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Tuesday, August 28, 2012

समानता का मूल अधिकार विभेद की मनाही नहीं करता!


समानता का मतलब सबको आँख बंद करके एक समान मानना नहीं है, बल्कि सरकार के द्वारा समान लोगों के साथ समान व्यवहार करना है, जिसके लिए एक समान लोगों, समूहों और जातिओं का वर्गीकरण करना समानता के मूल अधिकार को लागू करने के लिए अत्यंत जरूरी है! अत: अनुच्छेद 14 में वर्णित समानता के मूल अधिकार को वास्तव में सकारात्मक रूप से लागू करने के लिये दमित और सदियों से दबे-कुचले वर्गों को अजा, अजजा और पिछड़े वर्गों में वर्गीद्भत करके उनको सरकार एवं प्रशासन में समान भागीदारी प्रदान करना संविधान में वर्णित समानता के मूल अधिकार का असली मकसद है। जिसके विरुद्ध किसी भी प्रकार की व्यवस्था समानता के मूल सिद्धान्त की मूल भावना के विपरीत और अमानवीय होगी।
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
इन दिनों मोहनदास गांधी द्वारा धोखे से सेपरेट इलेक्ट्रोल के हक को छीनकर और अनशन के जरिये भारत रत्न बाबा साहेब डॉ. अम्बेड़कर को विवश करके अजा एवं अजजा वर्गों पर जबरन थोपे गये आरक्षण को समाप्त करने और छीनने के लिये फिर से लगातार हमले हो रहे हैं।

स्वघोषित और स्वनामधन्य अनेक ऐसे पूर्वाग्रही लेखक और लेखिकाओं द्वारा जिन्होंने संविधान को पढना तो दूर, शायद कभी संविधान के पन्ने तक नहीं पलटे, वे भी संविधान की व्याख्या कर रहे हैं। लोगों को भ्रमित करते हुए लिख रहे हैं कि सरकारी सेवाओं और शिक्षण संस्थाओं में अजा एवं अजजा को आरक्षण केवल दस वर्ष के लिये दिया गया था, जिसे बार-बार बढाया जाता रहा है।! ऐसे लेखकों से मेरा सदैव की भांति फिर से इस आलेख के माध्यम से आग्रह है कि वे ऐसा लिखने या कहने से पूर्व कितना अच्छा होता कि उस प्रावधान का भी उल्लेख कर देते, जिसमें और जहॉं लिखा गया है कि अजा एवं अजजा के लिये दस वर्ष के आरक्षण का प्रावधान क्यों और किसलिए किया गया था!

ऐसे विष वमन करने वालों से मसाज के सौहार्द को बचाने के लिये मैं साफ कर दूँ कि दस वर्ष का आरक्षण का प्रावधान अनुच्छेद 334 में संसद और विधान सभाओं में प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिए किया गया था, न कि नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के लिए? अनुच्छेद 15 (4) एवं 16 (4) के अनुसार नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के लिए? अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जन जातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान संविधान का स्थायी हिस्सा है! यह अजा एवं अजजातियों का मूल अध्किार है। जिसे न कभी बढाया गया और न ही बढ़ाये जाने की जरूरत है! हॉं इस प्रावधान को अनेक बार इस देश की महान न्यायपालिका के अनेक निर्णयों ने अनेक प्रकार से कमजोर करने का प्रयास जरूर किया है! जिसे नयी दिल्ली पर शासन करने वाले हर दल की केन्द्रीय सरकार के नकार दिया और समय-समय पर संसद की संवैधानिक विधयी शक्ति के मार्फत अनेक बार मजबूत और स्पष्ट किया है! इसके उपरान्त भी भारत की न्यायपालिका में विचारधारा विशेष से ग्रसित कुछ जजों की ओर से अजा एवं अजजा वर्गों पर कुठाराघात करने वाले निर्णय आते ही रहते हैं। पिछले दिनों पदोन्नति में आरक्षण पर रोक सम्बन्धी निर्णय को भी सामाजिक न्याय के सिद्धान्त के विपरीत इसी प्रकार का एक विभेदकारी निर्णय बताया जा रहा है। जिसे निष्प्रभावी करने के लिये केन्द्र सरकार और सभी राजनैतिक दल सहमत हैं और इस बारे में शीघ्र ही संविधान में संशोधन किये जाने की आशा की जा सकती है।  

कुछ सामाजिक न्याय में आस्था नहीं रखने वाले लोगों का कहना है कि संविधान की प्रस्तावना में केवल ‘समानता’ की बात कही है, उसमें कहीं भी आरक्षण का कोई उल्लेख नहीं किया गया है। इसलिये ऐेसे लोग आरक्षण को संविधान की प्रस्तावना की भावना के विपरीत मानते हैं।

जहॉं तक संविधान की प्रस्तावना में किसी विषय का उल्लेख होने या न होने के सवाल है तो मेरा इस बारे में विनम्रतापूर्वक यही कहना है कि हर व्यक्ति अपने हिसाब (स्वार्थ) और अपनी सुविधा से इसका अर्थ लगाता है और अपनी सुविधा से ही किसी बात को समझना चाहता है! अन्यथा संविधान की प्रस्तावना में साफ शब्दों में लिखा गया है कि ‘‘अवसर की समता’’ और ‘‘व्यक्ति की गरिमा’’ सुनिश्‍चित करना संविधान का लक्ष्य है! जिसे पूर्ण करने के किये ही सरकारी नौकरियों, सरकारी शिक्षण संस्थानों और विधायिका में जातिगत आरक्षण की व्यवस्था की गयी है!

इसके आलावा ये बात भी बिनापूर्वाग्रह के समझने की है कि संविधान की प्रस्तावना में सब कुछ और हर एक विषय को विस्तार से नहीं लिखा जा सकता! ‘‘अवसर की समता’’ और ‘‘व्यक्ति की गरिमा’’ सुनिश्‍चित करने के प्रावधान का प्रस्तावना में उल्लेख करने के आधार पर ही आज भारत में महिलाओं, छोटे बच्चों और नि:शक्तजनों के लिए हर स्तर पर विशेष कल्याणकारी प्रावधान किये गए हैं! जो अनेक बार सुप्रीम कोर्ट द्वारा भी संविधान सम्मत ठहराये जा चुके हैं।

संविधान की प्रस्तावना में तो स्पष्ट रूप से कहीं भी निष्पक्ष चुनाव प्रणाली के बारे में एक शब्द तक नहीं लिखा गया है, लेकिन ‘‘अभिव्यक्ति’’ शब्द सब कुछ खुद ही बयां करता है! इस प्रकार संविधान की प्रस्तावना में केवल मौलिक बातें ही लिखी जाती हैं। इसीलिये संविधान की प्रस्तावना को संविधान का आमुख भी कहा जाता है। लेकिन हम सभी जानते हैं कि केवल चेहरा देखकर ही अन्तिम निर्णय नहीं लिया जा सकता। इसलिये प्रस्तावना सब कुछ या अन्तिम सत्य नहीं है, बल्कि सम्पूर्ण संविधान और संविधान पर न्यायपालिका के निर्णयों के प्रकाश में विधायिका की नीतियॉं ही संविधान को ठीक से समझने का मार्ग प्रशस्त करती हैं।

अत: यदि हममें से जो भाी संविधान के जानकर हैं और यदि हम देश और समाज में सभी की खुशहाली चाहते हैं तो हमें अपने ज्ञान का उपयोग देश के सभी लोगों के लिए और विशेषकर वंचित तथा जरूरतमंद लोगों के हित में उपयोग करना चाहिये। न का लोगों को भड़काने या भ्रमित करने के लिये, जैसा कि कुछ पूर्वाग्रही लोग करते रहते हैं।
अन्त में, मैं सामाजिक न्याय के विरोधी लोगों, विचारकों, चिन्तकों और लेखकों से कहना चाहता हूँ कि वे इस बात को समझने का प्रयास करें कि आरक्षित वर्गों में शामिल जातियों को विगत में हजारों सालों तक जन्म, वंश और जाति के आधार पर न मात्र उनके हकों से वंचित ही किया गया, न मात्र उनके हकों को छीना और लूटा ही गया, बल्कि उन्हें कदम-कदम पर सामाजिक, सांस्द्भतिक, शैक्षणिक और आर्थिक रूप से लगातार उत्पीड़ित करके, उनका शोषण भी किया जाता रहा है! ऐसे में इन वर्गों में शामिल जातियों का उत्थान करना और उनको उनके हकों को वापिस देना इस देश के शोषकों के वंशजों और सरकार का कानूनी, नैतिक और संवैधानिक दायित्व है। जिसे मोहन दास कर्मचन्द गांधी के धोखेभरे निर्णयों के बाद केवल जातिगत आरक्षण के मार्फ़त ही सुधारे जाने की आधी अधूरी आशा की जा सकती है! यदि अभी भी सच्चाई तथा न्याय के सच्चे पक्षधर मो. क. गांधी के अन्याय से आरक्षित वर्गों को बचाना चाहते हैं और देश से आरक्षण को समाप्त करना चाहते हैं, तो उनको चाहिये कि वे अजा एवं अजजातियों को सेपेरेट इलेक्ट्रोल का छीना गया हक वापिस दिलाने में सच्चा सहयोग करें। अन्यथा आरक्षण को खुशीखुशी सहने की आदत डालें, क्योंकि संवैधानिक आरक्षण के समाप्त होने की कोई आशा नहीं है।

आरक्षण किसी प्रकार का विभेद या समानता मूल अधिकार का हनन नहीं करता है। बल्कि यह न्याय करने का एक संवैधानिक तरीका बताया और माना गया है। इसीलिये संविधान में जाति, धर्म आदि अनेक आधारों पर वर्गीकरण (जिसे कुछ लोग विभेद मानते हैं) करने को हमारे संविधान और विधायिका द्वारा मान्यता दी गयी है!
प्रोफ़ेसर प्रद्युमन कुमार त्रिपाठी (बीएससी, एलएल एम, दिल्ली, जेएसडी-कोलंबिया) लिखित ग्रन्थ ‘‘भारतीय संविधान के प्रमुख तत्व’’ (जिसे भारत सरकार के विधि साहित्य प्रकाशन विभाग द्वारा पुरस्द्भत और प्रकाशित किया गया है) के पेज 277 पर कहा गया है कि-

जब समाज के लोगों का स्वयं विधायिका ही वर्गीकरण कर देती है तो समानता के मूल अधिकार (के उल्लंघन) संबंधी कोई गंभीर प्रश्‍न उठने की सम्भावना नहीं होती (जैसे की कुछ पूर्वाग्रही लोगों द्वारा निहित स्वार्थवश सवाल उठाये जाते रहे हैं), क्योंकि....विधायिका विशेष वर्गों की समस्याओं, आवश्यकताओं तथा उलझनों को ध्यान में रखकर ही उनके लिये विशेष कानून बनाती है, असंवैधानिक या वर्जनीय विभेद के उद्देश्य से नहीं! उदाहरणार्थ केवल हिन्दुओं (हिन्दू आदिवासियों को छोड़कर) के लिए ‘हिन्दू विवाह अधिनियम’ बनाने का उद्देश्य हिन्दुओं (जिसमें में भी हिन्दू आदिवासियों पर ये लागू नहीं होता है) तथा अन्य धर्मों के अनुयाईयों में (सामान्य हिन्दुओं और आदिवासी हिन्दुओं में) भेद करना नहीं है, बल्कि संसद द्वारा बनाया गया यह अधिनियम हिन्दुओं (आदिवासी हिन्दुओं सहित) के इतिहास, उनकी मान्यताओं, उनके सामाजिक विकास के स्तर तथा उनकी आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को ध्यान में रखते हुए, उनके कल्याण की कामना से पारित किया गया है। अत: यह अधिनियम केवल हिन्दुओं (हिन्दू आदिवासियों को छोड़कर) पर लागू होता है तो भी कोई हिन्दू तथा अहिन्दू (सामान्य हिन्दू और आदिवासी हिन्दू) इसे इस आधार पर चुनौती नहीं दे सकते कि यह हिन्दू तथा अहिन्दू (सामान्य हिन्दू और आदिवासी हिन्दू) में कुटिल विभेद करता है। संविधान का अनुच्छेद 14 (समानता का मूल अधिकार) विभेद की मनाही नहीं करता, वह केवल कुटिल विभेद की मनाही करता है, वर्गीकरण की मनाहीं नहीं करता, कुटिल वर्गीकरण की मनाहीं करता है! 

जिसे सुप्रीम कोर्ट ने एन एम टामस, ए आई आर. 1976, एस सी 490 में इस प्रकार से स्पष्ट किया है-
सरकारी सेवाओं में नियुक्ति और पदोन्नति पाने के सम्बन्ध में अजा और अजजा के नागरिकों को जो सुविधा प्रदान की गयी है, वह अनुच्छेद 16 (4) के प्रावधानों से आच्छादित न होते हुए भी स्वयं मूल अनुच्छेद 16 खंड (1) के आधार पर ही वैध है, क्योंकि यह प्रावधान निश्‍चय ही एक विशिष्ठ पिछड़े हुए वर्गों (अजा, अजजा एवं अन्य पिछड़ा वर्ग) के लोगों का संविधान के अनुच्छेद 46 में उपबंधित नीति निदेशक तत्व की पूर्ति करने तथा अनुच्छेद 335 में की गयी घोषणा की कार्यान्वित करने के उद्देश्य से किया गया, वैध वर्गीकरण है जो समानता के मूल अधिकार का उल्लंघन नहीं, बल्कि इसका सही और सकारात्मक क्रियान्वयन करता है।

पश्‍चिम बंगाल राज्य बनाम अनवर अली सरकार, ए आई आर 1952 एस सी 75, 88 में सुप्रीम कोर्ट ने साफ शब्दों में कहा है कि-
समानता का मतलब सबको आँख बंद करके एक समान मानना नहीं है, बल्कि सरकार के द्वारा समान लोगों के साथ समान व्यवहार करना है, जिसके लिए एक समान लोगों, समूहों और जातिओं का वर्गीकरण करना समानता के मूल अधिकार को लागू करने के लिए अत्यंत जरूरी है! अत: अनुच्छेद 14 में वर्णित समानता के मूल अधिकार को वास्तव में सकारात्मक रूप से लागू करने के लिये दमित और सदियों से दबे-कुचले वर्गों को अजा, अजजा और पिछड़े वर्गों में वर्गीद्भत करके उनको सरकार एवं प्रशासन में समान भागीदारी प्रदान करना संविधान में वर्णित समानता के मूल अधिकार का असली मकसद है। जिसके विरुद्ध किसी भी प्रकार की व्यवस्था समानता के मूल सिद्धान्त की मूल भावना के विपरीत और अमानवीय होगी।

Thursday, January 19, 2012

अभिव्यक्ति और धर्म की आजादी के मायने!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

राजस्थान की राजधानी जयपुर में ‘जयपुर फेस्टीवल’ में शीर्ष साहित्यकारों को आमन्त्रित किया गया था, जिनमें भारत मूल के ब्रिटिश नागरिक सलमान रुश्दी को भी बुलावा भेजा गया| सलामन रुश्दी की भारत यात्रा के विरोध में अनेक मुस्लिम संगठन आगे आये और सरकार द्वारा उनके दबाव में आकर सलमान रुश्दी को भारत बुलाने का विचार त्याग दिया गया|

इस बात को लेकर देशभर में धर्मनिरपेक्षता, धर्म की आजादी की रक्षा और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की आजादी के विषय पर अनेक प्रकार की बातें सामने आ रही हैं| हालांकि मूल रूप से दो पक्ष हैं! एक मुस्लिम पक्ष है, जो सलमान रुश्दी के विचारों को इस्लाम के विरोध में मानता है और उनका मानना है कि सलमान रुश्दी ने इस्लाम के बारे में जो कुछ कहा है, उससे इस्लाम के अनुयाई खफा हैं| ऐसे में यदि सलमान रुश्दी को भारत में आने दिया गया तो इस्लाम के अनुयाई इससे आहत होंगे| दूसरा पक्ष कहता है कि भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है, जिसमें हर व्यक्ति को हर धर्म या हर विषय पर अपनी बात कहने की आजादी है| ऐसे में देश के करीब पन्द्रह फीसदी मुसलमानों के मुठ्ठीभर लोगों के विरोध के कारण संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी को नहीं छीना जा सकता है|

कहा यह जा रहा है कि सलमान रुश्दी का विरोध करने वालों का विरोध करने वाले मूलत: कट्टरपंथी हिन्दूवादी लोग हैं| जिनके बारे में यह कहा जा रहा है कि उन्होंने भारतीय नागरिक और प्रख्यात चित्रकार एम एफ हुसैन की अभिव्यक्ति की आजादी का इतना विरोध किया कि हुसैन को अन्तत: भारत छोड़ना पड़ा और उन्होंने जीवन की अन्तिम सांस भारत से बाहर ही ली|

ऐसे में कुछ अन्य लोगों का कहना है कि सलमान रुश्दी के साथ खड़े दिखाई देने वाले लोग केवल मुस्लिम कौम की खिलाफत करने के लिये अभिव्यक्ति की आजादी की बात कर रहे हैं| अन्यथा उनके मन में संविधान या अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के प्रति किसी प्रकार का कोई सम्मान नहीं है| इन हालातों में हमें इस बात की पड़ताल करनी होगी कि इस बारे में हमारा संविधान क्या कहता है?

संविधान का अनुच्छेद 19 (1) (क) भारत के सभी नागरिकों को वाक-स्वतन्त्रता और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का मूल अधिकार प्रदान करता है| जिसके आधार पर सलमान रुश्दी के पक्ष में दलीलें दी जा रही हैं, उन्हें अपने विचार व्यक्त करने से रोका जा रहा है| इसमें सबसे पहली बात तो यह है कि सलमान रुश्दी भारत का नागरिक ही नहीं है| अत: तकनीकी तौर पर उन्हें यह मूल अधिकार प्राप्त ही नहीं है| जबकि भारत का नागरिक होने के कारण एमएफ हुसैन को उक्त मूल अधिकार प्राप्त था, फिर भी उन्हें भारत छोड़ना पड़ा|

दूसरी और महत्वूपर्ण बात यह है कि इसी अनुच्छेद 19 के भाग (2) में साफ किया गया है कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता अबाध नहीं है| सरकार भारत की प्रभुता और अखण्डता, सुरक्षा, विदेशों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों, लोक व्यवस्था, शिष्टाचार, सदाचार के हितों में और न्यायिक अवमानना, अपराध करने को उकसाना आदि स्थिति निर्मित होने की सम्भावना हो तो अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर जरूरत के अनुसार प्रतिबन्ध भी लगा सकती है|

ये तो हुई अभिव्यक्ति के कानून की बात| निश्‍चय ही यह बात प्रमाणित है कि किसी को भी निर्बाध या अबाध आजादी या स्वतन्त्रता उसे तानाशाह बना देती है| अत: समाज या कानून या संविधान हर बात की सीमा का निर्धारण करता है| इसी बात को ध्यान में रखते हुए देश के दूरदर्शी संविधान निर्माताओं ने बोलने की आजादी देने के साथ-साथ साफ कर दिया कि जहॉं आप दूसरे की अभिव्यक्ति की आजादी में हस्तक्षेप करते हैं, वहीं से आपकी खुद की सीमा शुरू हो जाती है|

इस बात को अनेक बार अदालत ने भी गम्भीरतापूर्वक विचार करके निर्धारित किया है| लोक व्यवस्था के नाम पर सलमान रुश्दी को रोका गया है, जिसके बारे में बिहार राज्य बनाम शैलबाला, एआईआर, 1952 सुप्रीम कोर्ट, पृष्ठ-329 पर सर्वोच्च न्यायालय ने साफ किया है कि संविधान के अनुच्छेद 19 (2) में 'लोक व्यवस्था' पदावलि शब्द के परिणामस्वरूप देश में लोक व्यवस्था के साधारण भंग होने या अपराध करने के लिये उकसाने की सम्भावना के आधार पर भी नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है|

जहॉं पर राज्य सुरक्षा या लोकशान्ति और कानून व्यवस्था का मामला भी साथ में जुड़ा हो वहॉं पर तो स्थिति और भी गम्भीर मानी जानी चाहिये| एमएफ हुसैन और सलमान रुश्दी दोनों के ही मामले में संविधान के उपरोक्त उपबन्ध सरकार को यह अधिकार देते हैं कि सरकार ऐसे लोगों की अभिव्यक्ति की आजादी को छीन ले| सलमान रुश्दी के मामले में तो संविधान में कोई रुकावट है ही नहीं, क्योंकि जैसा कि पूर्व में लिखा गया है कि सलमान रुश्दी भारत का नागरिक ही नहीं है|

लेकिन अनेक अन्तर्राष्ट्रीय ऐसे समझौते तथा कानून हैं, जो अभिव्यक्ति की आजादी को हर देश में संरक्षण देने के लिये सभी सरकारों को निर्देश देते हैं| जिन पर भारत ने भी हस्ताक्षर किये हुए हैं| मानव अधिकारों में बोलने की आजादी को भी शामिल किया गया है| इसलिये सलमान रुश्दी की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को संरक्षण देना भी भारत का अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिमानों के अनुसार अनिवार्य दायित्व है| बशर्ते भारत के संविधान में इसकी स्वीकृति हो| यद्यपि इसके अनुसार भी भारत बाध्य नहीं है|

इन हालातों में भारत सरकार को अपने देश के हालात, देश के संविधान, लोक-व्यवस्था और शान्ति को बनाये रखने को प्राथमिकता देना पहली जरूरत है| इस प्रकार से सलमान रुश्दी को भारत आने से रोकने के निर्णय से किसी भी भारतीय या अन्तर्राष्ट्रीय कानून या समझौते का उल्लंघन नहीं होता है| एमएफ हुसैन के मामले में भी यही स्थिति थी|

हर व्यक्ति को अपनी आजादी के साथ-साथ दूसरों की आजादी का भी खयाल रखना होगा| तब ही संविधान या अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा सम्भव है| अन्यथा हमें जो-जो भी स्वतन्त्रताएँ या मूल अधिकार प्राप्त हैं, उन्हें न्यून या समाप्त करने या उन पर निर्बन्धन लगाने के लिये सरकारों और न्यायालयों के पास अनेक कारण होंगे| जिन्हें गलत ठहरा पाना असम्भव होगा|

इसी प्रकरण में एक अन्य पहलु भी समाहित है, वह यह कि संविधान देश के लोगों को धार्मिक स्वतन्त्रता का भी मूल अधिकार देता है| जिसके अनुसार इस्लाम के अनुयाईयों का कहना है कि उनको सलमान रुश्दी और बांग्लादेश की लेखिका तसलीमा नसरीन जैसे लोगों का और हिन्दुधर्मावलम्बियों का कहना है कि उनको एफएफ हुसैन जैसों का विरोध करने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है| इसलिये भी सरकार को दोनों ही धर्म के लोगों की भावनाओं का खयाल करना होगा|

इस बारे में भारत के संविधान के उपबन्ध किसी भी धर्म के अनुयाईयों का समर्थन नहीं करते हैं| क्योंकि संविधान द्वारा प्रदान की गयी धार्मिक आजादी का अर्थ यह कदापि नहीं है कि हम अपने धर्म की रक्षा के लिये दूसरों के मूल अधिकारों में अतिक्रमण करें| क्योंकि धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार भी अबाध या निर्बाध नहीं है| धर्म की स्वतन्त्रता पर अनेक कारणों से निर्बन्धन लगाये जा सकते हैं| धर्म की स्वतन्त्रता में मूल रूप से अन्त:करण की स्वतन्त्रता है| जिसे संविधान के अनुच्छेद-21 में अतिरिक्त संरक्षण भी प्रदान किया गया है| जिसके अन्तर्गत समुचित विधि या रीति से उपासना, ध्यान, पूजा, अर्चना, प्रार्थना करने या नहीं करने का मूल अधिकार शामिल है|

इसी अधिकार में अपने धर्म को अबाध रूप से मानने, धर्म के अनुसार आचरण करने और अपने धर्म का प्रचार-प्रसार करने का भी सम्पूर्ण अधिकार दिया गया है| जिसके तहत सभी नागरिकों को अपने धर्मानुकूल अनुष्ठान करने या कराने का मूल अधिकार भी है| जिसमें सभी हिन्दुओं को मन्दिरों में प्रवेश करके अपने आराध्य की प्रार्थना और पूजा अर्चना करने का मूल अधिकार है! (जिससे भारत में अधिकतर दलित वर्ग को वंचित किया हुआ है| लेकिन इसके विरुद्ध आवाज उठाने के लिए मीडिया या अन्य लोगों के पास वक्त नहीं है!) इसी प्रकार से सभी मुस्लिमों को मस्जिदों में नमाज अदा करने का हक है| लेकिन इसके तहत किसी भी व्यक्ति विशेष को ये हक नहीं है कि वह किसी विशेष मन्दिर या मस्जिद में जाकर के ही प्रार्थना/पूजा या नमाज अदा करेगा| ऐसा करने से उसे युक्तियुक्त कारणों से सरकार द्वारा रोका जा सकता है|

जहॉं तक धर्म के प्रचार-प्रसार के मूल अधिकार की बात है तो भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक बार, अनेक मामलों में स्पष्ट किया है कि भारत में हर एक धर्म के प्रचार-प्रसार की पूर्ण आजादी है, लेकिन इसका ये अर्थ कदापि नहीं है कि किसी को अपना धर्म बदलने के लिये उकसाया या विवश किया जावे| हॉं ये हक अवश्य है कि दूसरे धर्म के लोगों को धर्म-प्रचारक के धर्म के बारे में उचित रीति से सम्पूर्ण जानकारी दी जाने की पूर्ण आजादी हो| ताकि उसके धर्म की बातों से प्रभावित होकर कोई भी अन्य धर्म का व्यक्ति अपना धर्म बदलना चाहे तो वह अपना धर्म बदल सके| क्योंकि जब तक किसी को दूसरे के धर्म की बातों की अच्छाई के बारे में जानकारी नहीं होगी, तब तक वह अपना धर्म या आस्था बदलने के बारे में निर्णय कैसे ले सकेगा|

लेकिन सलमान रुश्दी के मामले में धार्मिक आजादी का मूल अधिकार मुस्लिम बन्धुओं को किसी भी प्रकार का संवैधानिक या कानूनी हक प्रदान नहीं करता है| क्योंकि जिस प्रकार से किसी भी धर्म के प्रचारक को अपने धर्म की अच्छी बातें बतलाने का संवैधानिक हक है, उसी प्रकार से धर्मनिरपेक्षता के अधिकार के तहत या धर्म की आजादी के मूल अधिकार के तहत भारत में हर व्यक्ति को ये मूल अधिकार भी प्राप्त है कि वह अपने या किसी भी अन्य धर्म की बुराईयों, खामियों के बारे में भी आलोचना या निन्दा कर सके| जिसे अनुच्छेद 19 (1) (क) में भी संरक्षण हैं, लेकिन साथ ही साथ अनुच्छेद 19 (2) के निर्बन्धन यहॉं पर भी लागू होंगे| लेकिन इस प्रकार के निर्बन्धन धार्मिक भावनाओं के संरक्षण के लिये स्पष्ट रूप से उपलब्ध नहीं हैं|