जो भी हो देश के सामने ये बात स्पष्ट हो गयी कि राजनीति में अब न तो नैतिक मुद्दे कोई मायने रखते हैं और न हीं बड़े राजनेता। यदि कुछ बड़ा है तो वह है-एक मात्र ‘‘सत्ता’’ पाना। जिसके लिये कभी भी और किसी भी किसी भी सिद्धान्त को तिलांजलि दी जा सकती है। ये भाजपा ही नहीं हर पार्टी में नजर आ रहा है। समाजवादी हो या बसपा। कॉंग्रेस हो या भाजपा। हर पार्टी अपने मूल सिद्धान्तों से भटक चुकी है। अब तो सिद्धान्तों की दुहाई देने वाले साम्यवादी भी सिद्धान्तों से किनारा करते नजर आने लगे हैं।
भाजपा के कद्दावर नेता और भारत के पूर्व प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने बिना इस बात का स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किये कि वे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को भाजपा का शीर्ष नेतृत्व प्रदान करने के खिलाफ हैं, ये कहते हुए भाजपा के प्रमुख पदों से त्यागपत्र देने का ऐलान कर दिया कि भाजपा अब वो पार्टी नहीं रही जो इसकी स्थापना के समय थी। इसके साथ-साथ आडवाणी ने लिखा कि ‘‘भाजपा के अधिकांश नेता निजी ऐजेंडे के लिये कार्य कर रहे हैं।’’ ऐसे में आडवाणी ने भाजपा के अन्दर स्वयं को सहज नहीं माना और भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह के नाम पत्र लिखकर त्यागपत्र सौंप दिया।
आडवाणी के उक्त त्यागपत्र से मीडिया और देश के लोगों में जितनी बातें, चर्चाएँ और चिन्ताएँ नजर आयी, उसकी तुलना में भाजपा के अन्दर इसका कोई खास असर नहीं दिखा और अन्तत: इसी कारण आडवाणी ने भाजपा के सामने पूरी तरह से नतमस्तक होकर घुटने टेक दिये। जिसके लिये भाजपा नेतृत्व के साथ में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का पुरजोर समर्थन बताया जा रहा है। बताया जाता है कि संघ अब कतई भी नहीं चाहता कि जिन्ना-परस्त आडवाणी को भाजपा में अब और महत्व दिया जाये। संघ अब कट्टर हिन्दुत्व की छवि वाले मोदी पर दाव लगाना अधिक फायदे का सौदा मान रहा है।
यहॉं तक तो बात ठीक है, क्योंकि संघ का जो ऐजेंडा है, संघ उसे लागू करना चाहता है, तो इसमें अनुचित भी क्या है? आखिर संघ अपनी स्थापना के मकसद को क्यों पूर्ण नहीं करना चाहेगा? संघ का मकसद इस देश को हिन्दूधर्म के अनुरूप चलाना है, जिसके लिये हिन्दुओं के दिलों में मुसलमानों के प्रति नफरत पैदा करने के साथ-साथ, देश में मनुवादी ब्राह्मणवाद को बढावा देना और लागू करना बहुत जरूरी है। इस कार्य को नरेन्द्र मोदी बखूबी अंजाम दे रहे हैं।मोदी मुसलमानों के प्रति कितने सद्भावी हैं, ये तो सारा संसार जान ही चुका है। इसके साथ-साथ मोदी स्वयं ओबीसी वर्ग के होकर भी पूरी तरह से ब्राह्मणवाद के शिकंजे में हैं। ऐसे में राजनीतिक गोटियॉं बिछाने के लिये संघ के पास मोदी से अधिक उपयुक्त व्यक्ति अन्य कोई हो ही नहीं सकता। कम से कम लालकृष्ण आडवाणी तो कतई भी नहीं।
इसलिये संघ ने जो चाहा भाजपा में वहीं मनवा और करवा लिया। लेकिन सबसे बड़ा और विचारणीय सवाल ये है कि आडवाणी द्वारा ये कहे जाने पर भी कि-‘‘भाजपा के अधिकांश नेता निजी ऐजेंडे के लिये कार्य कर रहे हैं।’’ भाजपा ने आडवाणी को कोई तवज्जो नहीं दी, इसकी क्या वजह हो सकती है? इस बात को भाजपा और संघ के आईने से बाहर निकल कर समझना होगा। आज राजनीतिक और सामाजिक मूल्यों में जितनी गिरावट आ चुकी है, उससे समाज का कोई तबका या कोई भी राजनैतिक दल अछूता नहीं है। इसलिये अकेले भाजपा में ही नहीं, बल्कि करीब-करीब सभी दलों और सभी संगठनों में शीर्ष नेतृत्व ही नहीं, बल्कि नीचे के पायदान पर नेतृत्व कर रहे कार्यकर्ता या नेता अपने निजी ऐजेंडे के लिये कार्य करते दिख रहे हैं।
ऐसे में भाजपा के नेताओं पर आडवाणी द्वारा सार्वजनिक रूप से इस प्रकार का आरोप लगाये जाने का कोई खास असर नहीं हुआ। भाजपा वाले जानते हैं कि हकीकत सारा देश जानता है, इसलिये आडवाणी के द्वारा किये गये इस खुलाये से कि ‘‘भाजपा के अधिकांश नेता निजी ऐजेंडे के लिये कार्य कर रहे हैं।’’ कोई बड़ा फर्क पड़ने वाला नहीं है।
इसी वजह से आडवाणी को साफ कह दिया गया कि नरेन्द्र मोदी के मुद्दे पर पीछे हटने का सवाल नहीं उठता, बेशक वे भाजपा छोड़ दें। इसी के चलते अन्तत: आडवाणी को अपने कदम पीछे खींचने पड़े और उन्होंने भाजपा के उन नेताओं के सामने समर्पण कर दिया, जिन्हें स्वयं आडवाणी ने राजनीति करना सिखाया था। इस मामले से एक बात और पता चलती है कि इस बार भाजपा सत्ता में आने के लिये इतनी आत्मविश्वासी है कि उसने आडवाणी की परवाह करने के बजाय हिन्दुत्व के पुरोधा नरेन्द्र मोदी को हर कीमत पर आगे बढाना अधिक उपयुक्त और उचित समझा है।
जो भी हो देश के सामने ये बात स्पष्ट हो गयी कि राजनीति में अब न तो नैतिक मुद्दे कोई मायने रखते हैं और न हीं बड़े राजनेता। यदि कुछ बड़ा है तो वह है-एक मात्र ‘‘सत्ता’’ पाना। जिसके लिये कभी भी और किसी भी किसी भी सिद्धान्त को तिलांजलि दी जा सकती है। ये भाजपा ही नहीं हर पार्टी में नजर आ रहा है। समाजवादी हो या बसपा। कॉंग्रेस हो या भाजपा। हर पार्टी अपने मूल सिद्धान्तों से भटक चुकी है। अब तो सिद्धान्तों की दुहाई देने वाले साम्यवादी भी सिद्धान्तों से किनारा करते नजर आने लगे हैं।
ऐसे में आडवाणी द्वारा भाजपा से और भाजपा के समर्थकों से ये आशा की गयी कि भाजपा में नैतिक मूल्यों का पतन हो रहा है, इस बात को आडवाणी द्वारा सार्वजनिक रूप से कहे जाने के बाद भाजपा और भाजपा समर्थक आडवाणी के कदमों में आ गिरेंगे, ये सोच आडवाणी की बहुत बड़ी भूल साबित हुई। इससे ये निष्कर्ष भी सामने आया है कि आगे से केवल भाजपा में ही नहीं, बल्कि किसी भी दल में कोई नेता नेतृत्व के खिलाफ आवाज उठाने से पहले दस बार नहीं, बल्कि सौ बार सोचेगा।
No comments:
Post a Comment