Showing posts with label नैतिक. Show all posts
Showing posts with label नैतिक. Show all posts

Thursday, March 3, 2016

पंतजलि द्वारा कैंसर का भय दिखाना क्या नैतिक है? क्या कानून सम्मत है?

पंतजलि द्वारा कैंसर का भय दिखाना
क्या नैतिक है? क्या कानून सम्मत है?
==========================
लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
आज 03 मार्च, 2016 को राजस्थान पत्रिका के जयपुर संस्करण के मुखपृष्ठ पर एक विज्ञापन के शीर्षक ने चौंका दिया। पतंजलि की ओर से जारी विज्ञापन में कहा गया है कि 'आपके खाने के तेल में कैंसर कारक तत्वों की मिलावट तो नहीं—जरा सोचिए' यह 'जरा सोचिये', जरा सी बात नहीं, बल्कि भयानक बात हो सकती है और उपभोक्ताओं के विरुद्ध भयानक षड़यंत्र हो सकता है? लोगों को 'जरा सोचिये' के बहाने ​कैंसर का भय दिखलाकर पतंजलि द्वारा अपना सरसों का तेल परोसा जा रहा है। क्या यह सीधे-सीधे आम और भोले-भाले लोगों को भय दिखाकर अपना तेल खरीदने के लिये मानसिक दबाव बनान नहीं? क्या यह उपभोक्ताओं की मानसिक ब्लैक मेलिंग नहीं है?
दिमांग पर जोर डालिये रामदेव वही व्यक्ति है—जो 5-7 साल पहले अपने कथित योगशिविरों में जोर-शोर से योग अपनाने की सलाह देकर घोषणा करता था कि उनके योग के कारण बहुत जल्दी डॉक्टर और मैडीकल दुकानदार मक्खी मारेंगे। वर्तमान हकीकत सबके सामने है, कोई भी मक्खी नहीं मार रहा। हां यह जरूर हुआ है कि इन दिनों कथित योगशिविरों में योग कम और पतंजलि की दवाईयों का विज्ञान अधिक किया जाता है। इन दिनों शिविरों में योग के बजाय हर बीमारी के लिये केवल पतंजलि की दवाई बतलाई जाती है। जिसका सीधा सा मतलब यही है कि रामदेव का कथित योग असफल हो चुका है। रामदेव के योग शिविरों में सरकार के योगदान की तेजी के साथ-साथ वृद्धि हो रही है, लेकिन योग निष्प्रभावी हैं, क्यों रागियों और रोगों में तेजी से बढोतरी हो रही है। रामदेव के शिविरों के नियमित कथित योगी भी डॉक्टरों की शरण में हैं, लेकिन बेशर्मी की हद यह है कि अब लोगों को योग के साथ-साथ पतंजलि के उत्पादों के नाम गुमराह करने के साथ-साथ दिग्भ्रमित भी किया जा रहा है। केवल इतना ही नहीं, डराया और धमकाया जा रहा है। विज्ञापनों से जो संदेश प्रसारित हो रहा है, वह यह है कि पतंजलि के अलावा जितने भी तेल उत्पाद हैं, उनमें कैंसर कारक तत्वों की मिलवाट हो सकती है!
यह सीधे-सीधे भारतीय कंज्यूमेबल मार्केट पर रामदेव का कब्जा करने और कराने की इकतरफा मुहिम है, जिसमें केन्द्र और अनेक राज्यों की सरकार के साथ-साथ, बकवासवर्ग समर्थक मीडिया भी शामिल है। मेरा मानना है कि अब आम व्यक्ति को जरा सा नहीं, बल्कि गम्भीरता से इस बात पर भी गौर करना चाहिये कि पहले योग के नाम पर और अब उत्पादों की शुद्धता के नाम पर जिस प्रकार से उपभोक्ताओं को गुमराह और भयभीत किया जा रहा है, उसका लक्ष्य और अंजाम क्या हो सकता है? यह भी विचारणीय है कि रामदेव किस विचारधारा के समर्थक हैं?
अन्त में सबसे महत्वपूर्ण बात : कानूनविदों को इस बात का परीक्षण करना चाहिये कि उपभोक्ता अधिकार संरक्षण अधिनियम तथा विज्ञापन क़ानून क्या इस प्रकार से उपभोक्ताओं को भ्रमित और गुमराह करके या डराकर विज्ञापन के जरिये कैंसर का भय परोसा जाना क्या नैतिक रूप से उचित है? क्या ऐसा विज्ञापन करना कानून सम्मत है?

जय भारत। जय संविधान।

नर-नारी सब एक समान।।
लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
9875066111/03.03.2016/05.42 PM
@—लेखक का संक्षिप्त परिचय : होम्योपैथ ​चिकित्सक और दाम्पत्य विवाद सलाहकार। +राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (BAAS), नेशनल चैयरमैन-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एन्ड रॉयटर्स वेलफेयर एसोसिएशन (JMWA), पूर्व संपादक-प्रेसपालिका (हिंदी पाक्षिक) और पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा एवं अजजा संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ 
नोट : उक्त सामग्री व्यक्तिगत रूप से केवल आपको ही नहीं, बल्कि ब्रॉड कॉस्टिंग सिस्टम के जरिये मुझ से वाट्स एप पर जुड़े सभी मित्रों/परिचितों/मित्रों द्वारा अनुशंसितों को भेजी जा रही है। अत: यदि आपको किसी भी प्रकार की आपत्ति हो तो, कृपया तुरंत अवगत करावें। आगे से आपको कोई सामग्री नहीं भेजी जायेगी। अन्यथा यदि मेरी ओर से प्रेषित सामग्री यदि आपको उपयोगी लगे तो इसे आप अपने मित्रों को भी भेज सकते हैं।
यह पोस्ट यदि आपको आपके किसी परिचत के माध्यम से मिली है, लेकिन यदि आप चाहते हैं कि आपको मेरे आलेख और आॅडियो/वीडियो आपके वाट्स एप इन बॉक्स में सदैव मिलते रहें तो कृपया आप मेरे वाट्स एप नं. 9875066111 को आपके मोबाइल में सेव करें और आपके वाट्स एप से मेरे वाट्स एप नं. 9875066111 पर एड होने/जुड़ने की इच्छा की जानकारी भेजने का कष्ट करें। इसक बाद आपका परिचय प्राप्त करके आपको मेरी ब्रॉड कास्टिंग लिस्ट में एड कर लिया जायेगा।
मेरी फेसबुक आईडी : https://www.facebook.com/NirankushWriter
मेरा फेसबुक पेज : https://www.facebook.com/nirankushpage/
पूर्व प्रकाशित आलेख पढने के लिए : http://healthcarefriend.blogspot.in/
फेसबुक ग्रुप https://www.facebook.com/groups/Sachkaaaina/

Monday, June 17, 2013

आडवाणी के त्यागपत्र के निहितार्थ

जो भी हो देश के सामने ये बात स्पष्ट हो गयी कि राजनीति में अब न तो नैतिक मुद्दे कोई मायने रखते हैं और न हीं बड़े राजनेता। यदि कुछ बड़ा है तो वह है-एक मात्र ‘‘सत्ता’’ पाना। जिसके लिये कभी भी और किसी भी किसी भी सिद्धान्त को तिलांजलि दी जा सकती है। ये भाजपा ही नहीं हर पार्टी में नजर आ रहा है। समाजवादी हो या बसपा। कॉंग्रेस हो या भाजपा। हर पार्टी अपने मूल सिद्धान्तों से भटक चुकी है। अब तो सिद्धान्तों की दुहाई देने वाले साम्यवादी भी सिद्धान्तों से किनारा करते नजर आने लगे हैं।

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

भाजपा के कद्दावर नेता और भारत के पूर्व प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने बिना इस बात का स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किये कि वे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को भाजपा का शीर्ष नेतृत्व प्रदान करने के खिलाफ हैं, ये कहते हुए भाजपा के प्रमुख पदों से त्यागपत्र देने का ऐलान कर दिया कि भाजपा अब वो पार्टी नहीं रही जो इसकी स्थापना के समय थी। इसके साथ-साथ आडवाणी ने लिखा कि ‘‘भाजपा के अधिकांश नेता निजी ऐजेंडे के लिये कार्य कर रहे हैं।’’ ऐसे में आडवाणी ने भाजपा के अन्दर स्वयं को सहज नहीं माना और भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह के नाम पत्र लिखकर त्यागपत्र सौंप दिया।

आडवाणी के उक्त त्यागपत्र से मीडिया और देश के लोगों में जितनी बातें, चर्चाएँ और चिन्ताएँ नजर आयी, उसकी तुलना में भाजपा के अन्दर इसका कोई खास असर नहीं दिखा और अन्तत: इसी कारण आडवाणी ने भाजपा के सामने पूरी तरह से नतमस्तक होकर घुटने टेक दिये। जिसके लिये भाजपा नेतृत्व के साथ में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का पुरजोर समर्थन बताया जा रहा है। बताया जाता है कि संघ अब कतई भी नहीं चाहता कि जिन्ना-परस्त आडवाणी को भाजपा में अब और महत्व दिया जाये। संघ अब कट्टर हिन्दुत्व की छवि वाले मोदी पर दाव लगाना अधिक फायदे का सौदा मान रहा है। 

यहॉं तक तो बात ठीक है, क्योंकि संघ का जो ऐजेंडा है, संघ उसे लागू करना चाहता है, तो इसमें अनुचित भी क्या है? आखिर संघ अपनी स्थापना के मकसद को क्यों पूर्ण नहीं करना चाहेगा? संघ का मकसद इस देश को हिन्दूधर्म के अनुरूप चलाना है, जिसके लिये हिन्दुओं के दिलों में मुसलमानों के प्रति नफरत पैदा करने के साथ-साथ, देश में मनुवादी ब्राह्मणवाद को बढावा देना और लागू करना बहुत जरूरी है। इस कार्य को नरेन्द्र मोदी बखूबी अंजाम दे रहे हैं।मोदी मुसलमानों के प्रति कितने सद्भावी हैं, ये तो सारा संसार जान ही चुका है। इसके साथ-साथ मोदी स्वयं ओबीसी वर्ग के होकर भी पूरी तरह से ब्राह्मणवाद के शिकंजे में हैं। ऐसे में राजनीतिक गोटियॉं बिछाने के लिये संघ के पास मोदी से अधिक उपयुक्त व्यक्ति अन्य कोई हो ही नहीं सकता। कम से कम लालकृष्ण आडवाणी तो कतई भी नहीं। 

इसलिये संघ ने जो चाहा भाजपा में वहीं मनवा और करवा लिया। लेकिन सबसे बड़ा और विचारणीय सवाल ये है कि आडवाणी द्वारा ये कहे जाने पर भी कि-‘‘भाजपा के अधिकांश नेता निजी ऐजेंडे के लिये कार्य कर रहे हैं।’’ भाजपा ने आडवाणी को कोई तवज्जो नहीं दी, इसकी क्या वजह हो सकती है? इस बात को भाजपा और संघ के आईने से बाहर निकल कर समझना होगा। आज राजनीतिक और सामाजिक मूल्यों में जितनी गिरावट आ चुकी है, उससे समाज का कोई तबका या कोई भी राजनैतिक दल अछूता नहीं है। इसलिये अकेले भाजपा में ही नहीं, बल्कि करीब-करीब सभी दलों और सभी संगठनों में शीर्ष नेतृत्व ही नहीं, बल्कि नीचे के पायदान पर नेतृत्व कर रहे कार्यकर्ता या नेता अपने निजी ऐजेंडे के लिये कार्य करते दिख रहे हैं।

ऐसे में भाजपा के नेताओं पर आडवाणी द्वारा सार्वजनिक रूप से इस प्रकार का आरोप लगाये जाने का कोई खास असर नहीं हुआ। भाजपा वाले जानते हैं कि हकीकत सारा देश जानता है, इसलिये आडवाणी के द्वारा किये गये इस खुलाये से कि ‘‘भाजपा के अधिकांश नेता निजी ऐजेंडे के लिये कार्य कर रहे हैं।’’ कोई बड़ा फर्क पड़ने वाला नहीं है।

इसी वजह से आडवाणी को साफ कह दिया गया कि नरेन्द्र मोदी के मुद्दे पर पीछे हटने का सवाल नहीं उठता, बेशक वे भाजपा छोड़ दें। इसी के चलते अन्तत: आडवाणी को अपने कदम पीछे खींचने पड़े और उन्होंने भाजपा के उन नेताओं के सामने समर्पण कर दिया, जिन्हें स्वयं आडवाणी ने राजनीति करना सिखाया था। इस मामले से एक बात और पता चलती है कि इस बार भाजपा सत्ता में आने के लिये इतनी आत्मविश्‍वासी है कि उसने आडवाणी की परवाह करने के बजाय हिन्दुत्व के पुरोधा नरेन्द्र मोदी को हर कीमत पर आगे बढाना अधिक उपयुक्त और उचित समझा है।

जो भी हो देश के सामने ये बात स्पष्ट हो गयी कि राजनीति में अब न तो नैतिक मुद्दे कोई मायने रखते हैं और न हीं बड़े राजनेता। यदि कुछ बड़ा है तो वह है-एक मात्र ‘‘सत्ता’’ पाना। जिसके लिये कभी भी और किसी भी किसी भी सिद्धान्त को तिलांजलि दी जा सकती है। ये भाजपा ही नहीं हर पार्टी में नजर आ रहा है। समाजवादी हो या बसपा। कॉंग्रेस हो या भाजपा। हर पार्टी अपने मूल सिद्धान्तों से भटक चुकी है। अब तो सिद्धान्तों की दुहाई देने वाले साम्यवादी भी सिद्धान्तों से किनारा करते नजर आने लगे हैं।

ऐसे में आडवाणी द्वारा भाजपा से और भाजपा के समर्थकों से ये आशा की गयी कि भाजपा में नैतिक मूल्यों का पतन हो रहा है, इस बात को आडवाणी द्वारा सार्वजनिक रूप से कहे जाने के बाद भाजपा और भाजपा समर्थक आडवाणी के कदमों में आ गिरेंगे, ये सोच आडवाणी की बहुत बड़ी भूल साबित हुई। इससे ये निष्कर्ष भी सामने आया है कि आगे से केवल भाजपा में ही नहीं, बल्कि किसी भी दल में कोई नेता नेतृत्व के खिलाफ आवाज उठाने से पहले दस बार नहीं, बल्कि सौ बार सोचेगा।