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Saturday, April 30, 2016

मायावती की जीत, क्या सामाजिक न्याय की हार होगी?

मायावती की जीत, क्या सामाजिक न्याय की हार होगी?
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लेखक : Dr. Purushottam Meena 'Nirankush'
मनुवादी एमके गांधी द्वारा आमरण अनशन को हथियार बनाकर बाबा साहब को कम्यूनल अवार्ड को त्यागने को मजबूर किया गया। दुष्परिणामस्वरूप पूना पैक्ट अस्तित्व में आया। जिसके तहत सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े उन वर्गों को, जिनका राज्य (सरकार) की राय में प्रशासन में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं हो को प्रशासनिक प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिए संविधान में मूलाधिकार के रूप में आरक्षण की व्यवस्था की गयी। जिसके तहत सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में अजा, अजजा एवं ओबीसी को आरक्षण प्रदान किया जा रहा है। जिसका मूल मकसद सामाजिक न्याय की स्थापना करना था। यद्यपि न्यायपालिका ने आरक्षण को अनेकों बार कमजोर करने वाले निर्णय सुनाये हैं।

इसके विपरीत संघ की राजनैतिक शाखा भाजपा की राज्य सरकारों द्वारा संविधान को धता बताकर आरक्षण प्रदान करने हेतु आर्थिक आधार को आगे बढ़ाया जाकर भाजपा की सरकारों द्वारा राजस्थान और गुजरात में सामाजिक न्याय की हत्या करने की शुरूआत की जा चुकी है। इस अन्याय के समर्थन के लिए दलित नेतृत्व पासवान, उदितराज और अठावले को भाजपा द्वारा पहले ही अपने साथ मिलाया जा चुका है। मायावती के विरुद्ध जारी आपराधिक मामलों के दबाव के जरिये उसे भी संघ द्वारा आर्थिक आधार पर आरक्षण का समर्थन करने को मजबूर किया जा चुका है। संविधान के विरूद्ध जाकर मायावती राज्यसभा में सवर्णों को आर्थिक आधार पर आरक्षण प्रदान करने की अन्यायपूर्ण मांग कर चुकी हैं।

इस सबके बावजूद भी संविधान में संशोधन के बिना आर्थिक आधार पर आरक्षण को व्यवहार में लागू नहीं किया जा सकता। मगर सबसे बड़ा पेच यह है कि राज्यसभा में भाजपा के बहुमत के अभाव में संविधान संशोधन सम्भव नहीं हो पा रहा है। राज्यसभा में बहुमत के लिए भाजपा और संघ द्वारा उत्तर प्रदेश विधानसभा के अगले आम चुनाव के बाद बदलने वाली तस्वीर का इन्तजार किया जा रहा है।

चूंकि वर्तमान परिदृश्य में राजनैतिक समीक्षकों को उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बहुमत में आने के आसार बहुत ही कम नजर आ रहे हैं। ऐसे में उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनाव के बाद निम्न संभावनाएं और आशंकाएं दिखाई दे रही हैं :-

1. उत्तर प्रदेश विधानसभा में बसपा को बहुमत मिले जिससे राज्यसभा में बसपा की ताकत बढ़े। मायावती तो सीबीआई जांच के शिकंजे में छूट/ढिलाई मिले और बदले में मायावती अपनी पूर्व घोषित संघ समर्थक नीति के अनुसार सवर्णों को आर्थिक आधार पर आरक्षण दिलाने के बहाने संघ/भाजपा के संविधान संशोधन के एजेंडे/प्रस्ताव का समर्थन करे।
2. उत्तर प्रदेश विधानसभा में भाजपा को बहुमत मिले जिससे राज्यसभा में भाजपा की ताकत बढ़े। जिसके बल पर भाजपा अपने एजेंडे को लागू करने के लिए संविधान में संशोधन करे। 
3. उक्त बिंदु एक संघ और भाजपा की पहली आकांक्षा है, क्योंकि बसपा के समर्थन से संविधान में संशोधन करके सामाजिक न्याय की हत्या करने में कथित रूप से दलितों की सबसे बड़ी पार्टी बसपा की सहमति भाजपा के लिए राजनीतिक रूप से दूरगामी लाभ का सौदा होगा। भाजपा की नियत पर कम सवाल उठेंगे।
4. उत्तर प्रदेश में बसपा को जिताने के बदले में केंद्र सरकार बसपा सुप्रीमों को सीबीआई से संरक्षण प्रदान करेगी, जिसके प्रतिफल में मायावती अन्य राज्यों में कांग्रेस को हराने के लिए अपने उम्मीदवार खड़े करके भाजपा को जिताने में योगदान करेंगी।
5. संविधान संशोधन के जरिये एक बार यदि आर्थिक आधार पर आरक्षण का प्रावधान संविधान में जुड़ गया तो आज नहीं तो कल, सीधे नहीं तो सुप्रीम कोर्ट के मार्फत अजा एवं जजा के आरक्षण का मूल आधार भी आर्थिक किया जाना आसान हो जाएगा। जो संघ का मूल मकसद है। इसके बाद आराक्षण का आधार जाति या वर्ग नहीं बीपीएल कार्ड होगा। जिसे खरीदना आसान होगा। आर्थिक आधार लागू होते ही पदोन्नति का आरक्षण अपने आप ख़त्म हो जाएगा और सामाजिक न्याय एक कल्पना मात्र रह जाएगा।

अत: उपरोक्त संभावनाओं को दृष्टिगत रखते हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा में मायावती को जिताना वंचित वर्ग के लिए कितना घातक हो सकता है, यह वंचित MOST वर्ग के लिए समय रहते गंभीर विचार और चिंतन का विषय होना चाहिए।

जय भारत। जय संविधान।
नर-नारी, सब एक समान।।
: डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
9875066111/29-04-2016/03.44 PM
@—लेखक का संक्षिप्त परिचय : मूलवासी-आदिवासी अर्थात रियल ऑनर ऑफ़ इण्डिया। होम्योपैथ चिकित्सक और दाम्पत्य विवाद सलाहकार। राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (BAAS), नेशनल चैयरमैन-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एन्ड रॉयटर्स वेलफेयर एसोसिएशन (JMWA), पूर्व संपादक-प्रेसपालिका (हिंदी पाक्षिक) और पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा एवं अजजा संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ।
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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

Tuesday, November 25, 2014

जन्मजातीय ईश्वरीय शक्ति से सम्पन्न आर्य श्रृष्टि के सर्वश्रेष्ठ मनुष्य हैं!

जन्मजातीय ईश्वरीय शक्ति से सम्पन्न आर्य श्रृष्टि के सर्वश्रेष्ठ मनुष्य हैं!
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

केंद्र में भाजपा के स्पष्ट बहुमत वाली सरकार के सत्तासीन होने के बाद नेट के चार्जेज लगातार बढ़ रहे हैं! क्यों इस सवाल को कोई भी (यानी मीडिया) किसी से भी (यानी सरकार से) नहीं पूछ रहा! क्यों नहीं पूछ रहा इस बारे में हम आम लोग भी चुप हैं, क्योंकि शायद हम को भी कुछ पता नहीं!

मगर बहुतों को पता भी है-चुनाव में अनाप-सनाप विदेशी पैसा, देशी मीडिया को भेंट करके नए नए जुमलों और सपनों को बेचकर जनता को जमकर गुमराह किया गया। अब अपरोक्ष रूप से धन भेजने वाले विदेशियों द्वारा सरकार की मौन स्वीकृति से नेट दरें बढ़ा दी गई तो देशी मीडिया बदले में देशी-विदेशी सभी के प्रति अपना आपसी बन्दर बाँट का धर्म चुका कर मौन साधे हुए है!

इसका सीधा असर सरकारी खर्चे (जनता की कमाई) पर नेट चलाने वाले अफसरों, धनी लोगों और काले धन के मालिकों पर कुछ नहीं होगा, मगर वंचित, पिछड़े, दलित, आदिवासी वर्गों के जागरूक लोगों और विशेषकर युवा पीढ़ी को सोशल मीडिया से दूर रखने का ये घुमा फिराकर एक उलटा-सीधा, गैर सरकारी, सरकारी हथकंडा है।

मगर इन मूर्खों को नहीं पता कि ये अपनी अमानवीय मनुवादी विचारधारा को भी तो इसी सोशल मीडिया के मार्फ़त ही तो निम्न तबकों में फ़िर से फैला रहे हैं। यदि वंचित, पिछड़े, दलित, आदिवासी वर्गों को सोशल मीडिया से दूर रहने को मजबूर किया गया तो उस अमानवीय मनुवादी विचारधारा को चासनी में लपेटकर पिलाने वाली (कु) नीति का क्या हश्र होगा? 

ओहो सॉरी....... भूल हो गयी अब इन भू-देवों को सोशल मीडिया की कहाँ जरूरत रह गयी है? अब तो ये देश के मालिक हैं!

अब तो पेड इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के मार्फ़त ही जनता के धन से अपनी विचारधारा आसानी से परोसी जा सकेगी।

जैसा कि पिछले दिनों मानवता के विरोधी मनु की आदमकद मूर्ति की छत्र छाया में संचालित राजस्थान हाई कोर्ट परिसर में "सामाजिक न्याय" के नाम पर आयोजित सेमीनार में सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री की मौजूदगी में संविधान को धता बताते हुए असंवैधानिक आर्थिक आरक्षण को मंत्री सहित सभी ने सामाजिक न्याय की जरूरत और समानता का आधार बताया गया। लच्छेदार भाषण दिए गए और आर्यों के मनुवादी मीडिया द्वारा इसे बेशर्मी से प्रकाशित किया गया! मगर किसी भी कथित बुद्धिजीवी (आर्य या अनार्य) ने एक शब्द इस बारे में नहीं लिखा कि ये कौनसा सामाजिक न्याय है?

अब राम राज्य आने वाला है। बल्कि आ ही गया है!
अभी से ही अनेक उदाहरण दिख रहे है-

आर्य मनुवादियों के हजारों सालों के अन्याय, भेदभाव और शोषण से शोषित और वंचित अनार्यों (विशेषकर दलित, आदिवासी और पिछड़ों) को सामाजिक न्याय और संवैधानिक अधिकार देने की संवैधानिक जिम्मेदारी का नाटक करने को मजबूर राजस्थान सरकार में सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय का मंत्री एक ब्राह्मण आर्य को बना रखा है!

सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के सचिव रघुवीर मीणा (आदिवासी) को समता आंदोलन समिति (जो संघ के निर्देश से काम करती है) की छोटी सी निराधार शंका पर राज्य सरकार (जो संघ के आशीर्वाद से काम करती है) ने तत्काल हटा दिया गया। आज वही अन्यायी लोग इस मंत्रालय को संचालित कर रहे हैं, जिनके अन्याय और विभेद से से बचने के लिए यह मंत्रालय संयुक्त राष्ट्र संघ से दबाव में तत्कालीन सरकार गठित किया गया था। मगर पूर्व में इस विभाग का मंत्री कोई दलित या आदिवासी ही हुआ करता था!

भाजपा सांसद साक्षी महाराज घोषणा कर चुके हैं कि-

"राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ" वर्तमान युग का भगवान हैं। 

संघ के हिन्दू मुखोटे विश्व हिन्दू परिषद के गिरिराज किशोर सिंघल (बनिया आर्य) नरेंद्र मोदी (बनिया आर्य) को आठ सौ साल के बाद में भारत का पहला स्वाभिमानी हिन्दू शासक प्रमाणित कर चुके हैं! 

उनकी नजर में अटल बिहारी वाजपेयी स्वाभिमानी हिन्दू नहीं, क्योंकि (शायद) अटल खुलकर मनुवाद का समर्थन नहीं करता था ! या इसलिए कि अटल बिहारी वाजपेयी नरेंद्र मोदी (आठ सौ साल के बाद में भारत का पहला स्वाभिमानी हिन्दू शासक जो तब का गुतरात का मुख्यमंत्री था) को शासन धर्म निभाने में असफल बताने की गलती कर बैठा था?

जब आज के युग के भगवान संघ से आशीर्वाद से संचालित सरकार को संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्तावों और मूल निवासियों के पक्ष में किये गए संवैधानिक प्रावधानों की तक परवाह नहीं तो उनके लिए नैट के दाम बढ़ाना कौनसी बड़ी बात है? आखिर-
आर्य श्रृष्टि के सर्वश्रेष्ठ मनुष्य हैं!
साक्षात ईश्वर के अवतार हैं!
कुछ भी कहने और करने को जन्मजातीय ईश्वरीय शक्ति से सम्पन्न हैं!
संविधान की क्या औकात जो वे इसका पालन करें?

Friday, August 3, 2012

अन्ना के समर्थकों के समक्ष निराशा का आसन्न संकट?

आखिरकार अन्ना ने सत्ता के बजाय व्यवस्था को बदलने के लिये कार्य करने की सोच को स्वीकार कर ही लिया है। जिसकी लम्बे समय से मॉंग की जाती रही है। जहॉं तक अन्ना की प्रस्तावित राजनैतिक विचारधारा का सवाल है तो सबसे पहली बात तो ये कि यह सवाल उठाने का देश के प्रत्येक व्यक्ति को हक है!
दूसरी बात ये कि अन्ना और उसकी टीम की करनी और कथनी में कितना अंतर है या है भी या नहीं! ये भी अपने आप में एक सवाल है, जो अनेक बार उठा है, लेकिन अब इसका उत्तर जनता को मिलना तय है।

अन्ना की ओर से अपना नजरिया साफ करने से पूर्व ही इन सारी बातों पर, विशेषकर ‘‘वैब मीडिया’’ पर ‘‘गर्मागरम बहस’’ लगातार जारी है, जिसमें अभद्र और अश्‍लील शब्दावली का खुलकर उपयोग और प्रदर्शन हो रहा है। अनेक "न्यूजपोर्टल्स" ने शायद इस प्रकार की सामग्री और टिप्पणियों के प्रदर्शन और प्रकाशन को ही अन्ना टीम की भॉंति खुद को पापुलर करने का "सर्वोत्तम तरीका" समझ लिया है।

कारण जो भी हों, लेकिन किसी भी विषय पर "चर्चा सादगी और सभ्य तरीके से होनी चाहिए" और अन्ना के उन समर्थकों को जो कुछ समय बाद "अन्ना विरोधी" होने जा रहे हैं! उनको अब अन्ना को छोड़कर शीघ्र ही कोई नया मंच तलाशना होगा! उनके सामने अपने अस्तित्व को बचाने का एक आसन्न संकट मंडराता दिख रहा है। उन्हें ऐसे मंच की जरूरत है जो जो मीडिया के जरिये देश में सनसनी फ़ैलाने में विश्‍वास करता हो तथा इस प्रकार के घटनाक्रम में आस्था रखता हो! हॉं बाबा रामदेव की दुकान में ऐसे लोगों को कुछ समय के लिए राहत की दवाई जरूर मिल सकती है! हालांकि वहॉं पर भी कुछ समय बाद "सामाजिक न्याय तथा धर्मनिरपेक्षता रूपी राजनैतिक विचारधारा" को "शुद्ध शहद की चासनी" में लपेटकर बेचे जाने की पूरी-पूरी सम्भावना व्यक्त की जा रही है।

मैं यहॉं साफ कर दूँ यह मेरा राजनैतिक अनुमान है, कि धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के मुद्दों को अपनाये बिना, इस देश में कोई राजनैतिक पार्टी स्थापित होकर राष्ट्रीय स्तर पर सफल हो ही नहीं सकती और इसे "अन्ना का दुर्भाग्य कहें या इस देश का"-कि अन्ना की सभाओं में या रैलियों में अभी तक जुटती रही भीड़ को ये दोनों ही संवैधानिक अवधारणाएँ कतई भी मंजूर नहीं हैं! बल्कि कड़वा सच तो यही है कि अन्ना अन्दोलन में अधिकतर वही लोग बढचढकर भाग लेते रहे हैं, जिन्हें देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप में कतई भी आस्था नहीं है। जिन्हें इस देश में अल्पसंख्यक, विशेषकर मुसलमान फूटी आँख नहीं सुहाते हैं और जो हजारों वर्षों से गुलामी का दंश झेलते रहे दमित वर्गों को समानता का संवैधानिक हक प्रदान किये जाने के सख्त विरोध में हैं। जो स्त्री को घर की चार दीवारी से बाहर शक्तिसम्पन्न तथा देश के नीति-नियन्ता पदों पर देखना पसन्द नहीं करते हैं।

यह भी सच है कि इस प्रकार के लोग इस देश में पॉंच प्रतिशत से अधिक नहीं हैं, लेकिन इन लोगों के कब्जे में वैब मीडिया है। जिस पर केवल इन्हीं की आवाज सुनाई देती है। जिससे कुछ मतिमन्दों को लगने लगता है कि सारा देश अन्ना के साथ या आरक्षण या धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ चिल्ला रहा है। जबकि सम्भवत: ये लोग ही इस देश की आधुनिक छूत की राजनैतिक तथा सामाजिक बीमारियों के वाहक और देश की भ्रष्ट तथा शोषक व्यवस्था के असली पोषक एवं समर्थक हैं।

इस कड़वी सच्चाई का ज्ञान और विश्‍वास कमोबेश अन्ना तथा बाबा दोनों को हो चुका है। इसलिये दोनों ने ही संकेत दे दिये हैं कि अब देश के सभी वर्गों को साथ लेकर चलना होगा। बाबा का रुख कुछ दिनों में और अधिक साफ हो जाने वाला है| जहाँ तक अन्ना का सवाल है तो अभी तक के रुख से यही लगता है कि अन्ना चाहकर भी न तो साम्प्रदायिकता का खुलकर समर्थन कर सकने की स्थिति में हैं और न हीं वे देश के दबे-कुचले वर्गों के उत्थान की नीति और स्त्री समानता का विरोध कर सकते हैं, जो "सामाजिक न्याय की आत्मा" हैं। इसलिये अन्ना के कथित समर्थकों के समक्ष निराशा का भारी आसन्न संकट मंडरा रहा है। उनके लिये इससे उबरना आसान नहीं होगा।

इसलिये अन्ना टीम की विचारधारा की घोषणा सबसे अधिक यदि किसी को आहत करने वाली है तो अन्ना के कथित कट्टर समर्थकों को ही इसका सामना करना होगा। इसके विपरीत जो लोग अभी तक अन्ना का विरोध कर रहे थे या जो अभी तक तटस्थ थे या जिन्हें अन्ना से कोई खास मतलब नहीं है और न हीं जिन लोगों को देश की संवैधानिक या राजनैतिक विचारधारा से कोई खास लेना देना है। ऐसे लोगों के लिये अवश्य अन्ना एक प्रायोगिक विकल्प बन सकते हैं और यदि अन्ना टीम कोई राजनैतिक पार्टी बनती है तो इससे सबसे अधिक नुकसान "भारतीय जनता पार्टी" को होने की सम्भावना है, क्योंकि अभी तक जो लोग अन्ना के साथ "भावनात्मक या रागात्मक" रूप से जुड़े दिख रहे हैं, वे "संघ और भाजपा" के भी इर्दगिर्द मंडराते देखे जाते रहे हैं।-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

Wednesday, March 14, 2012

विधानसभा चुनाव परिणामों के संकेत-अन्ना और बाबा ने भ्रष्टाचार की लड़ाई को कई वर्ष पीछे धकेल दिया है।

पॉंच राज्यों के चुनाव परिणामों से जो सन्देश निकलकर सामने आया है, उसके ये संकेत तो स्पष्ट रूप से प्रकट हो ही चुके हैं कि मतदाता ने केवल कॉंग्रेस, भाजपा और बसपा को ही धूल नहीं चटायी है, बल्कि इसके साथ-साथ अन्ना हजारे और रामदेव को भी मटियामेट कर दिया है। जो इस देश के भ्रष्टाचार से त्रस्त आम लोगों के लिये दु:खद बात है। क्योंकि पूरे देश में सेवारत हजारों सच्चे सामाजिक कार्यकर्ताओं के दशकों के सतत और कड़े प्रयासों से भ्रष्टाचार जो वास्तव में देशभर में मुद्दा बन चुका था, उस मुद्दे का अन्ना और बाबा ने सत्यानाश कर दिया है। इन्होंने भ्रष्टाचार की लड़ाई को कई वर्ष पीछे धकेल दिया है।
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

मणीपुर, गोआ, पंजाब, उत्तराण्ड और उत्तर प्रदेश सहित 5 राज्यों की विधान सभाओं के चुनाव परिणामों ने इलेक्ट्रॉलिक मीडिया, प्रिंट मीडिया, स्वतंत्र पत्रकार और राजनेताओं सहित सभी को चौंका दिया है। सभी के अंदाज और कयासों को फैल कर दिया है। जीतने वाले और हारने वाले दलों को प्राप्त परिणामों ने सकते में डाल दिया है। जोड़तोड़ के दौर में जहॉं मणीपुर में लगातार तीसरी बार कॉंग्रेस का सत्ता में आना अनहोनी घटना लगती है, वहीं चालीस वर्ष बाद किसी भी दल का लगातार दुबारा सत्ता में आना पंजाब के मतदाता का ही कमाल है। उत्तराखण्ड में भाजपा को दण्डित करते समय मतदाता ने कॉंग्रेस को भी साफ संकेत दिया है कि कॉंग्रेस किसी मुगालते में नहीं रहे! मतदाता की नजर में भाजपा और कॉंग्रेस दोनों ही सत्ता के योग्य नहीं हैं। ये अलग बात है कि गणितीय समीकरणों, सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता में राजनैतिक आस्था के कारण उत्तराखण्ड की सत्ता कॉंग्रेस के हिस्से में आ गयी है। आज के युग में इसी को लोकतन्त्र का गठजोड़ीय चमत्कार कहा जाता है। गोआ में भाजपा की ताजपोशी स्वयं भाजपा के नेताओं के लिये भी अप्रत्याशित बतायी जा रही है।

उपरोक्त चार राज्यों के मतदाता ने एक बार फिर से सत्ता की धुरी को हिलाकर और घुमाकर सत्ताधीशों को बतला दिया है कि वे किसी भी मुगालते में नहीं रहें! जनता जो चाहेगी वही होने वाला है। जिसका परिणाम सबके सामने है, लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा के परिणामों ने सभी राजनीतिक पण्डितों के छक्के छुड़ा दिये हैं। सारे एग्जिट पोल और प्रिइलेक्शन पोलों के परिणामों की पोल खोल कर रख दी। उत्तर प्रदेश के वोटर ने तो राष्ट्रीय दलों को तो अपनी औकात बतला ही दी है, साथ ही डॉ. अम्बेड़कर तथा कांशीराम के आदर्शों को तिलांजलि देकर भी स्वयं को दलितों की मसीहा कहाने वाली मायावती के जातीय गणित तथा निजी अहंकार को भी बेरहमी से चकनाचूर कर दिया है।

उत्तर प्रदेश में कहने को तो समाजवादी पार्टी की जीत हुई है। मुलायम सिंह, आजम खान और अखिलेश यादव की जीत हुई है, लेकिन गहराई में जाकर देखा जाये तो उत्तर प्रदेश में सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा की जमीनी जरूरत को मतदाता ने पुष्ट किया है। ऐसा लगता है, मानों मण्डल आयोग के बाद की राजनैतिक धारा को उत्तर प्रदेश की जनता ने फिर से सही दिशा में मोड़ दिया है। इसकी दुसरे दौर की शुरूआत बिहार से हो चुकी थी, लेकिन साम्प्रदायिक कही जाने वाली और संघ के इशारों पर शासन चलाने के आरोप झेलने वाली भाजपा के साथ गठजोड़ करके सरकार चलाने के कारण नीतीश कुमार की जीत को शुरू में सीधे तौर पर सामाजिक न्याय एवं धर्म निरपेक्षता की विजय नहीं माना गया था। यद्यपि नीतीश कुमार की बिहार में दुबारा ताजपोशी करके बिहार के मतदाता ने नीतीश कुमार को साफ तौर पर यह संकेत दे दिया है कि उन्हें बिहार की सत्ता भाजपा के सहयोग के कारण नहीं, बल्कि जनतादल द्वारा मण्डल कमीशन को लागू किये जाने के बाद देश के जिस बड़े वर्ग को आत्मसम्मान की अनुभूति हुई है, उस वर्ग के सम्मान की रक्षा के लिये सत्ता प्राप्त हुई है। जिसे नीतीश को संभालना होगा। उत्तर प्रदेश में भी साफ तौर पर यही संकेत दिख रहा है।

मुलायम सिंह की विजय धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय और मण्डल कमीशन के बाद की राजनीतिक जमीन में जनतादल द्वारा बोयी गयी फसल का सुफल है। जिसे मुलायम, आजम और अखिलेश ने बेहतर तरीके से काटा है। समाजवादी पार्टी को आने वाले पॉंच वर्षों में इस नयी, जमीनी हकीकत और बहुसंख्यक दबे-कुचले भारतीय मतदाता की राजनीतिक समझ को केवल समझना ही नहीं होगा, अपितु इसे अपनी संवैधानिक शक्ति और राजनैतिक कौशल से सींचना भी होगा। उत्तर प्रदेश विधानसभा के ताजा परिणाम इस बात की ओर इशारा कर रहे हैं कि अब मतदाता को समझ में आ गया है, कि हजारों वर्षों से देश और देश के बहुसंख्यकों का क्रूरतापूर्वक शोषण करने वाला दो फीसदी वर्ग, देश का और देश के बहुसंख्यकों का शुभचिंतक नहीं है। अत: इस वर्ग को सत्ता से उठाकर फेंक दिया जाये और जिन लोगों का ये देश है, उन्हीं लोगों को उनके सम्पूर्ण हक, पूर्ण सम्मान और आदर के साथ मिलें।

यहॉं पर हमें ये नहीं भूलना चाहिये कि दो फीसदी वर्ग द्वारा पोषित भ्रष्ट और अकर्मण्य नौकरशाही इस प्रकार के देश-हितकारी प्रयासों को कभी भी आसानी से सफल नहीं होने देगी। जिसके लिये नीतीश कुमार और मुलायम सिंह को नौकरशाही पर कूटनीतिक तरीके से न मात्र लगाम लगानी होगी, बल्कि नौकरशाही को इस बात का अहसास भी करवाना होगा कि नौकरों का काम जनता की सेवा करना है, न कि जनता का शोषण करना!

यद्यपि अभी से कुछ कहना बहुत जल्दबाजी होगी, लेकिन फिर भी विधानसभा चुनाव परिणामों के सन्दर्भ में यदि 2014 के लोकसभा चुनावों की तैयारी की बात करें तो परिणाम मिलेजुले दिख रहे हैं। इससे पूर्व राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे बड़े राज्यों की विधान सभाओं के चुनाव होने हैं। जहॉं पर स्थिति अत्यन्त चिन्ताजनक हैं। जहॉं एक ओर गहलोत सरकार में भ्रष्ट नौकरशाही को विश्‍वस्त मानकर, नौकरशाही के भरोसे ही सत्ता का संचालन किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर लगता है मनो मध्य प्रदेश में नौकरशाही को लूट में सीधे-सीधे राझीदार बना लिया गया है। ऐसे हालात में बिना कुछ किये कॉंग्रेस और भाजपा आलाकमान द्वारा मतदाता को बेवकूफ समझने वाले प्रान्तीय राजनेताओं को आगामी विधानसभा चुनावों में अपनी जमीनी हकीकत से दो-चार होने से बचा पाना बहुत मुश्किल होगा। 

अन्त में एक और महत्वूपर्ण बात पॉंच राज्यों के चुनाव परिणामों से जो सन्देश निकलकर सामने आया है, उसके ये संकेत तो स्पष्ट रूप से प्रकट हो ही चुके हैं कि मतदाता ने केवल कॉंग्रेस, भाजपा और बसपा को ही धूल नहीं चटायी है, बल्कि इसके साथ-साथ अन्ना हजारे और रामदेव को भी मटियामेट कर दिया है। जो इस देश के भ्रष्टाचार से त्रस्त आम लोगों के लिये दु:खद बात है। क्योंकि पूरे देश में सेवारत हजारों सच्चे सामाजिक कार्यकर्ताओं के दशकों के सतत और कड़े प्रयासों से भ्रष्टाचार जो वास्तव में देशभर में मुद्दा बन चुका था, उस मुद्दे का अन्ना और बाबा ने सत्यानाश कर दिया है। इन्होंने भ्रष्टाचार की लड़ाई को कई वर्ष पीछे धकेल दिया है।

Wednesday, January 25, 2012

आरक्षण समाप्त करना है तो आरक्षित वर्ग के वर्गद्रोही अफसर तत्काल बर्खास्त किये जायें!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

भारत के संविधान के बारे में जानकारी रखने वाले सभी विद्वान जानते हैं कि हमारे संविधान के भाग तीन अनुच्छेद-14, 15 एवं 16 में जो कुछ कहा गया है, उसका साफ मतलब यही है कि धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर किसी भी नागरिक के साथ किया जाने वाला विभेद असंवैधानिक होगा| समानता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा| इस स्पष्ठ और कठोर प्रावधान के होते हुए अनुच्छेद 16 (4) में कहा गया है कि-
‘‘इस अनुच्छेद (उक्त) की कोई बात राज्य (जिसे आम पाठकों की समझ के लिये सरकार कह सकते हैं, क्योंकि हमारे यहॉं पर प्रान्तों को भी राज्य कहा गया है|) को पिछड़े हुए नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, नियुक्तियों में या पदों के आरक्षण के लिए उपबन्ध करने से निवारित नहीं (रोकेगी नहीं) करेगी|’’

उक्त प्रावधान को अनेकों बार हमारे देश की सर्वोच्च न्यायपालिका ने उचित और न्याय संगत ठहराया है और साथ ही यह भी कहा है कि अनुच्छेद 14 से 16 में समानता की जो भावना संविधान में वर्णित है, वह तब ही पूरी हो सकती है, जबकि समाज के असमान लोगों के बीच समानता नहीं, बल्कि समान लोगों के बीच समानता का व्यवहार किया जावे|

इसी समानता के लक्ष्य को हासिल करने के लिये उक्त संवैधानिक प्रावधान में पिछड़े वर्ग लोगों को सरकारी सेवाओं में प्रतिनिधित्व प्रदान करने पर जोर दिया गया है| संविधान निर्माताओं का इसके पीछे मूल ध्येय यही रहा था कि सरकारी सेवओं में हर वर्ग का समान प्रतिनिधित्व हो ताकि किसी भी वर्ग के साथ अन्याय नहीं हो या सकारात्मक रूप से कहें तो सबके साथ समान रूप से न्याय हो सके| क्योंकि इतिहास को देखने से उन्हें ज्ञात हुआ कि कालान्तर में वर्ग विशेष के लोगों का सत्ता एवं व्यवस्था पर लगातार वंशानुगत कब्जा रहने के कारण समाज का बहुत बड़ा तबका (जिसकी संख्या पिच्यासी फीसदी बताई जाती है) हर प्रकार से वंचित और तिरष्कृत कर दिया गया|

ऐसे हालातों में इन वंचित और पिछड़े वर्गों को सरकारी सेवाओं में प्रतिनिधित्व प्रदान करने की पवित्र सोच को अमलीजामा पहनाने के लिये अनुच्छेद 16 में उक्त उप अनुच्छेद (4) जोड़कर अजा, अजजा एवं अन्य पिछडा वर्ग के लोगों को नौकरियों में कम अंक प्राप्त करने पर भी आरक्षण के आधार पर नौकरी प्रदान की जाती रही हैं| 

यदि आज के सन्दर्भ में देखें तो इसी संवैधानिक प्रावधान के कारण कथित रूप से 70 प्रतिशत से अधिक अंक पाने वाले अनारक्षित वर्ग के प्रत्याशियों को नौकरी नहीं मिलती, जबकि आरक्षित वर्ग में न्यूनतम निर्धारित अंक पाने वाले प्रत्याशी को 40 या 50 प्रतिशत या कम अंक अर्जित करने वालों को सरकारी नौकरी मिल जाती है| अनराक्षित वर्ग के लोगों की राय में इस विभेद के चलते अनारक्षित वर्ग के लोगों, विशेषकर युवा वर्ग में भारी क्षोभ, आक्रोश तथा गुस्सा भी देखा जा सकता है|

इसके बावजूद भी मेरा मानना है कि पूर्वाग्रही, अल्पज्ञानी, मनुवादी और कट्टरपंथियों को छोड़ दें तो उक्त प्रावधानों पर किसी भी निष्पक्ष, आजादी के पूर्व के घटनाक्रम का ज्ञान रखने वाले तथां संविधान के जानकार व्यक्ति कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये, क्योंकि इस प्रावधान में सरकारी सेवाओं में हर वर्ग का समान प्रतिनिधित्व स्थापित करने का न्यायसंगत प्रयास करने का पवित्र उद्देश्य अन्तर्हित है| परन्तु समस्या इस प्रावधान के अधूरेपन के कारण है|

मेरा विनम्र मत है कि उक्त प्रावधान पिछड़े वर्ग के लोगों को प्रतिनिधित्व देने के लिये निर्धारित योग्यताओं में छूट प्रदान करने सहित, विशेष उपबन्ध करने की वकालत तो करता है, लेकिन इन वर्गों का सही, संवेदनशील, अपने वर्ग के प्रति पूर्ण समर्पित एवं सशक्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने पर पूरी तरह से मौन है| इस अनुच्छेद में या संविधान के अन्य किसी भी अनुच्छेद में कहीं भी इस बात की परोक्ष चर्चा तक नहीं की गयी है कि तुलनात्मक रूप से कम योग्य होकर भी अजा, अजजा एवं अ.पि.वर्ग में आरक्षण के आधार पर उच्च से उच्चतम पदों पर नौकरी पाने वाले ऐसे निष्ठुर, बेईमान और असंवेदनशील आरक्षित वर्ग के लोक सेवकों को भी क्या सरकारी सेवा में क्यों बने रहना चाहिये, जो सरकारी नौकरी पाने के बाद अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व करना तो दूर अपने आचरण से अपने आपको अपने वर्ग का ही नहीं मानते?

मैं अजा एवं अजजा संगठनों के अखिल भारतीय परिसंघ (जिसके राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. उदित राज हैं और इण्डियन जस्टिस पार्टी के भी अध्यक्ष है|) का राष्ट्रीय महासचिव रह चुका हूँ| अखिल भारतीय भील-मीणा संघर्ष मोर्चा मध्य प्रदेश का अध्यक्ष रहा हूँ| ऑल इण्डिया एसी एण्ड एसटी रेलवे एम्पलाईज एसोसिएशन में रतलाम मण्डल का कार्यकारी मण्डल अध्यक्ष रहा हूँ| अखिल भारतीय आदिवासी चेतना परिषद का परामर्शदाता रहा हूँ| वर्तमान में ऑल इण्डिया ट्राईबल रेलवे एम्पलाईज एसोसिएशन का राष्ट्रीय अध्यक्ष हूँ| इसके अलावा अजा, अजजा तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के अनेक संगठनों और मंचों से भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सम्बद्ध रहा हूँ|

इस दौरान मुझे हर कदम पर बार-बार यह अनुभव हुआ है कि आरक्षित वर्ग के मुश्किल से पॉंच प्रतिशत अफसरों को अपने वर्ग के नीचे के स्तर के कर्मचारियों तथा अपने वर्ग के आम लोगों के प्रति सच्ची सहानुभूति होती है| शेष पिच्यानवें फीसदी आरक्षित वर्ग के अफसर उच्च जाति के अनारक्षित अफसरों की तुलना में अपने वर्ग के प्रति असंवेदनशील, विद्वेषी, डरपोक होते हैं और अपने वर्ग से दूरी बनाकर रखते हैं| जिसके लिये उनके अपने अनेक प्रकार के तर्क-वितर्क या बहाने हो सकते हैं, जैसे उन्हें अपने वर्ग का ईमानदारी से प्रतिनिधित्व करने पर अनारक्षित वर्ग के उच्चाधिकारी उनके रिकार्ड को खराब कर देते हैं| इस बात में एक सीमा तक सच्चाई भी है, लेकिन इस सबके उपरान्त भी उक्त और अन्य सभी तर्क कम अंक पाकर भी आरक्षण के आधार पर नौकरी पाकर अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करने के अपराध को कम नहीं कर पाते हैं! क्योंकि सरकारी सेवा में ऐसे डरपोक लोगों के लिये कोई स्थान नहीं होता है, जो अपने कानूनी और संवैधानिक दायित्वों का ईमानदारी, निष्ठा और निर्भीकतापूर्वक निर्वहन नहीं कर सकते|

इस बारे में, मैं कुछ अन्य बातें भी स्पष्ट कर रहा हूँ-अजा एवं अजजा के अधिकतर ऐसे उच्च अफसर जिनके पास प्रशासनिक अधिकार होते हैं और जिनके पास अपने वर्ग को भला करने के पर्याप्त अधिकार होते हैं| अपने मूल गॉंव/निवास को छोड़कर सपरिवार सुविधासम्पन्न शहर या महानगरों में बस जाते हैं| गॉंवों में पोस्टिंग होने से बचने के लिये रिश्वत तक देते हैं और हर कीमत पर शहरों में जमें रहते हैं| अनेक अपनी जाति या वर्ग की पत्नी को त्याग देते हैं (तलाक नहीं देते) और अन्य उच्च जाति की हाई-फाई लड़की से गैर-कानूनी तरीके से विवाह रचा लेते हैं| अनारक्षित वर्ग के अफसरों की ही भॉंति कार, एसी, बंगला, फार्म हाऊस, हवाई यात्रा आदि साधन जुटाना इनकी प्राथमिकताओं में शामिल हो जाते हैं|

ऐसे अफसरों द्वारा अपने आरक्षित वर्ग का सरकारी सेवा में संविधान की भावना के अनुसार प्रतिनिधित्व करना तो दूर, ये अपने वर्ग एवं अपने वर्ग के लोगों से दूरी बना लेते हैं और पूरी तरह से राजशाही का जीवन जीने के आदी हो जाते हैं| इस प्रकार के असंवेदनशील और वर्गद्रोही लोगों द्वारा अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करने पर भी, इनका सरकारी सेवा में बने रहना हर प्रकार से असंवैधानिक और गैर-कानूनी तो है ही, साथ ही संविधान के ही प्रकाश में पूरी तरह से अलोकतान्त्रिक भी है| क्योंकि उक्त अनुच्छेद 16 के उप अनुच्छेद (4) में ऐसे लोगों को तुलनात्मक रूप से कम योग्य होने पर भी अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व करने के एक मात्र संवैधानिक उद्देश्य से ही इन्हें सरकारी सेवा में अवसर प्रदान किया जाता है|

ऐसे में अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करके, अपने वर्ग से विश्वासघात करने वालों को सरकारी सेवा में बने रहने का कोई कानूनी या नैतिक औचित्य नहीं रह जाता है| इस माने में संविधान का उक्त उप अनुच्छेद आरक्षित वर्गों को सरकारी सेवाओं में प्रतिनिधित्व प्रदान करने की भावना को पूर्ण करने के मामले में अधूरा और असफल सिद्ध हुआ है| यही कारण है कि आज भी अजा एवं अजजा वर्ग लगातार पिछड़ता जा रहा है| जबकि सरकारी सेवाओं में आरक्षित वर्गों का सशक्त और संवेदनशील प्रतिनिधित्व प्रदान करने के उद्देश्य से ही आरक्षित वर्ग के लोगों को पीढी दर पीढी आरक्षण प्रदान करने को न्याय संगत ठहराया गया है|

मेरा मानना है कि यदि इस सन्दर्भ में प्रारम्भ से ही संविधान में यह प्रावधान किया गया होता कि आरक्षण के आधार पर नौकरी पाने वाले लोगों को तब तक ही सेवा में बने रहने का हक होगा, जब तक कि वे अपने वर्ग का ईमानदारी से सरकारी सेवाओं में प्रतिनिधित्व करते रहेंगे, तो मैं समझता हूँ कि हर एक आरक्षित वर्ग का अफसर अपने वर्ग के प्रति हर तरह से संवेदनशील और समर्पित होता| जिससे आरक्षित वर्गों का उत्थान भी होता जो संविधान की अपेक्षा भी है और इस प्रकार से मोहन दास कर्मचन्दी गॉंधी द्वारा सैपरेट इलेक्ट्रोल के हक को छीनकर जबरन थोपे गये आरक्षण के अप्रिय प्रावधान से हम एक समय में जाकर हम मुक्त होने के लक्ष्य को भी हो भी हासिल कर पाते| जो वर्तमान में कहीं दूर तक नज़र नहीं आ रहा है!

अतः अब हर एक जागरूक और राष्ट्र भक्त मंच से मांग उठनी चाहिये कि जहॉं एक ओर आरक्षित वर्ग के अफसरों को सरकारी सेवाओं में अपने वर्ग का निर्भीकता पूर्वक प्रतिनिधित्व करने के लिये अधिक सशक्त कानूनी संरक्षण प्रदान किया जावे| उनका रिकार्ड खराब करने वालों को दण्डित किया जावे और इसके उपरान्त भी आरक्षित वर्ग के अफसर यदि अपने वर्ग का निष्ठा, निर्भीकता और ईमानदारी से प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं तो ऐसे अफसरों को तत्काल सेवा से बर्खास्त किया जावे| यदि हम ऐसा प्रावधान नहीं बनवा पाते हैं तो आरक्षण को जरी रखकर आरक्षण के आधार पर कम योग्य लोगों को नौकरी देकर कथित रूप से राष्ट्र के विकास को अवरुद्ध करने और समाज में सौहार्द के स्थान पर वैमनस्यता का वातावरण पैदा करने को स्वीकार करने का कोई न्यायसंगत कारण या औचित्य नजर नहीं आता है|

अत: संविधान और संविधान द्वारा प्रदत्त सामाजिक न्याय की अवधारणा में विश्‍वास रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को चाहिये कि भारत सरकार को इस बात के लिये बाध्य किया जाये कि संविधान में इस बात का भी प्रावधान किया जावे कि आरक्षित वर्गों का सरकारी सेवाओं में प्रतिनिधित्व करने के उद्देश्य से अनारक्षित वर्ग के लोगों की तुलना में कमतर होकर भी आरक्षण के आधार पर नौकरी पाने वालों को पूर्ण समर्पण और संवेदनशीलता के साथ अपने वर्ग और अपने वर्ग के लोगों का सकारात्मक प्रतिनिधित्व करना चाहिये और ऐसा करने में असफल रहने वाले आरक्षित वर्ग के वर्गद्रोही अफसरों या कर्मचारियों को सरकारी सेवा से बर्खास्त करने की सिफारिश करने के लिये अजा और अजजा आयोगों का संवैधानिक रूप से सशक्त किया जाना चाहिये| अन्यथा न तो कभी आरक्षण समाप्त होगा और न हीं आरक्षित वर्गों का सरकारी सेवाओं में संवैधानिक भावना के अनुसार सच्चा प्रतिनिधित्व ही स्थापित हो सकेगा|

Friday, December 30, 2011

लोकपाल-हमाम में सभी नंगे!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’


लोकपाल विधेयक के बहाने कॉंग्रेस के नेतृत्व वाले सत्ताधारी गठबन्धन यूपीए और भाजपा के नेतृत्व वाले मुख्य विपक्षी गठबन्धन एनडीए सहित सभी छोटे-बड़े विपक्षी दलों एवं ईमानदारी का ठेका लिये हुंकार भरने वाले स्वयं अन्ना और उनकी टीम के मुखौटे उतर गये! जनता के समक्ष कड़वा सत्य प्रकट हो गया!

जो लोग भ्रष्टाचार की गंगोत्री में डुबकी लगाते रहे हैं, वे संसद में भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिये आँसू बहाते नजर आये! सशक्त और स्वतन्त्र लोकपाल पारित करवाने का दावा करने वाले यूपीए एवं एनडीए की ईमानदारी तथा सत्यनिष्ठा की पोले खुल गयी! सामाजिक न्याय को ध्वस्त करने वाली भाजपा की आन्तरिक रुग्ण मानसिकता को सारा संसार जान गया! भाजपा देश के अल्प संख्यकों के नाम पर वोट बैंक बढाने की घिनौनी राजनीति करने से यहॉं भी नहीं चूकी|

भाजपा और उसके सहयोगी संगठन एक ओर तो अन्ना को उकसाते और सहयोग देते नजर आये, वहीं दूसरी ओर मोहनदास कर्मचन्द गॉंधी द्वारा इस देश पर जबरन थोपे गये आरक्षण को येन-केन समाप्त करने के कुचक्र भी चलते नजर आये!

स्वयं अन्ना एवं उनके मुठ्ठीभर साथियों की पूँजीपतियों के साथ साठगॉंठ को देश ने देखा| भ्रष्टाचार के पर्याय बन चुके एनजीओज् के साथ अन्ना टीम की मिलीभगत को भी सारा देश समझ चुका है| सारा देश यह भी जान चुका है कि गॉंधीवादी होने का मुखौटा लगाकर और धोती-कुर्ता-टोपी में आधुनिक गॉंधी कहलवाने वाले अन्ना, मनुवादी नीतियों को नहीं मानने वाले अपने गॉंव वालों को खम्बों से बॉंधकर मारते और पीटते हैं!

भ्रष्टाचार मिटाने के लिये अन्ना भ्रष्टाचार फैलाने वाले कॉर्पोरेट घरानों और विदेशों से समाज सेवा के नाम पर अरबों रुपये लेकर डकार जाने वाले एनजीओज् को लोकपाल के दायरे में क्यों नहीं लाना चाहते, इस बात को देश को समझाने के बजाय बगलें झांकते नजर आये! जन्तर-मन्तर पर लोकपाल पर बहस करवाने वाली अन्ना टीम ने दिखावे को तो सभी को आमन्त्रित करने की बात कही, लेकिन दलित संगठनों को बुलाना तो दूर, उनसे मनुवादी सोच को जिन्दा रखते हुए लम्बी दूरी बनाये रखी है!

संसद में सभी दल अपने-अपने राग अलापते रहे, लेकिन किसी ने भी सच्चे मन से इस कानून को पारित कराने का प्रयास नहीं किया| विशेषकर यदि कॉंग्रेस और भाजपा दोनों अन्दरूनी तौर पर यह तय कर लिया था कि लोकपाल को किसी भी कीमत पर पारित नहीं होने देना है और देश के लोगों के समक्ष यह सिद्धि करना है कि दोनों ही दल एक सशक्त और स्वतन्त्र लोकपाल कानून बनाना चाहते हैं| वहीं दूसरी और सपा, बसपा एवं जडीयू जैसे दलों ने भी लोकपाल कानून को पारित नहीं होने देने के लिये संसद में बेतुकी और अव्यावहारिक बातों पर जमकर हंगामा किया| केवल वामपंथियों को छोड़कर कोई भी इस कानून को पारित करवाने के लिये गम्भीर नहीं दिखा| यद्यपि बंगाल को लूटने वाले वामपंथियों की अन्दरूनी सच्चाई भी जनता से छुपी नहीं है|