सच यह है कि हमारे देश में कानून बनाने, कानून को लागू करने और कोर्ट से निर्णय या आदेश या न्याय या सजा मिलने के बाद उनका क्रियान्वयन करवाने की जिम्मेदारी जिन लोक सेवकों या जिन जनप्रतिनिधियों के कंधों पर डाली गयी है, उनमें से किसी से भी भारत का कानून इस बात की अपेक्षा नहीं करता कि उन्हें-संविधान, न्यायशास्त्र, प्राकृतिक न्याय, मानवाधिकार, मानव व्यवहार, दण्ड विधान, साक्ष्य विधि, धर्मविधि, समाज शास्त्र, अपराध शास्त्र, मानव मनोविज्ञान आदि विषयों का ज्ञान होना ही चाहिये। ऐसे में देश के लोगों को न्याय या इंसाफ कैसे हासिल हो सकता है? विशेषकर तब, जबकि शैशव काल से ही हमारा समाजीकरण एक भेदभावमूलक और अमानवीय सिद्धान्तों की पोषक सामाजिक (कु) व्यवस्था में होता रहा है??? अत: यदि हम सच में चाहते हैं कि हम में से किसी की भी बहन-बेटी, माता और हर एक स्त्री की इज्जत सुरक्षित रहे तो हमें जहॉं एक और विरासत में मिली कुसंस्कृति के संस्कारों से हमेशा को मुक्ति पाने के लिये कड़े कदम उठाने होंगे, वहीं दूसरी ओर देश का संचालन योग्य, पात्र और संवेदनशील लोगों के हाथों में देने की कड़ी और जनोन्मुखी संवैधानिक व्यवस्था बनवाने और अपनाने के लिये काम करना होगा। जिसके लिये अनेक मोर्चों पर सतत और लम्बे संघर्ष की जरूरत है। हाँ तब तक के लिए हमेशा की भांति हम कुछ अंतरिम सुधार करके जरूर खुश हो सकते हैं!
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Sunday, December 30, 2012
बलात्कार : स्थितियां कैसे बदलेंगी?
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