित कर चुके हैं! 

उनकी नजर में अटल बिहारी वाजपेयी स्वाभिमानी हिन्दू नहीं, क्योंकि (शायद) अटल खुलकर मनुवाद का समर्थन नहीं करता था ! या इसलिए कि अटल बिहारी वाजपेयी नरेंद्र मोदी (आठ सौ साल के बाद में भारत का पहला स्वाभिमानी हिन्दू शासक जो तब का गुतरात का मुख्यमंत्री था) को शासन धर्म निभाने में असफल बताने की गलती कर बैठा था?

जब आज के युग के भगवान संघ से आशीर्वाद से संचालित सरकार को संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्तावों और मूल निवासियों के पक्ष में किये गए संवैधानिक प्रावधानों की तक परवाह नहीं तो उनके लिए नैट के दाम बढ़ाना कौनसी बड़ी बात है? आखिर-
आर्य श्रृष्टि के सर्वश्रेष्ठ मनुष्य हैं!
साक्षात ईश्वर के अवतार हैं!
कुछ भी कहने और करने को जन्मजातीय ईश्वरीय शक्ति से सम्पन्न हैं!
संविधान की क्या औकात जो वे इसका पालन करें?

Sunday, August 10, 2014

विश्‍व आदिवासी दिवस-मनुवादी-आर्य शुभचिन्तक नहीं, शोषक हैं

विश्‍व आदिवासी दिवस-मनुवादी-आर्य शुभचिन्तक नहीं, शोषक हैं

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

‘‘9 अगस्त, 2014 को पूरे विश्‍व में विश्‍व आदिवासी दिवस मनाया गया। यदि इस अवसर पर कोई मौन रहा तो वो थी हिन्दुओं की तथाकथत संरक्षक विचारधारा की पोषक भारतीय जनता पार्टी की भारत सरकार, जिसकी ओर से इस असर पर एक शब्द भी आदिवासियों के उत्थान के लिये या आदिवासियों के बदतर हालातों के बारे में नहीं कहा गया। बल्कि भाजपा अपने राष्ट्रीय आयोजन के माफर्र्त देश को गुमराह करने में मशगूल दिखी। इससे एक बार फिर से यह बात सच साबित हो गयी कि हिन्दूवादी ताकतें, जिन पर आर्यों और मनुवादियों का शिकंजा कसा हुआ है, वे आदिवासियों को आदिवासी तक मानने को ही तैयार नहीं हैं। बल्कि इसके ठीक विपरीत मनुवादी-आर्यों द्वारा शासित हिन्दूवादी ताकतें आर्यों को ही इस देश के मूल निवासी सिद्ध करने में लगी हुई हैं और भारत के असली मालिक और यहॉं के मूल निवासी आदिवासियों को वनवासी कहकर नष्ट करने का सुनियोजित षड़यंत्र चलाया जा रहा है।’’


विश्‍व में विश्‍व आदिवासी दिवस के अवसर पर यह सारांश भारत के विभिन्न राज्यों के आदिवासियों के आक्रोश और विचारों का देखने को मिला है। जो विभिन्न माध्यमों से 09 अगस्त, 2014 को आयोजनों, सभाओं और संदेशों के मार्फ़त विश्‍व आदिवासी दिवस को प्रकट हुआ है।


इसके अलावा अन्तरजाल पर मोबाइल के मार्फत तकनीक का अब आदिवासी भी उपयोग करना सीख रहा है, जहॉं पर मनुवादी-आर्यों द्वारा शासित हिन्दूवादी ताकतें पूरी तरह से हावी हैं और वो देश और समाज को बरगाले में पीछे नहीं हैं। ये अहसास अब अनार्यों को भी हो रहा है। इस बात का जवाब भारत के विभिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न कारणों से फैले राजस्थान और मध्य प्रदेश के आदिवासियों ने विश्‍व आदिवासी दिवस पर देने का प्रयास किया है। इस दौरान आदिवासियों की ओर से विश्‍व आदिवासी दिवस तो हजारों स्थानों पर चर्चा, बैठक, रैली, सभा, गोष्ठी आदि के जरिये बढचढकर मनाया तो गया ही, इसके साथ-साथ जागरूक आदिवासियों की और से जो सन्देश आपस में प्रसारित किये गये, वे इस देश और इस देश के मूल निवासी आदिवासियों तथा अनार्यों के आने वाले कल के बारे में बहुत कुछ बयां करते हैं। यहॉं ऐसे ही कुछ संदेशों का सारांश और भावार्थ प्रस्तुत हैं :-


1. ‘‘पे बेक टू सोसायटी-एक सामाजिक जिम्मेदारी है।’’ : यह एक विचारधारा है, जिसके अनुसार हम जिस समाज के कर्जदार हैं, उसके प्रति हमारी कुछ नैतिक जिम्मेदारी है। जिसका निर्वाह करना समाज के प्रत्येक व्यक्ति का अनिवार्य कर्त्तव्य है। यह विचारधारा किसी संगठन की मोहताज नहीं है। हम में से कोई भी किसी भी संगठन से जुड़ा हो पर हमारा प्रथम कर्त्तव्य है कि भारत के असली मालिक और यहॉं के मूल निवासी आदिवासी जो आर्यों की नजर में अनार्य हैं, वे सब मिलकर आपास में एक दूसरे की मदद और सहयोग करें। जिसकी शुरुआत हम इस ग्रुप से जुड़े लोगों का सहयोग करके कर सकते हैं। पे बेक टू सोसायटी ग्रुप में अगर किसी भी सदस्य को परेशानी हो या समाज के किसी भी सदस्य की परेशानी का पता चले तो सभी उसका तत्काल सहयोग करें। सहयोग की ये भावना ही हम सभी को एक सूत्र में जोड़ेगी और हमारे आदिवासी प्रेम को प्रमाणित करेगी। सभी आदिवासी चाहे वो किसी भी जाति के हो या किसी भी राज्य में रहते हों, हम सभी  एक दूसरे के सहयोग की कसम खाते हैं। सभी भाइयों से अनुरोध है की वो सभी अपनी-अपनी जगह विश्‍व आदिवासी दिवस को "पे बेक टू सोसायटी-एक सामाजिक जिम्मेदारी" के नाम से अपने मित्र सगे सम्बन्धी और मिलने वाले सभी लोगों के साथ हर्षोल्लास के साथ अपने घरों पर दीप जलाकर मनायें और उसकी फोटो एक दूसरे को भेजें तथा आदिवासी समाज के विकास और एकता पर चर्चा करें। आज का दिन हम सभी के आने वाले भविष्य के लिए ऐतिहासिक दिन होने वाला है। हम सभी का आपसी सहयोग और कड़ा परिश्रम आदिवासी समाज तथा देश की एकता के लिए मिसाल बने। जय अदिवासी एकता।

2. आदिवासी युवा शक्ति का आह्वान : ‘‘वक्त आने दे बता देंगे, तुझे ऐ आसमां...हम अभी से क्या बताएँ, क्या हमारे दिल में है।’’ विश्‍व आदिवासी दिवस के मौके पर आर्यों के वंशज शोषकों को ज्ञात हो जाना चाहिये कि भारत का मूल निवासी अब जाग गया है। अब हम गॉंव-गॉंव ढाणी-ढाणी घूम-घूम कर लोगों को इस बात को बतायेंगे कि मनुवादी-आर्यों द्वारा शासित हिन्दूवादी ताकतें हिन्दुत्व के नाम पर आदिवासियों को और अनार्यों को किस प्रकार से आर्यों की गुलाम बनाये रखने के लिये काम कर रही हैं? हम प्रतिज्ञा करते हैं कि इस देश में मनुवाद अधिक दिन तक चलने वाला नहीं है। इस देश को आर्यों के चंगुल और मनुवाद की मानसिक गुलामी से मुक्त करवाना ही होगा। इस आह्वान को जमीनी स्तर पर प्रमाणित करने वाले आयोजन जैसे सभा, रैली आदि भी देशभर में देखने को मिले।  

3. जयस संगठन का आह्वान : सभी साथियों को विश्‍व आदिवासी दिवस की बहुत सारी शुभकामनावों के साथ आज 9 अगस्त को जयस घोषणा करता है की जो भी आदिवासिओं के जल, जंगल, जमीन और आदिवासियों आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों के साथ-साथ आदिवासियों की संस्कृति के साथ खिलावाड़ करेगा जयस (मध्य प्रदेश से संचालित संगठन) उनके खिलाफ खुली लड़ाई लड़ेगा और आगामी विधानसभा और लोकसभा चुनावो में उन सभी राजनैतिक पार्टियों का खुला विरोध करेगा। जिनकी नीतियां आदिवासियों के हितों के खिलाफ बनाई जा रही हैं। जिनकी नीतिओं में आदिवासी बच्चों को भूख और कुपोषण से मरने को मजबूर किया जा रहा है। आज जयस घोषणा करता है कि देश के उन सभी आदिवासी जनप्रतिनिधियों का भी खुल्लम खुल्ला विरोध करेगा जो विधायक और सांसद बनने के बाद पूरे पांच साल तक आदिवासी मुद्दों पर चुप रहकर  अपनी अपनी राजनैतिक पार्टियों की गुलामी करते हैं। जयस देश के सभी आदिवासी युवाओं से अनुरोध करता है कि आप किसी भी राजनैतिक पार्टी का समर्थन करने की बजाय आदिवासी समुदाय के उन पढे-लिखे आदिवासी युवाओं को चुनकर विधानसभा और लोकसभा में भेजें जो आदिवासिओं के संवैधानिक अधिकारों के जानकार होने के साथ साथ संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए लड़ने वाले हों। दोस्तों यही बदलाव की सच्ची शुरुआत है और इसके लिए हम आप सभी को मिलकर लड़ना है, तभी हम यह लड़ाई जीत पाएंगे।



4. आरक्षण भीख नही है : जब सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू की रिपोर्ट से भी ये साबित हो चुका है कि भारत के असली उतराधिकारी आठ फीसदी आदिवासी ही हैं तो फिर आरक्षण पर सवाल उठाने वाले षड़यंत्रकारी मनुवादी लोगों को खुद की गिरवान में झांकना चाहिये कि वो कितने बड़े गुनेहगारों के वंशज है। जिन्होंने देश के मूल निवासियों को इन बदतर हालातों में पहुंचा दिया है। इस बात को एक उदाहरण के जरिये समझ सकते हैं कि-कोई आपके पास आपके मकान में किराये से रहने के लिए आता है और आप उसे मकान किराया पर दे देते है, लेकिन वो आपके मकान पर कब्जा कर लेता है, आप मकान खाली कराने को प्रयास करते हैं तो किरायेदार मकान मालिक को उसके ही मकान के 10 कमरों में से एक कमरा रहने को दे
देता है। मकान मालिक इतना प्रताड़ित आतंकित किया जाता है कि सब कुछ भूलकर उस एक कमरे में जीवन बिताने को मजबूर हो जाता है, लेकिन मकान पर जबरन काबिज आपराधिक प्रवृत्ति के लोग, मकान के मालिक को उस एक कमरे में से भी बेदखल करके बाहर निकालने के षड़यंत्र लगातार रचते रहते हैं। क्या यह न्याय है??????? आज इस देश में हमारे साथ यही नहीं हो रहा है? जिस देश की आदिवासियों का शतप्रतिशत हक था, उस हक को साढे सात फीसदी पर सीमित कर दिया गया और अब उसको भी छीने जाने के नये-नये कुचक्र चले जा रहे हैं। इस उदाहरण से कोई भी समझ सकता है कि सम्पूर्ण मकान अर्थात् पूरा भारत देश हमारा है, जिसमें आर्य लोग आकर ऐसे घुसे कि पूरे देश पर ही कब्जा कर लिया और हमारे सभी हकों छीनकर उन पर काबिज हो हो गये। एक कमरा अर्थात् जो संवैधानिक आरक्षण हमें डॉ. अम्बेड़कर के साथ गॉंधी द्वारा किये गए के धोखे के बाद दिया गया, अब उस आरक्षण को भी हटाने की मुहिम अन्य मूल आरक्षित वर्गों के साथ-साथ आदिवासियों के विरुद्ध भी तेजी से चलाई जा रही है। यह कितनी मनमानी और कितनी अन्याय पूर्ण बात है, इसे कोई भी इंसाफ पसन्द व्यक्ति आसनी से समझकर महसूस कर सकता है। इस प्रकार मनुवादी-आर्यों द्वारा शासित हिन्दूवादी ताकतें आदिवासियों को उनके बचे कुचे हकों से भी वंचित करने जा रही हैं। हमें इसका साहसपूर्वक सामना करना होगा। अन्यथा मनुवादी-आर्यों द्वारा शासित हिन्दूवादी ताकतें हमें कुचल देंगी, हमें नेस्तनाबूद कर देंगी। क्योंकि संविधान द्वारा बनाये गये सभी निकायों पर इनका एक छत्र कब्जा है। इसे हटाने के लिये सभी अनार्य जिनकी आबादी 90 फीसदी से अधिक है को एकजुट और संगठित होना होगा।



5. जयपुर में संयुक्त जनजाति संस्थान की सभा : इस अवसर पर अनुसूचित जनजाति संयुक्त संस्थान जयपर की सभा में आदिवासियों के साथ किये जा रहे भेदभाव के प्रति आक्रोश व्यक्त करने के साथ-साथ, संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव व यूनिसेफ के महानिदेशक के संदेशों को बैठक में पढकर सुनाया गया। इन संदेशों में आदिवासियों के हितों के लिए दिए गए सुझावोंं के क्रियान्वयन के लिए वृहद रूप रेखा तैयार की गई। जिसमें मुख्य रूप से यह संकल्प लिया गया कि राज्य के सभी आदिवासी एकजुट होकर अपने हितों की रक्षा के लिये आवश्यक कदम उठायेंगे। सरकार द्वारा फिर भी उदासीनता बरती गयी तो संस्थान को आन्दोलनात्मक कदम उठाने को मजबूर होना पड़ेगा।


6. निराशा भी दिखी : मोबाइलों पर देखने को मिला कि दोस्तों नेट, मोबाइल, फेसबुक और व्हाट्सअप पर कई सन्देश डालने के बाद भी सभी आदिवासी युवा उनके प्रचार-प्रसार करने में आगे नहीं आ रहा है। विश्‍व आदिवासी दिवस के मौके पर फालतू बातें डिस्कस करने की बजाय अपने संवैधानिक अधिकारों के बारे में चर्चा करें। ताकि आदिवासी समुदाय के पढेे लिखे लोगों में अपने संवैधानिक अधिकारों के प्रति जागरूकता आये। लेकिन जयादातर पढेे लिखे आदिवासी युवा फालतू बातें करने में और भेड़ चाल चलने में आगे रहते हैं, जबकि अपने आदिवासी समुदाय की बात करने में उनको शर्म आती है जो कि आदिवासी समुदाय के अस्तित्व के लिए ठीक नहीं है। ऐसे लोगों को आदिवासियों की मूल जागरूक धारा के साथ जोड़ने के सन्देश भी जारी किये गए। 

7. दीप, सभा और हर्षोल्लास के साथ मनाया गया आदिवासी दिवस : राजस्थान और मध्य प्रदेश सहित देश के तकरीबन सभी आदिवासी बहुल राज्यों में और जहां-जहां भी आदिवासी वर्ग के लोग किसी भी वजह से निवास करते हैं, उन सभी ने विश्‍व आदिवासी दिवस को व्यक्तिगत रूप से अपने-अपने घरों में दीप जलाकर और बैठक व सभाओं में आपसी चर्चा करके हर्षोल्लास के साथ मनाया। पढेलिखे आदिवासियों ने वाटसेप, मेल और फेसबुक के जरिये भी विश्‍व आदिवासी दिवस की शुभकामनाएँ एक-दूसरे को ज्ञापित की। जिसे प्रस्तुत फोटोग्राफ से बखूबी समझा जा सकता है। यह अपने आप में आदिवासियों में तकनीक के इस्तेमाल के जरिये एक बड़ा बदलाव देखा जा सकता है।


8. हम हिन्दू नहीं, हम आदिवासी हैं, धार्मिक कोड की मांग : विश्‍व आदिवासी दिवस के अवसर पर आदिवासियों के अनेक समूहों की ओर से इस बात को भी ताकत से उठाया गया कि आदिवासी हिन्दू नहीं है, बल्कि मनुवादी-आर्यों द्वारा उसे जबरन हिन्दू बनाये रखने के अनैतिक प्रयास और षड़यंत्र किये जाते रहते हैं। आदिवासियों को अलग से आदिवासी धर्म के रूप में धार्मिंक कोड प्रदान किये जाने की आवाज भी उठायी गयी। जिसका देश के अनेक राज्यों के आदिवासियों की ओर से पुरजोर समर्थन किया गया।


9. आदिवासियों में सभी सरकारों के प्रति आक्रोश : सारे देश के आदिवासियों में इस बात को लेकर गहरा आक्रोश और गुस्सा देखा गया कि भारत की केन्द्र सरकार सहित तकरीबन सभी राज्य सरकारों ने विश्‍व आदिवासी दिवस का सरकारी स्तर पर आयोजन नहीं किया और इस दिन की कोई परवाह नहीं की और सभी सरकारों की ओर से इस प्रकार से आदिवासियों को सरेआम अपमानित करने का प्रयास किया गया। जो आदिवासियों के बीच गहरी चिन्ता का विषय बन गया है। आदिवासियों की परवाह करने के बजाय सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी अपने राष्ट्रीय जलसे के आयोजन में मशगूल रही। भाजपा सहित प्रधानमंत्री या किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री ने विश्व आदिवासी दिवस के दिन आदिवासियों के हिट में कोई कदम नहीं उठाया।  इससे आदिवासियों को इस बात का अहसास हो गया की उनकी औकात राजनैतिक दलों की नजर में वोट बैंक के आलावा कुछ भी नहीं है। आदिवासियों ने इस मौके पर तय किया है कि हमें हमारे सच्चे नेतृत्व तथा समर्पित को आगे लाना होगा और आदिवासियों की राजनैतिक ताकत को दलितों तथा अन्य कमजोर अनार्य जातियों के साथ मिलकर दिखाना होगा। 

 10. मनुवादी-आर्य शुभचिन्तक नहीं, शोषक और दुश्मन हैं : विश्‍व आदिवासी दिवस के अवसर पर आदिवासियों के सभी समूहों में यह एक बात समान रूप से सामने आयी है कि आदिवासी जो इस देश का असली मालिक है, उसे इस अब बात का अहसास होने लगा है कि मनुवादी-आर्यों द्वारा शासित हिन्दूवादी ताकतें उनकी मित्र या शुभचिन्तक नहीं, बल्कि उनकी असली दुश्मन और शोषक हैं। जिनका आम आदिवासियों और अनार्यों के पर्दाफाश किया जाना समय की मांग है। जिसके लिये सभी उम्र के आदिवासी समूहों को जागरूक किये जाने की सख्त जरूरत है। इसके लिये पे-बैक टू सोसायटी ग्रुप की ओर से सभी अनार्यों जातियों और वर्गों के सहयोग से एक मुहिम चलाने के लिये अलग-अलग ग्रुप तैयार किये जाने की बात भी कही गयी है। यदि आदिवासी इस मुहिम को चलाने में सफल हो पाते हैं तो आने वाले कुछ ही वर्षों में इस देश के मनुवाद के धार्मिक शिकंजे में कैद आदिवासी और अनार्यों की तकदीर में क्रान्तिकारी बदलाव की शुरूआत हो सकती है। 

11. आदिवासियों को तकनीक का उपयोग समझ में आया : विश्‍व आदिवासी दिवस के अवसर पर, देशभर में सबसे बड़ी और उल्लेखनीय बात यह देखने में आयी कि तकनीक के जरिये आदिवासियों द्वारा विचार विनिमय किये जाने की शुरूआत हो गयी है, जो आने वाले भविष्य में आदिवासियों के सभी समूहों को एक दूसरे के करीब लाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण मुहिम सिद्ध हो सकती है।-09875066111

Saturday, August 2, 2014

मोदी सरकार का एजेण्डा नम्बर 1– रहे-सहे श्रम क़ानूनों की धज्जियाँ उड़ाना!

मोदी सरकार ने देशी-विदेशी लुटेरों के लिए “अच्छे दिन” लाने के अपने वादे को निभाने के लिए उनकी राह में सबसे बड़ी बाधा, यानी देश में मज़दूरों के अधिकारों की थोड़ी-बहुत हिफ़ाज़त करने वाले श्रम क़ानूनों को भी किनारे लगाने की शुरुआत कर दी है। करीब 25 वर्ष पहले जब उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों को बड़े पैमाने पर लागू करने की शुरुआत हुई तभी से पूँजीपतियों की संस्थाएँ और उनके भाड़े के क़लमघसीट पत्रकार और अर्थशास्त्री चीख़-पुकार मचा रहे हैं कि श्रम क़ानून पुराने पड़ गये हैं और उन्हें बदल देने का वक़्त आ गया है। इस पूरे दौर में टुकड़े-टुकड़े में श्रम क़ानूनों को बदलने और कमज़ोर करने का सिलसिला जारी रहा है और मज़दूरों के पक्ष में जो कुछ बचे-खुचे क़ानून रह गये हैं वे भी सिर्फ़ काग़ज़ पर ही हैं। देश के 93 प्रतिशत मज़दूरों के लिए उनका कोई मतलब नहीं रह गया है। श्रम क़ानूनों को लागू करवाने वाली संस्थाओं को एक-एक करके इतना कमज़ोर और लचर बना दिया गया है कि क़ानून के खुले उल्लंघन पर भी वे कुछ नहीं कर सकतीं। लेकिन इतने से भी पूँजीपतियों को सन्तोष नहीं है। वे चाहते हैं कि मज़दूरों को पूरी तरह से उनके रहमो-करम पर छोड़ दिया जाये। जब जिसे चाहे मनमानी शर्तों पर काम पर रखें, जब चाहे निकाल बाहर करें, जैसे चाहे वैसे मज़दूरों को निचोड़ें, उनके किसी क़दम का न मज़दूर विरोध कर सकें और न ही कोई सरकारी विभाग उनकी निगरानी करे। कुल मिलाकर, श्रम “सुधारों” का उनके लिए यही मतलब है। अगर सरकारें अब तक उनकी यह इच्छा पूरी नहीं कर पायी हैं और श्रम क़ानूनों के कुछ चिथड़े बचे रह गये हैं तो केवल इसलिए कि ट्रेड यूनियनों और नक़ली वामपन्थियों की ग़द्दारी के बावजूद देशभर के मज़दूर अपने अधिकारों के लिए बार-बार लड़ते रहे हैं। लेकिन अब देश के सारे बड़े लुटेरों ने मिलकर मोदी सरकार बनवायी इसीलिए है ताकि वह हर विरोध को कुचलकर मेहनत की नंगी लूट के लिए रास्ता बिल्कुल साफ़ कर दे। अपने को ‘मज़दूर नम्बर 1’ बताने वाला नरेन्द्र मोदी फ़ौरन इस काम में जुट गया है।

केन्द्रीय बजट 2014-2015 के कुछ ही दिन पहले सरकार ने संसद में कहा कि वह पुराने पड़ चुके कारख़ाना अधिनियम, 1948 को बदलने वाली है। श्रम मामलों के राज्य मन्त्री विष्णु देव ने लोकसभा में एक लिखित उत्तर में बताया कि प्रस्तावित संशोधनों में कारख़ानों में महिलाओं की रात की ड्यूटी पर पाबन्दियों को ढीला करना और एक तिमाही में ओवरटाइम की सीमा को 50 घण्टे से बढ़ाकर 100 घण्टे करना शामिल है। हालाँकि हर कोई जानता है कि अभी ज़्यादातर कारख़ानों में मज़दूरों को हर सप्ताह 24 से लेकर 48 घण्टे तक ओवरटाइम करना पड़ता है, और उसके लिए भी उन्हें ओवरटाइम की दर से मज़दूरी न देकर सिंगल रेट पर दी जाती है। अधिकांश प्राइवेट कम्पनियों में दफ्तरों के कर्मचारी भी रोज़ कई घण्टे ज़बरन ओवरटाइम करते हैं। जब क़ानून ही ढीला कर दिया जायेगा तो समझा जा सकता है कि मालिक किस क़दर मज़दूरों और कर्मचारियों को निचोड़ेंगे।

श्रम क़ानूनों को पूँजीपतियों के हक़ में बदलने की शुरुआत मोदी सरकार बनते ही राजस्थान की वसुन्धरा राजे सरकार ने कर दी थी। राजस्थान की भाजपा सरकार ने फैक्टरी एक्ट 1948, इण्डस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट 1947 और ठेका क़ानून 1971 को संशोधित करके श्रम क़ानूनों पर हमला बोलने की शुरुआत कर दी है। इन संशोधनों में कम्पनियों को मनचाहे तरीके से मज़दूरों को निकालने से लेकर कई तरह की छूटें दी गयी हैं और मज़दूरों के अधिकारों में और कटौती की गयी है। श्रम क़ानून अभी केन्द्र सरकार का विषय है, लेकिन मोदी सरकार के रहते राजस्थान के संशोधनों को राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने में कोई बाधा नहीं आने वाली है। बल्कि राजस्थान द्वारा किये गये संशोधन केन्द्र सरकार के लिए एक मॉडल का काम करने वाले हैं। फैक्टरी एक्ट के लागू होने की शर्त के रूप में अब मज़दूरों की संख्या को दोगुना कर दिया है। अभी तक फैक्टरी एक्ट 10 या इससे ज़्यादा मज़दूरों (जहाँ बिजली का इस्तेमाल होता हो) तथा 20 या इससे ज़्यादा मज़दूरों (जहाँ बिजली का इस्तेमाल न होता हो) वाली फैक्टरियों पर लागू होता था। अब इसे क्रमशः 20 और 40 मज़दूर कर दिया गया है। इस तरह छोटे फैक्टरी मालिकों की भारी संख्या को फैक्टरी एक्ट के दायरे से बाहर कर दिया गया है। हर कोई जानता है कि मज़दूरों की बहुत बड़ी आबादी आज छोटे-छोटे कारख़ानों या वर्कशॉपों में काम करती है। उदारीकरण के दौर में पूरी दुनिया में पूँजीपतियों ने बड़े कारख़ानों को बन्द कर उत्पादन की कार्रवाई को ढेरों छोटी-छोटी इकाइयों में बाँट दिया है। भारत में कारख़ानों की बहुसंख्या छोटी इकाइयों की है, हालाँकि इनमें से ज़्यादातर इकाइयाँ उत्पादन की एक लम्बी शृंखला में बड़े कारख़ानों से जुड़ी हुई हैं। इन लाखों कारख़ानों में काम करने वाले करोड़ों मज़दूरों पर कौन-सा क़ानून लागू होगा, यह किसी को पता नहीं है। दूसरी तरफ़, इस संशोधन ने एक मालिक के लिए अलग-अलग खाते दिखाकर फैक्टरी एक्ट से बचना बहुत आसान कर दिया है। दिल्ली समेत सभी शहरों के औद्योगिक इलाकों में ऐसे कारख़ाने आम बात हैं, जहाँ एक ही बिल्डिंग के भीतर एक ही मालिक की तीन-चार कम्पनियाँ चलती हैं।

दूसरी तरफ़ मज़दूरों के लिए यूनियन बनाना और भी मुश्किल कर दिया गया है। मूल क़ानून के अनुसार किसी भी कारख़ाने या कम्पनी में 7 मज़दूर मिलकर अपनी यूनियन बना सकते थे। फिर इसे बढ़ाकर 15 प्रतिशत कर दिया गया। यानी किसी फैक्टरी में काम करने वाले मज़दूरों का कोई ग्रुप अगर कुल मज़दूरों में से 15 प्रतिशत को अपने साथ ले ले तो वह यूनियन पंजीकृत करवा सकता है। मगर अब इसे बढ़ाकर 30 प्रतिशत कर दिया गया है। मतलब साफ़ है कि अगर फैक्टरी मालिक ने अपनी फैक्टरी में दो-तीन दलाल यूनियनें पाल रखी हैं तो एक नयी यूनियन बनाना बहुत कठिन होगा और फैक्टरी जितनी बड़ी होगी, यूनियन बनाना उतना ही मुश्किल होगा। ठेका क़ानून भी अब 20 या इससे ज़्यादा मज़दूरों वाली फैक्टरी पर लागू होने की जगह 50 या इससे ज़्यादा मज़दूरों वाली फैक्टरी पर लागू होगा। यानी जिस फैक्टरी में 50 से कम मज़दूर काम करते होंगे, उस पर ठेका क़ानून लागू ही नहीं होगा। इसका अंजाम क्या होगा, इसे आसानी से समझा जा सकता है।

एक और ख़तरनाक क़दम के तहत इण्डस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट 1947 में संशोधन करके अब कम्पनियों को 300 या इससे कम मज़दूरों को निकाल बाहर करने के लिए सरकार से अनुमति लेने से छूट दे दी गयी है, पहले यह संख्या 100 थी। यानी अब किसी पूँजीपति को अपनी ऐसी फैक्टरी जिसमें 300 से कम मज़दूर काम करते हैं, को बन्द करने के लिए सरकार से पूछने की ज़रूरत नहीं है। हालाँकि पूँजीपति पहले भी इस क़ानून को ठेंगे पर रखते थे और मनमाने ढंग से कम्पनियाँ बन्द करके कर्मचारियों को सड़कों पर निकाल फेंकते थे। लेकिन अब वे यह काम बेरोकटोक क़ानूनी तरीके से कर सकते हैं। फैक्टरी से जुड़े किसी विवाद को श्रम अदालत में ले जाने के लिए पहले कोई समय-सीमा नहीं थी, अब इसके लिए भी तीन साल की सीमा तय कर दी गयी है।

और बेशर्मी की हद यह है कि ये सब “रोज़गार” पैदा करने तथा कामगारों की काम के दौरान दशा सुधारने तथा सुरक्षा बढ़ाने के नाम पर किया जा रहा है। सरकार का कहना है कि इससे ज़्यादा निवेश होगा तथा ज़्यादा नौकरियाँ पैदा होंगी। असल में कहानी रोज़गार बढ़ाने की नहीं, बल्कि पूँजीपतियों को मज़दूरों की लूट करने के लिए और ज़्यादा छूट देने की है। ये तो अभी शुरुआत है, श्रम क़ानूनों को ज़्यादा से ज़्यादा बेअसर बनाने की कवायद जारी रहने वाली है और पूरे भारत में यही होने वाला है। राजस्थान सरकार द्वारा किये गये संशोधनों के पीछे-पीछे दूसरे राज्य (चाहे सरकार किसी भी पार्टी की हो) भी यही करेंगे, क्योंकि उनके पास भी “रोज़गार” पैदा करने जैसे बहाने मौजूद हैं तथा इससे वे सहमत भी हैं। यदि उन्हें अपने यहाँ पूँजी को रोके रखना है तो अन्य राज्य राजस्थान से भी आगे बढ़कर ज़्यादा मज़दूर-विरोधी संशोधन करेंगे। इस सबके बीच पूँजी का कुल्हाड़ा मज़दूर वर्ग के ऊपर और ज़ोर से चलेगा। बहरहाल पूँजीपति ख़ुश हैं और उनका भोंपू मीडिया इसके पक्ष में माहौल बनाने में जुट गया है। मारुति सुजुकी इण्डिया लिमिटेड के चेयरमैन आर.सी. भार्गव ने उनके मन की बात को साफ़ शब्दों में कह दिया है कि श्रम क़ानूनों को ख़त्म करने की दिशा में अभी तो हरकत शुरू हुई है। वे साफ-साफ यह माँग पेश कर रहे हैं कि उन्हें जब चाहे फैक्टरी बन्द करने का अधिकार होना चाहिए। मतलब कि उन्हें फैक्टरी से 300 मज़दूर निकालने या फैक्टरी बन्द करने वाला संशोधन अभी भी कम लग रहा है। इसके लिए ऐसा क़ानून होना चाहिए कि फैक्टरी से मज़दूरों को निकालने या फैक्टरी बन्द करने में कोई भी सरकारी या क़ानूनी दख़ल बिल्कुल न हो।

मोदी सरकार के 100 दिन के एजेण्डे में श्रम क़ानूनों में बदलाव को पहली प्राथमिकताओं में से एक बताया जा रहा है। पूँजीपतियों की तमाम संस्थाएँ और भाड़े के बुर्जुआ अर्थशास्त्री उछल-उछलकर सरकार के इन प्रस्तावित क़दमों का स्वागत कर रहे हैं और कह रहे हैं कि अर्थव्यवस्था में जोश भरने और रोज़गार पैदा करने का यही रास्ता है। कहा जा रहा है कि आज़ादी के तुरन्त बाद बनाये गये श्रम क़ानून विकास के रास्ते में बाधा हैं, इसलिए इन्हें कचरे की पेटी में फेंक देना चाहिए और श्रम बाज़ारों को “मुक्त” कर देना चाहिए। विश्व बैंक ने भी 2014 की एक रिपोर्ट में कह दिया है कि भारत में दुनिया के सबसे कठोर श्रम क़ानून हैं जिनके कारण यहाँ पर उद्योग-व्यापार की तरक्की नहीं हो पा रही है। पूँजीपतियों के नेता बड़ी उम्मीद से कह रहे हैं कि निजी उद्यम को बढ़ावा देने और सरकार का हस्तक्षेप कम से कम करने के पक्षधर नरेन्द्र मोदी इंग्लैण्ड की प्रधानमन्त्री मार्गरेट थैचर या पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन की तर्ज पर भारत में उदारीकरण को आगे बढ़ायेंगे। इनका कहना है कि सबसे ज़रूरी उन क़ानूनों में बदलाव लाना है जिनके कारण मज़दूरों की छुट्टी करना कठिन होता है।

कहा जा रहा है कि बाज़ार में होने वाले उतार-चढ़ाव के हिसाब से पूँजीपति माल का उत्पादन घटाते- बढ़ाते हैं। इसलिए उन्हें इसी हिसाब से मज़दूरों की संख्या को भी मनमर्ज़ी से घटाने-बढ़ाने का अधिकार होना चाहिए। जैसे मज़दूर ज़िन्दा इंसान न होकर कोई कच्चा माल हो जिसे ज़रूरत के हिसाब से कम-ज़्यादा कर लिया जाये! काम से बाहर कर दिये जाने पर मज़दूर और उसका परिवार कैसे जियेगा, इसकी पूँजीपतियों और उनके भाड़े के पैरोकारों को कोई परवाह नहीं होती। उन्हें सिर्फ अपने मुनाफ़े से मतलब होता है।

पूँजीपतियों की लगातार कम होती मुनाफ़े की दर और ऊपर से आर्थिक संकट तथा मज़दूर वर्ग के बढ़ते बग़ावती तेवर से निपटने के लिए पूँजीपतियों के पास आखि़री हथियार फासीवाद होता है। भारत के पूँजीपति वर्ग के भी अपने इस हथियार को आज़माने के दिन आ गये हैं। फासीवादी सत्ता में आते तो मोटे तौर पर मध्यवर्ग (तथा कुछ हद तक मज़दूर वर्ग भी) के वोट के बूते पर हैं, लेकिन सत्ता में आते ही वह अपने मालिक बड़े पूँजीपतियों की सेवा में जुट जाते हैं। राजस्थान सरकार के ताज़ा संशोधन इसी का हिस्सा हैं। मगर फासीवाद के सत्ता में आने के बाद बात श्रम क़ानूनों को कमज़ोर करने तक ही नहीं रुकेगी, क्योंकि फासीवाद बड़ी पूँजी के रास्ते से हर तरह की रुकावट दूर करने पर आमादा होता है और यह सब वह “राष्ट्रीय हितों” के नाम पर करता है। फासीवादी राजनीति पूँजीपतियों के लिए काम करने, उनका मुनाफ़ा बढ़ाने को देश को “महान” बनाने के तौर पर पेश करती है।

आने वाले दिन मज़दूरों के लिए और भी कठिनाइयाँ लेकर आने वाले हैं। मगर मज़दूर वर्ग इतिहास में हमेशा कठिनाइयों से लड़ते हुए ही मज़बूत हुआ है। आज देशभर में मज़दूर जाग रहे हैं और हकों के लिए आवाज़ उठा रहे हैं। ज़रूरत है, एक क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियन आन्दोलन खड़ा करने और बिखरे हुए संघर्षों को एकजुट करने की।-साभार- मज़दूर बिगुल, जुलाई 2014

Tuesday, August 13, 2013

कहां लुप्त हो गई बाबा रामदेव की राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी?

बाबा रामदेव की संकुचित सोच का पता तो उसी समय चल गया था, जबकि अन्ना हज़ारे द्वारा जनलोकपाल विधेयक संसद में पास कराए जाने की मांग को लेकर जंतरमंतर पर एक ऐतिहासिक धरना दिया गया और बाबा रामदेव ने इस मुहिम को अपना पूरा समर्थन देने के बजाए उल्टे यह महसूस करना शुरु कर दिया कि अन्ना हज़ारे ने यूपीए सरकार के विरुद्ध इतनी बड़ी संख्या में लोगों को जंतरमंतर पर इकट्टा कर मेरे कद को आखिर कैसे छोटा कर दिया? और इसी बात ने उन्हें रामलीला मैदान पर अपना निजी ‘शो’ आयोजित करने की प्रेरणा दी। उसके बाद की स्थिति क्या हुई यह भी पूरे देश ने देखा।
बिना किसी लाग-लपेट के अपनी बात साफ शब्दों में रखने वाले दिग्विजय सिंह जैसे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ने रामदेव की राजनीति में सक्रियता के शुरुआती दौर में ही उन्हें भाजपा व आरएसएस का एजेंट व उन्हीं के लिए काम करने वाला व्यक्ति बता दिया था। परंतु उस समय दिग्विजय सिंह की बातों पर कोई इसलिए यकीन नहीं कर रहा था, क्योंकि कांग्रेस पार्टी के नेता अक्सर अपने विरोधियों पर संघ या भाजपा का एजेंट होने का लेबल लगाते रहते हैं। परंतु रामलीला मैदान से फऱार होने की घटना के बाद रामदेव ने जिस प्रकार भाजपा की भाषा बोलनी शुरु की तथा भाजपा नेताओं के प्रति उनका आकर्षण देखा जा रहा है, उसे देखकर यकीनी तौर पर अब यह कहा जा सकता है कि रामदेव शुरु से ही भारतीय जनता पार्टी व संघ के इशारों पर ही काम कर रहे थे।

निर्मल रानी 

देश की 121 करोड़ जनता को अपना प्रशंसक व अनुयायी समझने की गलतफहमी पालने वाले बाबा रामदेव 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव से पूर्व एक बार फिर पूरी सक्रियता से राजनैतिक बयानबाजि़यां करते देखे जा रहे हैं। अपने योग प्रशिक्षण के माध्यम से नि:संदेह उन्होंने देश-विदेश में काफी लोकप्रियता व ख्याति अर्जित की। परंतु इसी योग विद्या के कारण उनकी ओर आकर्षित होती जनता को उन्होंने भूलवश अपना अंधसमर्थक व अनुयायी भी समझना शुरु कर दिया। और योग सीखने वालों की बढ़ती भीड़ को देखकर उनके भीतर राजनैतिक महत्वाकांक्षा भी जागने लगी। और यह महत्वाकांक्षा इस हद तक जा पहुंची कि 2009 के लोकसभा चुनाव से पूर्व उन्होंने विदेशी बैंकों में जमा भारतीय काले धन के विरुद्ध अच्छा-खासा शोर-शराबा खड़ा कर स्वयं को देश में एक राजनैतिक विकल्प के रूप में खड़ा करने का प्रयास किया। और तभी उन्होंने पातंजलि पीठ, दिव्य फार्मेसी और योग प्रशिक्षण के अतिरिक्त एक नया राजनैतिक झंडा बुलंद करने की घोषणा की और अपने इस स्वगठित राजनैतिक दल का नाम रखा राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी।

2009 में हुए लोकसभा चुनाव के कुछ ही समय पहले रामदेव ने अपनी इस नई-नवेली राजनैतिक पार्टी की घोषणा की थी। जहां-जहां उनके योग समर्थक अनुयायी थे, उन्होंने उन्हीं के माध्यम से राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी का सदस्यता अभियान भी छेड़ा। यहां तक कि देश के तमाम मध्यम व छोटे शहरों में स्वाभिमान पार्टी की ओर से स्कूटर व कार रैलियां भी निकाली गईं। यह सारी कवायद केवल इसीलिए चल रही थी, ताकि वे यह समझ सकें कि दरअसल राजनैतिक पार्टी का संचालन राष्ट्रीय स्तर पर किया भी जा सकता है अथवा नहीं। 636 फी़ट के स्थान पर योग सीखने बैठे एक व्यक्ति के हिसाब से योग शिविर में दूर तक नज़र आने वाली योग प्रशिक्षुओं की भीड़ को देखकर गदगद रहने वाले रामदेव जी अपनी पार्टी के भविष्य को तौलने के लिए लगभग पूरे देश में भ्रमण भी करते रहे। वे योग सीखने के बहाने लोगों को अपने शिविर में बुलाते तथा योग पर थोड़ी-बहुत चर्चा करने के अतिरिक्त पूरे समय राजनैतिक भड़ास निकालते। ग्वालियर में तो एक अर्धसैनिक बल के जवान ने उनकी इसी बात पर नाराज़ होकर उनपर जूता भी फेंका। इसके बावजूद भी 2009 में वे चुनावी घमासान में वे शिरकत नहीं कर सके।

ऐसा माना जा सकता है कि समय की कमी के कारण संभवत: 2009 में उन्होंने चुनावी युद्ध में कूदने की कोशिश न की हो। परंतु उसी समय इस बात का अंदाज़ा ज़रूर लगाया जा रहा था कि यदि रामदेव 2009 में सक्रिय नहीं भी हो सके तो उनके बुलंद हौसलों व कथित रूप से 121 करोड़ देशवासियों के मध्य उनकी लोकप्रियता के दावों के चलते वे 2014 के लोकसभा चुनावों में तो अवश्य ही सक्रिय होंगे। अब 2014 के चुनाव सिर पर आ चुके हैं, परंतु बाबा रामदेव की राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी की सक्रियता अभी तक तो कहीं भी देखने व सुनने को नहीं मिल रही है। हां रामदेव स्वयं कभी-कभार टी वी चैनल के माध्यम से या समाचार पत्रों में अपने बयानों के द्वारा सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह व राहुल गांधी पर अपनी भड़ास निकालते देखे जा रहे हैं।

बाबा रामदेव की संकुचित सोच का पता तो उसी समय चल गया था, जबकि अन्ना हज़ारे द्वारा जनलोकपाल विधेयक संसद में पास कराए जाने की मांग को लेकर जंतरमंतर पर एक ऐतिहासिक धरना दिया गया और बाबा रामदेव ने इस मुहिम को अपना पूरा समर्थन देने के बजाए उल्टे यह महसूस करना शुरु कर दिया कि अन्ना हज़ारे ने यूपीए सरकार के विरुद्ध इतनी बड़ी संख्या में लोगों को जंतरमंतर पर इकट्टा कर मेरे कद को आखिर कैसे छोटा कर दिया? और इसी बात ने उन्हें रामलीला मैदान पर अपना निजी ‘शो’ आयोजित करने की प्रेरणा दी। उसके बाद की स्थिति क्या हुई यह भी पूरे देश ने देखा।

ठीक उसी तरह जैसे कि पाकिस्तान में परवेज़ मुशर्रफ द्वारा कराए गए आप्रेशन लाल मस्जिद के समय वहां का प्रमुख मौलवी अब्दुल अज़ीज़ नकाब पहनकर अपनी जान बचाता हुआ औरतों के बीच में घुसकर फरार होने की कोशिश करते समय पकड़ा गया था, उसी प्रकार बाबा रामदेव भी अपनी एक समर्थक महिला का वस्त्र पहनकर दिल्ली पुलिस के कहर से बचकर भागते हुए पकड़े गए। निश्चित रूप से इस घटना ने उनके दिमाग से राजनीति में सक्रिय होने का नशा तो बिल्कुल उतार दिया होगा। हां इतना ज़रूर है कि रामलीला मैदान से उन्हें औरत के लिबास में पकडऩे तथा उनके शो को तितर-बितर करने के बाद उनके भीतर सत्तारुढ़ यूपीए विशेषकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी तथा कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी के प्रति कटुता तथा बदला लेने की भावना और भी बढ़ गई। परिणामस्वरूप दुश्मन का दुश्मन अपना दोस्त की नीति पर चलते हुए इन्होंने कांग्रेस व यूपीए विरोधी दलों विशेषकर भारतीय जनता पार्टी की ओर झुकना शुरु कर दिया।

हालांकि बिना किसी लाग-लपेट के अपनी बात साफ शब्दों में रखने वाले दिग्विजय सिंह जैसे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ने रामदेव की राजनीति में सक्रियता के शुरुआती दौर में ही उन्हें भाजपा व आरएसएस का एजेंट व उन्हीं के लिए काम करने वाला व्यक्ति बता दिया था। परंतु उस समय दिग्विजय सिंह की बातों पर कोई इसलिए यकीन नहीं कर रहा था, क्योंकि कांग्रेस पार्टी के नेता अक्सर अपने विरोधियों पर संघ या भाजपा का एजेंट होने का लेबल लगाते रहते हैं। परंतु रामलीला मैदान से फऱार होने की घटना के बाद रामदेव ने जिस प्रकार भाजपा की भाषा बोलनी शुरु की तथा भाजपा नेताओं के प्रति उनका आकर्षण देखा जा रहा है, उसे देखकर यकीनी तौर पर अब यह कहा जा सकता है कि रामदेव शुरु से ही भारतीय जनता पार्टी व संघ के इशारों पर ही काम कर रहे थे। और अब भी वही कर रहे हैं। भाजपा के प्रति अपने प्रेम की पुष्टि उन्होंने पिछले दिनों उस समय पूरी तरह से कर डाली, जबकि उन्होंने हरिद्वार में नरेंद्र मोदी को आमंत्रित कर उनकी शान में कसीदे पढऩे शुरु कर दिए। आज बाबा रामदेव को भी देश में नरेंद्र मोदी से बेहतर प्रधानमंत्री पद का कोई दावेदार नज़र नहीं आता। जबकि नरेंद्र मोदी भाजपा के भीतरी अंतर्विरोध से लेकर देश के अन्य कई राजनैतिक दलों के कितने मुखर विरोध का सामना कर रहे हैं, यह भी पूरा देश भलीभांति देख रहा है। परंतु बाबा रामदेव को नरेंद्र मोदी से बेहतर कोई व्यक्ति प्रधानमंत्री पद के योग्य नज़र नहीं आता। ऐसे में पूर्व में दिग्विजय सिंह द्वारा रामदेव पर छोड़े गए बाणों को गलत या बेबुनियाद कैसे कहा जा सकता है।

बाबा रामदेव, उनकी स्वाभिमान पार्टी व नरेंद्र मोदी से जुड़ा एक और तथ्य ऐसा है जो कि रामदेव के संघ व भाजपा समर्थक होने की पुष्टि करता है। जिस समय बाबा रामदेव ने राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी के गठन की घोषणा की थी, उस समय इनके राजनैतिक सलाहकारों में एक प्रमुख नाम पूर्व भाजपा नेता गोविंदाचार्य का भी था। हो सकता है राजनीति के दिग्गज रह गोविंदाचार्य उस समय स्वयं इस गलतफहमी में रहे हों कि रामदेव की राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी कांग्रेस व बीजेपी के विकल्प के रूप में देश में एक तीसरी शक्तिशाली पार्टी बनकर उभर सकती है और शायद इसी सोच ने गोविंदाचार्य को रामदेव का साथ देने के लिए प्रोत्साहित किया हो। परंतु रामलीला मैदान कांड के बाद बाबा रामदेव ने राजनैतिक विकल्प पेश करने के दूसरों की सोच पर तो पानी फेर ही दिया साथ-साथ भाजपा व नरेंद्र मोदी के विशेष प्रवक्ता के रूप में उनका गुणगान करना ज़रूर शुरु कर दिया। अब ज़रा गौर कीजिए कि जिस गोविंदाचार्य को बाबा रामदेव अपना राजनैतिक सलाहकार बनाने की हैसियत वाला नेता समझने के लिए मजबूर थे, वही गोविंदाचार्य आज नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए अयोग्य तथा 2002 के गुजरात दंगों के लिए जि़म्मेदार मान रहे हैं। परंतु बाबा रामदेव को इसके विपरीत नरेंद्र मोदी से बेहतर प्रधानमंत्री पद का दूसरा दावेदार ही नज़र नहीं आ रहा। यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि नरेंद्र मोदी के विषय में गोविंदाचार्य को जितनी जानकारी है बाबा रामदेव हो हरगिज़ नहीं।

पिछले दिनों एक समाचार यह सुनने को मिला कि रामदेव सोनिया गांधी को हराने के लिए रायबरेली में डेरा डालने की तैयारी कर रहे हैं। यह भी रामदेव का सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का एक तीसरे दर्जे का हथकंडा मात्र है। यदि उन्हें रामलीला मैदान में अपने अपमानित होने का बदला सोनिया गांधी से लेना ही है तो उन्हें राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी के किसी उम्मीदवार को अथवा स्वयं को ही रायबरेली से उम्मीदवार बनना चाहिए। इसी प्रकार गत् दिनों पाकिस्तान द्वारा भारत की सीमा में घुसकर भारतीय सैनिकों की हत्या किए जाने के विषय पर अपने बयान देते हुए बाबा रामदेव फरमा रहे थे कि पांच सैनिकों के बदले में पांच सौ पाकिस्तानी सैनिकों के सिर काट कर लाए जाने चाहिएं। उन्होंने यह भी कहा कि यदि आज नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री होते तो वह ऐसा ही करते। ऐसी भाषा आम भारतीय नागरिक के मुंह से सुनते हुए तो शायद अच्छी लगे। एक सच्चे राष्ट्रहितैषी की भाषा भी यह कही जा सकती है, परंतु स्वंय को योगगुरु बताने वाला व्यक्ति और वह भी देश को दिशा देने व देश की दशा सुधारने जैसे दावे ठोंकने वाला व्यक्ति अपने मुंह से इस प्रकार की गैरज़िम्मेदाराना बातें करे यह एक योगगुरु को कतई शोभा नहीं देता।

योगनीति तथा योगक्रिया भी इस बात की इजाज़त नहीं देती कि पांच के बदले पांच सौ व्यक्तियों की जानें ली जाएं। कहा जा सकता है कि अपनी राजनैतिक इच्छाओं की पूर्ति न हो पाने तथा उदय से पूर्व ही उनकी राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी के अस्त हो जाने की छटपटाहट के मारे हुए बाबा रामदेव अब अपने अस्तित्व को जीवित रखने के लिए कभी नरेंद्र मोदी के पिछलग्गू बनने की कोशिश कर रहे हैं तो कभी सोनिया गांधी को रायबरेली मे जाकर हराने का दावा कर रहे हैं, रामदेव नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनवा पाएंगे अथवा नहीं व सोनिया गांधी को चुनाव में पराजित करवा पाएंगे या नहीं यह तो भविष्य ही बता पाएगा, परंतु फ़िलहाल उनकी राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी चुनावी रण में ज़ोरआज़माईश करने से पूर्व ही लुप्त हो गई है!
नाम :   निर्मल रानी अंबाला में रहनेवाली निर्मल रानी पिछले पंद्रह सालों से विभिन्न अखबारों में स्वतंत्र पत्रकार एवं टिप्पणीकार के तौर पर लेखन कर रही हैं. - See more at: http://www.kranti4people.com/article.php?aid=3594#sthash.M44AHm0T.dpuf
स्त्रोत : क्रांति४पीपुल 
Saturday 10 August 2013
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इंडिया फर्स्ट या उच्च जातियों का कुलीन वर्ग फर्स्ट?

लेखक : इरफान इंजीनियर

साम्प्रदायिक बनाम छद्म धर्मनिरपेक्षता :

भाजपा अपनी हिन्दू राष्ट्रवादी राजनीति की आकर्षक पैकेजिंग करने के लिए, एक बार फिर धर्मनिरपेक्षता को पुनर्परिभाषित करने का प्रयास कर रही है। हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति का आधार है अल्पसंख्यकों – विशेषकर मुसलमानों व ईसाइयों – को बदनाम करना। इन दोनों समुदायों का दानवीकरण, इस उद्देश्य से किया जाता है कि बहुसंख्यक समुदाय का कम से कम एक तबका, इस दुष्प्रचार पर यकीन करने लगे कि अल्पसंख्यक समुदाय उसके लिए बड़ा खतरा है। जाहिर है, कि असल में इस खतरे का कोई अस्तित्व नहीं होता। बहुसंख्यक समुदाय के इन आशंकित और भयग्रस्त लोगों का इस्तेमाल, एकाधिकारवादी व दमनकारी संस्कृति को, राज्य के जरिए, देश पर लादने के लिए किया जा सकता है। यह संस्कृति केवल आर्थिक व सामाजिक उच्च वर्ग को लाभान्वित करती है। हिन्दू राष्ट्रवादी, वर्षों से ईसाइयों व मुसलमानों पर वही घिसेपिटे आरोप लगाते आ रहे हैं। ईसाइयों के बारे में उनका कहना है कि वे लोभ-लालच व भय के जरिए, बड़ी संख्या में हिन्दुओं को ईसाई बना रहे हैं (यह इस तथ्य के बावजूद कि भारत की आबादी में ईसाइयों का प्रतिशत, सन् 1971 के 2.6 से घटकर सन् 2001 में 2.3 रह गया है)। मुसलमानों पर वे आतंकवादी होने का आरोप लगाते हैं (यह ‘स्वामी’ असीमानंद के इकबालिया बयान व ‘साध्वी’ प्रज्ञा सिंह ठाकुर व अन्यों पर आतंकी हमले अंजाम देने के आरोपों के बावजूद)। वे यह भी कहते हैं कि मुसलमानों की भारत के प्रति वफादारी संदिग्ध है, यह कि मुसलमान हमारे पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के प्रति अधिक वफादार हैं व यह कि पाकिस्तान व आईएसआई, भारतीय मुसलमानों का इस्तेमाल, भारत को अस्थिर करने और यहां आतंकी वारदातें करने के लिए करता है। यह भी कहा जाता है कि मुसलमान विघटनकारी हैं, उनमें बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन है, जिसके कारण उनकी आबादी तेजी से बढ़ रही है, यह कि वे पड़ोसी बांग्लादेश व पाकिस्तान से बड़े पैमाने पर भारत में घुसपैठ कर रहे हैं व यह कि मुस्लिम शासकों ने हिन्दू धर्म का नाश करने के लिए हिन्दू मंदिरों को ढहाया था।

अल्पसंख्यकों के दानवीकरण से राज्य को असीमित शक्तियों से लैस करना आसान हो जाता है। राज्य अक्सर इन शक्तियों का बेजा इस्तेमाल करता है और उसके सुरक्षा तंत्र से पारदर्शिता गायब हो जाती है। इससे पूंजीपतियों को श्रमिकों, किसानों, भूमिहीनों, दलितों आदिवासियों, महिलाओं व समाज के अन्य वंचित वर्गों की कीमत पर, प्रोत्साहन देना आसान हो जाता है। राज्य का सुरक्षातंत्र, वंचित वर्गों को आतंकित रखने के काम आता है। आशंकित और भयग्रस्त वंचित वर्ग, ‘राज्य की सुरक्षा’ के नाम पर अपने प्रजातांत्रिक अधिकारों को समर्पित कर देता है – उन अधिकारों को, जिनका इस्तेमाल वह अपने सामूहिक हितों की रक्षा करने के लिए कर सकता था। हिन्दू राष्ट्रवाद का एक लक्ष्य यह भी है कि बहुसंख्यक समुदाय के सदस्यों, विशेषकर निचले तबके को, प्राचीन हिन्दू गौरव के नाम पर जाति-आधारित सामंती गुणानुक्रम व परम्पराओं से चिपके रहने के लिए प्रेरित किया जाए। दरअसल, वे एक एकाधिकारवादी राज्य की स्थापना करना चाहते हैं, जिसमें अल्पसंख्यकों को दबाकर रखा जायेगा। इसे वे ‘सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता’ बताते हैं। दूसरी ओर, भाजपा, कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता को ‘छद्म धर्मनिरपेक्षता’ बताती है और कहती है कि वह ‘अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण’ के अतिरिक्त कुछ नहीं है। अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण के आरोप से भाजपा का मतलब यह है कि कांग्रेस, अल्पसंख्यकों के उतने खिलाफ नहीं है, जितनी कि वह है।

मुस्लिम और ईसाई अल्पसंख्यकों को सुरक्षा देने के मामले में कांग्रेस का रिकार्ड भी कोई बहुत अच्छा नहीं रहा है। आजादी के बाद से अब तक भारत में साम्प्रदायिक दंगों में 40,000 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं, जिनमें से अधिकांश अल्पसंख्यक समुदाय से थे। दंगों के दोषियों को बहुत कम मामलों में सजा मिल सकी है। कांग्रेस के राज में हुए दंगों में शामिल हैं – जबलपुर (1961), अहमदाबाद (1969 व 1984), भिवण्डी (1970 व 1984), नेल्ली (1983), सिक्ख-विरोधी दंगे (1984), भागलपुर (1989), मुरादाबाद व गोधरा (1981), मेरठ (1987) इत्यादि। इसके अतिरिक्त, पंजाब में सिक्खों व मुंबई, हैदराबाद, दिल्ली (बाटला हाउस) व अन्य शहरों में मुसलमानों की फर्जी मुठभेड़ों में हत्या की जाती रही है। इन फर्जी मुठभेड़ों से मीडिया को अल्पसंख्यकों के चेहरे पर कालिख पोतने वाली खबरों का प्रसारण/प्रकाशन करने का मौका मिलता है, जिससे उनकी टीआरपी और बिक्री बढ़ती है। इससे आतंकवाद से मुकाबला करने के नाम पर एएफएसपीए, यूएपीए, टाडा व पोटा जैसे प्रजातंत्र-विरोधी कानून बनाना आसान हो जाता है। इन कानूनों से सुरक्षा एजेन्सियों को ढेर सारे अधिकार मिल जाते हैं और वह भी बिना किसी जवाबदेही के। अल्पसंख्यकों को वे अवसर उपलब्ध नहीं होते जो अन्य नागरिकों को होते हैं। उनके साथ शिक्षा, सरकारी नौकरियों, बैंक से मिलने वाले कर्जो, सरकारी ठेकों आदि के मामलों में किस तरह भेदभाव किया जाता है, इसका सच्चर समिति विशद दस्तावेजीकरण कर चुकी है। सुरक्षाभाव न होने, बैंकों द्वारा कर्ज देने मे आनाकानी करने, सरकारी ठेके व नौकरियां न मिलने व रहवास के इलाकों में अधोसंरचना की कमी के कारण, मुसलमान शैक्षणिक, सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से पिछड़ गये हैं। भाजपा नेतृत्व के एक हिस्से ने भी सच्चर समिति की रपट आने के बाद यह स्वीकार किया कि मुसलमानों के साथ भेदभाव होता रहा है।

अल्पसंख्यकों में व्याप्त सामाजिक व शैक्षणिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए – देरी से ही सही, घोर अपर्याप्त ही सही – कांग्रेस जब भी कोई कदम उठाती है, उसे अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण करने के आरोप से दो चार होना पड़ता है। कांग्रेस पर भाजपा द्वारा एक और संदर्भ अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण करने का आरोप लगाया जाता है। वह यह कि कांग्रेस, अल्पसंख्यकों को उनके पारिवारिक मसलों में पारम्परिक कानून का पालन करते रहने की इजाजत दे रही है। सच यह है कि कांग्रेस ने उच्च जातियों के श्रेष्ठि वर्ग को मुसलमानों की तुलना में कहीं अधिक तरजीह दी है। इस वर्ग के सांस्कृतिक प्रतिमानों को संपूर्ण बहुसंख्यक समुदाय पर लाद दिया गया है। इनमें शामिल हैं परिवार संबंधी नियम, गौवध निषेध व धर्मांतरण-विरोधी कानून। इनमें से कुछ कानूनों का इस्तेमाल अल्पसंख्यकों को डराने-धमकाने के लिए किया जा रहा है। विहिप के सदस्यों ने कुछ पुलिस अधिकारियों के साथ मिलकर ऐसे दल गठित कर लिये हैं जिनका काम है जानवरों के परिवहन के व्यवसाय में रत अल्पसंख्यकों से अवैध वसूली करना। यह वसूली तब भी की जाती है जब वे कोई गैरकानूनी काम नहीं कर रहे होते हैं। वसूली की राशि शनैः-शनैः इतनी बढ़ गई है कि कई मुसलमान इस व्यवसाय से बाहर हो गए हैं और उनका स्थान अन्य समुदायों के व्यक्तियों ने ले लिया है।

कांग्रेस सरकारें, उच्च जातियों के श्रेष्ठि वर्ग की संस्कृति व धार्मिक विश्वासों को, कानून के जरिए, देश के अन्य निवासियों पर लाद रही है। उदाहरण के लिए, पहले सरकार ने बाबरी मस्जिद की भूमि का अधिग्रहण किया और बाद में मस्जिद को गिर जाने दिया। इसके बाद, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बाबरी मस्जिद की भूमि को तीन बराबर भागों में बांट कर तीनों ‘पक्षकारों’ को उनका हिस्सा दे दिया। दो-तिहाई भूमि हिन्दू पक्षकारों को मिल गई जबकि जमीन के मूल मालिक को केवल एक-तिहाई हिस्सा मिला और वह भी जमीन के एक कोने में। अगर जमीन का अधिग्रहण नहीं किया गया होता और मस्जिद गिराई न गई होती तो उच्च न्यायालय इस तरह का निर्णय दे ही नहीं सकता था। कुल मिलाकर, हिन्दू राष्ट्रवादी, समाज के उस तबके, जो उच्च जाति के श्रेष्ठि वर्ग का हिस्सा नहीं है, की विविधवर्णी संस्कृति को नष्ट कर देना चाहता है और यह सुनिश्चित करना चाहता है कि राजनीति में केवल उच्च जातियों की संस्कृति का बोलबाला रहे। कांग्रेस, अल्पसंख्यकों की संस्कृति को थोड़ी अधिक तरजीह देती है और राजनैतिक रणनीति के तहत उनके प्रति कुछ नर्म रहती है। भाजपा द्वारा कांग्रेस पर छद्म धर्मनिरपेक्षता (या अल्पसंख्यक तुष्टिकरण) की नीति अपनाने का आरोप व कांग्रेस का उसे साम्प्रदायिक पार्टी बताना, इसी संघर्ष को प्रतिबिम्बित करते हैं।

भारत पहले :

नरेन्द्र मोदी, जो कि स्वयं को एक राष्ट्रीय नेता और प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बतौर प्रस्तुत कर रहे हैं, ने धर्मनिरपेक्षता की एक नई परिभाषा दी है-इण्डिया फर्स्ट। रपटों के अनुसार, उन्होंने धर्मनिरपेक्षता को ‘परिभाषित’ करते हुए कहा कि ‘‘भारत की भलाई के अलावा, हमारा कोई लक्ष्य नहीं होना चाहिए और जब ऐसा हो जाएगा, तो धर्मनिरपेक्षता स्वमेव हमारी रगों में बहने लगेगी’’। इस परिभाषा से कई प्रश्न उपजते हैं। पहली बात तो यह है कि ‘भारत की भलाई’ किस में है? यदि कार्पोरेट सेक्टर देश के संसाधनों पर कब्जा कर अटूट मुनाफा कमाए, तो क्या यह देश की भलाई है? क्या ऐसी ‘प्रगति,’ जो गरीबों को न तो रोजगार दे और न सुरक्षित भविष्य, देश की भलाई है? क्या ‘स्टेण्डर्ड एण्ड पुअर’ द्वारा भारत को बेहतर रेटिंग दी जाना देश की भलाई है? क्या जीडीपी में बढ़ोत्तरी को हम देश की प्रगति का सूचक मान सकते हैं? क्या उदारीकरण, निजीकरण व वैश्वीकरण के कारण, देश में अस्थाई तौर पर, ढेर सारे जोखिमों के साथ, विदेशी पूंजी आना, देश की भलाई है? या फिर देश की भलाई इसमें है कि प्रगति ऐसी हो, जिसका लाभ गरीब से गरीब व्यक्ति तक पहुंचे, विकास स्थाई हो और वंचित वर्गों के जीवनस्तर को बेहतर बनाया जाए। यद्यपि मोदी इन प्रश्नों का उत्तर नहीं देते परन्तु उनकी प्राथमिकताएं इतनी स्पष्ट हैं कि उनके उत्तर क्या होंगे, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। शायद मोदी ‘इण्डिया फर्स्ट’ के नारे के जरिए यह कहना चाहते हैं कि ‘‘सब से गरीब फर्स्ट नहीं, जिसके साथ भेदभाव होता हो, वह फर्स्ट नहीं, पिछड़े क्षेत्र फर्स्ट नहीं, सामाजिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग फर्स्ट नहीं, आर्थिक प्रगति के विस्थापित फर्स्ट नहीं, कमजोर, फर्स्ट नहीं’’। क्योंकि अगर इन वर्गों को प्राथमिकता दी जाती है, फर्स्ट रखा जाता है, तो ‘स्टेण्डर्ड एण्ड पुअर’, भारत की रेटिंग को नहीं बढ़ायेगा और ना ही जल्दी से जल्दी ढेर सारा मुनाफा कमाने के लिए कुछ भी करने को तत्पर विदेशी धनकुबेर, भारत में पूंजी निवेश करेंगे।

भाजपा की ‘सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता’ :

धर्मनिरपेक्षता से क्या आशय है, इस विषय पर बहस जारी है और हर देश, धर्मनिरपेक्षता के अपने अपने संस्करण को लागू कर रहा है। परन्तु धर्मनिरपेक्षता पर कोई स्कूली पाठ्यपुस्तक पढ़ने से भी यह साफ हो जायेगा कि धर्मनिरपेक्षता की सभी परिभाषाओं में कुछ बातें समान हैं। जैसे, राज्य धार्मिक संस्थाओं, धर्मग्रन्थों व धार्मिक शिक्षा से दूरी बनाए रखेगा और किसी धार्मिक गतिविधि पर अपने संसाधन खर्च नहीं करेगा। परन्तु भाजपा की केन्द्र व राज्य सरकारों के कार्यकलापों से यह साफ है कि भाजपा, धर्मनिरपेक्षता की इस न्यूनतम परिभाषा को भी स्वीकार नहीं करती। जब भाजपा केन्द्र में सत्ता में थी, तब तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने वैदिक ज्योतिष विज्ञान, कर्मकाण्ड और योग चेतना आदि को उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनाने का प्रस्ताव किया था। क्या अब भारत के विश्वविद्यालयों से हिन्दू पंडित पढ़कर निकलेंगे? अगर आप वेद पढ़ाते हैं तो आप सकारात्मक धर्मनिरपेक्षतावादी हैं। परन्तु यदि आप कुरान या बाईबिल पढ़ाते हैं तो आप छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी हैं। मध्यप्रदेश सरकार ने स्कूलों में गीता की पढ़ाई शुरू की है और वह सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों पर सभी धार्मिक समुदायों के बच्चों को योग व सूर्यनमस्कार सिखाने और सरस्वती वंदना का गायन करवाने के लिए दबाव डाल रही है। राज्य भाजपा सरकार ने एक योजना शुरू की है जिसके अन्तर्गत वरिष्ठ नागरिकों को सरकारी खर्च पर भारत के विभिन्न तीर्थस्थलों की यात्रा करवाई जाती है। एकाध को छोड़कर, ये सभी तीर्थस्थल हिन्दू हैं इसलिए कोई मुस्लिम बुजुर्ग शायद ही इस योजना का लाभ उठायेगा। अगर हज यात्रियों को अनुदान दिया जाता है तो यह अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण है परन्तु यदि सरकारी खर्च पर हिन्दुओं को उनके तीर्थस्थलों की यात्रा करवाई जाती है तो यह सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता है? हम हाजियों को दिये जाने वाले अनुदान की निंदा करते हैं। और उतनी ही निंदा हम राज्य द्वारा किसी भी व्यक्ति की धार्मिक आस्थाओं पर किये जाने वाले खर्च की भी करते हैं।

भाजपा की यह मांग रही है कि देश में ऐसे कानून बनाए जाएं जिनसे धर्मांतरण पर राज्य का नियंत्रण स्थापित हो सके। परंतु इसके साथ ही, हिन्दू राष्ट्रवादी कंधमाल जिले में ईसाईयों को जबरदस्ती हिन्दू बना रहे हैं। सन् 2007-08 की ईसाई-विरोधी हिंसा के पीड़ितों को राहत शिविरों में रहने पर मजबूर थे। वे न तो अपने गांव लौट सकते थे, न अपनी जमीन पर खेती कर सकते थे और ना अपने मकानों का पुनर्निमाण कर सकते थे, जब तक कि वे हिन्दू बनने के लिए राजी न हो जाएं। उनपर कड़ी शर्तें लागू की गईं थीं। उन्हें अपने सिर मुंडवाने होते थे, पूर्व में ईसाई धर्म का पालन करने के लिए भारी जुर्माना चुकाना पड़ता था और यह वायदा करना होता था कि यदि ‘गांव‘ ईसाईयों पर हमला करने का निर्णय करेगा तो वे हमलावरों में शामिल होंगे। जहां किसी भी अन्य धर्म से जबरदस्ती हिन्दू बनाने को ‘घरवापसी‘ कहा जाता है वहीं अपनी इच्छा से ईसाई या मुसलमान बनने वाले व्यक्ति के बारे में यह आरोप लगाया जाता है कि उसका धर्मपरिवर्तन लालच देकर या डरा-धमकाकर कराया गया है। हिन्दू धर्म त्यागकर इस्लाम या ईसाई धर्म अपनाने की हर घटना का का विरोध होता है। ऐसे अधिकांश लोग हिन्दू धर्म की दमनकारी जाति व्यवस्था के शिकार होते हैं और उन्हें यह उम्मीद होती है कि उनके नए धर्म में उन्हें गरिमा और बराबरी का दर्जा प्राप्त होगा। स्वैच्छिक धर्मांतरण के अन्य कारण भी हैं जिन पर हम यहां चर्चा नहीं करना चाहेंगे। भाजपा शासनकाल में राजस्थान की सरकार ने एक कानून बनाया, जिसमें यह प्रावधान था कि अपने पूर्वजों के धर्म (अर्थात हिन्दू) को अपनाने को धर्मांतरण नहीं माना जाएगा। मोदी राज में गुजरात विधानसभा ने राज्य के धर्मांतरण-विरोधी कानून को संशोधित करते हुए एक विधेयक पारित किया, जिसके अनुसार सिक्ख, बौद्ध, जैन और हिन्दू धर्म में आपसी धर्मांतरण का कोई नियमन नहीं किया जाएगा क्योंकि सिक्ख, बौद्ध और जैन अलग धर्म नहीं है वरन् हिन्दू धर्म के पंथ हैं। गुजरात और राजस्थान दोनों सरकारों द्वारा पारित बिलों को वहां के राज्यपालों ने स्वीकृति नहीं दी और उन्हें राष्ट्रपति को अग्रेषित कर दिया। ‘इंडिया फर्स्ट ‘ ब्रांड की धर्मनिरपेक्षता का अर्थ यह है कि ईसाईयों को जबरदस्ती हिन्दू बनाया जा सकता है परंतु दलितों को ईसाई धर्म या इस्लाम अपनाने का अधिकार नहीं है। व यह भी कि नागरिकों को उनकी पसंद का धर्म मानने की स्वतंत्रता देना, अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण और राष्ट्र-विरोधी गतिविधि है।

देश में गौवध निषेध कानून कड़े, और कड़े बनते जा रहे हैं और भाजपा-शासित प्रदेशों में उनका इस्तेमाल, अल्पसंख्यकों का दमन करने के लिए हो रहा है। मध्यप्रदेश सरकार ने गौवध निषेध कानून में परिवर्तन कर, अपराधियो को सात वर्ष तक के कारावास से दंडित किए जाने का प्रावधान कर दिया है और स्वयं को निर्दोष साबित करने की जिम्मेदारी आरोपी पर डाल दी गई है। इस तरह के अपराधों में अब जमानत नहीं मिलेगी। पुलिस को यदि संदेह हो कि किसी घर में गौमांस पकाया जा रहा है तो वह रसोईघर में घुसकर बर्तन, खाना पकाने व उसे संग्रहित करने (अर्थात रेफ्रिजेटर इत्यादि) के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले उपकरण आदि जब्त कर सकेगी। यह कानून भेदभावपूर्ण और अल्पसंख्यक-विरोधी है। इसका इस्तेमाल अल्पसंख्यकों का दमन करने के लिए किया जा रहा है। गौवध निषेध कानून का केवल एक आधार है-उच्च हिन्दू जातियों की धार्मिक आस्था। आखिर राज्य को क्या अधिकार है कि वह यह तय करे कि देश के नागरिक क्या खाएं और क्या नहीं? और यहां तक कि उनके रसोईघरों में घुसकर, धर्म-आधारित विचारधारा को जबरदस्ती उन पर लादे। इसी तर्ज पर जैनी यह मांग कर सकते हैं कि सरकार को प्याज और लहसुन पर प्रतिबंध लगाना चाहिए और मुस्लिम यह कह सकते हैं कि देश में सुअर का मांस नहीं बिकना चाहिए।

अगर जैनियों और मुसलमानों के धार्मिक विश्वासों को नागरिकों के खानपान पर नियंत्रण का आधार नहीं बनाया जाता तो फिर उच्च जातियों के हिन्दुओं की धार्मिक आस्थाओं को अन्य नागरिकों पर क्यों लादा जाना चाहिए? क्या यह इंडिया फर्स्ट है या उच्च जातियां फर्स्ट?
नैतिक पुलिस

हिन्दू राष्ट्रवादियों ने एम एफ हुसैन की चित्र प्रदर्शनियों में इस आधार पर तोड़फोड़ की कि वे नागरिकों की धार्मिक भावनाओं को आहत करती थीं। हिंसा और मुकदमेबाजी से परेशान हो हुसैन अंततः देश छोड़कर चले गए। इसी तरह, वाराणसी में ‘वाटर‘ फिल्म की शूटिंग नहीं होने दी गई। बाल ठाकरे ने फिल्म निर्माताओं को अपनी फिल्मों के कई उन हिस्सों को हटाने पर मजबूर किया जिनसे उनके या उनकी पार्टी के हित प्रभावित हो रहे थे। यह इस तथ्य के बावजूद कि फिल्म सेंसर बोर्ड ने इन हिस्सों को अपनी स्वीकृति दी थी। हिन्दू राष्ट्रवादियों ने महिलाओं पर ड्रेस कोड लादने की कोशिश की। वे वेलेन्टाइन डे का विरोध करते हैं, पबों में महिलाओं के साथ मारपीट करते हैं और युवा लड़के-लड़कियों की पार्टियो में बाधा डालते हैं।

इस सिलसिले में हम अन्य कई मुद्दों पर चर्चा कर सकते हैं, जिनमें शामिल हैं समान नागरिक संहिता के नाम पर उच्च जातियों के पारिवार-संबंधी नियमों को लादने की कोशिश। स्थान की कमी के कारण हम इन मुद्दों पर चर्चा नहीं कर रहे हैं। इंडिया फर्स्ट, असल में राजनैतिक सत्ता पाने की सीढ़ी है और पितृसत्तातमक, सामंती व ऊँचनीच को उचित ठहराने वाली उच्च जातियों की संस्कृति को अन्य भारतीयों पर लादने की कोशिश-उन भारतीयों पर जिनकी समृद्ध और विविधवर्णी सांस्कृतिक परंपराएं हैं। भारतीयों को अपनी विविधताओं के बावजूद सद्भाव के साथ रहना अच्छी तरह आता है और इस परंपरा को समाप्त करने की किसी भी कोशिश की केवल निंदा ही की जा सकती है। (मूल अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)

लेखक : इरफान इंजीनियर, लेखक इंस्टीट्यूट फॉर स्टडीज़ एण्ड कंफ्लिक्ट रिसॉल्यूशन (Institute for Peace Studies & Conflict Resolution) के निदेशक हैं। स्त्रोत : हस्तक्षेप में दिनांक : 04/08/2013 को प्रकाशित।

Monday, June 17, 2013

आडवाणी के त्यागपत्र के निहितार्थ

जो भी हो देश के सामने ये बात स्पष्ट हो गयी कि राजनीति में अब न तो नैतिक मुद्दे कोई मायने रखते हैं और न हीं बड़े राजनेता। यदि कुछ बड़ा है तो वह है-एक मात्र ‘‘सत्ता’’ पाना। जिसके लिये कभी भी और किसी भी किसी भी सिद्धान्त को तिलांजलि दी जा सकती है। ये भाजपा ही नहीं हर पार्टी में नजर आ रहा है। समाजवादी हो या बसपा। कॉंग्रेस हो या भाजपा। हर पार्टी अपने मूल सिद्धान्तों से भटक चुकी है। अब तो सिद्धान्तों की दुहाई देने वाले साम्यवादी भी सिद्धान्तों से किनारा करते नजर आने लगे हैं।

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

भाजपा के कद्दावर नेता और भारत के पूर्व प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने बिना इस बात का स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किये कि वे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को भाजपा का शीर्ष नेतृत्व प्रदान करने के खिलाफ हैं, ये कहते हुए भाजपा के प्रमुख पदों से त्यागपत्र देने का ऐलान कर दिया कि भाजपा अब वो पार्टी नहीं रही जो इसकी स्थापना के समय थी। इसके साथ-साथ आडवाणी ने लिखा कि ‘‘भाजपा के अधिकांश नेता निजी ऐजेंडे के लिये कार्य कर रहे हैं।’’ ऐसे में आडवाणी ने भाजपा के अन्दर स्वयं को सहज नहीं माना और भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह के नाम पत्र लिखकर त्यागपत्र सौंप दिया।

आडवाणी के उक्त त्यागपत्र से मीडिया और देश के लोगों में जितनी बातें, चर्चाएँ और चिन्ताएँ नजर आयी, उसकी तुलना में भाजपा के अन्दर इसका कोई खास असर नहीं दिखा और अन्तत: इसी कारण आडवाणी ने भाजपा के सामने पूरी तरह से नतमस्तक होकर घुटने टेक दिये। जिसके लिये भाजपा नेतृत्व के साथ में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का पुरजोर समर्थन बताया जा रहा है। बताया जाता है कि संघ अब कतई भी नहीं चाहता कि जिन्ना-परस्त आडवाणी को भाजपा में अब और महत्व दिया जाये। संघ अब कट्टर हिन्दुत्व की छवि वाले मोदी पर दाव लगाना अधिक फायदे का सौदा मान रहा है। 

यहॉं तक तो बात ठीक है, क्योंकि संघ का जो ऐजेंडा है, संघ उसे लागू करना चाहता है, तो इसमें अनुचित भी क्या है? आखिर संघ अपनी स्थापना के मकसद को क्यों पूर्ण नहीं करना चाहेगा? संघ का मकसद इस देश को हिन्दूधर्म के अनुरूप चलाना है, जिसके लिये हिन्दुओं के दिलों में मुसलमानों के प्रति नफरत पैदा करने के साथ-साथ, देश में मनुवादी ब्राह्मणवाद को बढावा देना और लागू करना बहुत जरूरी है। इस कार्य को नरेन्द्र मोदी बखूबी अंजाम दे रहे हैं।मोदी मुसलमानों के प्रति कितने सद्भावी हैं, ये तो सारा संसार जान ही चुका है। इसके साथ-साथ मोदी स्वयं ओबीसी वर्ग के होकर भी पूरी तरह से ब्राह्मणवाद के शिकंजे में हैं। ऐसे में राजनीतिक गोटियॉं बिछाने के लिये संघ के पास मोदी से अधिक उपयुक्त व्यक्ति अन्य कोई हो ही नहीं सकता। कम से कम लालकृष्ण आडवाणी तो कतई भी नहीं। 

इसलिये संघ ने जो चाहा भाजपा में वहीं मनवा और करवा लिया। लेकिन सबसे बड़ा और विचारणीय सवाल ये है कि आडवाणी द्वारा ये कहे जाने पर भी कि-‘‘भाजपा के अधिकांश नेता निजी ऐजेंडे के लिये कार्य कर रहे हैं।’’ भाजपा ने आडवाणी को कोई तवज्जो नहीं दी, इसकी क्या वजह हो सकती है? इस बात को भाजपा और संघ के आईने से बाहर निकल कर समझना होगा। आज राजनीतिक और सामाजिक मूल्यों में जितनी गिरावट आ चुकी है, उससे समाज का कोई तबका या कोई भी राजनैतिक दल अछूता नहीं है। इसलिये अकेले भाजपा में ही नहीं, बल्कि करीब-करीब सभी दलों और सभी संगठनों में शीर्ष नेतृत्व ही नहीं, बल्कि नीचे के पायदान पर नेतृत्व कर रहे कार्यकर्ता या नेता अपने निजी ऐजेंडे के लिये कार्य करते दिख रहे हैं।

ऐसे में भाजपा के नेताओं पर आडवाणी द्वारा सार्वजनिक रूप से इस प्रकार का आरोप लगाये जाने का कोई खास असर नहीं हुआ। भाजपा वाले जानते हैं कि हकीकत सारा देश जानता है, इसलिये आडवाणी के द्वारा किये गये इस खुलाये से कि ‘‘भाजपा के अधिकांश नेता निजी ऐजेंडे के लिये कार्य कर रहे हैं।’’ कोई बड़ा फर्क पड़ने वाला नहीं है।

इसी वजह से आडवाणी को साफ कह दिया गया कि नरेन्द्र मोदी के मुद्दे पर पीछे हटने का सवाल नहीं उठता, बेशक वे भाजपा छोड़ दें। इसी के चलते अन्तत: आडवाणी को अपने कदम पीछे खींचने पड़े और उन्होंने भाजपा के उन नेताओं के सामने समर्पण कर दिया, जिन्हें स्वयं आडवाणी ने राजनीति करना सिखाया था। इस मामले से एक बात और पता चलती है कि इस बार भाजपा सत्ता में आने के लिये इतनी आत्मविश्‍वासी है कि उसने आडवाणी की परवाह करने के बजाय हिन्दुत्व के पुरोधा नरेन्द्र मोदी को हर कीमत पर आगे बढाना अधिक उपयुक्त और उचित समझा है।

जो भी हो देश के सामने ये बात स्पष्ट हो गयी कि राजनीति में अब न तो नैतिक मुद्दे कोई मायने रखते हैं और न हीं बड़े राजनेता। यदि कुछ बड़ा है तो वह है-एक मात्र ‘‘सत्ता’’ पाना। जिसके लिये कभी भी और किसी भी किसी भी सिद्धान्त को तिलांजलि दी जा सकती है। ये भाजपा ही नहीं हर पार्टी में नजर आ रहा है। समाजवादी हो या बसपा। कॉंग्रेस हो या भाजपा। हर पार्टी अपने मूल सिद्धान्तों से भटक चुकी है। अब तो सिद्धान्तों की दुहाई देने वाले साम्यवादी भी सिद्धान्तों से किनारा करते नजर आने लगे हैं।

ऐसे में आडवाणी द्वारा भाजपा से और भाजपा के समर्थकों से ये आशा की गयी कि भाजपा में नैतिक मूल्यों का पतन हो रहा है, इस बात को आडवाणी द्वारा सार्वजनिक रूप से कहे जाने के बाद भाजपा और भाजपा समर्थक आडवाणी के कदमों में आ गिरेंगे, ये सोच आडवाणी की बहुत बड़ी भूल साबित हुई। इससे ये निष्कर्ष भी सामने आया है कि आगे से केवल भाजपा में ही नहीं, बल्कि किसी भी दल में कोई नेता नेतृत्व के खिलाफ आवाज उठाने से पहले दस बार नहीं, बल्कि सौ बार सोचेगा।

Friday, May 10, 2013

दलित-आदिवासी और स्त्रियों का धर्म आधारित उत्पीड़न हमारी चिन्ता क्यों नहीं?

तत्काल समाधान हेतु इस देश में यदि आज सबसे बड़ी कोई समस्या है तो वो है, देश के पच्चीस फीसदी दलितों और आदिवासियों और अड़तालीस फीसदी महिला आबादी को वास्तव में सम्मान, संवैधानिक समानता, सुरक्षा और हर क्षेत्र में पारदर्शी न्याय प्रदान करना और यदि सबसे बड़ा कोई अपराध है तो वो है-दलितों, आदिवासियों और स्त्रियों को धर्म के नाम पर हर दिन अपमानित, शोषित और उत्पीड़ित किया जाना। यही नहीं इस देश में आज की तारीख में यदि सबसे सबसे बड़ी सजा का हकदार कोई अपराधी हैं तो वे सभी हैं, जो दलितों, आदिवासियों और स्त्रियों के साथ खुलेआम भेदभाव, अन्याय, शोषण, उत्पीड़न कर रहे हैं और जिन्हें धर्म और संस्द्भति के नाम पर जो लोग और संगठन लगातार सहयोग प्रदान करते रहते हैं।
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

पिछले कुछ समय से मीडिया की मेहरबानी से कुछ चतुर, चालाक, भ्रष्ट और कट्टरपंथी ताकतों ने देश की राजधानी नयी दिल्ली को अपनी प्रायोजित ताकत दिखाने और संवैधानिक सरकारों को बदनाम करने का नया तरीका ईजाद कर लिया है। जिसकी बड़ी और सार्वजनिक शुरुआत अन्ना हजारे आन्दोलन के समय हुई। इस आन्दोलन को कथित रूप से विदेशी ताकतों और देशी-विदेशी कॉर्पोरेट घरानों का खुला समर्थन था। कुछ ही समय में इस कथित जन आन्दोलन की और इसके कर्ताधर्ताओं की चारित्रिक सच्चाई देश के सामने आ गयी।

इसी प्रायोजित नाटक का सहारा प्रारम्भ से ही तथाकथित योग गुरू बाबा रामदेव भी लेते रहे हैं, लेकिन उसका शोषक व्यापारी का घिनौना चेहरा भी देश के समक्ष आ चुका है। यही नहीं देश यह भी जान चुका है कि इन तथाकथित योग गुरू का असली मकसद देश में साम्प्रदायिक और फासीवादी ताकतों को मजबूत करना तथा देश के धर्म-निरपेक्ष ढांचे का ध्वस्त करना है। यही नहीं वह जनता से प्राप्त अनुदान और योग-शुल्क के मार्फत एकत्रित राशि में से चुनावों के समय भारतीय जनता पार्टी को आर्थिक सहयोग करते रहे हैं।

इसी क्रम में अन्ना हजारे से अलग होकर अरविन्द केजरीवाल ने अपनी नयी दुकान ‘‘आम आदमी’’ के नाम पर खोल ली है और वो न मात्र भारत के लोगों को देश की संवैधानिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था के खिलाफ सरेआम भड़का और उकसा रहे हैं, बल्कि इसके साथ-साथ ‘‘आम आदमी पार्टी’’ बनाकर, आम आदमी के नाम का भी दुरूपयोग कर रहे हैं। जबकि इस पार्टी के नीति नियंताओं में कोई भी आम आदमी नहीं है!

ये और कि इन जैसे सभी लोगों के कथित जनान्दोलनों का भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अर्थात् आरएसएस और आरएसएस के अनुसांगिक सभी संगठन, जिनमें बजरंग दल, विश्‍व हिन्दू परिषद, दुर्गा वाहिनी आदि प्रमुख हैं, खुलकर प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से सक्रिय सहयोग करते रहे हैं और ये सब मिलकर हर छोटे बड़े मुद्दे को सुनियोजित तरीके से मीडिया के मार्फत राष्ट्रीय मुद्दा बनाने का हरसंभव अनैतिक प्रयास करते रहे हैं।

लेकिन आश्‍चर्यजनक तथ्य ये है कि भारतीय जनता पार्टी, आरएसएस और आरएसएस के अनुसांगिक संगठनों सहित ऐसी ताकतें, जो अपने आप को राष्ट्रवादी, देशभक्त और हिन्दुत्ववादी संस्कृति की संरक्षक बतलाती हैं, आश्‍चर्यजनक रूप से उस समय लम्बा मौन साध लेती हैं, जबकि दलितों, आदिवासियों और गरीब एवं पिछड़े वर्गों की स्त्रियों का सरेआम शोषण और उत्पीड़न होता है। बल्कि कड़वी सच्चाई तो ये है कि इन्हीं तथाकथित राष्ट्रवादी, देशभक्त और हिन्दुत्ववादी ताकतों के इशारों या इनके सक्रिय सहयोग और इन्हीं के उकसावे पर हर दिन देशभर में दलितों, आदिवासियों और गरीब एवं पिछड़े वर्गों की स्त्रियों को सार्वजनिक रूप से अपमानित किया जाता रहता है। देश में हर दिन कहीं न कहीं दलितों और आदिवासियों की लड़कियों के साथ गैंग-रेप किये जा रहे हैं। दलितों और आदिवासियों का सार्वजनिक रूप से उत्पीड़न किया जाता है। उनको अमानवीय त्रासदियॉं दी जाती हैं।

कभी मंदिरों से धक्के देकर बाहर भगा दिया जाता है तो कभी बलात्कार करने में असफल होने पर दलितों और आदिवासियों की पीड़ित औरतों को विरोध करने के कारण जिन्दा जला दिया जाता है। कभी होटलों में खाना खाने की हिमाकत करने पर दलितों और आदिवासियों को अपमानित करके सरेआम सड़कों पर घसीटा जाता है। नाईयों को बाल नहीं काटने दिये जाते हैं। सार्वजनिक नल-कूपों से पानी नहीं भरने दिया जाता है। इन सब असंवैधानिक और मनमानियों को क्रियान्वित करने की आज्ञा जिन झूठे और ढोंगी ग्रंथों में दी गयी है, उन कथित धर्म ग्रंथों का सरकार और प्रशासन की नाक के नीचे, बल्कि सरकार और प्रशासन के सहयोग से हर दिन कहीं न कहीं और टीवी पर पूरे उत्साह के साथ और सार्वजनिक रूप से पठन-पाठन किया जाता है। इसी प्रकार से दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों और स्त्रियों के साथ इतिहास में किये गये अन्याय के मुख्य खलनायकों का भी सार्वजनिक रूप से महिमामंडन किया जाता है।

इस प्रकार तत्काल समाधान हेतु इस देश में यदि आज सबसे बड़ी कोई समस्या है तो वो है, देश के पच्चीस फीसदी दलितों और आदिवासियों और अड़तालीस फीसदी महिला आबादी को वास्तव में सम्मान, संवैधानिक समानता, सुरक्षा और हर क्षेत्र में पारदर्शी न्याय प्रदान करना और यदि सबसे बड़ा कोई अपराध है तो वो है-दलितों, आदिवासियों और स्त्रियों को हर दिन धर्म के नाम पर अपमानित, शोषित और उत्पीड़ित किया जाना। यही नहीं इस देश में आज की तारीख में यदि सबसे सबसे बड़ी सजा का हकदार कोई अपराधी हैं तो वे सभी हैं, जो दलितों, आदिवासियों और स्त्रियों के साथ खुलेआम भेदभाव, अन्याय, शोषण, उत्पीड़न कर रहे हैं और जिन्हें धर्म और संस्कृति के नाम पर जो लोग और संगठन लगातार सहयोग प्रदान करते रहते हैं।

अत: हमारे देश में भ्रष्टाचार को सबसे बड़ा मुद्दा बनाकर उपरोक्त प्रकार के अन्यायों से देश के शोषित लोगों का ध्यान भटकाया जाता है। असल में आज सबसे बड़ी जरूरत है कि हम इस बात को समझें कि इस देश की तकरीबन नब्बे फीसदी से अधिक आबादी लगातार अभावों में जीने को विवश है। अत: हमें देश के कर्णधारों से इस बात के लिये सवाल करना होगा कि उन्हें देश की बहुसंख्यक आबादी की चिन्ता क्यों नहीं है। यदि जन-आन्दोलनों या बाबा रामदेव जैसों द्वारा योग के नाम पर भटकाया जावे तो इस देश के दलितों, आदिवासियों और स्त्रियों को सबसे पहले उनसे भी उपरोक्त सवाल पूछने चाहिये।

-लेखक : होम्योपैथ चिकित्सक, सम्पादक-प्रेसपालिका (पाक्षिक), नेशनल चेयरमैन-जर्नलिसट्स, मीडिया एण्ड रायटर्स वेलफेयर एशोसिएशन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) और संगठित षड़यंत्र के चलते जिला जज ने उम्र कैद की सजा सुनाई, चार वर्ष से अधिक समय चार-जेलों में व्यतीत किया। हाई कोर्ट व सुप्रीम कोर्ट ने दोषमुक्त/निर्दोष ठहराया। मोबाइल : 085619-55619, 098285-02666

Sunday, April 28, 2013

भारत का बलात्कार करने वाले लड़ रहे हैं बलात्कार की लड़ाई!

सच तो ये है कि भारत का मतलब है भारत के असली मालिक, जो आज हर क्षेत्र में सबसे निचले पायदान पर वंचित वर्गों में शामिल हैं और इन्हीं वंचित वर्गों के हकों और स्वाभिमान का, हर क्षेत्र में दिनरात बेरोकटोक बलात्कार होता रहता है, जो वास्तव में भारत के साथ बलात्कार है। लेकिन भारत के साथ हजारों सालों से बलात्कार करने वाले इन 15 फीसदी वर्ग के लोगों में शामिल कुछ चालाक और षड़यंत्रकारी आज खुद आम आदमी की टोपी पहनकर और भगवा वस्त्र धारण करके बलात्कार के खिलाफ संघर्ष करने का नाटक खेल रहे हैं। इस  षड़यंत्र में कॉंग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार भी बुरी तरह से फंस चुकी है, क्योंकि कॉंग्रेस पार्टी में भी, कॉंग्रेसी चोला धारण किये हुए, इन फासिस्ट और देशद्रोहियों के ऐजेंट नीति-नियन्ता पदों पर पदस्थ हैं।
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

‘‘आम आदमी पार्टी’’ का संविधान मेरे हाथ में है, जो मुझे आम आदमी पार्टी की अजमेर (राजस्थान) की महिला कार्यकर्ता (या पदाधिकारी) मैडम कीर्ति पाठक जी ने मेल के जरिये ये दिखाने के लिये भेजा है, कि ‘‘आम आदमी पार्टी’’ सच में ‘‘आम आदमी’’ की पार्टी है। मैडम कीर्ति जी ने मेरे किसी लेख को पढकर पहले तो बड़े ही संयमित तथा शिष्ट तरीके से मुझसे मोबाइल पर बात की और फिर कहा कि अन्याय के खिलाफ संघर्षरत हम सभी लोगों को एक-दूसरे की कमियों को दिखाने के बजाय ‘‘आम आदमी’’ की परेशानियों के लिये मिलकर आम आदमी की लड़ाई में शामिल होना चाहिये। मैडम कीर्ति जी का कहना था कि इसके लिये ‘‘आम आदमी पार्टी’’ अरविन्द केजरीवाल जी के नेतृत्व में देशभर में अन्याय के खिलाफ संघर्षरत लोगों को एकजुट करके और साथ लेकर आम आदमी की समस्याओं के लिये संघर्ष कर रही है।

मुझे मैडम कीर्ति जी से मोबाइल पर बात करके अच्छा लगा और जब उनकी ओर से मेल के जरिये ‘‘आम आदमी पार्टी’’ का संविधान और ‘‘आम आदमी पार्टी’’ का संकल्प पत्र (विजन डॉक्यूमेंट) मिला तो इस बात की प्रसन्नता हुई कि मैडम कीर्ति जी ने जो वायदा किया उसे पूरा किया। स्वाभावत: मैंने दोनों ही दस्तावेजों को अद्योपान्त बढा। जिस पर विस्तृत प्रतिक्रिया तो फिर कभी, लेकिन फिलवक्त तो देश की राजधानी नयी दिल्ली में बलात्कार के खिलाफ लोगों के गुस्से के संदर्भ में लिखना असल मकसद है।

नयी दिल्ली में बलात्कार की घटनाओं के खिलाफ हो रहे प्रदर्शनों के दौरान भीड़ में अधिकतर लोगों में ‘‘आम आदमी पार्टी’’ की टोपी पहनने वाले और भाजपा या भाजपा से सम्बद्ध संगठनों का झंडा हाथ में लिये लोगों का टीवी पर दिखना आम बात है। जिससे लगता है कि बलात्कार की सर्वाधिक चिन्ता इन्हीं दो राजनैतिक दलों के कार्यकर्ताओं को है। इसके अलावा टेलीवीजन पर खबरों को बेचने वालों को तो बलात्कार की सर्वाधिक चिन्ता सता ही रही है।

आम आदमी पार्टी की टोपी पहने लोग, जिस पर लिखा होता है-‘‘मैं हूँ आम आदमी’’ नयी दिल्ली में बलात्कार के खिलाफ संघर्ष करते नजर आते हैं। जो अपने इस संघर्ष को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के जरिये देशभर के लोगों का गुस्सा दिखलाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते हैं। जिससे टीवी देखने वाला आम आदमी इस भ्रम में पड़ जाता है कि भारत की राजधानी महिलाओं के लिये सुरक्षित नहीं है और महिलाओं की सुरक्षा की सर्वाधिक चिन्ता यदि किसी को है तो ‘‘आम आदमी पार्टी’’ को है। पहले इस मामले में भाजपा प्रथम स्थान पर हुआ करती थी। अब ‘‘आम आदमी पार्टी’’ ने प्रथम स्थान प्राप्त कर लिया है। यही नहीं ‘‘आम आदमी पार्टी’’ हर उस मामले में आम आदमी के साथ दिखना चाहती है, जिससे वो ये दिखा सके कि वास्तव में आम आदमी की चिन्ता केवल और केवल ‘‘आम आदमी पार्टी’’ को ही है।

संयोग से ‘‘आम आदमी पार्टी’’ के सभी बड़े कर्ताधर्ता नयी दिल्ली में या आसपास में रहते हैं और छनछन कर प्राप्त होने वाली खबरों के मुताबिक इस समय देश को अस्थिर करने वाली ताकतें भारत के मीडिया को खरीद चुकी हैं। इसलिये मीडिया फासिस्टवादी और कमजोर लोगों के खिलाफ षड़यन्त्र करने वाली ताकतों का जमकर गुणगान कर रहा है। इन्हीं ताकतों में, ‘‘आम आदमी पार्टी’’ को शामिल करना मेरी बाध्यता है, क्योंकि ‘‘आम आदमी पार्टी’’ के मुखिया दिल्लीवासियों से बिजली का बिल जमा नहीं करने का आह्वान करते हैं और स्वयं अपने बिजली के बिल सही समय पर जमा करवाते हैं। इस प्रकार आम लोगों को सरकार से लड़ाने का काम करते हैं। यह आम आदमी के साथ ‘‘आम आदमी पार्टी’’ का खुला षड़यंत्र है।

द्वितीय ‘‘आम आदमी पार्टी’’ के संविधान में इस बात को स्वीकार किया गया है कि-‘‘अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जाति, पिछड़े और अल्पसंख्यक’’ वर्गों में शामिल लोग सामाजिक रूप से वंचित समूह हैं। इन वर्गों की आबादी देश की कुल आबादी का पिच्यासी फीसदी बतायी जाती है। अर्थात् इन वंचित समूहों के लोग ही इस देश में असली वंचित और आम आदमी हैं।

अत: देश की पहली प्राथमिकता इन वंचित वर्गों का उत्थान करना होनी चाहिये। ‘‘आम आदमी पार्टी’’ की नजर में भी स्वाभाविक रूप से इन्हीं वंचित समूहों के लोगों को इस देश का ‘‘आम आदमी’’ होना चाहिये और ‘‘आम आदमी पार्टी’’ के ‘‘नीति-नियन्ता अर्थात् असली कर्ताधर्ता’’ पदों पर भी इन्हीं वंचित समूहों और वर्गों के लोगों का संवैधानिक अधिकार होना चाहिये। अर्थात् ‘‘आम आदमी पार्टी’’ के संविधान में ऐसी सुस्पष्ट व्यवस्था होनी चाहिये, जिससे कि देश की पिच्यासी फीसदी आबादी के वंचित समूहों, जो हकीकत में देश के ‘‘आम आदमी’’ हैं के हाथों में ‘‘आम आदमी पार्टी’’ की कमान होनी हो। 

लेकिन इस देश के आम आदमी का दुर्भाग्य यहॉं भी उसका साथ नहीं छोड़ता है और आम आदमी के नाम पर बनायी गयी ‘‘आम आदमी पार्टी’’ का संविधान कहता है कि ‘‘आम आदमी पार्टी’’ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में कुल तीस सदस्य होंगे और इन तीस पदों पर पदस्थ राष्ट्रीय कार्यकारिणी द्वारा ही देशभर में ‘‘आम आदमी पार्टी’’ की नीतियों का निर्धारण, नीतियों का संचालन एवं क्रियान्वयन किया जायेगा, लेकिन ‘‘आम आदमी पार्टी’’ का संविधान दूसरी बात यह कहता है कि ‘‘आम आदमी पार्टी’’ की नीतियों का निर्धारण करने में इस देश के वंचित समूहों में शामिल ‘‘आम आदमी’’ की कोई निर्णायक भूमिका नहीं होगी। अर्थात् ‘‘आम आदमी पार्टी’’ के संविधान के अनुसार देश के पिच्यासी फीसदी वंचित समूहों अर्थात् ‘अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जाति, पिछड़े और अल्पसंख्यक’’ के अधिकतम केवल पांच लोग ही ‘‘आम आदमी पार्टी’’ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी का हिस्सा हो सकेंगे।

अर्थात् ‘‘आम आदमी पार्टी’’ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के कुल तीस पदों में से पच्चीस पद उन ताकतवर वर्गों के लोगों के पास होंगे, जिनके अन्याय के और शोषण के कारण ‘अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जाति, पिछड़े और अल्पसंख्यक’’ वर्गों के लोग सामाजिक रूप से वंचित बनाये जा चुके हैं। अर्थात् जो 15 फीसदी शोषक वर्ग पिच्यासी फीसदी लोगों के पिछड़ेपन का कारण हैं, उसी वर्ग के शोषक और अन्यायी लोग आम आदमी के नाम पर ‘‘आम आदमी पार्टी’’ का संचालन करेंगे। केवल यही नहीं, बल्कि ‘‘आम आदमी पार्टी’’ का संविधान वंचित वर्गों के विरुद्ध यहॉं तक नकारात्मक प्रावधान भी करता है कि ‘‘आम आदमी पार्टी’’ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में सामाजिक रूप से वंचित उक्त समूहों अर्थात् के देश के 85 फीसदी लोगों का अधिकतम प्रतिनिधित्व 16 फीसदी से अधिक नहीं हो सकेगा और देश की 85 फीसदी आबादी को सामाजिक रूप से वंचित बनाये रखने, उनका शोषण एवं अन्याय करने वाले 15 फीसदी लोगों को ‘‘आम आदमी पार्टी’’ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के 84 फीसदी से भी अधिक पदों पर पदस्थ होने का संवैधानिक अधिकार होगा।

इन तथ्यों से इस बात को प्रमाणित करने की जरूरत नहीं रह जाती है कि इस देश की 85 फीसदी आबादी को असमानता, भेदभाव, शोषण और अन्याय का शिकार बनाने के लिये, शेष 15 फीसदी लोग ही जिम्मेदार हैं। जिसमें स्वयं अपने वर्गों की महिलाओं के साथ किये जाने वाले बलात्कारी भी शामिल हैं। 

इससे भी बड़ी सच्चाई तो यह भी है कि देश की 84 फीसदी आबादी के मान-सम्मान, संवैधानिक, आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक और जीने के अधिकार का हजारों सालों से बलात्कार करने वाले 15 फीसदी लोगों की जैसी मानसिकता वाले लोगों द्वारा इस देश में आम आदमी के नाम पर ‘‘आम आदमी पार्टी’’ का गठन किया गया है, जो महिलाओं के साथ होने वाले बलात्कारों के विरुद्ध दिल्ली में घड़ियाली आंसू बहा रहे हैं। जिन्हें न तो आम आदमी के दु:ख दर्दों से कोई सारोकार है और न हीं आम आदमी के दु:ख दर्दों की कोई पीड़ा है।

सच तो ये है कि भारत का मतलब है भारत के असली मालिक, जो आज हर क्षेत्र में सबसे निचले पायदान पर वंचित वर्गों में शामिल हैं और इन्हीं वंचित वर्गों के हकों और स्वाभिमान का, हर क्षेत्र में दिनरात बेरोकटोक बलात्कार होता रहता है, जो वास्तव में भारत के साथ बलात्कार है। लेकिन भारत के साथ हजारों सालों से बलात्कार करने वाले इन 15 फीसदी वर्ग के लोगों में शामिल कुछ चालाक और षड़यंत्रकारी आज खुद आम आदमी की टोपी पहनकर और भगवा वस्त्र धारण करके बलात्कार के खिलाफ संघर्ष करने का नाटक खेल रहे हैं। इस  षड़यंत्र में कॉंग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार भी बुरी तरह से फंस चुकी है, क्योंकि कॉंग्रेस पार्टी में भी, कॉंग्रेसी चोला धारण किये हुए, इन फासिस्ट और देशद्रोहियों के ऐजेंट नीति-नियन्ता पदों पर पदस्थ हैं।

-लेखक : होम्योपैथ चिकित्सक, सम्पादक-प्रेसपालिका (पाक्षिक), नेशनल चेयरमैन-जर्नलिसट्स, मीडिया एण्ड रायटर्स वेलफेयर एशोसिएशन और राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास), मोबाइल : 085619-55619, 098285-02666