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Tuesday, March 8, 2016

महिला दिवस को सार्थक बनाने के लिए 7 कदम!

महिला दिवस को सार्थक बनाने के लिए 7 कदम!
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लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
आज 08 मार्च, 2016 है। सभी अखबारों, टीवी चैनलों और रेडियो पर महिलाओं के बारे में बातें होंगी। चर्चा, बहस और लेख सब जगह महिलाओं की बात होनी हैं। इस बारे में मेरा भी कुछ चिंतन है। हजारों सालों से महिलाओं को दोयम दर्जे का नागरिक, बल्कि गीता जैसे कथित धर्मग्रंथ के अध्याय : 9 के 32वें श्लोक में स्त्री को पाप यौनि में जन्मी जीव समझा गया है। अनेक ग्रन्थों में स्त्री को हजारों सालों से दासी, गुलाम और अमानवी प्रावधानों की त्रासदी झेलनी पड़ी है। बलात्कार केवल स्त्री का होना। लज्जा, शर्म और हया को केवल स्त्री का आभूषण बताया जाना। बहुत सी बातें और ऐसे हालात हैं, जो स्त्री को पुरुष से कमतर बनाने के लिए लगातार काम अवचेतन स्तर पर कार्य करते रहते हैं। वास्तव में स्त्री की नैसर्गिक प्रजनन की अनुपम क्षमता और उसके जन्मजात संवेदनशील स्वभाव को समाज ने स्त्री की कमजोरी समझ लिया और उसके साथ हजारों सालों से गुलामों की तरह से व्यवहार किया गया। इन सब मनमानियों से स्त्री की मुक्ति के लिए बातें तो हम खूब करते हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर क्या कुछ होता है, किसी से छिपा नहीं है। मेरा मानना है कि शेष बातें तो बाद में सबसे पहले स्त्रियों को मानवीय दर्जा देने के लिए बहुत थोड़े कदम उठाने की जरूरत है। जैसे-
1. संविधान के अनुच्छेद 13 में मूल अधिकार विरोधी होने के कारण-शून्य घोषित स्त्री विरोधी सभी धर्मग्रंथों के लेखन, प्रकाशन, मुद्रण और विक्रय को आजीवन कारावास से दण्डनीय अपराध घोषित किया जाए।
2. अंधश्रद्धा, अंधविश्वास और अवैज्ञानिक मन्त्र-तंत्रों पर प्रतिबन्ध और इनका उल्लंघन करना आजीवन कारावास से दण्डनीय अपराध हो।
3. शराब हिंसा, दहेज और कन्यादान स्त्री की दुर्दशा के मूल हैं। स्त्री के मानवी होने को ये 3 बातें पल-प्रतिपल कुचलती हैं। अत: इनको कठोरता से निषिद्ध किया जाए और उल्लंघन करने वाले को उम्र कैद की सजा दी जाए।
4. अपनी इच्छानुसार न्यूनतम स्नातक तक की शिक्षा हर लड़की के लिए अनिवार्य और मुफ़्त मूल अधिकार हो, जिसका आवासीय सुविधाओं सहित सम्पूर्ण और वास्तविक खर्चा सरकार वहन करे।
5. कन्या भ्रूण हत्या में किसी भी रूप में लिप्त डॉक्टर और अन्य अपराधियों को कम से कम उम्र कैद की सजा मिले।
6. स्त्रियों को विधायिका में 50 फीसदी भागीदारी हो, लेकिन यह भागीदारी हर वर्ग की स्त्री को आबादी के अनुपात में होनी चाहिए।
7. स्त्रियों के मान-सम्मान को उनकी निजी या पारिवारिक इज्जत से नहीं, बल्कि देश और समाज की इज्जत से जोड़ा जाए। जिससे ऑनर किलिंग की समस्या से निजात मिले।

उक्त मुद्दों पर सरकार, समाज और प्रशासन को मिलकर लगातार काम करने की जरूरत है।
जय भारत। जय संविधान।
नर-नारी सब एक समान।।
लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
9875066111/08-03-2016/08.38 AM
@—लेखक का संक्षिप्त परिचय : होम्योपैथ चिकित्सक और दाम्पत्य विवाद सलाहकार। +राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (BAAS), नेशनल चैयरमैन-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एन्ड रॉयटर्स वेलफेयर एसोसिएशन (JMWA), पूर्व संपादक-प्रेसपालिका (हिंदी पाक्षिक) और पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा एवं अजजा संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ
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Friday, January 9, 2015

स्त्री का पुरुषोचित आचरण सबसे बड़ी मूर्खता है।--डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

स्त्री और पुरुष का के बीच लैंगिक अंतर तो प्रकृति की अनुपम दैन है! इसको स्त्री की कमजोरी और पुरुष की ताकत समझना, पुरुष की सबसे बड़ी मूर्खता है और इसे अपनी कमजोरी मानकर, इसे छुपाने के लिए स्त्री द्वारा पुरुषोचित व्यवहार या आचरण करना उससे भी बड़ी मूर्खता है।
केवल भारत में ही नहीं, बल्कि सारे विश्व में हमारे पुरुष प्रधान समाज की कुछ मूलभूत समस्याएँ हैं। भारत में हजारों सालों से अमानवीय मनुवादी कुव्यवस्था के चंगुल में रही है। जिसमें स्त्री की मानवीय संवेदनाओं तक को क्रूरता से कुचला जाता रहा है। ऎसी ऐतिहासिक प्रष्ठभूमि में स्त्री और पुरुष के बीच भारत में अनेक प्रकार की वैचारिक, सामाजिक और व्यवहारगत समस्याएं विशेष रूप से देखने को मिलती हैं। जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं-

1-पुरुष का स्त्री के प्रति हीनता का विचार और स्त्री को परुष से कमतर मानने का अहंकारी सोच। 

2-पुरुष का स्त्री के प्रति पूर्वाग्रही और रुग्णता पर आधारित स्वनिर्मित अवधारणाएं। 

3-स्त्री द्वारा स्त्री को प्रकृति प्रदत्त अनुपम उपहार स्त्रीत्व और प्रजनन को स्त्री जाति की कमजोरी समझने का असंगत, किन्तु संस्कारगत विचार। 

4-स्त्री का पुरुष द्वारा निर्मित धारणाओं के अनुसार खुद का, खुद को कमतर आकलन करने का संकीर्ण, किन्तु संस्कारगत नजरिया। 

5-इसी के साथ-साथ स्त्री का खुद को पुरुष की बराबरी करने का अव्यावहारिक और असंगत विचार भी बड़ी समस्या है, क्योंकि न पुरुष स्त्री की बराबरी कर सकता है और न ही स्त्री पुरुष की बराबरी कर सकती है। 

6-स्त्री को पुरुष की या पुरुष को स्त्री की बराबरी करने की जरूरत भी नहीं होनी चाहिए। बराबरी करने की जरूरत भी नहीं है, क्योंकि दोनों अपने आप में अनूठे हैं और दोनों एक दूसरे के बिना अ-पूर्ण हैं।

7-स्त्री और पुरुष की पूर्णता आपसी प्रतिस्पर्धा या एक दूसरे को कमतर या श्रेष्ठतर समझने में नहीं, बल्कि सम्मानजनक मिलन, सहयोग और सहजीवन में ही है। 

8-एक स्त्री का स्त्रैण और पुरुष का पौरुष दोनों में प्रकृतिदत्त अनूठा और विपरीतगामी स्वभावगत अद्वितीय गौरव है। 

9-स्त्री और पुरुष दोनों में बराबरी की बात सोचना ही बेमानी हैं। दोनों प्रकृति ने ही भिन्न बनाये हैं, लेकिन इसका अर्थ किसी का किसी से कमतर या हीनतर या उच्चतर या श्रेष्ठतर का विचार अन्याय पूर्ण है। दोनों अनुपम हैं, दोनों अनूठे हैं।

10-स्त्री और पुरुष की सोचने और समझे की मानसिक और स्वभावगत प्रक्रिया और आदतें भी भिन्न है। 

11-यद्यपि पुरुष का दिमांग स्त्री के दिनाग से दस फीसदी बड़ा होता है, लेकिन पुरुष के दिमांग का केवल एक बायाँ (आधा) हिस्सा ही काम करता है। जबकि स्त्री के दिमांग के दोनों हिस्से बराबर और लगातार काम करते रहते हैं। इसीलिए तुलनात्मक रूप से स्त्री अधिक संवेदनशील होती हैं और पुरुष कम संवेदनशील! स्त्रियों को "बात-बात पर रोने वाली" और "मर्द रोता नहीं" जैसी सोच भी इसी भिन्नता का अनुभवजन्य परिणाम है। बावजूद इसके पुरुष और खुद स्त्रियाँ भी, स्त्री को कम बुद्धिमान मानने की भ्रांत धारणा से ग्रस्त हैं।

12-यदि बिना पूर्वाग्रह के अवलोकन और शोधन किया जाये तो स्त्री और पुरुष की प्रकृतिगत वैचारिक और बौद्धिक भिन्नता उनके दैनिक जीवन के व्यवहार और आचरण में आसानी से देखी-समझी जा सकती है।
कुछ उदाहरण-
  • (1) स्त्रियों को ऐसे मर्द पसंद होते हैं, जो खुलकर सभी संवेदनशील परेशानी और बातें स्त्री से कहने में संकोच नहीं करें, जबकि इसके ठीक विपरीत पुरुष खुद तो अपनी संवेदनाओं को व्यक्त नहीं करना चाहते और साथ ही वे कतई भी नहीं चाहते कि स्त्रियाँ अपनी संवेदनाओं (जिन्हें पुरुष समस्या मानते हैं) में पुरुषों को उलझाएँ। 
  • (1) स्त्री के साथ, पुरुष की प्रथम प्राथमिकता प्यार नहीं, स्त्री को सम्पूर्णता से पाना है। स्त्री को हमेशा के लिए अपने वश में, अपने नियंत्रण में और अपने काबू में करना एवं रखना है। प्यार पुरुष के लिए द्वितीयक (बल्कि गौण) विषय है। आदिकाल से पुरुष स्त्री को अपनी निजी अर्जित संपत्ति समझता रहा है, (इस बात की पुष्टि भारतीय दंड संहिता की धारा 497 से भी होती है, जिसमें स्त्री को पुरुष की निजी संपत्ति माना गया गया है), जबकि स्त्री की पहली प्राथमिकता पुरुष पर काबू करने के बजाय, पुरुष का असीमित प्यार पाना है (जो बहुत कम को नसीब होता है) और पुरुष से निश्छल प्यार करना है। अपने पति या प्रेमी को काबू करना स्त्री भी चाहती है, लेकिन ये स्त्री की पहली नहीं, अंतिम आकांक्षा है। यह स्त्री की द्रष्टि में उसके प्यार का स्वाभाविक प्रतिफल है।  
  • (3) विश्वभर के मानव व्यवहार शास्त्रियों और मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि स्त्री प्यार में ठगी जाने के कुछ समय बाद फिर से खुद को संभालने में सक्षम हो जाती हैं, जबकि पुरुषों के लिए यह बहुत असम्भव या बहुत ही मुश्किल होता है। (इस विचार से अनेक पाठक असहमत हो सकते हैं, मगर अनेकों बार किये गए शोध, हर बार इस निष्कर्ष की पुष्टि करते रहे हैं।)
  • (4) पुरुष अनेक महत्वपूर्ण दिन और तारीखों को (जैसे पत्नी का जन्म दिन, विवाह की वर्ष गाँठ आदि) भूल जाते हैं और पुरुष इन्हें साधारण भूल मानकर इनकी अनदेखी करते रहते हैं, जबकि स्त्रियों के लिए हर छोटी बात, दिन और तारिख को याद रखना आसान होता है। साथ ही ऐसे दिन और तरीखों को पुरुष (पति या प्रेमी) द्वारा भूल जाना स्त्री (पत्नी या प्रेमिका) के लिए अत्यंत असहनीय और पीड़ादायक होता है। जो पारिवारिक कलह और विघटन के कारण भी बन जाते हैं। 
  • (5) स्त्रियाँ चाहती हैं कि उनके साथ चलने वाला उनका पति या प्रेमी, अन्य किसी भी स्त्री को नहीं देखे, जबकि राह चलता पुरुष अपनी पत्नी या प्रेमिका के आलावा सारी स्त्रियों को देखना चाहता है। यही नहीं स्त्रियाँ भी यही चाहती हैं कि राह चलते समय हर मर्द की नजर उन्हीं पर आकर टिक जाये। स्त्रियाँ खुद भी कनखियों से रास्तेभर उनकी ओर देखने वाले हर मर्द को देखती हुई चलती हैं, मगर स्त्री के साथ चलने वाले पति या प्रेमी को इसका आभास तक नहीं हो पाता। 
12-कालांतर में समाज ने स्त्री और पुरुष दोनों के समाजीकरण (लालन-पालन-व्यवहार और कार्य विभाजन) में जो प्रथक्करण किया गया, वास्तव में वही आज के समय की बड़ी मुसीबत है और इससे भी बड़ी मुसीबत है, स्त्री का आँख बंद करके पुरुष की बराबरी करने की मूर्खतापूर्ण लालसा! गहराई में जाकर समझें तो यह केवल लालसा नहीं, बल्कि पुरुष जैसी दिखने की उसकी हजारों सालों से दमित रुग्ण आकांक्षा है! क्योंकि हजारों सालों से स्त्री पुरुष पर निर्भर रही है, बल्कि पुरुष की गुलाम जैसी ही रही है। इसलिए वह पुरुष जैसी दिखकर पुरुष पर निर्भरता से मुक्ति पाने की मानसिक आकांक्षी होने का प्रदर्शन करती रहती है। 

13-एक स्त्री जब अपने आप में प्रकृति की पूर्ण कृति है तो उसे अपने नैसर्गिक स्त्रैण गुणों को दबाकर या छिपाकर या कुचलकर पुरुष जैसे बनने या दिखने या दिखाने का असफल प्रयास करके की क्या जरूरत है? इस तथ्य पर विचार किये बिना, स्त्री के लिए अपने स्त्रैणत्व के गौरव की रक्षा करना असंभव है।

14-बेशक जेनेटिक कारण भी स्त्री और पुरुष दोनों को जन्म से मानसिक रूप से भिन्न बनाते हैं। लेकिन स्त्री और पुरुष प्राकृतिक रूप से अ-समान होकर भी एक-दूसरे से कमतर या उच्चतर व्यक्तित्व नहीं, बल्कि एक दूसरे के सम्पूर्णता से पूरक हैं। स्त्रैण और पौरुष दोनों के अनूठे और मौलिक गुण हैं। 

15-हम शनै-शनै समाजीकरण की प्रक्रिया में कुछ बदलाव अवश्य ला सकते हैं। यदि इसे हम आज शुरू करते हैं तो असर दिखने में सदियाँ लगेंगी। मगर बदलाव स्त्री या पुरुष की निजी महत्वाकांक्षा या जरूरत पूरी करने के लिए नहीं, बल्कि दोनों के जीवन की जीवन्तता को जिन्दादिल बनाये रखने के लिए होने चाहिए।

16-समाज शास्त्रियों या समाज सुधारकों या स्त्री सशक्तिकरण के समर्थकों या पुरुष विरोधियों की द्रष्टि में कुछ सामाजिक सुधारों की तार्किक जरूरत सिद्ध की जा सकती है। लेकिन कानून बनाकर या सामाजिक निर्णयों को थोपकर इच्छित परिणाम नहीं मिल सकते। बदलाव तब ही स्वागत योग्य और परिणामदायी समझे जा सकते हैं, जबकि हम उन्हें स्त्री-पुरुष के मानसिक और सामाजिक द्वंद्व से निकलकर, एक इन्सान के रूप में सहजता और सरलता से आत्मसात और अंगीकार करके जीने में फक्र अनुभव करें। 

18-अंत में यही कहा जा सकता है कि स्त्री और पुरुष का के बीच लैंगिक अंतर तो प्रकृति की अनुपम दैन है! इसको स्त्री की कमजोरी और पुरुष की ताकत समझना, पुरुष की सबसे बड़ी मूर्खता है और इसे अपनी कमजोरी मानकर, इसे छुपाने के लिए स्त्री द्वारा पुरुषोचित व्यवहार या आचरण करना उससे भी बड़ी मूर्खता है।

-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'-098750-66111

Friday, May 10, 2013

दलित-आदिवासी और स्त्रियों का धर्म आधारित उत्पीड़न हमारी चिन्ता क्यों नहीं?

तत्काल समाधान हेतु इस देश में यदि आज सबसे बड़ी कोई समस्या है तो वो है, देश के पच्चीस फीसदी दलितों और आदिवासियों और अड़तालीस फीसदी महिला आबादी को वास्तव में सम्मान, संवैधानिक समानता, सुरक्षा और हर क्षेत्र में पारदर्शी न्याय प्रदान करना और यदि सबसे बड़ा कोई अपराध है तो वो है-दलितों, आदिवासियों और स्त्रियों को धर्म के नाम पर हर दिन अपमानित, शोषित और उत्पीड़ित किया जाना। यही नहीं इस देश में आज की तारीख में यदि सबसे सबसे बड़ी सजा का हकदार कोई अपराधी हैं तो वे सभी हैं, जो दलितों, आदिवासियों और स्त्रियों के साथ खुलेआम भेदभाव, अन्याय, शोषण, उत्पीड़न कर रहे हैं और जिन्हें धर्म और संस्द्भति के नाम पर जो लोग और संगठन लगातार सहयोग प्रदान करते रहते हैं।
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

पिछले कुछ समय से मीडिया की मेहरबानी से कुछ चतुर, चालाक, भ्रष्ट और कट्टरपंथी ताकतों ने देश की राजधानी नयी दिल्ली को अपनी प्रायोजित ताकत दिखाने और संवैधानिक सरकारों को बदनाम करने का नया तरीका ईजाद कर लिया है। जिसकी बड़ी और सार्वजनिक शुरुआत अन्ना हजारे आन्दोलन के समय हुई। इस आन्दोलन को कथित रूप से विदेशी ताकतों और देशी-विदेशी कॉर्पोरेट घरानों का खुला समर्थन था। कुछ ही समय में इस कथित जन आन्दोलन की और इसके कर्ताधर्ताओं की चारित्रिक सच्चाई देश के सामने आ गयी।

इसी प्रायोजित नाटक का सहारा प्रारम्भ से ही तथाकथित योग गुरू बाबा रामदेव भी लेते रहे हैं, लेकिन उसका शोषक व्यापारी का घिनौना चेहरा भी देश के समक्ष आ चुका है। यही नहीं देश यह भी जान चुका है कि इन तथाकथित योग गुरू का असली मकसद देश में साम्प्रदायिक और फासीवादी ताकतों को मजबूत करना तथा देश के धर्म-निरपेक्ष ढांचे का ध्वस्त करना है। यही नहीं वह जनता से प्राप्त अनुदान और योग-शुल्क के मार्फत एकत्रित राशि में से चुनावों के समय भारतीय जनता पार्टी को आर्थिक सहयोग करते रहे हैं।

इसी क्रम में अन्ना हजारे से अलग होकर अरविन्द केजरीवाल ने अपनी नयी दुकान ‘‘आम आदमी’’ के नाम पर खोल ली है और वो न मात्र भारत के लोगों को देश की संवैधानिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था के खिलाफ सरेआम भड़का और उकसा रहे हैं, बल्कि इसके साथ-साथ ‘‘आम आदमी पार्टी’’ बनाकर, आम आदमी के नाम का भी दुरूपयोग कर रहे हैं। जबकि इस पार्टी के नीति नियंताओं में कोई भी आम आदमी नहीं है!

ये और कि इन जैसे सभी लोगों के कथित जनान्दोलनों का भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अर्थात् आरएसएस और आरएसएस के अनुसांगिक सभी संगठन, जिनमें बजरंग दल, विश्‍व हिन्दू परिषद, दुर्गा वाहिनी आदि प्रमुख हैं, खुलकर प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से सक्रिय सहयोग करते रहे हैं और ये सब मिलकर हर छोटे बड़े मुद्दे को सुनियोजित तरीके से मीडिया के मार्फत राष्ट्रीय मुद्दा बनाने का हरसंभव अनैतिक प्रयास करते रहे हैं।

लेकिन आश्‍चर्यजनक तथ्य ये है कि भारतीय जनता पार्टी, आरएसएस और आरएसएस के अनुसांगिक संगठनों सहित ऐसी ताकतें, जो अपने आप को राष्ट्रवादी, देशभक्त और हिन्दुत्ववादी संस्कृति की संरक्षक बतलाती हैं, आश्‍चर्यजनक रूप से उस समय लम्बा मौन साध लेती हैं, जबकि दलितों, आदिवासियों और गरीब एवं पिछड़े वर्गों की स्त्रियों का सरेआम शोषण और उत्पीड़न होता है। बल्कि कड़वी सच्चाई तो ये है कि इन्हीं तथाकथित राष्ट्रवादी, देशभक्त और हिन्दुत्ववादी ताकतों के इशारों या इनके सक्रिय सहयोग और इन्हीं के उकसावे पर हर दिन देशभर में दलितों, आदिवासियों और गरीब एवं पिछड़े वर्गों की स्त्रियों को सार्वजनिक रूप से अपमानित किया जाता रहता है। देश में हर दिन कहीं न कहीं दलितों और आदिवासियों की लड़कियों के साथ गैंग-रेप किये जा रहे हैं। दलितों और आदिवासियों का सार्वजनिक रूप से उत्पीड़न किया जाता है। उनको अमानवीय त्रासदियॉं दी जाती हैं।

कभी मंदिरों से धक्के देकर बाहर भगा दिया जाता है तो कभी बलात्कार करने में असफल होने पर दलितों और आदिवासियों की पीड़ित औरतों को विरोध करने के कारण जिन्दा जला दिया जाता है। कभी होटलों में खाना खाने की हिमाकत करने पर दलितों और आदिवासियों को अपमानित करके सरेआम सड़कों पर घसीटा जाता है। नाईयों को बाल नहीं काटने दिये जाते हैं। सार्वजनिक नल-कूपों से पानी नहीं भरने दिया जाता है। इन सब असंवैधानिक और मनमानियों को क्रियान्वित करने की आज्ञा जिन झूठे और ढोंगी ग्रंथों में दी गयी है, उन कथित धर्म ग्रंथों का सरकार और प्रशासन की नाक के नीचे, बल्कि सरकार और प्रशासन के सहयोग से हर दिन कहीं न कहीं और टीवी पर पूरे उत्साह के साथ और सार्वजनिक रूप से पठन-पाठन किया जाता है। इसी प्रकार से दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों और स्त्रियों के साथ इतिहास में किये गये अन्याय के मुख्य खलनायकों का भी सार्वजनिक रूप से महिमामंडन किया जाता है।

इस प्रकार तत्काल समाधान हेतु इस देश में यदि आज सबसे बड़ी कोई समस्या है तो वो है, देश के पच्चीस फीसदी दलितों और आदिवासियों और अड़तालीस फीसदी महिला आबादी को वास्तव में सम्मान, संवैधानिक समानता, सुरक्षा और हर क्षेत्र में पारदर्शी न्याय प्रदान करना और यदि सबसे बड़ा कोई अपराध है तो वो है-दलितों, आदिवासियों और स्त्रियों को हर दिन धर्म के नाम पर अपमानित, शोषित और उत्पीड़ित किया जाना। यही नहीं इस देश में आज की तारीख में यदि सबसे सबसे बड़ी सजा का हकदार कोई अपराधी हैं तो वे सभी हैं, जो दलितों, आदिवासियों और स्त्रियों के साथ खुलेआम भेदभाव, अन्याय, शोषण, उत्पीड़न कर रहे हैं और जिन्हें धर्म और संस्कृति के नाम पर जो लोग और संगठन लगातार सहयोग प्रदान करते रहते हैं।

अत: हमारे देश में भ्रष्टाचार को सबसे बड़ा मुद्दा बनाकर उपरोक्त प्रकार के अन्यायों से देश के शोषित लोगों का ध्यान भटकाया जाता है। असल में आज सबसे बड़ी जरूरत है कि हम इस बात को समझें कि इस देश की तकरीबन नब्बे फीसदी से अधिक आबादी लगातार अभावों में जीने को विवश है। अत: हमें देश के कर्णधारों से इस बात के लिये सवाल करना होगा कि उन्हें देश की बहुसंख्यक आबादी की चिन्ता क्यों नहीं है। यदि जन-आन्दोलनों या बाबा रामदेव जैसों द्वारा योग के नाम पर भटकाया जावे तो इस देश के दलितों, आदिवासियों और स्त्रियों को सबसे पहले उनसे भी उपरोक्त सवाल पूछने चाहिये।

-लेखक : होम्योपैथ चिकित्सक, सम्पादक-प्रेसपालिका (पाक्षिक), नेशनल चेयरमैन-जर्नलिसट्स, मीडिया एण्ड रायटर्स वेलफेयर एशोसिएशन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) और संगठित षड़यंत्र के चलते जिला जज ने उम्र कैद की सजा सुनाई, चार वर्ष से अधिक समय चार-जेलों में व्यतीत किया। हाई कोर्ट व सुप्रीम कोर्ट ने दोषमुक्त/निर्दोष ठहराया। मोबाइल : 085619-55619, 098285-02666

Wednesday, April 24, 2013

कुछ रोचक और महत्वपूर्ण ख़बरों तथा आलेखों के लिंक्स. (24 अप्रेल, 2013 को प्रकाशित)

केरल धमाके पर चुप्पी क्यों?-मामला आरएसएस से जुड़ा है, इसलिए मीडिया खामोश है...


अपना बिजली बिल जमा क्यों कर रही है टीम केजरीवाल ?


झाबुआ: राजनीतिक उत्पीडन में आदिवासी पर ही लगा मारा एस.टी. एक्ट

पुण्‍य प्रसून वाजपेयी ने कहा, ये मजदूर नहीं मवाली हैं!

बिना पेंदी के लोटा हुये लालू प्रसाद यादव !

Monday, March 11, 2013

मर्दों के लिए औरतों का औरतों द्वारा उत्पीड़न!

उत्पीड़न-औरतों का औरतों द्वारा, मर्दों के लिए
विभांशु दिव्याल

हां, मैं यह खतरा उठा रहा हूं, जान-बूझकर और सोच-समझकर उठा रहा हूं.
खतरा यानी चालू और चर्चित मुहावरों के विरुद्ध वह कहने का जिसे महिला दिवस के ढोल-नगाड़ों के बीच तो कम से कम कोई नहीं सुनना चाहेगा। हो सकता है कि अखबारी पन्नों और मीडियाई बहसों में पुरुष विरोधी आग उगलने वाले दुर्गा, चंडी और काली के महिलावादी मिनी कलि अवतार अपने खड्ग और खापर लेकर मेरे पीछे पड़ जाएं, मुझे महिला विरोधी करार दें, मुझे प्रतिगामी ठहरा दें, किसी कुंठा का शिकार बता दें या फिर मुझे वैचारिक तौर पर दिवालिया घोषित कर दें।

Sunday, January 6, 2013

बलात्कार का मनोविज्ञान!

स्त्री की गहन चाह कि कोई पुरुष उसका पागल हो जाए, कि वह इतनी सुंदर है कि किसी को भी पागल कर दे, कि वह इतनी बड़ी जरूरत है कि कोई उसके लिए जान की बाजी लगा दे, बलात्कार के मूल होती है।
लेखक : बनवारी

क्या आपको पता है कि दुनियाभर के मनोवैज्ञानिकों का यह विश्लेषण रहा है कि बलात्कार के मामलों में अधिकांशतः स्त्रियां स्वयं इस तरह की चाह से भरी होती हैं? कहा तो यह तक जाता है कि स्त्री के स्वभाव में होता है कि कोई उसके साथ जोर-जबरदस्ती करे...कोई उसके लिए इतना पागल हो जाए कि बस सब कुछ करने को तैयार हो जाए?

हाल ही में प्रकाशित मनोविज्ञान के एक अध्ययन के अनुसार पिछले तीस सालों में की लगभग 20 शोधों से यह पता चला है कि पचास से अधिक प्रतिशत में स्त्रियां बलात्कार की वासना रखती हैं, चाह रखती हैं। कुछ मनोवैज्ञानिक तो यह तक कहते हैं कि कई बार स्त्री स्वयं ऐसी परिस्थितियां पैदा करती हैं कि उसका बलात्कार हो जाए।

स्त्री की गहन चाह कि कोई पुरुष उसका पागल हो जाए, कि वह इतनी सुंदर है कि किसी को भी पागल कर दे, कि वह इतनी बड़ी जरूरत है कि कोई उसके लिए जान की बाजी लगा दे, बलात्कार के मूल होती है।

यह तो एक मनोवैज्ञानिक सोच है बलात्कार के पीछे।

भारत में बलात्कार की बढ़ती घटनाओं के पीछे एक तो बहुत बड़ा कारण है स्त्रियां लगातार कम हो रही है और पुरुषों की संख्या बढ़ती जा रही है।

महावीर और बुद्ध की शिक्षाओं के बाद भारत में ब्रह्मश्चर्य की शिक्षा ने ऐसा घर कर लिया कि सेक्स बुरी तरह से अपमानित कर दिया गया और सदियों तक हमने भयंकर दमन किया। आज के इस संचार माध्यमों के सहज युग में हर कोई किसी ने किसी बहाने उत्तेजित हो रहा है। सदियों का दमन का ढक्कन तहस-नहस हो रहा है, काम के दमन से काम की अती पर स्वाभाविक ही पैंडुलम डोल रहा है।

जब तक स्त्री को प्रेम नहीं किया जाता, उसे सम्मान नहीं दिया जाता, उसके प्रति संवेदनशील नहीं हुआ जाता, उसे भी एक मानव समझ कर अपनी बराबरी का नहीं माना जाता, बलात्कार जैसी घटनाएं होती रहेगी। यदि स्त्री भोग की ही चीज है तो सहमती या असहमती भोग ही लो बुरा क्या है?

बलात्कार को सख्त कानून से नहीं रोका जा सकता। काम का वेग इतना होता है कि जब यह उद्दाम वेग किसी के सिर पर चढ़ता है तो उस समय उसे कोई कानून नहीं दिखाई देता। एक बार एक वृद्ध वकील साहब जो देश में अंग्रेजों के जमाने से वकालात कर रहे थे, मुझे बता रहे थे कि जितना कानून सख्त होता जाता है उतना ही बीमारी और जटिल हो जाती है। उन्होंने मुझे बताया कि बलात्कार पर सख्त से सख्त कानून के आते-आते, बलात्कार के बाद स्त्रियों की हत्याएं अधिक होने लगी। सबूत मिटाने के लिए हत्या कर दी जाती है।

बलात्कार के लिए एक बेहद स्वस्थ समाज की जरूरत होती है, जहां स्त्री-पुरुष समान हो, उनका मिलना-जुलना सहज हो, सरल हो, उनके बीच रिश्ते बहुत ही पवित्रता के साथ बन सकते हों, सेक्स का दमन जरा भी न हो, इसे एक प्राकृतिक भेंट समझकर उसे स्वीकारा जाए, उसकी निंदा जरा भी न हो।

किसी तल पर जो आदिवासी हैं, पिछड़े हैं, जंगलों में रहते हैं, वे बेहद सहज, सरल व प्राकृतिक जीवन जीते हैं, वहां कभी बलात्कार नहीं होते। बलात्कार आधुनिक सभ्यता, शिक्षा व दमित समाज की देन है।

और हां, यह भी सच है कि अनेक मामलों में स्त्री अपनी मर्जी से संबंध बनाती हैं और दुर्घटनावश पकड़ में आ जाए तो स्वयं को बचाने के लिए बलात्कार का आरोप लगाती है।

बलात्कार एक बहुत ही जटिल मामला है। हमारे न्यूज चैनल्स व राजनैतिक पार्टियां अपने राजनैतिक हितों के लिए जिस तरह से बयान देकर अपनी रोटी सेंक रहे हैं, उससे इस समस्या का कोई निदान नहीं होगा।

Friday, January 4, 2013

विडंबनाओं के देश में स्त्री-सुरक्षा..!

दुनिया के किसी भी देश में रहने वाले इतनी विडंबनाओं के साथ नहीं जीते, जितनी विडंबनाओं के साथ हमें भारत में जीना पड़ता है। धर्म, सम्प्रदाय और राजनीति से परे हम भारतीयों में यदि कोई एकरूपता है, तो वह है, भारतीयों की सोच और कथनी, कथनी और करनी में मौजूद पाखंड। भारतीय समाज का वयस्क हिस्सा, चाहे वह पुरुष हो या महिला, अपने दैनंदिनी जीवन के प्रत्येक पल को इसी दिखावे, बनावटीपन और ओढ़े हुए झूठ के साथ जीते हैं। वह चाहे गरीबों के नाम पर आंसू बहाना हो, भ्रष्टाचार के नाम पर रोष जाहिर करना हो या फिर स्त्रियों की सुरक्षा को लेकर चिंतित होना हो, हम अपने पाखंड को सरलता के साथ ओढ़े रहते हैं| हमारी सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि चरित्र और नैतिकता के स्तर पर मूल्यों में दोहरापन हमें कभी कचौटता भी नहीं है।

किसी मनुष्य को जीवन में जिन तीन चीजों की कामना सबसे अधिक होती है, वे तीनों ही भारतीय सन्दर्भों में स्त्री रूप हैं| लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा| धन, बुद्धि और शक्ति। सामान्य तौर पर किसी घर में घर में कन्या का जन्म होने पर कहा जाता है कि लक्ष्मी घर में आई है| पर, उसी लक्ष्मी को कोख में ही मार देने की घटनाएं सर्वाधिक भारत में होती हैं। वही लक्ष्मी दैहिक व्यापार में धकेली जाती है और धन कमाने का साधन मानी जाती है। विडम्बना यह है कि लक्ष्मी को दैहिक व्यापार में ढकेलने के काम में भी सहायक लक्ष्मी ही बनती है।

सरस्वती ज्ञान की देवी है। उन्हीं सरस्वतियों को पढ़ लिखकर क्या करेंगी, कहकर, ज्ञान प्राप्ति से वंचित रखा जाता है। दुर्गा की उपासना करके शक्ति प्राप्त की जाती है| दुर्गा के उन्हीं अवतारों को घरों में समाज में लतियाया जाता है। यह सब करते हुए सोच के स्तर पर समाज में श्रेणी या स्तर का कोई भेदभाव नहीं है। उच्च वर्ग हो, मध्य वर्ग हो या निचला तबका, आर्थिक आधार पर हो या जाती, धर्म और सम्प्रदाय, सोच के स्तर पर सभी समान हैं| स्त्रियाँ पैर की जूती से भी कम हैं। यह सोच के स्तर पर है। स्त्रियाँ पूजनीय हैं, उनका सम्मान होना चाहिये। यह कथनी के स्तर पर है। उन्हें दबाकर रखना चाहिये और अवसर मिलते ही उनका उपभोग किया जा सकता है, यह करनी के स्तर पर है।

दिल्ली सहित पूरे देश में पिछले एक पखवाड़े से चल रहे प्रदर्शनों में यह विडम्बना आंदोलन, राजनीति और प्रशासन तीनों स्तर पर खुलकर सामने आई है। यह क्या कम विडंबनापूर्ण है कि जब इंडिया गेट पर युवाओं का रोषपूर्ण प्रदर्शन अपने चरम पर था, इलेक्ट्रानिक मीडिया के तथाकथित बुद्धिमान और विवेकपूर्ण रिपोर्टर और एंकर गला फाड़ फाड़ कर दिल्ली पोलिस ही नहीं, पूरे देश की पोलिस व्यवस्था को कोस रहे थे, देश की सरकार ही नहीं, सारे दलों के सारे राजनीतिज्ञ घडियाली आंसू बहाकर संवेदनशील दिखने की कोशिश कर रहे थे, दुनिया की सबसे बदनाम पत्रिका और बदनाम क्लबों का समूह प्लेब्वॉय भारत में उसके खुलने वाले क्लबों में शराब परोसने के लिए रखी जाने वाली “बनीज” याने लड़कियों के लिए पहनने वाली पोशाक का प्रदर्शन कर रहा था, पर, न तो इंडिया गेट पर "व्ही डिमांड जस्टिस" के नारे लगाने वालों ने, न ही चैनलों पर बलात्कार के खिलाफ प्रवचन झाड़ने वाले महिलाओं के महिला और पुरुष पक्षधरों ने, न ही गला फाड़ फाड़ कर चिल्लाने वाले इलेक्ट्रानिक मीडिया के रिपोर्टरों और एंकरों ने, न ही प्रिंट मीडिया के अखबारों ने और न ही घडियाली आंसू बहाने वाले राजनीतिज्ञों ने किंचित मात्र भी चिंता जताई कि कामुकता परोसने वाले इन क्लबों के खुलने का भारतीय समाज पर क्या असर पड़ेगा?

पिछले तीन दशकों ने भारत में कामुकता एक उद्योग के रूप में स्थापित हो चुकी है और महिलाएं इसमें माल के रूप में व्यापार के लिए इस्तेमाल हो रही हैं। कामुकता जब उद्योग की शक्ल ग्रहण कर लेती है, तब इसका उपभोक्ता केवल समाज का अभिजात्य अग्रणी नहीं होता, उपभोक्ताओं का विस्तार मध्यवर्ग और निचले वर्ग तक हो जाता है। ठीक उसी तरह, जैसे देश में पहले जब गुटखे का उत्पादन शुरू हुआ तो वो बड़े पेक (डिब्बे) में मिलता था और उसके ग्राहक समाज के संपन्न तबके से थे। एक दशक के बाद ही वह छोटे पेक याने पाउच में भी मिलाने लगा और उपभोक्ता समाज का प्रत्येक तबका है| यही बात कामुकता के उद्योग पर भी लागू होती है| गुटखा उद्योग समाज को गुटखे का आदी बनाता है। कामुकता का उद्योग समाज को कामुक बनाता है। आज यही होते हम देख रहे हैं। इस उद्योग में माल स्त्री है और वो इसी का दुष्परिणाम भुगत रही है।

इस कामुक समाज का प्रत्येक अंग, व्यक्ति से लेकर संस्था तक, राजनीति से लेकर धर्म तक, स्त्री से लेकर पुरुष तक, महिलाओं के साथ छेड़छाड़ से लेकर बलात्कार तक की घटनाओं पर, दहेज से लेकर डायन/टोनही कहकर महिलाओं को मार देने तक की घटनाओं पर, प्रेम निवेदन अस्वीकार कर देने से सम्मान के लिए स्त्रियों को मार देने तक की घटनाओं पर, उसी कामुक नजरिये से सोचता है। यही सोच पोलिस को लापरवाह बनाती है। यही सोच 100 में से 70 बलात्कार के अपराधियों को न्यायालय से छुड़ाती है। यही सोच बलात्कारियों को लोकसभा और विधान सभाओं में पहुंचाती है।

इस विडम्बना के बावजूद कि यही समाज तब उद्वेलित नहीं हुआ था, जब मणिपुर की मनोरमा, छत्तीसगढ़ की सोनी शोरेन, आसिया, नीलोफर या भंवरी देवी के ऊपर अत्याचार हुए थे, इस बात का स्वागत किया जाना चाहिये कि कुछ हलचल तो समाज में हुई है। पर, दुखद तो यह है कि इतना बड़ा अवसर मिलने के बावजूद भी, समाज की चिंताएं, फांसी की सजा, नपुंसक बनाने और पोलिस तथा न्यायायिक सुधार पर ही टिकी हैं। उन प्रदर्शनों में न तो व्यवस्था जन्य दोषों पर कोई बल है, न ही समाज को सेक्स के चक्कर में डालकर मूल सामाजिक समस्याओं की तरफ से भटकाने के प्रति कोई चिंता है| प्रधानमंत्री का कहना है कि उस 23 वर्षीय लड़की की कुरबानी बेकार नहीं जायेगी। उस लड़की के माता-पिता का कहना है कि उनकी बेटी की मौत से दिल्ली और देश की महिलाओं की सुरक्षा को लेकर जागरूकता बढ़ेगी। देश की बेटियों को हक और सम्मान मिलेगा। पर, मिलेगा क्या?

देश का एक युवा क्रिकेटर लड़कियों को पटाने के दो तरीके बता रहा है। एक परफ्यूम के विज्ञापन में लड़के की फियान्सी कामुकता से प्रोत होकर लड़के के पिता के कपड़े उतार रही है। योनी को गोरा बनाने से लेकर, योनी को कसा बनाने की क्रीम तक के विज्ञापन बाजार में छाये हैं। नहीं किसी के मुँह में जहर डाल के आप यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वो व्यक्ति उस जहर को अमृत में बदल लेगा। इसी तरह समाज के दिमाग में कामुकता भरकर आप यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वह उसे सदवृति में बदल लेगा।

बुनियादी बात यह है कि समाज की संस्कृति, नैतिकता का वाहक समाज का अग्रणी हिस्सा होता है। आज वही भ्रष्ट है। वही कामुकता में खो गया है। आप अपने मालिक को प्लेब्वॉय क्लब तक ले जाने वाले ड्राईवर से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वह उसकी पहुँच में आ जाने वाली महिला को माल नहीं समझेगा।

विडम्बना यह है कि उस सोच के बारे में कहीं नहीं सोचा गया जो कामुकता को समाज में रोप रही है, बलात्कार, स्त्रियों को माल समझना, जिसके सहउत्पाद (BY PRODUCT) हैं। न इंडिया गेट पर, न लोकसभा में और न हमारे दिमागों में। बिना उस पर विचार किये, विडंबनाओं से भरे इस समाज में स्त्री सुरक्षा पर रोना कितना फलीभूत होगा, यह तो भविष्य ही बताएगा।

Sunday, December 30, 2012

बलात्कार : स्थितियां कैसे बदलेंगी?


सच यह है कि हमारे देश में कानून बनाने, कानून को लागू करने और कोर्ट से निर्णय या आदेश या न्याय या सजा मिलने के बाद उनका क्रियान्वयन करवाने की जिम्मेदारी जिन लोक सेवकों या जिन जनप्रतिनिधियों के कंधों पर डाली गयी है, उनमें से किसी से भी भारत का कानून इस बात की अपेक्षा नहीं करता कि उन्हें-संविधान, न्यायशास्त्र, प्राकृतिक न्याय, मानवाधिकार, मानव व्यवहार, दण्ड विधान, साक्ष्य विधि, धर्मविधि, समाज शास्त्र, अपराध शास्त्र, मानव मनोविज्ञान आदि विषयों का ज्ञान होना ही चाहिये। ऐसे में देश के लोगों को न्याय या इंसाफ कैसे हासिल हो सकता है? विशेषकर तब, जबकि शैशव काल से ही हमारा समाजीकरण एक भेदभावमूलक और अमानवीय सिद्धान्तों की पोषक सामाजिक (कु) व्यवस्था में होता रहा है??? अत: यदि हम सच में चाहते हैं कि हम में से किसी की भी बहन-बेटी, माता और हर एक स्त्री की इज्जत सुरक्षित रहे तो हमें जहॉं एक और विरासत में मिली कुसंस्कृति के संस्कारों से हमेशा को मुक्ति पाने के लिये कड़े कदम उठाने होंगे, वहीं दूसरी ओर देश का संचालन योग्य, पात्र और संवेदनशील लोगों के हाथों में देने की कड़ी और जनोन्मुखी संवैधानिक व्यवस्था बनवाने और अपनाने के लिये काम करना होगा। जिसके लिये अनेक मोर्चों पर सतत और लम्बे संघर्ष की जरूरत है। हाँ तब तक के लिए हमेशा की भांति हम कुछ अंतरिम सुधार करके जरूर खुश हो सकते हैं!

Tuesday, October 2, 2012

स्त्री वहां होती है जहां वो मुक्त हो!


पुरुषों से बात करते समय स्त्रियों की यह यथार्थ फ़ीलिंग होती है कि वह पुरुष उसकी बातों को, उसके संकट को, उसकी असुविधाओं को, उसकी छोटी-छोटी खुशियों या गमों को अनुभूति के धरातल पर समझ रहा है या नहीं। यदि उस स्त्री को यह तत्काल अनुभव हो कि वह पुरुष उसे फ़ील नहीं कर रहा तो वह तुरंत मुकर जाती है, वह उस पुरुष से कोई संपर्क नहीं रखती या फिर भविष्य में अपनी कोई बात उससे शेयर नहीं करती। यही वह जगह है जिसे पुनर्परिभाषित करने की ज़रुरत है कि स्त्री अनुभूति में होती है और स्त्री पुंस-अनुभूति ही चाहती है। उसे पुरुषों की बलिष्ठता से, उसके ताकत से, उसके गांभीर्य से कोई लेना-देना नहीं।
सारदा बनर्जी
आम तौर पर पुरुषों में यह धारणा प्रचलित रही है कि स्त्रियां पुरुषों के मर्दानगी वाले एटीट्यूड, बलिष्ठ भुजाओं वाले ताकतवर शरीर से ही आकर्षित होती हैं, लेकिन यह धारणा सरासर गलत है। यहां हमें अपनी परंपरागत मानसिकता में थोड़ा फेर-बदल करना होगा। स्त्री–हृदय की पड़ताल के लिए यह बेहद ज़रुरी है कि स्त्री-मनोविज्ञान की सही रीडिंग की जाए, स्त्री-मन को सही परिप्रेक्ष्य में समझा जाए। स्त्री न तो पुंस-रूप के प्रति आकर्षित होती है, और नहीं पुंस-रंग के प्रति, नहीं उसकी दौलत के प्रति, ना पुंस-ज्ञान के प्रति और ना ही पुंस-ताकत के प्रति। बल्कि स्त्रियों को पुरुषों में व्याप्त स्त्री-मन को समझने की गहन अनुभूति-क्षमता आकर्षित करती है। पुरुषों से बात करते समय स्त्रियों की यह यथार्थ फ़ीलिंग होती है कि वह पुरुष उसकी बातों को, उसके संकट को, उसकी असुविधाओं को, उसकी छोटी-छोटी खुशियों या गमों को अनुभूति के धरातल पर समझ रहा है या नहीं। यदि उस स्त्री को यह तत्काल अनुभव हो कि वह पुरुष उसे फ़ील नहीं कर रहा तो वह तुरंत मुकर जाती है, वह उस पुरुष से कोई संपर्क नहीं रखती या फिर भविष्य में अपनी कोई बात उससे शेयर नहीं करती। यही वह जगह है जिसे पुनर्परिभाषित करने की ज़रुरत है कि स्त्री अनुभूति में होती है और स्त्री पुंस-अनुभूति ही चाहती है। उसे पुरुषों की बलिष्ठता से, उसके ताकत से, उसके गांभीर्य से कोई लेना-देना नहीं।

दिलचस्प है कि टी.वी. में भी इसी गलत समझ के आधार पर विज्ञापन प्रायोजित किए जा रहे हैं, जिसके नमूने अक्सर देखने को आते हैं। मसलन् पुरुषों के गोरेपन की क्रीम, बॉडी स्प्रे या बाइक के विज्ञापनों में बलिष्ठ ‘मसेल’ (muscle) संपन्न युवकों को विज्ञापन प्रमोट करते दिखाया जाता है और उसके आस-पास सुंदर अल्पवस्त्र पहनी स्त्री या स्त्रियां उसके बदन पर विभिन्न पॉस्चर में हाथ फेरती नज़र आती हैं। साफ़ है कि इसके ज़रिए दर्शकों को यह संदेश दिया जाता है कि स्त्रियां बलिष्ठ और शक्तिशाली युवक के प्रति ही ज़्यादा आकर्षित होती हैं। इसलिए स्त्रियों को आकर्षित करने का फॉर्मूला है-ताकतवर होना।

फ़िल्मों को भी इस तरह के अप-प्रचार का खास श्रेय जाता है। मसलन् सलमान खान, ऋत्विक रोशन, शाहरुख खान, आमिर खान, सैफ-अली खान जैसे बॉलीवुड के हीरो, विलेन को मसेल-पावर के ज़रिए पटकते और हीरोइन और दूसरे कमज़ोर लोगों की सम्मान व मर्यादा-रक्षा करते दिखाया जाता है, तो दूसरी ओर ‘सिक्स-पैकस्’ द्वारा हीरोइन को प्रभावित करते भी दिखाया जाता है। हीरोइन कभी हीरो के बाहुबलि शरीर पर फ़िदा होकर उसे मदहोश नज़रों से देखती हुई गाना गाने लगती हैं तो कभी उसे छूकर आनंद लेती दिखाई जाती है।

वास्तविकता की सही पड़ताल की जाए तो यह देखा जाएगा कि अधिकतर स्त्रियों को पुरुषों के फूले हुए भुजाओं का शरीर आकर्षित ही नहीं करता। वे तो संबंधित नायक का नायिका के प्रति कहे गए अनुभूति-प्रवण वाक्यों से, सहृदयपूर्ण व्यवहार से द्रवित होती हैं। स्त्रियों पर किए गए इस अप-प्रचार में पुंसवाद और पुंस-मानसिकता की अहम भूमिका है। इस गलत मीडिया प्रोपेगेंडा से कुछ स्त्रियां तब तक प्रभावित होती हैं, जब तक वास्तविकता से परिचित नहीं होतीं। वास्तविकता का सामना करते ही स्त्रियों के सामने इस फ़ेक प्रचार का वि-रहस्यीकरण हो जाता है और स्त्रियां हकीकत को पढ़ लेती हैं। इसलिए यथार्थ जीवन में वह इस फ़ेकनेस को फ़ोलो नहीं करतीं। वह पुरुषों से कोई सुझाव नहीं चाहती, बस अपने मन को खोलने का स्पेस चाहती है। जहां उसे यह स्पेस मिलता है-वहां वो सार्थक फ़ील करती है।

कॉलेज या विश्वविद्यालय में पुरुष विद्यार्थियों द्वारा भी स्त्रियों के बारे में यही मिसरीडिंग देखी जाती है। मसलन् अगर किसी लड़की से उसके फ़ेबरेट हीरो का नाम पूछा गया और उसने मशहूर हीरो ‘सलमान खान’ का नाम नहीं लिया तो अधिकतर लड़के अवाक् रह जाते हैं या उस लड़की पर अविश्वास करने लगते हैं, चूंकि उनके अनुसार स्त्रियां ‘मसेल’ और ताकत-संपन्न पुरुषों से ही प्रभावित होती हैं, इसलिए अगर किसी को सलमान पसंद है तो वह ‘मसेल’ की ही वजह से और अगर नहीं है तो वह लड़की ठीक नहीं कह रहीं। यानी ताकतवर पुरुषों को ही स्त्रियों का आदर्श पुरुष होना है, अन्यथा नहीं। यह कायदे से स्त्री-मनोविज्ञान की मिसरीडिंग है।

लेकिन हकीकत बताते हैं कि स्त्रियां उन्हीं पुरुषों के साथ रहना या खुलकर अपनी बात कहना पसंद करती हैं, जो उनकी अनुभूति को समझे चाहे वो ताकतवर हो चाहे न हो। यह भी संभव है कि वह पुरुष उसका पति, पिता, भाई, रिश्तेदार, नातेदार कुछ न हो पर वह केवल हमदर्द हो जहां स्त्री मुक्ति की सांस ले, अपने मन की परतों को खोलकर रख सके। इससे स्पष्ट होता है कि स्त्री वहां होती है जहां वो मुक्त हो और अनुभूति महसूस करे। पुरुषों का बलिष्ठ शरीर कभी भी स्त्रियों को अपील नहीं करता। ना ही स्त्री ताकतवर पुरुषों को देखकर आकर्षित और सम्मोहित होती हैं। स्त्री को यदि आकर्षित करना है तो उसके मन में स्थान पाना होगा और मन में स्थान पाना तभी संभव है जब पुरुष उसकी अनुभूति को स्पर्श करे, स्त्री-हृदय को समझे।
सारदा बनर्जी, कलकत्ता विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं।
स्त्रोत : सारदा बनर्जी ब्लॉग 

Tuesday, January 10, 2012

भ्रष्टाचार, स्त्री और असंवेदनशीलता

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

गत 23 दिसम्बर को एक समाचार पढने में आया कि जिला शिक्षा अधिकारी इन्दौर के कार्यालय में कार्यरत एक महिला लिपिक ने रिश्‍वत ली और वह रंगे हाथ रिश्‍वत लेते हुए पकड़ी भी गयी| इस प्रकार की खबरें आये दिन हर समाचार-पत्र में पढने को मिलती रहती हैं| इसलिये यह कोई नयी या बड़ी खबर भी नहीं है, लेकिन मेरा ध्यान इस खबर की ओर इस कारण से गया, क्योंकि इस खबर से कुछ ऐसे मुद्दे सामने आये जो हर एक संवेदनशील व्यक्ति को सोचने का विवश करते हैं| पहली बात तो यह कि एक महिला द्वारा एक दृष्टिबाधित शिक्षक से उसके भविष्य निधि खाते से राशि निकालने के एवज में रिश्‍वत की मांग की गयी| शिक्षक ने भविष्य निधि से निकासी का स्पष्ट कारण लिखा था कि वह उसके चार वर्षीय पुत्र का इलाज करवाना चाहता है, जो कि लम्बे समय से किडनी की तकलीफ झेल रहा है|

इतना सब पढने और जानने के बाद भी महिला लिपिक श्रीमती पुष्पा ठाकुर का हृदय नहीं पसीजा| श्रीमती ठाकुर ने भविष्य निधि में जमा राशि को निकालने के लिये प्रस्तुत आवेदन को आपनी टेबल पर दो माह तक लम्बित पटके रखा और आखिर में दो हजार रुपये रिश्‍वत की मांग कर डाली, जो एक बीमार पुत्र के पिता के लिये बहुत ही तकलीफदायक बात थी| जिससे आक्रोशित या व्यथित होकर दृष्टिबाधित पिता ने रिश्‍वत देने के बजाय सीधे लोकयुक्त पुलिस से सम्पर्क किया और श्रीमती पुष्पा ठाकुर को रंगे हाथ गिरफ्तार करवा दिया|

इस मामले में सबसे जरूरी सवाल तो यह है कि भविष्य निधि से निकासी के लिये पेश किये जाने वाले आवेदन दो माह तक लम्बित पटके रहने का अधिकार एक लिपिक को कैसे प्राप्त है? यदि आवेदन प्राप्ति के साथ ही आवेदन को जॉंच कर प्राप्त करने, पावती देने और हर हाल में एक सप्ताह में मंजूर करने की कानूनी व्यवस्था हो तो श्रीमती ठाकुर जैसी निष्ठुर महिलाओं को परेशान शिक्षकों या अन्य कर्मियों को तंग करने का कोई अवसर ही प्राप्त नहीं होगा| क्या मध्य प्रदेश की सरकार को इतनी सी बात समझ में नहीं आती है?

दूसरी बात ये भी विचारणीय है कि स्त्री को अधिक संवेदनशील और सुहृदयी मानने की भारत में जो महत्वूपर्ण विचारधारा रही है, उसको श्रीमती ठाकुर जैसी महिलाएँ केवल ध्वस्त ही नहीं कर रही हैं, बल्कि स्त्री की बदलती छवि को भी प्रमाणित कर रही हैं| इससे पूर्व विदेश विभाग की माधुरी गुप्ता जासूसी करके भी स्त्री की बदलती छवि को प्रमाणित कर चुकी है| यदि ऐसे ही हालात बनते गये तो स्त्री के प्रति पुरुष प्रधान समाज में जो सोफ्ट कॉर्नर है, वह अधिक समय तक टिक नहीं पायेगा|

इन हालातों में पुष्पा ठाकुर और माधुरी गुप्ता जैसी महिलाओं द्वारा स्त्री छवि को तहस-नहस किये जाने से सारी की सारी स्त्री जाति को ही आगे से पुरुष की भांति माने जाने का अन्देशा है| यदि ऐसा हुआ तो भारतीय कानूनों में स्त्री को जो संरक्षण मिला हुआ है, उसका क्या होगा?

Tuesday, November 1, 2011

अबूझ बहिन की भाई दूज!


डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
दीपावली के तीसरे दिन भारत में हिन्दुमतावलम्बियों द्वारा भाई दूज का त्यौहार मनाने की परम्परा प्रचलन में है| मुझे याद है कि 1980 तक मेरे गॉंवों में केवल उच्चजातीय परिवारों के अलावा भाई दूज के