पुरुषों से बात करते समय स्त्रियों की यह यथार्थ फ़ीलिंग होती है कि वह पुरुष उसकी बातों को, उसके संकट को, उसकी असुविधाओं को, उसकी छोटी-छोटी खुशियों या गमों को अनुभूति के धरातल पर समझ रहा है या नहीं। यदि उस स्त्री को यह तत्काल अनुभव हो कि वह पुरुष उसे फ़ील नहीं कर रहा तो वह तुरंत मुकर जाती है, वह उस पुरुष से कोई संपर्क नहीं रखती या फिर भविष्य में अपनी कोई बात उससे शेयर नहीं करती। यही वह जगह है जिसे पुनर्परिभाषित करने की ज़रुरत है कि स्त्री अनुभूति में होती है और स्त्री पुंस-अनुभूति ही चाहती है। उसे पुरुषों की बलिष्ठता से, उसके ताकत से, उसके गांभीर्य से कोई लेना-देना नहीं।
सारदा बनर्जी
आम तौर पर पुरुषों में यह धारणा प्रचलित रही है कि स्त्रियां पुरुषों के मर्दानगी वाले एटीट्यूड, बलिष्ठ भुजाओं वाले ताकतवर शरीर से ही आकर्षित होती हैं, लेकिन यह धारणा सरासर गलत है। यहां हमें अपनी परंपरागत मानसिकता में थोड़ा फेर-बदल करना होगा। स्त्री–हृदय की पड़ताल के लिए यह बेहद ज़रुरी है कि स्त्री-मनोविज्ञान की सही रीडिंग की जाए, स्त्री-मन को सही परिप्रेक्ष्य में समझा जाए। स्त्री न तो पुंस-रूप के प्रति आकर्षित होती है, और नहीं पुंस-रंग के प्रति, नहीं उसकी दौलत के प्रति, ना पुंस-ज्ञान के प्रति और ना ही पुंस-ताकत के प्रति। बल्कि स्त्रियों को पुरुषों में व्याप्त स्त्री-मन को समझने की गहन अनुभूति-क्षमता आकर्षित करती है। पुरुषों से बात करते समय स्त्रियों की यह यथार्थ फ़ीलिंग होती है कि वह पुरुष उसकी बातों को, उसके संकट को, उसकी असुविधाओं को, उसकी छोटी-छोटी खुशियों या गमों को अनुभूति के धरातल पर समझ रहा है या नहीं। यदि उस स्त्री को यह तत्काल अनुभव हो कि वह पुरुष उसे फ़ील नहीं कर रहा तो वह तुरंत मुकर जाती है, वह उस पुरुष से कोई संपर्क नहीं रखती या फिर भविष्य में अपनी कोई बात उससे शेयर नहीं करती। यही वह जगह है जिसे पुनर्परिभाषित करने की ज़रुरत है कि स्त्री अनुभूति में होती है और स्त्री पुंस-अनुभूति ही चाहती है। उसे पुरुषों की बलिष्ठता से, उसके ताकत से, उसके गांभीर्य से कोई लेना-देना नहीं।
दिलचस्प है कि टी.वी. में भी इसी गलत समझ के आधार पर विज्ञापन प्रायोजित किए जा रहे हैं, जिसके नमूने अक्सर देखने को आते हैं। मसलन् पुरुषों के गोरेपन की क्रीम, बॉडी स्प्रे या बाइक के विज्ञापनों में बलिष्ठ ‘मसेल’ (muscle) संपन्न युवकों को विज्ञापन प्रमोट करते दिखाया जाता है और उसके आस-पास सुंदर अल्पवस्त्र पहनी स्त्री या स्त्रियां उसके बदन पर विभिन्न पॉस्चर में हाथ फेरती नज़र आती हैं। साफ़ है कि इसके ज़रिए दर्शकों को यह संदेश दिया जाता है कि स्त्रियां बलिष्ठ और शक्तिशाली युवक के प्रति ही ज़्यादा आकर्षित होती हैं। इसलिए स्त्रियों को आकर्षित करने का फॉर्मूला है-ताकतवर होना।
फ़िल्मों को भी इस तरह के अप-प्रचार का खास श्रेय जाता है। मसलन् सलमान खान, ऋत्विक रोशन, शाहरुख खान, आमिर खान, सैफ-अली खान जैसे बॉलीवुड के हीरो, विलेन को मसेल-पावर के ज़रिए पटकते और हीरोइन और दूसरे कमज़ोर लोगों की सम्मान व मर्यादा-रक्षा करते दिखाया जाता है, तो दूसरी ओर ‘सिक्स-पैकस्’ द्वारा हीरोइन को प्रभावित करते भी दिखाया जाता है। हीरोइन कभी हीरो के बाहुबलि शरीर पर फ़िदा होकर उसे मदहोश नज़रों से देखती हुई गाना गाने लगती हैं तो कभी उसे छूकर आनंद लेती दिखाई जाती है।
वास्तविकता की सही पड़ताल की जाए तो यह देखा जाएगा कि अधिकतर स्त्रियों को पुरुषों के फूले हुए भुजाओं का शरीर आकर्षित ही नहीं करता। वे तो संबंधित नायक का नायिका के प्रति कहे गए अनुभूति-प्रवण वाक्यों से, सहृदयपूर्ण व्यवहार से द्रवित होती हैं। स्त्रियों पर किए गए इस अप-प्रचार में पुंसवाद और पुंस-मानसिकता की अहम भूमिका है। इस गलत मीडिया प्रोपेगेंडा से कुछ स्त्रियां तब तक प्रभावित होती हैं, जब तक वास्तविकता से परिचित नहीं होतीं। वास्तविकता का सामना करते ही स्त्रियों के सामने इस फ़ेक प्रचार का वि-रहस्यीकरण हो जाता है और स्त्रियां हकीकत को पढ़ लेती हैं। इसलिए यथार्थ जीवन में वह इस फ़ेकनेस को फ़ोलो नहीं करतीं। वह पुरुषों से कोई सुझाव नहीं चाहती, बस अपने मन को खोलने का स्पेस चाहती है। जहां उसे यह स्पेस मिलता है-वहां वो सार्थक फ़ील करती है।
कॉलेज या विश्वविद्यालय में पुरुष विद्यार्थियों द्वारा भी स्त्रियों के बारे में यही मिसरीडिंग देखी जाती है। मसलन् अगर किसी लड़की से उसके फ़ेबरेट हीरो का नाम पूछा गया और उसने मशहूर हीरो ‘सलमान खान’ का नाम नहीं लिया तो अधिकतर लड़के अवाक् रह जाते हैं या उस लड़की पर अविश्वास करने लगते हैं, चूंकि उनके अनुसार स्त्रियां ‘मसेल’ और ताकत-संपन्न पुरुषों से ही प्रभावित होती हैं, इसलिए अगर किसी को सलमान पसंद है तो वह ‘मसेल’ की ही वजह से और अगर नहीं है तो वह लड़की ठीक नहीं कह रहीं। यानी ताकतवर पुरुषों को ही स्त्रियों का आदर्श पुरुष होना है, अन्यथा नहीं। यह कायदे से स्त्री-मनोविज्ञान की मिसरीडिंग है।
लेकिन हकीकत बताते हैं कि स्त्रियां उन्हीं पुरुषों के साथ रहना या खुलकर अपनी बात कहना पसंद करती हैं, जो उनकी अनुभूति को समझे चाहे वो ताकतवर हो चाहे न हो। यह भी संभव है कि वह पुरुष उसका पति, पिता, भाई, रिश्तेदार, नातेदार कुछ न हो पर वह केवल हमदर्द हो जहां स्त्री मुक्ति की सांस ले, अपने मन की परतों को खोलकर रख सके। इससे स्पष्ट होता है कि स्त्री वहां होती है जहां वो मुक्त हो और अनुभूति महसूस करे। पुरुषों का बलिष्ठ शरीर कभी भी स्त्रियों को अपील नहीं करता। ना ही स्त्री ताकतवर पुरुषों को देखकर आकर्षित और सम्मोहित होती हैं। स्त्री को यदि आकर्षित करना है तो उसके मन में स्थान पाना होगा और मन में स्थान पाना तभी संभव है जब पुरुष उसकी अनुभूति को स्पर्श करे, स्त्री-हृदय को समझे।
सारदा बनर्जी, कलकत्ता विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं।
स्त्रोत : सारदा बनर्जी ब्लॉग
स्त्रोत : सारदा बनर्जी ब्लॉग
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