आखिरकार अन्ना ने सत्ता के बजाय व्यवस्था को बदलने के लिये कार्य करने की सोच को स्वीकार कर ही लिया है। जिसकी लम्बे समय से मॉंग की जाती रही है। जहॉं तक अन्ना की प्रस्तावित राजनैतिक विचारधारा का सवाल है तो सबसे पहली बात तो ये कि यह सवाल उठाने का देश के प्रत्येक व्यक्ति को हक है!
दूसरी बात ये कि अन्ना और उसकी टीम की करनी और कथनी में कितना अंतर है या है भी या नहीं! ये भी अपने आप में एक सवाल है, जो अनेक बार उठा है, लेकिन अब इसका उत्तर जनता को मिलना तय है।
अन्ना की ओर से अपना नजरिया साफ करने से पूर्व ही इन सारी बातों पर, विशेषकर ‘‘वैब मीडिया’’ पर ‘‘गर्मागरम बहस’’ लगातार जारी है, जिसमें अभद्र और अश्लील शब्दावली का खुलकर उपयोग और प्रदर्शन हो रहा है। अनेक "न्यूजपोर्टल्स" ने शायद इस प्रकार की सामग्री और टिप्पणियों के प्रदर्शन और प्रकाशन को ही अन्ना टीम की भॉंति खुद को पापुलर करने का "सर्वोत्तम तरीका" समझ लिया है।
कारण जो भी हों, लेकिन किसी भी विषय पर "चर्चा सादगी और सभ्य तरीके से होनी चाहिए" और अन्ना के उन समर्थकों को जो कुछ समय बाद "अन्ना विरोधी" होने जा रहे हैं! उनको अब अन्ना को छोड़कर शीघ्र ही कोई नया मंच तलाशना होगा! उनके सामने अपने अस्तित्व को बचाने का एक आसन्न संकट मंडराता दिख रहा है। उन्हें ऐसे मंच की जरूरत है जो जो मीडिया के जरिये देश में सनसनी फ़ैलाने में विश्वास करता हो तथा इस प्रकार के घटनाक्रम में आस्था रखता हो! हॉं बाबा रामदेव की दुकान में ऐसे लोगों को कुछ समय के लिए राहत की दवाई जरूर मिल सकती है! हालांकि वहॉं पर भी कुछ समय बाद "सामाजिक न्याय तथा धर्मनिरपेक्षता रूपी राजनैतिक विचारधारा" को "शुद्ध शहद की चासनी" में लपेटकर बेचे जाने की पूरी-पूरी सम्भावना व्यक्त की जा रही है।
मैं यहॉं साफ कर दूँ यह मेरा राजनैतिक अनुमान है, कि धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के मुद्दों को अपनाये बिना, इस देश में कोई राजनैतिक पार्टी स्थापित होकर राष्ट्रीय स्तर पर सफल हो ही नहीं सकती और इसे "अन्ना का दुर्भाग्य कहें या इस देश का"-कि अन्ना की सभाओं में या रैलियों में अभी तक जुटती रही भीड़ को ये दोनों ही संवैधानिक अवधारणाएँ कतई भी मंजूर नहीं हैं! बल्कि कड़वा सच तो यही है कि अन्ना अन्दोलन में अधिकतर वही लोग बढचढकर भाग लेते रहे हैं, जिन्हें देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप में कतई भी आस्था नहीं है। जिन्हें इस देश में अल्पसंख्यक, विशेषकर मुसलमान फूटी आँख नहीं सुहाते हैं और जो हजारों वर्षों से गुलामी का दंश झेलते रहे दमित वर्गों को समानता का संवैधानिक हक प्रदान किये जाने के सख्त विरोध में हैं। जो स्त्री को घर की चार दीवारी से बाहर शक्तिसम्पन्न तथा देश के नीति-नियन्ता पदों पर देखना पसन्द नहीं करते हैं।
यह भी सच है कि इस प्रकार के लोग इस देश में पॉंच प्रतिशत से अधिक नहीं हैं, लेकिन इन लोगों के कब्जे में वैब मीडिया है। जिस पर केवल इन्हीं की आवाज सुनाई देती है। जिससे कुछ मतिमन्दों को लगने लगता है कि सारा देश अन्ना के साथ या आरक्षण या धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ चिल्ला रहा है। जबकि सम्भवत: ये लोग ही इस देश की आधुनिक छूत की राजनैतिक तथा सामाजिक बीमारियों के वाहक और देश की भ्रष्ट तथा शोषक व्यवस्था के असली पोषक एवं समर्थक हैं।
इस कड़वी सच्चाई का ज्ञान और विश्वास कमोबेश अन्ना तथा बाबा दोनों को हो चुका है। इसलिये दोनों ने ही संकेत दे दिये हैं कि अब देश के सभी वर्गों को साथ लेकर चलना होगा। बाबा का रुख कुछ दिनों में और अधिक साफ हो जाने वाला है| जहाँ तक अन्ना का सवाल है तो अभी तक के रुख से यही लगता है कि अन्ना चाहकर भी न तो साम्प्रदायिकता का खुलकर समर्थन कर सकने की स्थिति में हैं और न हीं वे देश के दबे-कुचले वर्गों के उत्थान की नीति और स्त्री समानता का विरोध कर सकते हैं, जो "सामाजिक न्याय की आत्मा" हैं। इसलिये अन्ना के कथित समर्थकों के समक्ष निराशा का भारी आसन्न संकट मंडरा रहा है। उनके लिये इससे उबरना आसान नहीं होगा।
इसलिये अन्ना टीम की विचारधारा की घोषणा सबसे अधिक यदि किसी को आहत करने वाली है तो अन्ना के कथित कट्टर समर्थकों को ही इसका सामना करना होगा। इसके विपरीत जो लोग अभी तक अन्ना का विरोध कर रहे थे या जो अभी तक तटस्थ थे या जिन्हें अन्ना से कोई खास मतलब नहीं है और न हीं जिन लोगों को देश की संवैधानिक या राजनैतिक विचारधारा से कोई खास लेना देना है। ऐसे लोगों के लिये अवश्य अन्ना एक प्रायोगिक विकल्प बन सकते हैं और यदि अन्ना टीम कोई राजनैतिक पार्टी बनती है तो इससे सबसे अधिक नुकसान "भारतीय जनता पार्टी" को होने की सम्भावना है, क्योंकि अभी तक जो लोग अन्ना के साथ "भावनात्मक या रागात्मक" रूप से जुड़े दिख रहे हैं, वे "संघ और भाजपा" के भी इर्दगिर्द मंडराते देखे जाते रहे हैं।-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
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