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Monday, March 11, 2013

मर्दों के लिए औरतों का औरतों द्वारा उत्पीड़न!

उत्पीड़न-औरतों का औरतों द्वारा, मर्दों के लिए
विभांशु दिव्याल

हां, मैं यह खतरा उठा रहा हूं, जान-बूझकर और सोच-समझकर उठा रहा हूं.
खतरा यानी चालू और चर्चित मुहावरों के विरुद्ध वह कहने का जिसे महिला दिवस के ढोल-नगाड़ों के बीच तो कम से कम कोई नहीं सुनना चाहेगा। हो सकता है कि अखबारी पन्नों और मीडियाई बहसों में पुरुष विरोधी आग उगलने वाले दुर्गा, चंडी और काली के महिलावादी मिनी कलि अवतार अपने खड्ग और खापर लेकर मेरे पीछे पड़ जाएं, मुझे महिला विरोधी करार दें, मुझे प्रतिगामी ठहरा दें, किसी कुंठा का शिकार बता दें या फिर मुझे वैचारिक तौर पर दिवालिया घोषित कर दें।

Tuesday, February 26, 2013

हिंदू, सवर्ण, मर्द राष्ट्र

मनीषा पांडेय
इंडिया टुडे की फीचर एडिटर
मनीषा पांडेय






एक काम क्‍यों नहीं करते, इस मुल्‍क को आप हिंदू, सवर्ण, मर्द राष्ट्र घोषित कर दीजिए!

मनीषा पांडेय

"मैं पिछले दस सालों से घर से दूर अकेले रह रही हूं। लेकिन मेरी मां को आज भी लगता है कि मैं घर वापस आ जाऊं। लड़की के अकेले रहने, अकेले घर से बाहर निकलने के ख्‍याल से उन्‍हें बार-बार इलाहाबाद की उस महिला डॉक्‍टर का ख्‍याल आता है, जिसे कुछ लोगों ने रेप करके मार डाला था। दिल्‍ली गैंग रेप के बाद उनका डर और गहरा हो गया है। वो जानती हैं, रहना तो पड़ेगा लेकिन उनके दिल को सुकून नहीं है। उन्‍हें कतई भरोसा नहीं है कि कभी कुछ बुरा नहीं हो सकता। इस मुल्‍क में उन्‍हें अपनी बच्‍ची की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं लगती। वो डर में जीती हैं।"
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"मेरा एक मुसलमान दोस्‍त मुंबई में रहता है। शहर में जब-जब बम फटता है, उससे बहुत दूर बिजनौर में बैठी उसकी मां डर जाती है। वो नास्तिक है। खुदा से उसका कभी याराना नहीं रहा। वो न नमाज पढ़ता है, न रोजे रखता है। लेकिन उसे याद है कि हर नौकरी में लोगों ने उसके नाम के कारण उसे तिरछी निगाहों से देखा है। जब-जब बम फटे, उससे उसकी देशभक्ति का सबूत मांगा है। वो जिस मुल्‍क में पैदा हुआ, उसके दादा, परदादा, दादा के दादा, जिस मुल्‍क में जन्‍मे और जिसकी मिट्टी में दफन हो गए, वो मुल्‍क उससे रोज उसकी देशभक्ति का सबूत मांगता है। दूर देश बैठी उसकी मां रोज डर में जीती है। मां को भरोसा नहीं इस मुल्‍क पर कि वो उसके बच्‍चे की हिफाजत करेगा। इस मुल्‍क ने मां को वो भरोसा कभी नहीं ही दिया।
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मेरा एक और दोस्‍त है। बहुत गरीब दलित परिवार से आता है। उसकी विधवा मां ने लोगों के घरों में झाडू-बर्तन करके उसे पढ़ाया। आज वो पीसीएस ऑफीसर है। लेकिन अब भी वो कभी-कभी उदास होता है क्‍योंकि उसकी सारी पढ़ाई, मेहनत, पोजीशन और पावर के बावजूद लोग उसे आज भी पीठ पीछे चमार का लड़का कहकर बुलाते हैं। उसकी सारी उपलब्धियों का ठीकरा रिजर्वेशन के सिर फोड़ देते हैं। मां अपनी धुंधलाई आंखों से बेटे को देखती है और सोचती है कि इतना पढ़-लिखकर भी आखिर बदला क्‍या। उसकी मां को भी इस मुल्‍क पर भरोसा नहीं। क्‍या चाहिए था जिंदगी में। इज्‍जत और स्‍वाभिमान की दो रोटी। रोटी तो मिली लेकिन इज्‍जत और स्‍वाभिमान नहीं।
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ये सारी माएं तुम्‍हारे महान लोकतांत्रिक मुल्‍क में आज भी डर में जीती हैं। वो मुल्‍क पर भरोसा कर न सकीं, मुल्‍क उन्‍हें भरोसा करा न सका। क्‍योंकि ये मुल्‍क औरतों के, दलितों के, मुसलमानों के स्‍वाभिमान का घर है ही नहीं। एक काम क्‍यों नहीं करते। अपने मुल्‍क को आप हिंदू, सवर्ण, मर्द राष्ट्र घोषित कर दीजिए।
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मेरे मुसलमान दोस्‍त से ये मुल्‍क बार-बार देशभक्ति का सबूत मांगता है। एक औरत से उसका पति उसके शरीर की पवित्रता का सबूत मांगता है। बलात्‍कार की शिकार महिला से पुलिस, कानून, न्‍यायालय तक अच्‍छे चरित्र का सबूत मांगते हैं। एक दलित से उसकी खून की श्रेष्‍ठता का सबूत मांगते हैं। नौकरी और प्रमोशन में योग्‍यता का सबूत मांगते हैं। तुम्‍हारे मुल्‍क में हम सब हर क्षण संदेह के घेरे में हैं। तुम्‍हारे हिंदू, सवर्ण, मर्द राष्ट्र में हमारे लिए न इज्‍जत है, न स्‍वाभिमान।

स्त्रोत/साभार : भड़ास४मीडिया (इंडिया टुडे की फीचर एडिटर मनीषा पांडेय Manisha Pandey के फेसबुक वॉल से.)

Friday, January 11, 2013

ऐसे लोगों का महिलाएं करें बहिष्कार!



नई दिल्ली में गत् 16 दिसंबर की रात एक 23 वर्षीय छात्रा के साथ हुए सामूहिक दुष्कर्म तथा उसकी सिंगापुर में हुई मौत के बाद जहां देश व दुनिया में इसकी घोर निंदा की जा रही है तथा ऐसे बलात्कारियों के विरुद्ध कठोरतम सज़ा का प्रावधान किए जाने की मांग की जा रही है वहीं देश के कई तथाकथित संत-महात्मा, राजनीतिज्ञ, व जाने-माने लोग इस अति संवेदनशील व गंभीर विषय पर अपने तरह-तरह के हास्यास्पद व विवादास्पद बयान देने से बाज़ नहीं आ रहे हैं। विभिन्न प्रकार की नकारात्मक बातें भी की जा रही हैं। इस क्रम में जहां राष्ट्रीय स्वयं सेवक के प्रमुख एवं सांस्कृतिक राष्ट्रवादी विचारधारा के स्वयंभू संर
क्षक मोहन भागवत ने देश की शहरी संस्कृति व सभ्यता पर निशाना साधते हुए यह कहा था कि बलात्कार इंडिया में अधिक होते हैं भारत में नहीं। गोया उनके कहने का सीधा तात्पर्य यही था कि आधुनिकता व प्रगतिशीलता के इस युगा में भी देश की महिलाएं कल्पना चावला व सुनीता विलियम्स तथा किरण बेदी जैसी शिक्षित महिलाओं को अपना आदर्श मानने के बजाए आज भी गांव की सीधी-सादी, भोली-भाली व खेती, पशुपालन व चूल्हा-चक्की में लगी रहने वाली महिलाओं का ही अनुसरण करें। 

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के ही दूसरे सदस्य तथा मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के नेता व प्रदेश के एक प्रमुख मंत्री विजयवर्गीय ने तो दिल्ली गौंगरेप के संदर्भ में यहां तक कह डाला कि यदि लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन होगा तो सामने रावण आ ही जाएगा। गोया उन्होंने महिलाओं को सीमाओं के भीतर रहने की हिदायत दी। भागवत व विजयवर्गीय दोनों के बयानों में का$फी समानता है। यह तथाकथित सांस्कृतिक राष्ट्रवादी आज भी रूढ़ीवादी सोच में जकड़े हुए हैं तथा महिलाओं को भी मात्र बंधक, गुलाम या दासी बनाकर रखे जाने के ही पक्षधर हैं। तभी तो मोहन भागवत कई जगहों पर अपने स्वागत के दौरान महिलाओं से अपने चरण धुलवाते देखे गए हैं। यानी नारी को दासी बनाए रखने की यही प्राचीन प्रथा इन्हें सुहाती है। औरतों का स्कूल-कॉलेज जाना, शिक्षित होना, आत्मनिर्भर होना, आधुनिकता के मार्ग पर चलना शायद इन्हें रास नहीं आता। इसके बावजूद दुर्गावाहिनी तथा अन्य महिला प्रकोष्ठ बनाकर यही संघ महिलाओं में सांप्रदायिकता का ज़हर भरने तथा इन्हें आत्मरक्षा के नाम पर सांप्रदायिक दंगों में सक्रिय होने का प्रशिक्षण देने से भी बाज़ नहीं आता।

अब एक और धर्म व अध्यात्म का कथित पाठ पढ़ाने वाले संत आसाराम ने इसी गैंगरेप कांड के संदर्भ में कुछ ऐसी निरर्थक व महिलाओं के प्रति असम्मानजनक बातें की हैं जिससे न केवल महिलाओं को आसाराम बापू के वक्तव्य से घोर निराशा हाथ लगी है बल्कि इससे उनकी भी महिला विरोधी मानसिकता का सा$फ पता चल गया है। $गैरतलब है कि आसाराम स्वयं भी कई बार महिला उत्पीडऩ तथा व्यभिचार संबंधी मामलों में मीडिया व समाचार पत्रों के निशाने पर रह चुके हैं। परंतु उनके ऊंचे रुसू$ख तथा धनबल व बड़े पैमाने पर उनके अनुयायी होने के चलते बार-बार वे ऐसी घटनाओं पर पर्दा डालने में सफल रहे हैं। परंतु अपनी महिला विरोधी घटिया मानसिकता से वे बाज़ आने का अब भी नाम नहीं लेते। दिल्ली कांड के संदर्भ में संत आसाराम की राय है कि मृतक व पीडि़ता लडक़ी को उन बलात्कारी दरिंदों में से किन्हीं दो को अपना भाई बना लेना चाहिए था। उनके पैर पकडक़र उनसे सहायता की गुहार करनी चाहिए थी। इतना ही नहीं बल्कि यह कथित संत यह भी $फरमाते हैं कि तालियां दोनों हाथों से बजती हैं। गोया इस दरिंदगीपूर्ण घटना में मृतक लडक़ी भी बलात्कारियों व कातिलों के साथ-साथ बराबर की दोषी थी।

ऐसा मानना है घोर निराशा फैलाने वाले आसाराम का। वे यह भी कहते हैं कि लडक़ी को घटना के समय ईश्वर का नाम लेना चाहिए था। इतना ही नहीं बल्कि एक ओर जबकि पूरा देश इस हादसे से स्तब्ध है, पूरे देश में इस घटना को लेकर व्यापक रूप से गुस्से की लहर दौड़ती देखी जा रही है तथा पूरा देश एक स्वर से कठोरतम कानून बनाने की मांग कर रहा है। यहां तक कि ऐसे बलात्कारियों को फांसी की सज़ा दिए जाने की मांग तक ज़ोर पकड़ रही है ऐसे में संत आसाराम फांसी जैसे सख्त कानून के विरुद्ध खड़े हो गए हैं। उनकी हमदर्दी फांसी पर लटकाए जाने वाले दुष्कर्मियों के परिवारजनों के साथ है। वे कहते हैं कि जिसको फांसी दी जाती है उसकी पत्नी, मां-बाप, बहन-भाई और बच्चे जीते-जी मर जाते हैं। 

बहरहाल, आसाराम के इस विवादास्पद बयान के बाद पूरे देश में उनके विरुद्ध आक्रोश फैल गया है। यहां तक कि उनके गृह राज्य गुजरात में उनके विरुद्ध कई स्थानों पर प्रदर्शन किए गए तथा अहमदाबाद के यशोदानगर क्षेत्र में प्रदर्शनकारियों द्वारा उनका पुतला भी फंूका गया। अहमदाबाद में ही उनके पोस्टर में उनके मुंह पर कालिख पोती गई। बिहार के मुजफ्फरपुर में उनके इसी वक्तव्य हो लेकर एक अदालत में महिलाओं के स्वाभिमान पर सीधा कुठाराघात करने संबंधी मुकद्दमा भी दर्ज हुआ है। परंतु अपने कटु एवं विवादित तथा महिला विरोधी वचनों को संभवत: ईश्वरीय वचन समझने वाले इस विवादित तथाकथित संत को अपनी आलोचना सुनना पसंद नहीं आया। और उपरोक्त विवादित बयान दिए जाने के बाद तथा इन बयानों पर आने वाली प्रतिक्रियाएं, आलोचनाएं, तथा अपने विरुद्ध हो रहे व्यापक आक्रोश व प्रदर्शन की

खबरें सुनने के बाद उन्होंने अपने अगले ‘प्रवचन’ में अपने आलोचकों को कुत्ता तक कह डाला। उन्होंने कहा कि ‘जब हाथी चलता है तो पहले एक कुत्ता भौंकता है, फिर दूसरा भौंकता है और जल्द ही पड़ोस के सभी कुत्ते भौंकने लगते हैं। यदि हाथी कुत्तों के पीछे दौड़ता है तो कुत्तों का महत्व बढ़ता है। इस वजह से हाथी पीछे नहीं मुड़ता। बल्कि आगे ही बढ़ता जाता है। लिहाज़ा मुझे क्यों कुत्तों के पीछे लगना चाहिए’। आसाराम ने अपने अति निम्रसतरीय प्रवचन को यहीं पर नहीं रोका बल्कि उन्होंने सख्त कानून बनाए जाने के संदर्भ में एक ऐसा वाक्य प्रयोग किया जिसमें औरत के साथ उन्होंने ‘बाज़ारू’ शब्द का भी इस्तेमाल किया। उन्होंने कहा कि लोग एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए कानून का दुरुपयोग कर सकते हैं और इसके लिए ‘बाज़ारू’ औरतों का इस्तेमाल भी कर सकते हैं। 

पूरे देश को भी भलीभांति मालूम है कि बच्चों की हत्याओं, संपत्ति विवाद, अनधिकृत रूप से अपने आश्रम के लिए ज़मीन पर कब्ज़े किए जाने तथा व्याभिचार संबंधी अनेक मामलों में आसाराम तथा उनके पुत्र दोनों के ही नाम कई बार उजागर हो चुके हैं। परंतु अपने ‘लंबे हाथों’ के चलते बार-बार इनके विरुद्ध कई मामले रफा-दफा हो गए तथा कई अब भी विचाराधीन हैं। सवाल यह है कि ऐसा संत आखिर इतना संदिग्ध, विवादित तथा बड़बोला होने के बावजूद भी क्योंकर लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है? यदि हम इस विषय पर गहरी नज़र डालें तो इसमें भी हमें सबसे अधिक दोष महिलाओं का ही मिलेगा। महिला विरोधी मानसिकता रखने वाले ऐसे एक आसाराम ही नहीं बल्कि तमाम तथाकथित संतों, सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों, रूढ़ीवादियों तथा महिला विरोधी मानसिकता रखने वाले लोगों को दरअसल महिलाएं ही प्रोत्साहित करती हैं।

इनके सत्संगों, प्रवचनों तथा इनकी सभाओं में जाकर महिलाएं ही बेवजह तथा बिना किसी बात को समझे-बूझे हुए कई महिलाएं नाचने लगती हैं तो कभी तालियां बजाती रहती हैं। महिला विरोधी मानसिकता रखने वाले तथा राक्षसी प्रवृति के ऐसे तमाम लोगों को महिलाएं भी भगवान समझने लगती हैं। इतना ही नहीं तमाम अंधभक्त महिलाएं तो इनके चरणों के धुले हुए पानी को भी अमृत समझकर पी जाती हैं। तमाम महिलाएं इनके आश्रमों की दासियां बने रहने में स्वयं को गौरवान्वित महसूस करती हैं। ऐसे लोगों के चित्र अपने घरों के मंदिरों में महिलाएं इस प्रकार स्थापित करती हैं, गोया भगवान या किसी देवी-देवता का चित्र स्थापित कर दिया गया हो। 

ज़ाहिर है अपना इतना अधिक आदर, मान-सम्मान व असीमित सत्कार होता देख आसाराम क्या कोई भी व्यक्ति स्वयं को ईश्वर, भगवान या देवता ही समझने लगेगा। और उसके पश्चात वह अपनी मानसिकता के अनुरूप जब और जो चाहेगा बकवास करता रहेगा और यह उम्मीद भी रखेगा कि उसके मुंह से निकले प्रत्येक अपशब्द को भी ईश्वरीय वचन के रूप में हमारे अंधभक्त स्वीकर करें। और जो इनकी आलोचना करे वह ‘कुत्ते’ के समान है। महिलाओं को नीचा दिखाने वाले ऐसे महापुरुष अपनी तुलना हाथी जैसे जानवर से भी करने लग जाते हैं। उनके पूरे वक्तव्य में मुझे तो सुखद केवल यही लगा कि उन्होंने भले ही हाथी से अपनी तुलना की परंतु कम से कम अपने जानवर होने का एहसास तो उन्होंने व्यक्त कर ही दिया। अपने आलोचकों को उनहोंने कुत्तों की संज्ञा भी ज़रूर दी परंतु संभवत: उन्हें कुत्तों की वफादारी का ज्ञान नहीं है। कुल मिलाकर देश की महिलाओं द्वारा ऐसे लोगों से न केवल सचेत रहने बल्कि इनका बहिष्कार करने तथा जगह-जगह पर इनका प्रबल विरोध किए जाने की सख्त ज़रूरत है। दरअसल यह वही पीर हैं जिनके बारे में यह कहा गया है कि औरतों का पीर कभी भूखा नहीं मरता। लिहाज़ा अब औरतों को संगठित होकर ऐसे निचली मानसिकता रखने वाले तथाकथित पीरों को यह बता देना चाहिए कि अब औरतें मानसिक रूप से शिक्षित व जागरूक हो चुकी हैं तथा अब वह किसी ऐसे ढोंगी संतों, महात्माओं एवं कथित राष्ट्रवादियों के अध्यात्मवाद या राष्ट्रवाद के ढोंगपूर्ण झांसों में नहीं आने वाली। स्त्रोत : Thursday 10 January 2013 | क्रांति 4 पीपुल 
लेखिका : निर्मल रानी, अंबाला में रहनेवाली निर्मल रानी पिछले पंद्रह सालों से विभिन्न अखबारों में स्वतंत्र पत्रकार एवं टिप्पणीकार के तौर पर लेखन कर रही हैं.