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Wednesday, May 4, 2016

कांशीराम नहीं होते तो आंबेडकर भुला दिए गए होते

कांशीराम के बिना आंबेडकर अधूरा और निष्फल है।
फ़ूले के बिना अम्बेडकर अजन्मा है।
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लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
इन दिनों अम्बेडकरवादियों की बाढ़ आयी हुई है, लेकिन इन अम्बेडकरवादियों में से 99.99 फीसदी संविधान के बारे में कुछ नहीं जानते! ऐसे में मेरा अकसर इनसे सवाल होता है कि आंबेडकरवाद का मतलब क्या है? अधिकतर का जवाब होता है-बाबा साहब की 22 प्रतिज्ञाएँ, जो बुद्ध धर्म ग्रहण करते समय उनके द्वारा घोषित की गयी थी। फिर मेरा प्रतिप्रश्न-यह अम्बेडकरवाद नहीं बुद्ध धर्म का प्रचार है। ऐसे अम्बेडकरवादी कहते हैं कि हमारे लिए यही सब अम्बेडकरवाद है।

मैं ऐसे लोगों से व्यथित हूँ, क्योंकि ऐसे लोग बाबा साहब के विश्वव्यापी व्यक्तित्व को बर्बाद कर रहे हैं। यदि बाबा साहब ने बुद्ध धर्म ग्रहण नहीं किया होता तो क्या हम उनको याद नहीं करते? बिना बुद्ध धर्म बाबा साहब का क्या कोई महत्व नहीं होता? ऐसे सवालों से अम्बेडकरवादी कन्नी काट जाते हैं।

अम्बेडकरवाद की बात करने वालों से मेरा सीधा सवाल है कि आखिर वे चाहते क्या हैं? संविधान का शासन या अम्बेडकरवादियों के छद्म बुद्ध धर्म का प्रचार? इन लोगों को न तो बाबा के योगदान का ज्ञान है और न हीं संविधान की जानकारी। इसके बाद भी ऐसे लोग वंचित समाज का नेतृत्व करने की हिमाकत करते हैं, वह भी केवल बुद्ध धर्म के बाध्यकारी अनुसरण के बल पर और खुद को अम्बेडकरवादी घोषित कर के ही अपने आप को भारत के भाग्यविधाता समझने लगे हैं।

अम्बेडकरवाद की बात करने वालों को शायद ज्ञात ही नहीं है कि 1980 तक आंबेडकर पाठ्यपुस्तकों में एक छोटा का विषय/चैप्टर मात्र रह गए थे। उनका कोई गैर दलित नाम तक नहीं लेता था। कांशीराम जी का उदय नहीं हुआ होता तो न तो आंबेडकर को याद किया जाता और न ही आंबेडकर को भारत रत्न मिलता। इसके बाद भी मुझे याद नहीं कि कांशीराम जी ने खुद को कभी ऐसा ढोंगी अम्बेडकरवादी कहा या प्रचारित किया हो?

कांशीराम जी ने साईकल से मिशन की शुरूआत की तथा अपने जीते जी मिशन को फर्श से अर्श तक पहुंचाया। यदि कांशीराम जी का अन्तिम अंजाम षड्यंत्रपूर्ण नहीं हुआ होता तो वंचित भारत की तस्वीर बदल गयी होती। कांशीराम जी की कालजयी पुस्तक---"चमचा युग"--- आज के अम्बेडकरवादियों के लिए प्रमाणिक पुस्तक है।

इन दिनों अम्बेडकवाद से कहीं अधिक सामाजिक न्याय की विचारधारा को अपनाने की जरूरत है, जो ज्योतिबा फ़ूले से शुरू होकर कांशीराम जी पर रुक गयी है। जिसमें आंबेडकर का बड़ा किरदार है, लेकिन कांशीराम के बिना आंबेडकर अधूरा और निष्फल है। फ़ूले के बिना अम्बेडकर अजन्मा है। ऐसे में अम्बेडकरवाद की बात करने वाले फ़ूले और कांशीराम के साथ धोखा और अन्याय करते हैं। सबसे बड़ा अन्याय बुद्ध के साथ भी करते हैं, क्योंकि बुद्ध संदेह को मान्यता प्रदान करते हैं और सत्य को तर्क और विज्ञान की कसौटी पर कसते हैं। जबकि अम्बेडकरवादी मनुवादियों की भाँति बाबा के नाम की अंधभक्ति को बढ़ावा देते हैं। बुद्ध और बाबा की मूर्ती पूजा को बढ़ावा दे रहे हैं।

जय भारत। जय संविधान।
नर-नारी, सब एक समान।।
: डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश', 4 मई, 2016
9875066111/04-05-2016/04.04 PM

Wednesday, April 27, 2016

बुद्ध और बाबा को भगवान बनाने वाले वंचित वर्ग के पक्के दुश्मन हैं।

बुद्ध और बाबा को भगवान बनाने
वाले वंचित वर्ग के पक्के दुश्मन हैं।
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लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
पिछले एक-डेढ़ वर्ष के दौरान देश के अनेक राज्यों में दर्जनों कार्यक्रमों, सभाओं और कार्यशालाओं में शामिल होने का अवसर मिला। जितने भी आयोजन अजा के नेतृत्व में सम्पन्न हुए तकरीबन सभी में बुद्ध और बाबा साहब की वन्दना और गुणगान इस प्रकार से किया गया, मानो ये दोनों व्यक्ति इंसान नहीं साक्षात मनुवादी बामणों के ईश्वर हैं। अनेक जगह पर तो दोनों महापुरुषों की ईश्वर की भाँति मूर्तियां लगायी जाकर पूजा अर्चना की जा रही है। नियमित रूप से दीपक या वल्व या केंडल का प्रकाश किया जा रहा है।

लेकिन एक भी आयोजन में बुद्ध की वैज्ञानिक विचारधारा, तर्क तथा सन्देह की महत्ता और बाबा साहब के संवैधानिक ज्ञान की तनिक भी चर्चा नहीं की गयी! बाबा का खूब गुणगान किया जाता है, लेकिन बाबा के संवैधानिक योगदान पर चर्चा करना तो दूर संविधान में अंतर्निहित प्रावधानों के बारे एक शब्द तक नहीं बोला जाता। आयोजनों का सीधा और एक मात्र मकसद बुद्ध और बाबा को भगवान के रूप में स्थापित करना है।

दुःखद आश्चर्य कि ऐसे आयोजनों को 85 से 90 फीसदी वंचित आबादी के आयोजन बताकर प्रचारित तो खूब किया जाता है, लेकिन इनमें 90 से 95 फीसदी लोग केवल अजा के ही होते हैं। सामाजिक न्याय के बजाय आयोजनों को बुद्ध धर्म प्रचार के आयोजन बनाया जा रहा है। केवल यही नहीं, इन आयोजनों में हिन्दू धर्म और हिन्दू देवी-देवताओं के बारे में हिन्दुओं की दृष्टि से घृणित और असहनीय भाषा उपयोग की जाती है। जिसके कारण रामायण, गीता, भागवत आदि का पाठ करवाकर देवलोक की आशा लगाये बैठे अजा, अजजा और ओबीसी के लोग इन आयोजनों में चाहकर भी शामिल नहीं होते हैं। बुद्ध वन्दना के कारण मुस्लिम शामिल नहीं होते या मन मारकर फॉर्मेलिटी करते हैं।

कुल मिलाकर आयोजन कागजी तौर पर ही कामयाब होते हैं या केवल एक राजनैतिक जुंडली के इरादों तक सीमित रहते हैं। इस कारण बकवास वर्ग के लिए बुद्ध और बाबा के मिशन को भगवान से जोड़कर भटकाने का अवसर मिल चुका है। जिसके लिए ऐसे आयोजक जिम्मेदार हैं। एक और तो अजा, ओबीसी और आदिवासी वर्ग को हिन्दू शिकंजे से मुक्ति की बात की जाती हैं और दूसरी ओर ज्योतिबा फ़ूले, बिरसा मुंडा, बाबा साहब, जयपाल सिंह मुंडा, पेरियार, कांसीराम जैसे महापुरुषों के सामाजिक न्याय, समानता, सामान हिस्सेदारी, अंधश्रद्धा निर्मूलन जैसे ऐतिहासिक और अविस्मरणीय प्रयासों को इन आयोजनों में पलीता लगाया जा रहा है। सब कुछ बर्बाद किया जा रहा है।

क्या ऐसे आयोजक इतनी सी बात नहीं समझना चाहते कि बुद्ध और बाबा भगवान नहीं केवल इंसान थे, महान इंसान थे। जिनके अनेक बड़े कार्य वंचित वर्ग के लिए तभ ही उपयोगी होंगे, जबकि इनको भगवान नहीं इंसान माना जाएगा और इनके आचरण, निर्णयों और कार्यों की आज के संदर्भ में खुलकर समीक्षा करने की आजादी होगी। अन्यथा ऐसे आयोजनों के चलते वंचित वर्ग कभी भी वास्तव में एकजुट नहीं हो सकेगा। सामाजिक न्याय की लड़ाई हम कभी नहीं जीत पाएंगे और बकवास वर्ग यही चाहता है।

यही नहीं, बल्कि इन्हीं कारणों से बुद्ध और बाबा साहब को केवल अजा तक सीमित किया जा चुका है। बाबा साहब का विश्वव्यापी पैमाना ऐसे आयोजनों के कारण दलित दृष्टि से मापा जाता है। क्या बाबा साहब और बुद्ध यही चाहते थे?
जय भारत। जय संविधान।
नर-नारी, सब एक समान।।
: डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
9875066111/27-04-2016/09.16 PM
@—लेखक का संक्षिप्त परिचय : मूलवासी-आदिवासी अर्थात रियल ऑनर ऑफ़ इण्डिया। होम्योपैथ चिकित्सक और दाम्पत्य विवाद सलाहकार। राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (BAAS), नेशनल चैयरमैन-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एन्ड रॉयटर्स वेलफेयर एसोसिएशन (JMWA), पूर्व संपादक-प्रेसपालिका (हिंदी पाक्षिक) और पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा एवं अजजा संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ।
नोट : उक्त सामग्री व्यक्तिगत रूप से केवल आपको ही नहीं, बल्कि ब्रॉड कॉस्टिंग सिस्टम के जरिये मुझ से वाट्स एप पर जुड़े सभी मित्रों/परिचितों/मित्रों द्वारा अनुशंसितों को भेजी जा रही है। अत: यदि आपको किसी भी प्रकार की आपत्ति हो तो, कृपया तुरंत अवगत करावें। आगे से आपको कोई सामग्री नहीं भेजी जायेगी। अन्यथा यदि मेरी ओर से प्रेषित सामग्री यदि आपको उपयोगी लगे तो इसे आप अपने मित्रों को भी भेज सकते हैं।
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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

Friday, April 15, 2016

बाबा साहब के 125वें जन्मोत्सव को संविधान खरीदकर ज्ञानोत्सव मनाएं।

बाबा साहब के 125वें जन्मोत्सव को
संविधान खरीदकर ज्ञानोत्सव मनाएं।

ऑल इण्डिया एससी/एसटी रेलवे एप्लाईज एसोशिएशन, कपूरथला कोच फैक्ट्री की जोनल इकाई की ओर से 14 अप्रैल, 16 को आयोजित बाबा साहब के 125वें जन्मोत्सव कार्यक्रम को मुख्य वक्ता के रूप में सम्बोधित करते हुए हक रक्षक दल (HRD) के राष्ट्रीय प्रमुख डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ने आह्वान किया कि वंचित वर्ग के लोगों को संविधान खरीदकर बाबा साहब के जन्मदिन को ज्ञानोत्सव के रूप में मनाना चाहिए। भारी संख्या में उपस्थित जनसमूह की तालियों की गड़गड़ाहट के बीच डॉ. मीणा जी ने बाबा साहब के योगदान और संविधान की जानकारी प्रदान करके लोगों को मन्त्रमुग्ध कर दिया। ऐसी जानकारियां दी जिनसे अधिकतर लोग अनभिज्ञ थे। कार्यक्रम के बाद श्रोताओं ने डॉ. मीणा जी से मिलकर व्यक्तिगत रूप से ख़ुशी का इजहार किया। महिलाओं तक ने डॉ. साहब के भाषण को सराहा। डॉ. मीणा जी कहा कि बाबा साहब ने शिक्षित बनो पहला नारा दिया था, जिसके बाद हम डिग्रीधारी और नौकर तो बन गए लेकिन सच में शिक्षित बनना अभी भी शेष है। लोगों को संविधान तथा नियम कानूनों को पढ़ना चाहिए और जागरूक तथा सतर्क नागरिक बनना चाहिए। जिससे बकवास वर्ग के शोषण से मुक्ति मिल सके और मोस्ट मूवमेंट मजबूत हो सके। डॉ. मीणा जी की ओर से मोस्ट और बकवास की व्याख्या लोगों को बहुत पसन्द आयी। डॉ. साहब ने आह्वान किया कि हमें बाबा साहब का गुणगान करने या बाबा साहब को भगवान बनाने के बजाय, जो कुछ वंचित समाज के लिए बाबा साहब ने किया उसपर विचार, चिंतन और मन्थन करना चाहिए। संविधान का ज्ञान हासिल करना चाहिए। इसके अलावा बहुत सी बातें बतलाई। कार्यक्रम में एसोशिएशन की जोनल बॉडी के अध्यक्ष जीत सिंह, कार्यकारी अध्यक्ष रनजीत सिंह, वरिष्ठ उपाध्यक्ष विजय कुमार, उपाध्यक्ष के एस खोकर, सचिव आर सी मीणा, कोषाध्यक्ष सोहन बैठा, अतिरिक्त सचिव करण सिंह सहित स्थानीय पंजाबी लेखक बी एल सांपला, मैडम आशा क्लियर, के एल जस्सल, धर्मपाल पैंथर, श्रीमती बैठा आदि अनेकों वक्ताओं ने विचार व्यक्त किये। जबकि मैडम दिव्याना इक्का, मैडम बिमला और रूपो वालिया की टीम ने सांस्कृतिक कार्यक्रम पेश किये। कार्यक्रम पूरी तरह से सफल रहा। आयोजन की समाप्ति के बाद डॉ. मीणा जी से फिर से कपूरथला पधारने का निवेदन किया गया। कार्यक्रम के शुरू में डॉ. मीणा जी की ओर से झण्डा वन्दन किया गया, जबकि अंत में प्रमुख कार्यकर्ताओं और वक्ताओं को समृति चिह्न भेंट किये। खुद मीणा जी को भी समृति चिह्न भेंट किया गया।

निवेदक
जीत सिंह-जोनल अध्यक्ष
आर सी मीणा-जोनल सचिव
कपूरथला। पंजाब।

Monday, December 7, 2015

अम्बेडकर पर संसद में चर्चा विचार दरकिनार ,सिर्फ गुणगान !

अम्बेडकर पर संसद में चर्चा
विचार दरकिनार ,सिर्फ गुणगान !

भारतीय संसद ने संविधान निर्माण में अम्बेडकर के योगदान पर दो दिन तक काफी सार्थक चर्चा करके एक कृतज्ञ राष्ट्र होने का दायित्व निभाया है .इस चर्चा ने कुछ प्रश्नों के जवाब दिये है तो कुछ नए प्रश्न खड़े भी किये है ,जिन पर आगे विमर्श जारी रहेगा .दो दिन तक सर्वोच्च सदन का चर्चा करना अपने आप में ऐतिहासिक माना जायेगा .यह इसलिये भी महत्वपूर्ण हो गया कि जो पार्टियाँ गाहे बगाहे अब तक डॉ अम्बेडकर के संविधान निर्माता होने पर संदेह प्रकट करती रही , आलोचना करती रही ,उनके भी सुर बदले है तथा उन्होंने भी माना कि संविधान निर्माण में डॉ अम्बेडकर का योगदान अतुलनीय है ,उसको नकारा नहीं जा सकता है .

जो लोग यह कहकर अम्बेडकर के महत्व को कम करने की कोशिश करते है कि संविधान सभा के अध्यक्ष तो डॉ राजेन्द्र प्रसाद थे .अम्बेडकर तो महज़ ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष थे .जिसमे उनके समेत कुल 9 सदस्य थे ,जिसमे के एम मुंशी ,गोपाल स्वामी अयंगार और कृष्ण स्वामी अय्यर जैसे विद्वान भी शामिल थे .अकेले अम्बेडकर ने क्या किया .अम्बेडकर के आलोचकों को संविधान सभा की बहस और कार्यवाही का अध्ययन करना चाहिए ताकि अम्बेडकर के योगदान को समझा जा सके .अब यह ऐतिहासिक सत्य है कि जो 9 लोग प्रारूप समिति में थे ,उनमे से एक ने त्यागपत्र दे दिया था .एक अमेरिका चला गया .दो सदस्य अपने स्वास्थ्य कारणों से दिल्ली से दूर रहे .एक राजकीय मामलों में व्यस्तता के चलते समय नहीं दे पाया और शेष लोग भी अपने अपने कारणों से प्रारूप निर्माण में अपनी भागीदारी नहीं निभा सके .इसलिए संविधान का प्रारूप तैयार करने का सारा उत्तरदायित्व अकेले डॉ अम्बेडकर के कन्धों पर आ पड़ा जिसे उन्होंने बखूबी निभाया .इसीलिए उन्हें भारतीय संविधान का असली निर्माता कहा जाता है .

संसद में पहले दिन की बहस का आगाज़ करते हुए केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथसिंह ने कहा कि अम्बेडकर का इस देश में बहुत अपमान हुआ ,लेकिन उन्होंने कभी देश छोड़ने की बात नहीं सोची .वे सच्चे अर्थों में राष्ट्रऋषि थे .दुसरे दिन बहस का समापन करते हुए प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि अम्बेडकर ने जहर खुद पिया और अमृत हमारे लिए छोड़ गए .गृहमंत्री का डॉ अम्बेडकर को राष्ट्रऋषि कहना और प्रधानमंत्री का उन्हें हलाहल पीनेवाला नीलकंठ निरुपित करना कई सवाल खड़े करता है .जब राजनाथसिंह कहते है कि देश में अम्बेडकर का बहुत अपमान हुआ ,तो उन्हें और साफगोई बरतनी चाहिये और देश को यह बताना चाहिये था कि आखिर वो कौन लोग थे ,जिन्होंने अम्बेडकर को अपमानित किया .तत्कालीन व्यवस्था और धार्मिक कारण तो थे ही जिनको अम्बेडकर ने आगे चलकर ठुकरा दिया था ,लेकिन आज़ादी के आन्दोलन के कई चमकते सितारों ने भी अम्बेडकर को अपमानित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी थी .उन पर कालाराम मंदिर प्रवेश आन्दोलन के वक़्त पत्थर बरसाने वाले कौन लोग थे ? उनकी उपस्थिति के बाद उन स्थानों को गंगाजल और गौमूत्र छिडक कर पवित्र करने वाले लोग कौन थे ? वो कोन थे जिन्होंने अछूतों से पृथक निर्वाचन का हक छीन लिया था और डॉ अम्बेडकर को खून के आंसू रोने को विवश किया था .वो कौनसी विचारधारा के लोग थे जिन्होंने अम्बेडकर को हिन्दू कोड बिल नहीं लाने दिया और अंततः उन्हें भारी निराशा के साथ केन्द्रीय मंत्रिमंडल छोड़ना पड़ा था .इससे भी आगे बढ़ कर एक दिन उन्हें देश ना सही बल्कि धर्म को छोड़ना पड़ा .इन बातों पर भी चर्चा होती तो कई कुंठाओं को समाधान मिल सकता था .जब प्रधानमन्त्री यह स्वीकारते है कि डॉ अम्बेडकर को जहर खुद पीना पड़ा तो वो क्या जहर था ,उससे देश को अवगत होना चाहिये .यह देश को जानने का हक है कि किन परिस्थितियों में अम्बेडकर ने अपना सार्वजनिक जीवन जिया और सब कुछ सहकर भी देश को अपना सर्वश्रेष्ठ देने की महानता दिखाई .

संसद में यह पहली बार हुआ कि एक कांग्रेसी सांसद मल्लिकार्जुन खरगे ने बामसेफ के संस्थापक बहुजन राजनीती के सूत्रधार कांशीराम के केडर केम्पों की भाषा का इस्तेमाल किया .उन्होंने राजनाथसिंह को जोरदार जवाब देते हुए एक नयी बहस को जन्म दिया है .हालाँकि मीडिया ने उसे बहुत खूबसूरती से दबा दिया है .आश्चर्य होता है कि असहिष्णुता पर आमिर खान के बयान को तिल का ताड़ बनाने वाला मीडिया ,हर छोटी छोटी प्रतिक्रिया को विवादित बयान में बदलनेवाला मीडिया मल्लिकार्जुन खरगे के बयान पर कैसे मौन रह गया .देश भर से कोई नहीं उठ खड़ा हुआ कि खरगे ने ऐसा क्यों कहा कि –“आप विदेशी लोग है ,आप आर्य है ,बाहर से आये है .अम्बेडकर और हम लोग तो इस देश के मूलनिवासी है ,पांच हजार साल से मार खा खा कर भी हम यहीं बने हुए है “. खरगे के बयान में इस देश में बर्षों से जारी आर्य- अनार्य ,आर्य -द्रविड़ ,यूरेशियन विदेशी आर्यन्स की अवधारणा पर नए सिरे से विमर्श पैदा कर दिया है ,लेकिन सत्तापक्ष और मीडिया ने बहुत ही चालाकी से खरगे के बयान को उपेक्षित कर दिया है ताकि इस बात पर कहीं कोई बहस खड़ी ना हो जाये और सच्चाई की परतें नहीं उतरने लगे .यह विचारधाराओं के अवश्यम्भावी संघर्ष को टालने की असफल कोशिश लगती है .इस एक बयान से मल्लिकार्जुन खरगे देश के अनार्यों के नए हीरो के रूप में उभरते दिखाई दे रहे है ,हालाँकि वे अपने इस प्रकार के बयान पर कितना मजबूती से टिके रहते है ,यह तो भविष्य में ही पता चल पायेगा मगर खरगे की साफगोई ने दलित बहुजन मूलनिवासी आन्दोलन में नई वैचारिक प्राणवायु संचरित की है .

इस बहस का सबसे बड़ा फलितार्थ आरक्षण और संविधान को बदलने की दक्षिणपंथी बकवास को मिला एक मुकम्मल जवाब माना जा सकता है .लुटियंस के टीले से नागपुर के केशव भवन को मिला यह अब तक का सबसे कड़वा जवाब है ,जिसमें संघ के प्रचारक रह चुके स्वयंसेवक प्रधानमन्त्री ने परमपूज्य सरसंघचालक मोहन राव भागवत को दो टूक शब्दों में कह दिया है कि ना तो आरक्षण की व्यवस्था में कोई बदलाव किया जायेगा और ना ही संविधान बदला जायेगा ,क्योंकि ऐसा करना आत्महत्या करने के समान होगा .इस कड़े जवाब से देश के वंचित समुदाय में एक राहत देखी जा रही है .अभी यह कहना जल्दबाजी ही होगी कि ऐसा कह कर मोदी देश के दलित वंचितों का भरोसा जीत पाने में वे कामयाब हो गए है ,लेकिन जिस तरह से बिहार चुनाव परिणाम से लेकर भारतीय संसद की बहस ने भागवत की किरकिरी की है ,उससे हाशिये का तबका ख़ुशी जरुर महसूस कर रहा है .

संसद में हुयी दो दिवसीय चर्चा और राष्ट्रव्यापी संविधान दिवस का मनाया जाना भारतीय राष्ट्र राज्य के लिए एक ऐतिहासिक आयोजन है ,मगर इन सबके मध्य बाबा साहब डॉ भीमराव अम्बेडकर को अतिमानव बना कर उनके अवतारीकरण की कोशिशों को खतरे के रूप में देखने की जरुरत है .अम्बेडकर को भगवान बनाना उनके उस विचार की हत्या करना है जिसमे वे सदैव व्यक्तिपूजा के विरोधी रहे .उन्हें मसीहाकरण से सख्त ऐतराज़ रहा ,मगर आज हम देख रहे है कि लन्दन से लेकर मुंबई के इंदु मिल तक स्थापित किये जा रहे स्मारकों के पीछे वही हीरो वर्सिपिंग का ही अलोकतांत्रिक विचार काम कर रहा है .कहीं ऐसा ना हो कि अम्बेडकर के विचारों को पूरी तरह दफन करते हुए कल उनके मंदिर बना दिये जाये ,उन्हें विष्णु का ग्यारहवां अवतार घोषित कर दिया जाये और मंदिरों में पंडित लोग घंटे घड़ियाल बजा कर आरतियाँ उतारने लगे .यह खतरा इसलिये बढ़ता जा रहा है क्योंकि कोई उन्हें आधुनिक मनु तो कोई राष्ट्रऋषि और कोई जहर पीनेवाला नीलकंठ बताने पर उतारू है .

आज सब लोग एक रस्म अदायगी की तरह डॉ अम्बेडकर की प्रशंसा में लगे है ,पर 26 नवम्बर 1949 को संविधान सौंपते हुए उनके द्वारा कही गयी बात पर चर्चा नहीं हो रही है कि आर्थिक एवं सामाजिक गैर बराबरी मिटाये बगैर यह राजनीतिक समानता स्थायी नहीं हो सकती है .काश ,इस विषय पर देश की संसद विचार विमर्श करती ,मगर अफ़सोस कि अम्बेडकर की व्यक्ति पूजा चालू है ,उनका अनथक गुणगान जारी है. बड़ी ही चालाकी से उनके विचारों को दरकिनार किया जा रहा है .एक राष्ट्र के नाते बाबा साहब जो चाहते थे क्या हम वो लक्ष्य प्राप्त करने में सफल रहे है ? इस सवाल पर मेरे देश की संसद मौन है !

- भंवर मेघवंशी
( स्वतंत्र पत्रकार )

Saturday, January 11, 2014

पूजा-अर्चना से होगा राजस्थान का विकास

संविधान या कानून द्वारा स्वीकृत प्रावधानों के तहत या संसारभर में विज्ञान के किसी भी सिद्धान्त से इस बात की प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पुष्टि नहीं हुई है कि पूजा-अर्चना किये जाने से किसी प्रदेश की जनता की उन्नति और प्रदेश के विकास का मार्ग प्रशस्त होता हो। ऐसे में जनता से संग्रहित राजस्व को प्रदेश की उन्नति और विकास के नाम पर राजस्थान सरकार द्वारा खर्च किया जाना असंवैधानिक और अवैज्ञानिक तो है ही, साथ ही साथ ऐसा किया जाना अंधविश्‍वासों को बढावा देने वाला है। जो संविधान के अनुच्छेद 51क (ज) में वर्णित नागरिकों के मूल कर्त्तव्यों के विपरीत भी है।
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

एसआर बोम्मई बनाम भारत संघ, (1994) 3 एससीसी मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने साफ लफ्जों में कहा है कि धर्म निरपेक्षता का सिद्धान्त भारतीय संविधान का आधारभूत (अर्थात् मूल) ढांचा है। राज्य सत्ता द्वारा इसका उल्लंघन किया जाना संविधान का खुला उल्लंघन है। हमारे देश के संविधान के अनुसार धर्म लोगों के व्यक्तिगत विश्‍वास की बात है, उसे लौकिक क्रियाओं में नहीं मिलाया जा सकता है, क्योंकि लौकिक क्रियाओं को तो राज्य विधि बनाकर विनियमित कर सकता है, लेकिन धर्म, आस्था या विश्‍वास को विनियमित नहीं किया जा सकता। केवल यही नहीं, बल्कि राज्य सत्ता अर्थात् सरकार को धर्मनिरपेक्ष बने रहने के लिये धार्मिक मामलों में पूरी तरह से धर्म निरपेक्ष और तटस्थ बने रहना राज्य सत्ता का बाध्यकारी संवैधानिक दायित्व है। ऐसा करके ही कोई भी राज्य सत्ता या सरकार धर्मनिरपेक्ष या पंथनिरपेक्ष होने का दावा कर सकती है।

हमारे संविधान में धर्म निरपेक्षता का जो मूल अधिकार लोगों को दिया गया है, उसके अन्तर्गत किसी भी धर्म या ईश्‍वरीय सत्ता में आस्था नहीं रखने वाले नास्तिकों के लिये भी संवैधानिक संरक्षण प्रदान किया गया है। अर्थात् यदि कोई व्यक्ति देश में प्रचलित किसी भी धर्म को नहीं मानता हो या नहीं मानना चाहता हो तो उसके इस नास्तिक विश्‍वास और आस्था की रक्षा करना भी राज्य सत्ता का संवैधानिक दायित्व है। इसीलिये राज्य सत्ता से संवैधानिक अपेक्षा की जाती है कि राज्य सत्ता प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कोई भी ऐसा कृत्य नहीं करे, जिससे किसी भी प्रकार के धार्मिक, आस्तिक या नास्तिक विश्‍वासों में आस्था रखने वाले लोग या नागरिक आहत हों या उनकी आस्था को किसी भी प्रकार की प्रत्यक्ष या परोक्ष चोट पहुँचे।

केवल यही नहीं, बल्कि जनता से संग्रहित राजस्व को राज्य सत्ता द्वारा किसी भी प्रकार के धार्मिक आयोजनों या किसी भी धर्म को बढावा देने या किसी धर्म के विरुद्ध इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। यही कारण है कि राज्य सत्ता द्वारा किसी भी धर्म या किसी भी धार्मिक कर्मकाण्ड को बढावा देने या किसी भी धर्म को क्षति कारित करने वाला कोई भी कृत्य किया जाना धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्त तथा संविधान का खुला उल्लंघन माना जाता है। यही कारण है कि लोकतांत्रिक तथा संवैधानिक मूल्यों में आस्था रखने वाली संसार की सभी धर्मनिरपेक्ष सरकारें धर्मनिरपेक्षता के इस सिद्धान्त का ईमानदारी से पालन करती हैं।

उपरोक्त सभी तथ्यों, अवधारणाओं और हमारे देश के संवैधानिक प्रावधानों के ठीक विपरीत संविधान के स्पष्ट प्रावधानों को धता बताते हुए राजस्थान की वर्तमान वसुन्धरा राजे सरकार ने निर्णय लिया है कि राजस्थान के मंदिर हो या दरगाह, चाहे गुरुद्वारा या फिर गिरजाघर। सभी धार्मिक स्थलों पर प्रदेश की उन्नति और विकास की कामना से सरकार की ओर से "विशेष" आराधना का कार्यक्रम चलाया जायेगा। इसके लिए राज्य सरकार ने बाकायदा राज्य के खजाने से 34 लाख 80 हजार रुपये का विशेष बजट आवंटित किया है।

ऐसे 108 धार्मिक स्थलों का चयन किया गया है, जहां सरकार की ओर से ईशवंदना का आयोजन होगा। सुख-समृद्धि की कामना से देवस्थान विभाग के मंदिरों में महाआरती की जाएगी, तो दरगाहों पर चादरपोशी का दौर चलेगा। यही नहीं, गुरुद्वारों में अरदास और गिरजाघरों में प्रार्थना सभाएं होंगी। सरकार द्वारा सभी विभागों से तैयार कराई जा रही 60 दिन की विशेष कार्ययोजना के तहत देवस्थान विभाग की ओर से महाआरती व सांस्कृतिक कार्यक्रम तय किए गए। धार्मिक स्थलों पर विभिन्न आयोजन के साथ ही राज्य के प्रत्येक जिले के एक मंदिर में सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होंगे। इस सब पर प्रतिपक्ष की चुप्पी भी आश्‍चर्यजनक है!

राज्य के देवस्थान विभाग के कमिश्‍नर भवानी सिंह देथा के मुताबिक ‘‘हमने सभी जिलों के निर्देश जारी कर दिए हैं कि आयोजन बेहतर हों और अधिक से अधिक लोगों का जुड़ाव हो।’’ धार्मिक स्थलों पर कार्यक्रमों का ये दौर करीब डेढ़ माह तक जारी रहेगा। विभाग के अधिकारियों के अनुसार ये कार्यक्रम 15 जनवरी से शुरू होंगे, जो फरवरी तक जारी रहेंगे।

राज्य के देवस्थान विभाग द्वारा प्रत्येक धार्मिक स्थल पर पूजा-अर्चना, चादरपोशी या अरदास के लिए 10 हजार रुपये का बजट स्वीकृत किया जाएगा। वहीं सांस्कृतिक कार्यक्रम में प्रत्येक के लिए एक लाख रुपये का बजट रखा गया। इस प्रकार करीब 34 लाख 80 हजार रुपये के बजट में ये आयोजन होंगे।

उपरोक्त आयोजन में राजस्था सरकार द्वारा 34 लाख 80 हजार रुपये तो नगद स्वीकृत किये गये हैं। इसके अलावा डेढ माह तक सरकारी लोक सेवकों को इस असंवैधानिक कार्य को अंजाम देने के लिये कार्य करना होगा। इससे राज्य सत्ता की धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक छवि का क्या होगा और किसी भी धर्म में आस्था नहीं रखने वाले लोगों से एकत्रित धन भी धर्म के आयोजनों में खर्च किया जाना, अपने आप में ऐसे नागरिकों की आस्था एवं विश्‍वासों के साथ खुला मजाक और सरकार द्वारा किया जाने वाला धोखा है।

इसके अलावा एक सवाल और भी यहॉं पर खड़ा होता है। राजस्थान की वर्तमान राज्य सरकार जब तक नयी विधानसभा से बजट स्वीकृत नहीं करा लेती है, पिछली विधानसभा एवं पिछली सरकार द्वारा स्वीकृत बजट से ही राज्य सत्ता का संचालन कर रही है। पिछली विधानसभा एवं पिछली सरकार द्वारा संविधान में वर्णित धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्त के विरुद्ध धार्मिक आयोजनों पर खर्च करने के लिये ऐसी कोई बजट स्वीकृत प्रदान नहीं की गयी है और संविधान के अनुसार विधानसभा द्वारा सम्भवत: ऐसी बजट स्वीकृत प्रदान भी नहीं की जा सकती है।

ऐसे में जनता की गाढी कमाई से अर्जित राजस्व को सत्ताधारी पार्टी के लोगों द्वारा अपनी आस्थाओं को बढावा देने के लिये सरकारी धन से धार्मिक आयोजनों या पूजा अर्चना पर इतनी बड़ी राशि को खर्च किया जाना, अपने आप में प्रदेश की जनता और संविधान की भावनाओं के साथ खुला खिलवाड़ है। जिसे किसी भी सूरत में संविधान सम्मत नहीं माना जाना चाहिये।

आज तक किसी भी संविधान या कानून द्वारा स्वीकृत प्रावधानों के तहत या संसारभर में विज्ञान के किसी भी सिद्धान्त से इस बात की प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पुष्टि नहीं हुई है कि पूजा-अर्चना किये जाने से किसी प्रदेश की जनता की उन्नति और किसी प्रदेश के विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ हो। ऐसे में जनता से संग्रहित राजस्व को प्रदेश की उन्नति और विकास के नाम पर खर्च किया जाना असंवैधानिक और अवैज्ञानिक तो है ही, साथ ही साथ सरकार द्वारा ऐसा किया जाना अंधविश्‍वासों को बढावा देने वाला है। जो संविधान के अनुच्छेद 51क (ज) में वर्णित नागरिकों के मूल कर्त्तव्यों के विपरीत भी है। इस सन्दर्भ में यहॉं यह उल्लेखनीय है कि संविधान के अनुच्छेद 51क (ज) में भारत के प्रत्येक नागरिक द्वारा वैज्ञानिक विचारधारा को बढावा देना, उसका मूल कर्त्तव्य बताया गया है, जबकि इसके विपरीत स्वयं सरकार वैज्ञानिकता के बजाय अंध विश्‍वासों को बढावा देने वाले धार्मिक आयोजनों पर लाखों रुपये खर्च करने जा रही है।

ऐसे में राजस्थान सरकार का प्रस्तावित धार्मिक पूजा-आयोजन का कृत्य संविधान विरोधी है, जिस पर तत्काल रोक लगे और जनता से एकत्रित राजस्व को बर्बाद होने से बचाया जाये। इसके लिये प्रदेश और देश के प्रत्येक व्यक्ति का यह दायित्व है कि हम सब आगे आकर इसका कड़ा विरोध करें और इस गैर- जरूरी खर्चे को रोकने के लिये सरकार पर दबाव बनायें।-०९५२८५०२६६६, ०८५६१९५५६१९

मूल खबर : दैनिक भास्कर : 

Thursday, November 1, 2012

मुनवादी लोगों ने दलित जोड़ों को मन्दिर से अपमानित कर भगाया!

यदि हम वास्तव में चाहते हैं कि देश में अमन-चैन बना रहे और समाज के सभी दबे-कुचले लोग तरक्की करें और सम्मान के साथ जीवन यापन करें तो हमें मनुवाद को तत्काल प्रतिबन्धित करने और मुनवादी कुकृत्यों को अंजाम देने वालों को देशद्रोही के समान दण्डनीय अपराध घोषित करने की सख्त जरूरत है| जिसके लिये संविधान के भाग तीन के अनुच्छेद 13 (1) एवं 13 (3) में सरकार को सम्पूर्ण अधिकार प्राप्त हैं| यदि सरकार में राजनैतिक इच्छा-शक्ति हो तो इस प्रावधान के तहत मनुवादी दैत्य को नेस्तनाबूद किया जा सकता है| लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है, जिसके पीछे हर पार्टी में मनुवादियों का वर्चस्व होना बड़ा कारण है|
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

राजस्थान के अजमेर सम्भाग मुख्यालय से प्रकाशित प्रमुख समाचार-पत्र ‘‘दैनिक नवज्योति’’ 29 अक्टूबर, 2012 के अंक के मुखपृष्ठ पर-‘‘दलित जोड़ों को धक्के मारकर मन्दिर से निकाला’’ शीर्षक से समाचार प्रकाशित हुआ है| जिसमें कहा गया है कि 26 अक्टूबर को अनुसूचित जाति के दो नवविवाहित जोड़े मन्दिर में भगवान के समक्ष नतमस्तक होकर (जिसे स्थानीय आंचलिक बोली में ‘धोक देना’ कहा जाता है) आशीर्वाद लेने गये, लेकिन मन्दिर के पुजारी सहित कुछ मनुवादी लोगों ने और कुछ महिलाओं ने मिलकर न मात्र उन्हें मन्दिर से धक्के देकर बाहर कर दिया, बल्कि उनके साथ जाति सूचक शब्दों का अभद्रतापूर्ण तरीके से उपयोग करते हुए गाली-गलोंच भी की गयी और उन्हें मन्दिर से निकाल दिया गया| इस मामले में खेतड़ीनगर पुलिस ने आठ लोगों के विरुद्ध मुकदमा दर्ज किया है| 

Manwadi System
इस मामले में जानकारी करने पर सूत्रों का कहना है कि अनुसूचित जाति वर्ग में शामिल ‘मेघवाल’ जाति के लोगों को स्थानीय सवर्ण जाति के लोग मन्दिरों में प्रवेश नहीं करने देते हैं और जब भी इन लोगों को में से किसी को मन्दिर में स्थापित भगवान का आशीर्वाद लेना होता है तो मन्दिर के सामने रास्ते या जमीन पर खड़े होकर ही भगवान का आशीर्वाद लिया जा सकता है| इस बार दो नव विवाहित जोड़ों ने मन्दिर के अन्दर जाकर न मात्र भगवान का दर्शन करके आशीर्वाद लेने की हिमाकत की, बल्कि मन्दिर में स्थापित भगवान की पूजा-अर्चना करने का भी अपराध भी कर डाला| जो मन्दिर के पुजारी को नागवार गुजरा| जिस पर मन्दिर के पुजारी घीसाराम स्वामी ने कुछ स्थानीय स्त्री-पुरुषों के साथ मिलकर नवविवाहित जोड़ों को मन्दिर से खदेड़ दिया|

सूत्रों का कहना है कि उक्त पुजारी कट्टर हिन्दू है और मनु द्वारा स्थापित ब्राह्मणवादी व्यवस्था को लागू करना अपना पवित्र धार्मिक कर्त्तव्य मानता है| जिसमें स्थानीय उच्च कुलीन हिन्दू साथ देते हैं| सूत्रों का यह भी कहना है कि पकड़े गये लोगों का राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी से निकट सम्बन्ध हैं|

यहॉं विचारणीय गम्भीर प्रश्‍न यह है कि हो सकता है कि कानून के अनुसार आरोपियों के विरुद्ध मुकदमा चले और कुछ वर्षों के विचारण के बाद कुछ लोगों को सजा भी हो जाये, जिसकी कम ही सम्भावना है, लेकिन असल सवाल ये है कि आखिर मनुवाद द्वारा स्थापित यह कुव्यवस्था कब समाप्त होगी और चरित्र निर्माण की बात करने वाला संघ कब तक मनुवादी लोगों का पोषण तथा संरक्षण करता रहेगा?

जब तक मनुवाद और मनुवाद के पोषक संघ तथा संघ की घृणित और समाज तोड़क दोगली सोच को ध्वस्त नहीं कर दिया जाता है, तब तक अकेला कानून कुछ भी नहीं कर सकता है| क्योंकि राजस्थान और अन्य अनेक राज्यों में आये दिन मनुवादियों द्वारा इस प्रकार की अमानवीय और आदिकालीन सोच की परिचायक घटनाओं को लागातार और बेखोफ अंजाम दिया जाता रहा है| जिसे संघ एवं भाजपा से जुड़े लोगों का खुला राजनैतिक संरक्षण प्राप्त है| जिसका दु:खद परिणाम ये होता है कि आये दिन दलित उत्पीड़न होता रहता है| उत्पीड़न के कुछ मामलों में मुकदमे भी दर्ज होते हैं, लेकिन अधिकतर मामलों में गवाहों को डराया और धमकाया जाता है| डराने और धमकाने से नहीं मानने पर उनके साथ मारपीट की जाती है, उनकी औरतों और लडकियों के साथ अपमानजनक व्यवहार किया जाता है और अन्तत: शोषित तथा भयभीत दलित दर जाते हैं! परिणामस्वरूप अधिकतर मुकदमे निरस्त हो जाते हैं, जिन्हें यह कहकर प्रचारित किया जाता है कि दलित लोगों द्वारा बनावटी मुकदमे दर्ज करवाये जाते हैं| 

यदि हम वास्तव में चाहते हैं कि देश में अमन-चैन बना रहे और समाज के सभी दबे-कुचले लोग तरक्की करें और सम्मान के साथ जीवन यापन करें तो हमें मनुवाद को तत्काल प्रतिबन्धित करने और मुनवादी कुकृत्यों को अंजाम देने वालों को देशद्रोही के समान दण्डनीय अपराध घोषित करने की सख्त जरूरत है| जिसके लिये संविधान के भाग तीन के अनुच्छेद 13 (1) एवं 13 (3) में सरकार को सम्पूर्ण अधिकार प्राप्त हैं| यदि सरकार में राजनैतिक इच्छा-शक्ति हो तो इस प्रावधान के तहत मनुवादी दैत्य को नेस्तनाबूद किया जा सकता है| लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है, जिसके पीछे हर पार्टी में मनुवादियों का वर्चस्व होना बड़ा कारण है|

Sunday, November 20, 2011

विदेशों से केवल तकनीक ही नहीं, इंसाफ करना भी सीखें!

प्रेसपालिका न्यूज ब्यूरो

भारत में विदेशी वस्तुओं और तकनीक को अपनाने वालों की अच्छी खासी तादाद है| विदेशी सामग्री को अपनाने के प्रति हर आम-ओ-खास में शर्म नहीं, बल्कि गर्व का भाव है| इस प्रकार से आजादी के समय में विदेशी कपड़ों की होली जलाने का भाव अब भारत में ध्वस्त हो चुका है| अब तो स्वदेशी की बात करने वाले और संत महात्मा भी आधुनिक सुविधा सम्पन्न जीवन शैली एवं वातानुकूलित संयन्त्रों में जीवन जीने के आदी हो चुके हैं| ऐसे में यह बात निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि आज वैश्‍विक अर्थव्यवस्था तथा अन्तरजाल (इंटरनैट) के युग में केवल भारत की विरासत और सोच को ही सर्वश्रेष्ठ कहने वालों को अब अपनी परम्परागत सोच पर पुनिर्विचार करके खुले दिमाग और उदारता से सोचने की जरूरत है, जिससे कि हम संसार के किसी भी कोने में अपनायी जाने वाली अच्छी बातों और नियमों को देश में खुशी-खुशी अपना सकें|

आज की कड़वी सच्चाई यह है कि केवल हम ही नहीं, बल्कि सारा संसार विकसित देशों का पिछलग्गू बना हुआ है| जिसका कारण विकसित देशों की जीवन शैली है, लेकिन हमारा मानना है कि किसी भी बात को आँख बन्द करके अपनाने की जरूरत नहीं है, बल्कि जो बात, जो सोच और जो विचार हमारे देश के लोगों के जीवन को बदलने वाले हों, उन्हें मानने, स्वीकरने और अपनाने में कोई आपत्ति या झिझक नहीं होनी चाहिये| जैसे कि हम कम्प्यूटर तकनीक को हर क्षेत्र में अपना रहे हैं, जिससे जीवन में क्रान्तिकारी बदलाव आये हैं| जो काम व्यक्तियों का बहुत बड़ा समूह सालों में भी नहीं कर पाता, उसी कार्य को कम्प्यूटर तकनीक के जरिये कुछ पलों में पूर्ण शुद्धता (एक्यूरेसी) से आसानी किया जा सकता है| ऐसे में हमारे जीवन और व्यवस्था से जुड़ी अन्य बातों को भी हमें सहजता और उदारता से अपनाने की जरूरत है|

इसी प्रसंग में संयुक्त राज्य अमेरिका की न्यायिक व्यवस्था के एक उदाहरण के जरिये भारत की न्यायिक व्यवस्था में बदलाव के लिये यहॉं एक विचार प्रस्तुत किया जा रहा है| जिस पर भारत के न्यायविदों, नीति नियन्ताओं और विधि-निर्माताओं को विचार करने की जरूरत है| इसके साथ-साथ आम लोगों को भी इस प्रकार के मामलों पर अपनी राय को अपने जनप्रतिनिधियों के जरिये संसद तथा विधानसभाओं तक पहुँचाने की भी सख्त जरूरत है|

यहॉं सबसे पहले यह बतलाना जरूरी है कि अमेरिका में हर एक राज्य का संविधान और सुप्रीम कोर्ट अलग होते हैं| जो प्रत्येक राज्य की विशाल और स्थानीय सभी जरूरतों तथा आशाओं को सही अर्थों में पूर्ण करते हैं| प्रस्तुत मामले में अमेरिका के मिस्सिस्सिपी राज्य के सुप्रीम कोर्ट ने मिस्सिस्सिपी राज्य के न्यायिक निष्पादन आयोग बनाम जस्टिस टेरेसा ब्राउन डीयरमैन मामले में सुनाये गये निर्णय दिनांक 13.04.2011 के कुछ तथ्य पाठकों के चिन्तन और विचारार्थ प्रस्तुत हैं|

मिस्सिस्सिपी राज्य के न्यायिक निष्पादन आयोग ने वहॉं के सुप्रीम कोर्ट की जज डीयरमैन के विरुद्ध दिनांक 19.01.2011 को औपचारिक शिकायत दर्ज करवाई| डीयरमैन पर आरोप लगाया कि उन्होंने जजों के लिये लागू आचार संहिता के निम्न सिद्धांतों का उल्लंघन किया :-

(1) न्यायिक निष्ठा को संरक्षित करने के आचरण के उच्च मानकों को स्थापित करने, बनाये रखने और लागू करना|

(2) जज द्वारा हमेशा इस प्रकार कार्य करना कि उससे न्यायपालिका की निष्ठा व निष्पक्षता में जन विश्वास बढे|

(3) जज द्वारा अपने पद की साख को अन्य व्यक्ति के हित साधन के लिए उपयोग में नहीं लाना|

(4) जज द्वारा कानून का विश्‍वासपूर्वक पालना करना और व्यक्तिगत हितों के लिए कार्य करने से दूर रहना|

उपरोक्त सिद्धान्तों का उल्लंघन करके वहॉं के एक कोर्ट की जज डीयरमैन ने प्रथम न्यायिक फ्लोरिडा जिला सर्किट न्यायालय के जज लिंडा एल नोबल्स को दिनांक 05.11.2010 को एक टेलीफोन किया और अपने एक पुराने मित्र के पक्ष में सिफारिश करके उसे जमानत पर छोड़ने के लिये संदेश छोड़ा| यद्यपि उक्त फोन संदेश से पूर्व ही मामले की सुनवाई हो चुकी थी, जिससे जिला कोर्ट के निर्णय पर संदेश का कोई प्रभाव नहीं पड़ा, लेकिन जस्टिस डीयरमैन के विरुद्ध आरोप लगाये गये, जिन्हें स्वयं डीयरमैन ने भी स्वीकार कर लिया| डीयरमैन का आचरण मिस्सिस्सिपी राज्य के संविधान की धारा 177 ए के अंतर्गत भी दंडनीय होने के कारण और आचरण संहिता के उल्लंघन का आरोप लगने के बाद जस्टिस डीयरमैन स्वयं को सार्वजनिक रूप से प्रता़ड़ित किये जाने और 100 डॉलर (5000 रुपये) तक के खर्चे के दंडादेश को भुगतने के लिए भी स्वेच्छा से सहमत हो गयी| इसके बाद वहॉं के राज्य के सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस डीयरमैन को दोषी मानते हुए तीस दिन के लिए अवैतनिक निलंबन, सार्वजनिक प्रताड़ना और 100 डॉलर खर्चे का दण्डादेश जारी किया गया|

इसके विपरीत भारत के सुप्रीम कोर्ट द्वारा उत्तर प्रदेश न्यायिक अधिकारी संघ (1994 एससीसी 686) के मामले में सुनाये गये निर्णय में किसी भी जज के विरुद्ध मुख्य न्यायाधीश की अनुमति के बिना मामला दर्ज करने तक पर कानूनी प्रतिबन्ध लगा रखा है और भारत में तकरीबन सभी न्यायालयों द्वारा अमेरिका के उक्त मामले जैसे मामलों को तुच्छ मानते हुए कोई संज्ञान तक नहीं लिया जाता है| यह भारतीय न्याय व्यवस्था के लिये घोर चिंता और आम लोगों तथा संसद के लिये विचार का विषय है|

तथ्य संग्रह : मनीराम शर्मा, एडवोकट, लेखन एवं सम्पादन : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

Thursday, September 8, 2011

सुप्रीम कोर्ट में दो करोड़ 39 लाख मेडीकल खर्च का रिकॉर्ड ही नहीं?

सूचना अधिकार कानून के तहत हुआ खुलासा
सुप्रीम कोर्ट में दो करोड़ 39 लाख मेडीकल खर्च का रिकॉर्ड ही नहीं?
सुप्रीम कोर्ट के मामले में सीआईसी की बोलती बन्द क्यों हो जाती है?