उदारीकरण से देश में सूचना क्रांति, संचार, परिवहन, चिकित्सा आदि क्षेत्रों में सुधार अवश्य हुआ है किन्तु फिर भी आम आदमी की समस्याओं में बढ़ोतरी ही हुई है| आज भारत में आम नागरिक की जान-माल-सम्मान तीनों ही सुरक्षित नहीं हैं| ऊँचे लोक पदधारियों को सरकार जनता के पैसे से सुरक्षा उपलब्ध करवा देती है और पूंजीपति लोग अपनी स्वयं की ब्रिगेड रख रहे हैं या अपनी सम्पति, उद्योग, व्यापार की सुरक्षा के लिए पुलिस को मंथली, हफ्ता या बंधी देते हैं| छोटे व्यावसायी संगठित रूप में अपने सदस्यों से उगाही करके सुरक्षा के लिए पुलिस को धन देते हैं और पुलिस का बाहुबलियों की तरह उपयोग करते हैं| अन्य इंस्पेक्टरों-अधिकारियों की भी वे इसी भाव से सेवा करते हैं| व्यावसायियों को भ्रष्टाचार से वास्तव में कभी कोई आपति नहीं होती, जैसा कि भ्रष्टाचार के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधिपति ने कहा है, वे तो अपनी वस्तु या सेवा की लागत में इसे शामिल कर लेते हैं और इसे अंतत: जनता ही वहन करती है|
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Tuesday, March 5, 2013
Saturday, April 28, 2012
न्याय से वंचित होने पर क्या करें ?
भारत में उच्च स्तरीय न्यायाधीशों के लिए स्वयं न्यायपालिका ही नियुक्ति का कार्य देखती है और उस पर किसी बाहरी नियंत्रण का नितांत अभाव है|फलत: जनता को अक्सर शिकायत रहती है कि उसे न्याय नहीं मिला और उतरोतर अपीलों का लंबा सफर करने बावजूद आम नागरिक वास्तविक न्याय से वंचित ही रह जाता है| दूसरी ओर सरकारें कहती हैं कि न्यायपालिका स्वतंत्र है अतः वह उसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती है| स्वतंत्र होने का अर्थ स्वच्छंद होना नहीं है और लोकतंत्र में जनता द्वारा चुनी गयी सरकारें न्यायपालिका सहित अपने प्रत्येक अंग के स्वस्थ संचालन के लिए जिम्मेदार हैं | आखिर न्यायाधीश भी लोक सेवक हैं और वे भी अपने कृत्यों के लिए जवाबदेय हैं|
Wednesday, March 28, 2012
जब राज्य में न्याय का चरित्र ही न हो!
जब राज्य में न्याय का चरित्र ही न हो!
----सचिन कुमार जैन , मध्यप्रदेश
इसमें कोई दो मत नहीं हैं कि हकों की बात अब ज्यादातर टुकड़ों-टुकड़ों में होती है, और हकों के लिए संघर्ष भी टुकड़ों-टुकड़ों में ही है। इस पूरी बहस में जनकल्याण की अवधारणा महत्वपूर्ण मानी जाने लगी है, परन्तु यह बहस गायब है कि क्या न्याय के बिना अधिकार मिल पाना संभव है? अब हर लड़ाई के जवाब में सरकार एक नीति और एक कानून बना देती है। ये सारे कानून बिना व्यवस्था, बिना प्रशासनिक और आर्थिक ढांचे और बिना जवाबदेहिता के लागू किया जाते है। आखिर में हम सब उन कानूनों के सही क्रियान्वयन के लिए लड़ रहे होते हैं। एक तरह से हम एक जाल में फंसा दिए जाते हैं। और राज्य अपनी सत्ता हो मजबूत करते जाता है। ऐसे में हमें पुनः यह विश्लेषण करने की जरूरत है कि जिन अधिकारों के लिए जन संघर्षों की मेहनतकश प्रक्रिया चल रही है, उनके हनन की जड़ें राज्य व्यवस्था में कहाँ और कितनी गहराई तक जाती हैं।
इस देश में 3000 से ज्यादा आन्दोलन चल रहे हैं, 6 लाख गाँव के देश में 14 लाख स्वैच्छिक संस्थाएं काम कर रही हैं, दुनिया के सबसे ज्यादा प्रगतिशील कानून यहाँ बने हुए हैं, और इसे सबसे बड़ा जीवित लोकतंत्र माना जाता है। उस देश में हिरासत में 9000 से ज्यादा मौतें होती हैं, 15 लाख बच्चों की मौतें कुपोषण के कारण होती हैं। नीतियां बनना भी जारी हैं। ऐसे में हम यह सवाल कैसे भूल सकते हैं कि व्यवस्था में वह बदलाव क्यों नहीं आ रहा है, जिससे लोगों की जिन्दगी और जीवन स्तर में बदलाव आये। मध्यप्रदेश की जेलों में 15777 और महाराष्ट्र की जेलों में 15784 ऐसे लोग बंद हैं, जिनके मामलों पर सुनवाई चल रही है। उन्हें जमानत का भी अधिकार नहीं दिया गया है। इनमे से कई ऐसे हैं जो उस अपराध के लिए मुकर्रर सजा के ज्यादा समय जेलों में बिता चुके हैं। हमारे यहाँ न्याय की प्रक्रिया अन्याय के रास्ते पर अक्सर ही चल पड़ती है, क्योंकि उसे विशेष अधिकार तो हैं, पर न्याय देने की जवाबदेहिता का अभाव रखा गया है शायद यह भी राज्य की सोची समझी व्यवस्था है।
हमें सबसे पहले अपने आप से यह जरूर पूछना चाहिए कि समाज की समस्या क्या है और उन्हें हल करने के लिए किस तरह के बदलाव की जरूरत है? आज का दौर नीतियों और कानूनों का दौर है। सरकार समस्याओं के निपटान के लिए नीतियां और कानून बनाती है, ये कानून पहले कागज पर आते हैं। इन्हें समाज में तभी उतारा जा सकता है जब उन नीतियों और कानूनों के क्रियान्वयन के लिए पूरा ढांचा खड़ा किया जाए, बजट आवंटित किया जाए, पूरे लोगों की नियुक्ति की जाए, आधारभूत ढांचा खड़ा किया जाए। सरकार कह सकती है कि हम स्वास्थ्य का अधिकार दे रहे हैं, परन्तु डाक्टर नहीं है, अस्पताल नहीं हैं और दवाओं के लिए बजट नहीं है, तो क्या स्वास्थ्य का अधिकार मिल पायेगा? सरकार ने शिक्षा के अधिकार का कानून बना दिया है, परन्तु गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने के लिए लाखों प्रशिक्षित शिक्षकों, स्कूलों में कमरों, शौचालयों, नई तकनीकों की जरूरत है। इस जरूरतों को पूरा करने के लिए जितने बजट की जरूरत है, सरकार उससे आधा भी आवंटित नहीं कर रही है, ऐसे में क्या गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अधिकार हासिल हो पायेगा?
हमें यह समझना होगा कि न्याय सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में हमेशा नजर आना चाहिए। अधिकारों को न्यायपूर्ण व्यवस्था से अलग हटा कर नहीं देखा जा सकता है। यदि राज्य अपने मूल चरित्र में न्यायपक्षीय नहीं है, तो वहां लोगों के अधिकार भी सुरक्षित नहीं हो सकते हैं। और यदि हमारे राज्य या समाज में लगातार अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है तो यह मान लेना चाहिए की राज्य न्याय-केन्द्रित नहीं है, वहां नीतियों और कानून का बनना राज्य से जनपक्षीय होना महज एक अभिनय है, इससे ज्यादा कुछ और नहीं! हमारे कानून में यह कहीं नहीं लिखा होता है कि कानून के प्रावधानों होने की स्थिति में सरकार कोई समझौता नहीं करेगी और ऐसी कार्यवाही करेगी जिससे व्यक्ति को केवल अधिकार नहीं, बल्कि न्याय भी मिले। भारत में सूचना के अधिकार का कानून लागू है। यह कानून कहता है कि यदि सूचना नहीं दी गयी तो जिम्मेदार अधिकारी पर अर्थ दंड लगाया जाएगा ताकि फिर से सूचना के अधिकार का उल्लंघन न हो और व्यक्ति को सूचना भी दिलाई जायेगी। यहाँ सूचना मिलना अधिकार की बात है और ऐसे कदम उठाये जाना जिनसे अधिकार हनन करने वाले को दंड मिले, वह न्याय का पक्ष है। जब तक न्याय के पक्ष को नजरंदाज किया जाता रहेगा, तब तक अधिकारों की बात किसी धोखाधड़ी से कम नहीं है।
न्याय और अधिकार की बात का जुड़ाव केवल न्यायपालिका से ही नहीं है। न्याय एक चरित्र है। जैसे बहादुरी एक चरित्र है, मिलनसार होना एक चरित्र है, समानता का व्यवहार एक चरित्र है, प्रकृति का सम्मान करने की भावना एक चरित्र है, उसी तरह न्याय भी एक चारित्रिक सच्चाई है, न्याय केवल अदालत में नहीं होता। न्याय आता है उस पड़ोस से, जिसने आपके साथ अन्याय होते देखा है और उसके खिलाफ वह आपके साथ खड़ा होता है। न्याय आता है उस अधिकारी और तंत्र से जहाँ आप अपने हक के लिए जाते हैं, जैसे उस पुलिस थाने के अधिकारियों और कर्मचारियों से, जो आपके हक को समझे और आपके साथ ऐसा व्यवहार करें, जिससे आपका मनोबल और व्यवस्था में विश्वास बरकरार रहे। यदि उसका चरित्र न्यायिक नहीं है तो वह आपके साथ न्यायपूर्ण व्यवहार नहीं करेगा और आपका केस इस तरह से दर्ज नहीं किया जाएगा, जिससे आपको आगे चल कर न्याय मिल सके, इसके बाद आप अदालत में जाते हैं। वहां पुलिस जो प्रकरण बनाती है, उसी के आधार पर कार्यवाही होती है न! इसलिए न्याय केवल अदालत में नहीं मिल सकता है। फिर आपके प्रकरण को लोगों के सामने ले जाता है मीडिया। यदि उसके चरित्र में न्याय नहीं है, तो वह आपके हक हो महसूस नहीं कर सकता न ही उस नजरिए से मामले की जांच पड़ताल कर सकता है, इसके बाद यदि इस तरह के हकों के उल्लंघन के बहुत से प्रकरण हैं, परन्तु इस पूरी प्रक्रिया में वे न्याय के नजरिए से नहीं देखे जाते हैं तो उस पर आगे बनने वाली नीति में भी न्याय नहीं होगा। और जहाँ न्याय चरित्र में नहीं है, वहां व्यवस्था का हर हिस्सा अन्याय का पहरेदार हो जाता है। या तो न्याय होगा या अन्याय होगा, या तो भ्रष्टाचार होगा या भ्रष्टाचार नहीं ही होगा! बीच का कोई रास्ता नहीं है। कोई यह नहीं कह सकता कि 40 प्रतिशत न्याय हो रहा है या व्यवस्था पूरी भ्रष्ट नहीं है केवल 50 प्रतिशत भ्रष्ट है। यह विश्लेषण बिलकुल गलत है कि कलेक्टर साहब तो ईमानदार हैं, भ्रष्ट तो उनके आफिस के अधिकारी हैं, मुख्यमंत्री तो ईमानदार हैं, उनके मंत्री भ्रष्ट हैं या फिर प्रधानमन्त्री बहुत अच्छे और ईमानदार हैं परन्तु उनका मंत्रिमंडल भ्रष्ट है! इस तरह के तर्क लोकतंत्र, समाज और संविधान के लिए बेहद खतरनाक हैं।
ब्रिटेन ने भारत पर 200 वर्षों तक शासन किया- एक उपनिवेश की तरह अपने साम्राज्य के एक हिस्से की तरह, एक गुलाम की तरह। वे भारत व्यापार के लिए आये थे और धीरे धीरे व्यवस्था - राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक के भीतर घुसते चले गए। उन्होने भी कानून बनाए, नीतियां बनायी और व्यवस्था के लिए नियम बनाए। निःसंदेह उन्होने वे कानून और नियम लोगों के कल्याण और उन्हें न्याय देने के लिए नहीं बनाए थे। उन्होंने कानून इसलिए बनाए ताकि ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ उठने वाली आवाजों का दमन किया जा सके। वे चाहते थे कि लोग बोलें नहीं, और राज्य का भय उनके मन में रहे, इसके लिए उन्होने 1861 में पुलिस कानून बनाया और एक ऐसी व्यवस्था खड़ी की जिसका काम कानून-व्यवस्था के नाम पर समाज पर नियंत्रण करना था। उन्होने इसी साल वन विभाग की स्थापना करके में उस जंगल और प्राकृतिक संसाधनों को राज्य की संपत्ति बना दिया, जिस पर हजारों सालों से समुदाय का मालिकाना रहा। और एक सरकारी विभाग की स्थापना से जंगल के मालिक, अचानक से ही अप्रत्याशित तरीके से अतिक्रमणकारी घोषित कर दिए गए।
उपनिवेशवाद में लोगों के लिए अवसर और स्थान इतने कम कर दिए कि लोगों के लिए सांस लेने के लिए भी मौके कम पडने लगे। उपनिवेशवादी सत्ता के लिए कानून के राज के मायने और मकसद कुछ दूसरा ही रहता है। इसके जरिये वे स्थानीय समाज के ऊपर अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए करते हैं न्याय और कल्याण के लिए नहीं। वे समाज की ताकत को तोडने के लिए इसका उपयोग करते हैं, ताकि साम्राज्यवादी हितो के खिलाफ लोग आवाज ना उठा सकें। वहां असहमति और विरोध को मान्यता नहीं मिलती है, यह अपराध माना गया। यह याद रखिये एक देश दूसरे देश पर कब्जा इसीलिए करना चाहता है ताकि वहां के संसाधनों को लूटा जा सके, समाज का शोषण किया जा सके, इसके अलावा उपनिवेशवाद का कोई और मकसद हो ही नहीं सकता है। ऐसी स्थिति में यह अपेक्षा करना बेमानी है कि ब्रिटेन जैसे देश भारत में जीवन स्तर के मापदंड तय करते, मानवाधिकार और कल्याणकारी व्यवस्था की भूमिका बांधते। स्वाभाविक है कि इन परिस्थितियों में शासक (यहाँ राज्य नहीं) मानव अधिकारों के हनन के लिए मुख्य अपराधी माना जाना चाहिए। वह शासक राज्य के शोषणकारी चरित्र की रूपरेखा गढ़ता है। और जब हम यहाँ न्याय की बात करते हैं तब इसका मतलब होता है उस खास तबके को संरक्षण दिया जाना जो शासक को भारत में उसकी सत्ता बनाये रखने में सहयोग करता रहा।
ब्रिटेन ने हजारों उन भारतीयों को फांसी पर टांग दिया या सजायाफ्ता बना दिया जो न्याय, गरिमा, अधिकार और स्वाधीनता की मांग करते थे। जो उपनिवेशवाद से मुक्ति की मांग कर रहे थे। हालांकि उन्होंने न्यायपालिका की व्यवस्था बनायी, पर उसका मकसद न्याय देना नहीं, बल्कि न्याय के सिद्धांतों को दरकिनार करते हुए उन लोगों को सजा देना था जो ब्रिटिश राजसत्ता के खिलाफ खड़े हो रहे थे, जो स्वतंत्रता चाहते थे। उन लोगों की आँखें फोड़ने का काम करने के लिए जो गुलामी से मुक्ति का सपना देख रहे थे।
Wednesday, December 21, 2011
यह भी जानें
क्या आप जानते हैं कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा २ (घ) में परिवाद की दी गयी परिभाषा के अनुसार मजिस्ट्रेट द्वारा कार्यवाही किये जाने की दृष्टि से लिखित या मौखिक में किये गए अभिकथन से है कि किसी व्यक्ति ने , चाहे वह ज्ञात हो या अज्ञात , अपराध किया है | किन्तु व्यवहार में मजिस्ट्रेट मौखिक परिवाद पर कार्यवाही नहीं करते हैं |इसी प्रकार प्रसंज्ञान अपराध का लिया जाता है न कि अपराधी का किन्तु मजिस्ट्रेट एवं पुलिस अज्ञात ( अपराधी के) नाम की सूचना देने पर कार्यवाही नहीं करना चाहती है |दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा ४४ (२) के अनुसार कोई मजिस्ट्रेट किसी भी समय अपनी स्थानीय अधिकारिता के भीतर किसी ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है जिसकी गिरफ़्तारी के लिए वह उस समय और उन परिस्थितियों में वारंट जारी करने के लिए सक्षम है | राजस्थान में सामान्य नियम (दाण्डिक) में यह प्रावधान किया गया है कि मजिस्ट्रेट बिना पूर्वानुमति के मुख्यालय नहीं छोडेगा और वह हर समय उपलब्ध रहेगा | अन्य राज्यों में भी लगभग समानांतर प्रावधान हैं |आपराधिक न्याय तंत्र में पुलिस पहिये हैं तो मजिस्ट्रेट उसकी धुरी है |हमारी संसद का भी मंतव्य इस सन्दर्भ में बड़ा स्पष्ट रहा है और उसने दण्ड प्रक्रिया संहिता में एकल शब्द “मजिस्ट्रेट” प्रयोग किया है और कहीं भी “मजिस्ट्रेट न्यायालय” शब्द का प्रयोग नहीं किया है| जबकि इसके विपरीत सिविल प्रक्रिया संहिता में “न्यायालय” शब्द का प्रयोग किया गया है| एक लोक सेवक मजिस्ट्रेट हमेशा ड्यूटी पर रहता है जबकि न्यायालय के लगने का निर्धारित समय है |
यह स्पष्ट है कि कानून में गिरफ़्तारी आदि के लिए जिस प्रकार पुलिस शब्द प्रयोग किया गया है न कि पुलिस थाने का उसी प्रकार मजिस्ट्रेट या न्यायाधीश शब्द का प्रयोग किया गया है अर्थात गिरफ़्तारी करने , जमानत लेने , प्रसंज्ञान लेने आदि कार्य, यथा स्थिति, मजिस्ट्रेट या न्यायधीश कभी भी कर सकता है उसके लिए न्यायालय लगा होना आवश्यक नहीं है | दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 91 (१) के अनुसार न्यायालय किसी ऐसी चीज या दस्तावेज जिसे पेश किया जाना आवश्यक या वांछनीय है तो उसे पेश करने के लिए आदेश जारी कर उसे पेश करने के लिए या उपस्थित होकर पेश करने के लिए आदेश जारी कर सकता है| किन्तु अनुसंधानकर्ता पुलिस अधिकारी रुचिहीन प्रकरणों में लंबे समय तक कार्यवाही नहीं करते और मजिस्ट्रेटों द्वारा भी उनके विरुद्ध इस धारा के अंतर्गत कोई कार्यवाही नहीं की जाती है | मात्र अपने अहम की तुष्टि के लिए आपवादिक प्रकरणों में ही पुलिस के विरुद्ध इस धारा की शक्तियों का प्रयोग किया जाता है जिससे पुलिस अपने आपको सर्वोपरि समझती रहती है और कानून का उल्लंघन करने का उसका दुस्साहस बढता रहता है |
पाश्चात्य देशों में जमानत को अधिकार बताया गया है किन्तु हमारे यहाँ तो धन खर्च करके स्वतंत्रता खरीदनी पड़ती है | उत्तर प्रदेश में तो सत्र न्यायाधीशों द्वारा अग्रिम जमानत लेने का अधिकार ही दिनांक ०१.०५.१९७६ से छीन लिया गया है और इस लोक तंत्र में स्वतंत्रता के अधिकार को एक फरेब व मजाक बनाकर रख दिया है |एक तरफ भारतीय कानून के अनुसार एक व्यक्ति तब तक निर्दोष है जब तक कि उसे उचित अन्वीक्षण में दोषी नहीं पा लिया जाता है तथा दोष सिद्ध व्यक्ति को भी सदाचार के वचन पर परिवीक्षा पर छोड़ा जा सकता है व दूसरी ओर एक अन्वीक्षण के अधीन अभियुक्त, जिसे दोषी नहीं ठहराया गया हो, को भी जमानत से इंकार कर दिया जाता है| यहाँ तक कि एक अभियुक्त को राजीनामे द्वारा लोक अदालत में भी मुक्ति दे दी जाती है| इस मायाजाल से जमानत के पीछे छिपे रहस्य को समझा जा सकता है| यह देखा गया है कि कई बार जब न्यायालय में कोई जमानत आवेदन नहीं आता तो न्यायधीश और उनका स्टाफ उदास हो जाता है | यह भारत में न्यायिक दुष्चक्र है |
Tuesday, November 22, 2011
क्या भारत में न्यायिक कार्मिकों के लिए आचरण की कोई सीमा या संहिता न हो ?
अमेरिकी न्यायिक कर्मचारियों के लिए आचार संहिता
अमेरिका में न्यायिक कार्मिकों के लिए निम्नानुसार आचार संहिता लागू है जबकि भारत में ऐसा कोई दस्तावेज नहीं है| न्यायिक सुधार की दिशा में प्रथम कदम उठाने के लिए इस संहिता को आदर्श संहिता का दर्जा देकर इसे कानूनी रूप दिया जा सकता है| मेरा यह दृढ विश्वास है कि इस संहिता को लागू करने से, कम से कम, न्यायालयों में मंत्रालयिक स्तर पर भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता पर तो प्रभावी नियंत्रण स्थापित किया जा सकता है|
सिद्धांत :१ न्यायिक कर्मचारियों को न्यायपालिका एवं न्यायिक कर्मचारी के पद की निष्ठा व स्वतंत्रता बनाये रखनी चाहिए :हमारे समाज में न्याय के लिए स्वतंत्र व सम्माननीय न्यायपालिका अपरिहार्य है| एक न्यायिक कर्मचारी को व्यक्तिगत रूप से आचरण के उच्च मानक पालन करने चाहिए ताकि न्यायपालिका की निष्ठा और स्वतंत्रता संरक्षित हो सके और न्यायिक कर्मचारियों का पद जनता की सेवा को समर्पण प्रदर्शित करे| न्यायिक कर्मचारियों को ऐसे कार्मिक मानदंडों की अनुपालना करनी चाहिए जो उनके निर्देशन व नियंत्रण हेतु हों| इस संहिता के प्रावधानों का अभिप्राय व लागू किया जाना इन उद्देश्यों को आगे बढ़ाने के लिए समझा जाना चाहिए| इस संहिता में समाहित मानकों का नियुक्ति अधिकारी, न्यायालय के आदेश या कानून द्वारा अपेक्षित अन्य अधिक कड़े मानकों पर प्रभाव नहीं पड़ेगा|
सिद्धांत :२ एक न्यायिक कर्मचारी को सभी गतिविधियों में अनौचित्य व अनुचित प्रदर्शन टालना चाहिए : एक न्यायिक कर्मचारी को किसी भी ऐसी गतिविधि में संलिप्त नहीं होना चाहिए जो न्यायिक कर्मचारी के अपने पदीय कर्तव्यों के निर्वहन हेतु आचरण पर प्रश्न चिन्ह लगाते हों| एक न्यायिक कर्मचारी को अपने परिवार के सदस्यों, सामाजिक, या अन्य रिश्तों से शासकीय आचरण या निर्णय प्रभावित नहीं होने देने चाहिए| एक न्यायिक कर्मचारी को अपनी पदीय प्रतिष्ठा को व्यक्तिगत हित के लिए प्रयोग नहीं करने देना चाहिए या अन्यों के हित के लिए प्रयोग करते दिखाई नहीं देनी चाहिए| एक न्यायिक कर्मचारी को अपने सार्वजनिक पद को निजी लाभ के लिए प्रयोग नहीं करना चाहिए|
सिद्धांत:३:एक न्यायिक कर्मचारी को अपने पदीय कर्तव्यों के निर्वहन में उपयुक्त मानकों की अनुपालना करनी चाहिए :
एक न्यायिक कर्मचारी को कानून और इन सिद्धांतों का सम्मान व अनुपालना करनी चाहिए|यदि एक न्यायिक कर्मचारी को यदि इन सिद्धांतों का उल्लंघन करने के लिए प्रेरित भी किया जाय तो उसे उपयुक्त पर्यवेक्षी अधिकारी को रिपोर्ट करनी चाहिए|
एक न्यायिक कर्मचारी को पेशेवर मानकों के प्रति निष्ठावान होना चाहिए और न्यायिक कर्मचारी के पेशे में सक्षमता रखनी चाहिए|
एक न्यायिक कर्मचारी को धैर्यशाली, गरिमामयी, आदरणीय, और उन सभी लोगों के प्रति जिनसे उसका शासकीय हैसियत में, जन सामान्य सहित, वास्ता पडता हो के प्रति विनम्र होना चाहिए और न्यायिक कर्मचारी के लिए निर्देश एवं नियंत्रण के अध्यधीन कार्मिक का ऐसा ही आचरण होना चाहिए| एक न्यायिक कर्मचारी को अपने पदीय कर्तव्य का निष्पादन बुद्धिमतापूर्वक शीघ्रता, दक्षता, समानता, उचित और पेशेवर ढंग से करना चाहिए| एक न्यायिक कर्मचारी को मामलों की सुपुर्दगी को कभी भी प्रभावित नहीं करना चाहिए, या प्रभावित करने का कभी भी प्रयास नहीं करना चाहिए, या न्यायालय के किसी भी मंत्रालयिक या विवेकाधिकारी कृत्य को इस प्रकार संपन्न नहीं करना चाहिए कि जिससे किसी वकील या विवाद्यक का अनुचित पक्षपोषण होता हो, न ही एक न्यायिक कर्मचारी को यह समझना चाहिए कि वह ऐसा करने की स्थिति में है| एक न्यायिक कर्मचारी को विधि द्वारा निषिद्ध भाईभतीजावाद में संलग्न नहीं होना चाहिए|
हित टकराव :एक न्यायिक कर्मचारी को शासकीय कर्तव्यों के निर्वहन में हितों के टकराव को टालना चाहिए| एक हित टकराव का उद्भव तब होता है जब न्यायिक कर्मचारी जनता है कि वह (या उसका जीवन साथी, न्यायिक कर्मचारी के घर में रह रहा अवयस्क बच्चा, या न्यायिक कर्मचारी के अन्य नजदीकी रिश्तेदार) आर्थिक या व्यक्तिगत रूप से किसी मामले से इस प्रकार प्रभावित हो सकता है कि एक सुसंगत तथ्यों से परिचित तर्कसंगत व्यक्ति न्यायिक कर्मचारी द्वारा शासकीय कृत्य के निष्पक्ष तरीके से निष्पादन की सक्षमता के औचित्य पर प्रश्न उठ सके|
सिद्धान्त ४: बाहरी गतिविधियों की संलिप्सा में, एक न्यायिक कर्मचारी को शासकीय कर्तव्यों से टकराव की जोखिम और अनौचित्य के प्रदर्शन को टालना चाहिए, व प्रकटन की आवश्यकताओं की अनुपालना करनी चाहिए : एक न्यायिक कर्मचारी की न्यायिक से बाहरी गतिविधियां न्यायालय की गरिमा को घटानेवाली नहीं होनी चाहिए, शासकीय गतिविधियों में हस्तक्षेप करने वाली नहीं होनी चाहिए, या न्यायालय या न्यायिक कर्मचारी के पद की गरिमा और संचालन पर विपरीत प्रभाव नहीं डालनी चाहिए |
एक न्यायिक कर्मचारी को उन बाहरी वित्तीय और व्यावसायिक लेनदेनों से परहेज करना चाहिए जो न्यायालय की गरिमा को घटाते हैं, शासकीय कृत्यों के उचित निर्वहन में हस्तक्षेप करते हैं, स्थिति का दोहन करते हैं, या न्यायिक कर्मचारी को, वकीलों या अन्य संभावित लोगों जो न्यायिक कर्मचारी या न्यायालय या न्यायिक कर्मचारी द्वारा सेवित पद के समक्ष आने वाले हों, के साथ सारभूत वित्तीय व्यवहार में संलग्न नहीं होना चाहिए|
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