Showing posts with label आरएसएस. Show all posts
Showing posts with label आरएसएस. Show all posts

Sunday, December 20, 2015

देश का दुश्मन नहीं है भारतीय मुसलमान !

देश का दुश्मन नहीं है भारतीय मुसलमान !
राजस्थान के दौसा में पाकिस्तानी झण्डा फहराये जाने तथा टौंक के मालपुरा में आई एस आई एस के पक्ष में नारे लगाये जाने और जयपुर में आतंकी नेटवर्क खड़ा करने में जुटे मोहम्मद सिराजुद्दीन को गिरफ्तार किये जाने के बाद यह चर्चा बहुत आम हो गई है कि राजस्थान प्रदेश आतंकवादी गतिविधियों को संचालित करने की सबसे सुरक्षित जगह बन गया है ! 
उत्तरप्रदेश के एक स्वयंभू हिन्दू महासभाई कमलेश तिवाड़ी द्वारा हजरत मोहम्मद को अपमानित करने वाली टिप्पणी करने के विरोध में हुये देशव्यापी प्रदर्शन राजस्थान के भी विभिन्न शहरों में आयोजित किये गये. साम्प्रदायिक रूप से अतिसंवेदनशील मालपुरा कस्बे में भी मुस्लिम युवाओं ने अपने बुजुर्गों की मनाही के बावजूद एक प्रतिरोध जलसा किया. हालांकि शहर काजी और कौम के बुजुर्गों ने बिना मशवरे के कोई भी रैली निकालने से युवाओं को रोकने की भरपूर असफल कोशिस की. जैसा कि मालपुरा के निवासी वयोवृद्ध इकबाल दादा बताते है कि -
'हमने उन्हें मना कर दिया था और शहर काजी ने भी इंकार कर दिया था, मगर रसूल की शान के खिलाफ की गई अत्यंत गंदी टिप्पणी से युवा इतने अधिक आक्रोशित थे कि वे काजी तक को हटाने की बात करने लगे थे '
अंतत: मालपुरा के युवाओं की अगुवाई में 11दिसम्बर को एक रैली जामा मस्जिद से शुरू हो कर कोर्ट होते हुये तहसीलदार को ज्ञापन देने पहुंची. शांतिपूर्ण तरीके से ज्ञापन दे दिया गया। मगर दूसरे दिन सोशल मीडिया में वायरल हुये एक वीडियो के मुताबिक रैली से लौटते हुये मुस्लिम नवयुवकों ने 'आर एस एस- मुर्दाबाद' तथा 'आई एस आई एस- जिन्दाबाद' के नारे लगाये.
जब मुस्लिम समाज के मौतबीर लोगों को पुलिस के समक्ष यह वीडियो दिखाया गया तो उन्हें पहले तो यकीन ही नहीं हुआ, फिर उन्होंने अपने बच्चों की इस तरह की हरकत के लिये तुरंत माफी मांग ली और मामले को तूल नहीं देने का आग्रह किया, ताकि सौहार्द बरकरार रहे, मगर मालपुरा के हिन्दुवादी संगठन इस मांग पर अड़ गये कि दोषियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर उनको तुरंत गिरफ्तार किया जाये. सूबे में सत्तारूढ़ विचारधारा के राजनैतिक दबाव के चलते किसी व्यक्ति विशेष द्वारा बनाये गये विडियो को आधार बना कर मुकदमा दर्ज कर लिया गया तथा सलीमुद्दीन रंगरेज, फिरोज पटवा ,वसीम ,शाहिद ,शाकिर ,अमान तथा वसीम सलीम सहित 7 लोगो को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया.
गिरफ्तार किये गये 60 वर्षीय राशन डीलर सलीमुद्दीन के बेटे नईम अख्तर का कहना है कि-
'मेरे वालिद एक जमीन के सौदे के सिलसिले में कोर्ट गये थे, वे रैली मैं शरीक नहीं थे, मगर पुलिस कहती है कि उनका चेहरा वीडियो में दिख रहा है] जहां नारे लगाये जा रहे थे, इसलिये उन्हें गिरफ्तार किया गया है'
मालपुरा के मुस्लिम समुदाय का आरोप है कि पुलिस जानबूझकर बेगुनाहों को पकड़ रही है. इतना ही नहीं बल्कि धरपकड़ अभियान के दौरान सादात मौहल्ले में पुलिस द्वारा मुस्लिम औरतों के साथ निर्मम मारपीट और बदसलूकी भी की गई.
पुलिस दमन की शिकार 50 वर्षीय बिस्मिल्ला कहती है कि हम बहुत सारी महिलायें कुरान पढ़कर लौट रही थी, तब घरों में घुसते हुये मर्द पुलिसकर्मियों ने हमें मारा. वह चल फिरने में असहाय महसूस कर रही है. सना ,जमीला ,फहमीदा ,नसीम आदि महिलाओं पर भी पुलिस ने लाठियां भांजी ,किसी को चोटी पकड़ कर घसीटा तो किसी को पैरों और जंघाओं पर मारा एवं भद्दी गालियां दे कर अपमानित किया.पुलिस तीन औरतों-फरजाना ,साजिदा और आरिफा को पुलिस पर पथराव करने और राजकार्य में बाधा उत्पन्न करने के जुर्म में गिरफ्तार कर ले गई.जहां से फरजाना को शांतिभंग के आरोप में पाबंद कर देर रात छोड़ दिया गया ,वहीं आरिफा और साजिदा को जेल भेज दिया गया.
उल्लेखनीय है कि मालपुरा में आतंकवादी संगठनों के पक्ष में कथित नारे लगाने के वीडियो को वायरल किये जाने के बाद राज्य भर में इसकी प्रतिक्रिया हुई. हिन्दुत्ववादी संगठनों ने कुछ जगहों पर इसके विरूद्ध में ज्ञापन भी दिये और देशविरोधी तत्वों पर अंकुश लगाने की मांग की. जो विडियो लोगो को उपलब्ध है उसे देखने पर ऐसा लगता है कि वापस लौटती रैली में नारे लगाते एक युवक समूह पर ये नारे सुपर इम्पोज किये गये है . क्योंकि नारों की घ्वनि और रैली में चल रहे लोगो के मध्य कोई तारतम्य ही नहीं दिखाई पड़ता है .जिस जगह का यह विडियो है ,वहां के दुकानदारों का जवाब भी स्पष्ट नहीं है ,वे यह तो कहते है कि मालपुरा में पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे आम बात है ,मगर ये नारे कब और कहां लगते है तथा उस दिन क्या उन्होंने आई एस आई एस के पक्ष में नारे सुने थे ? इसका जवाब वे नहीं देते ,इतना भर कहते है की शायद आगे जा कर लगाये हो या कोर्ट में लगा कर आये हो.
विचार योग्य बात यह है कि ज्ञापन के दिन ना किसी समाचार पत्र ,ना किसी टीवी चैनल और ना ही गुप्तचर एजेंसियों और ना ही पुलिस या प्रशासन को ये नारे सुनाई पड़े .लेकिन अगले दिन अचानक एक वीडियो जिसकी प्रमाणिकता ही संदिग्ध है ,उसे आधार बना कर पुलिस मालपुरा के मुस्लिम समाज को देशप्रेम की तुला पर तोलने लगती है तथा उनमें देशभक्ति की मात्रा कम पाती है और फिर गिरफ्तारियों के नाम पर दमन और दशहत का जो दौर चलता है ,वह दिन ब दिन बढ़ते ही जाता है. हालात इतने भयावह हो जाते है कि लोग अपने आशियानों पर ताले लगा कर दर ब दर भागने को मजबूर कर दिये जाते है.
मालपुरा का घटनाक्रम चर्चा में ही था कि एक बड़े समाचार पत्र में दौसा के हलवाई मौहल्ले के निवासी 'खलील के घर की छत पर पाकिस्तानी झण्डा' फहराये जाने की सनसनीखेज खबर साया हो जाती है. खलील को तो प्रथम दृष्टया ही देशद्रोही घोषित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी गई ,मगर दौसा के मुस्लिम समाज ने पूरी निर्भिकता से इस शरारत का मुंह तोड़ जवाब दिया और पुलिस तथा प्रशासन को बुलाकर स्पष्ट किया कि यह चांद तारा युक्त हरा झण्डा इस्लाम का है ,ना कि पाकिस्तान का ! पुलिस अधीक्षक गौरव यादव को इस उन्माद फैलाने वाली हरकत करने की घटना पर स्पष्टीकरण देना पड़ा तथा उन्होनें माना कि यह गंभीर चूक हुई है ,एक धार्मिक झण्डे को दुश्मन देश का ध्वज बताना शरारत है. मुस्लिम समुदाय की मांग पर चार मीडियाकर्मियों के विरूद्ध मुकदमा दर्ज किया गया और खबर लिखने वाले पत्रकार को गिरफ्तार कर लिया गया. खबर प्रकाशित करने वाले मीडिया समूह ने इसे पुलिस की नाकामी करार देते हुये स्पष्ट किया कि उनकी खबर का आधार पुलिस द्वारा दी गई सूचना ही थी ,पुलिस ने अपनी असफलता छिपाने की गरज से मीडिया के लोगों को बलि का बकरा बना दिया है.
जैसा कि इन दिनों ईद मिलादुन्नबी की तैयारियों के चलते घरों पर चांद तारे वाला हरा झण्डा लगभग हर जगह लगा हुआ दिखाई पड़ जाता है , उसे पाकिस्तानी झण्डे के साथ घालमेल करके मुसलमानों के खिलाफ दुष्प्रचार का अभियान चलाया जा रहा है .
भीलवाड़ा में पिछले दिनों एक मुस्लिम तंजीम के जलसे के बाद ऐसी ही अफवाह उड़ाते एक शख्स को मैने जब चुनौती दी कि वह साबित करे कि जिला कलक्ट्रेट पर प्रदर्शन में पाकिस्तानी झण्डा लहराया गया है तो वह माफी मांगने लगा. इसी तरह फलौदी में पाक झण्डे फहराने सम्बंधी वीडियो होने का दावा कर रहे एक व्यक्ति से विडियो मांगा गया तो उसने ऐसा कोई वीडियो होने से ही इंकार कर दिया. तब ये कौन लोग है जो संगठित रूप से ' पाकिस्तानी झण्डे ' के होने का गलत प्रचार कर रहे है. यह निश्चित रूप से वही अफवाह गिरोह है जो हर बात को उन्माद फैलाने और दंगा कराने में इस्तेमाल करने में महारत हासिल कर चुका है.
इन कथित राष्ट्रप्रेमियों को मीडिया की बेसिर पैर की खबरें खाद पानी मुहैया करवाती रहती है. भारत का कारपोरेट नियंत्रित जातिवादी मीडिया लव जिहाद , इस्लामी आतंतवाद ,गौ तस्करी ,पाकिस्तानी झण्डा ,सैन्य जासूसी और आतंकी नेटवर्क के जुमलों के आधार पर चटपटी खबरें परोस कर मुस्लिम समुदाय के विरूद्ध नफरत फैलाने के विश्वव्यापी अभियान का हिस्सा बन रहा है . आतंकवाद की गैर जिम्मेदाराना पत्रकारिता का स्वयं का चरित्र ही अपने आप में किसी आतंकवाद से कम नहीं दिखाई पड़ता है. हद तो यह है कि हर पकड़ा ग़या 'संदिग्ध' मुस्लिम दूसरे दिन 'दुर्दांत आतंकी ' घोषित कर दिया जाता है और उसका नाम 'अलकायदा' 'इंडियन मुजाहिद्दीन ' 'तालिबान ' अथवा 'इस्लामिक स्टेट ऑफ ईराक एण्ड सिरिया ' से जोड़ दिया जाता है. आश्चर्य तो तब होता है जब मीडिया गिरफ्तार संदिग्ध को उपरोक्त में किसी एक आतंकी नेटवर्क का कमाण्डर घोषित करके ऐसी खबरें प्रसारित व प्रकाशित करता है , जैसे कि सारी जांच मीडियाकर्मियों के समक्ष ही हुई हो. अपराध सिद्ध होने से पूर्व ही किसी को आतंकी घोषित किये जाने की यह मीडिया ट्रायल एक पूरे समुदाय को शक के दायरे में ले आई है. इसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि आज इस्लाम और आतंकवाद को एक साथ देखा जाने लगा है. इसी दुष्प्रचार का नतीजा है कि आज हर दाढ़ी और टोपी वाला शख्स लोगों की नजरों में 'संदिग्ध आतंकी ' के रूप में चुभने लगा है.
हाल ही में जयपुर में इण्डियन ऑयल कार्पोरेशन के मार्केटिंग मैनेजर सिराजुद्दीन को 'एन्टी टेरेरिस्ट स्क्वॉयड' ने आई एस आई एस के नेटवर्क का हिस्सा होने के आरोप में गिरफ्तार किया .मीडिया के लिये यह एक महान उपलब्धि का क्षण बन गया. पल पल की खबरें परोसी जाने लगी-" आतंकी नेटवर्क का सरगना सिराजुद्दीन यहां रहता था ,यह करता था ,वह करता था.सोशल मीडिया के जरिये 13 देशों के चार लाख लोगों से जुड़ा था ,अजमेर के कई युवाओं के सम्पर्क में था.सुबह मिस्र ,इंडोनेशिया जैसे देशों में रिपोर्ट भेजता था ,तो शाम को खाड़ी देशों तथा दक्षिणी अफ्रिकी देशों को रिपोर्ट भेजता था.फिदायनी दस्ते तैयार कर रहा था.आदि इत्यादि " 
दस दिन आतंक की खबरों का बाजार गर्म रहा ,सिराजुद्दीन को इस्लामिक स्टेट का एशिया कमाण्डर घोषित कर दिया गया ,जबकि जांच जारी है और जांच एजेन्सियों की और से इस तरह की जानकारियों का कोई ऑफिशियल बयान जारी नहीं हुआ है.गिरफ्तार किये गये मोहम्मद सिराजुद्दीन के पिता गुलबर्गा कर्नाटक निवासी मोहम्मद सरवर कहते है कि उनका बेटा पक्का वतनपरस्त है ,वह अपने मुल्क के खिलाफ कुछ भी नहीं कर सकता है.सिराजुद्दीन की पत्नि यास्मीन के मुताबिक-
' उसने कभी भी उसको कुछ भी रहस्यमय हरकत करते हुये नहीं देखा ,वह एक नेक धार्मिक मुसलमान के नाते लोगो की सहायता करनेवाला इंसान है. उसके बारे में यह सब सुनकर मैं विश्वास ही नहीं कर पा रही हूं '
खैर ,सच्चाई क्या है , इसके बारे में कुछ भी कयास लगाना अभी जल्दबाजी ही होगी और जिस तरह का हमारी खुफिया एजेन्सियां ,पुलिस और आतंकरोधी दस्तों का पूर्वाग्रह युक्त साम्प्रदायिक व संवेदनहीन चरित्र है ,उसमें न्याय या सत्य के प्रकटीकरण की उम्मीद सिर्फ एक मृगतृष्णा ही है.यह देखा गया है कि इस तरह के ज्यादातर मामलों में बरसों बाद 'कथित आतंकवादी' बरी कर दिये जाते है ,मगर तब तक उनकी जवानी बुढ़ापा बन जाती है.परिवार तबाह हो चुके होते है .
कुछ अरसे से पढ़े लिखे ,सुशिक्षित ,आई टी एक्सपर्ट भारतीय मुसलमान नौजवान खुफिया एजेन्सियों और आतंकवादी समूहों के निशाने पर है ,उन्हें पूर्वनियोजित योजना के तहत तबाह किया जा रहा है. इस तबाही या दमन चक्र के विरूद्ध उठने वाली कोई भी आवाज देशद्रोह मान ली जा रही है ,इसलिये राष्ट्र राज्य से भयभीत अल्पसंख्यक समूह अब बोलने से भी परहेज करने लगा है और बहुसंख्यक तबका मीडियाजनिक विभ्रमों का शिकार हो कर राज्य प्रायोजित दमन को 'उचित' मानने लगा है.जो कि अत्यंत निराशाजनक स्थिति है.
राजस्थान में गोपालगढ़ में मुस्लिम नरसंहार के आरोपी खुलेआम विचरण करते है.नौगांवा का होनहार मुस्लिम छात्र आरिफ जिसे पुलिस ने घर में घुसकर एके सैंतालीस से भून डाला ,उसके हत्यारे पुलिसकर्मियों को सजा नहीं मिलती है.भीलवाड़ा के इस्लामुद्दीन नामक नौजवान की जघन्य हत्या करने वाले हत्यारों का पता भी नहीं चलता है.गौ भक्तों द्वारा पीट पीट कर मार डाले गये डीडवाना के गफूर मियां के परिवार की सलामती की कोई चिन्ता नहीं करता है.हर दिन होने वाली साम्प्रदायिक वारदातों की आड़ में मुस्लिमों को लक्षित कर दमन चक्र निर्बाध रूप से जारी है.कहीं भी कोई सुनवाई नहीं है.लोग थाना ,कोर्ट कचहरियों में चक्कर काटते काटते बेबसी के कगार पर है और उपर से शौर्यदिवस के जंगी प्रदर्शनों में 'संघ में आई शान -मियांजी जाओ पाकिस्तान ' या ' अब भारत में रहना है तो हिन्दु बन कर रहना होगा ' जैसे नारे जख्मों पर नमक छिड़क रहे है.
हर दिन दूरियां बढ़ रही है,बेलगाम बयानबाजी ,दिन प्रतिदिन गांव गांव में बढ रहे संचलन और हथियारों को लहराती हुई रैलियां किसी गृहयुद्ध के बीज बोती दिख रही है.
आश्चर्य की बात तो यह है कि हम अपना घर नहीं सम्भाल पा रहे है ,अपने ही लोगों का भरोसा नहीं जीत पा रहे है और हमारे रक्षामंत्री अमेरिका की सैर से लौट कर कह रहे है कि-संयुक्त राष्ट्र कहेगा तो हमारी सेना "इस्लामिक स्टेट" से लड़ने को तैयार है .समझ नहीं आता कि हम आ बैल मुझे मार का काम क्यों करना चाहते है. हमें समझना होगा कि हथियारों का सौदागर अमेरिका कभी किसी का यार नहीं हुआ है.उसके बहकावे में आकर हमें किसी युद्ध में अपनी सेना को झौंकने की गलती क्यों करनी चाहिये ? हम अपने इर्द गिर्द के सभी मुल्कों को वैसे भी दुश्मन बना ही चुके है. हाल ही में हमने अपनी असफल विदेश नीति के चलते नेपाल जैसे स्वभाविक पड़ौसी मित्र तक को अपना विरोधी और चीन को दोस्त बना डाला है .अब हम क्या सारी मुस्लिम दुनिया को भी अपना दुश्मन बना लेंगे ? गंभीरता से सोचने की जरूरत है कि कहीं हम अमेरिका जैसे देशों के बिछाये जाल में तो नहीं फंसते जा रहे है ? हमारा अमेरिकी प्रेम हमें डुबो भी सकता है .स्थिति यह होती जा रही है कि वाशिंगटन ही पूरा विमर्श तय कर रहा है. इस्लामिक आतंकवाद जैसी शब्दावली से लेकर किनसे लड़ना है और कब लड़ना है ? ईराक से लेकर अफगानिस्तान तक और सिरिया ये लेकर लीबिया तक आतंकी समूहों का निर्माण ,उनके सरंक्षण-संवर्धन में अमेरिका की हथियार इंडस्ट्री और सत्ता सब लगे हुये है .वैश्विक वर्चस्व की इस लड़ाई में पश्चिम का नया दुश्मन मुसलमान है ,मगर भारतीय राष्ट्र राज्य के लिये मुसलमान दुश्मन नहीं है .वे देश के सम्मानित नागरिक है.राष्ट्र निर्माण के सारथी है ,उनसे दुश्मनों जैसा सलूक बंद होना चाहिये .उनके देशप्रेम पर सवालिया निशान लगाने की प्रवृति से पार पाना होगा.झण्डा ,दाढ़ी ,टोपी ,मदरसे ,आबादी ,मांसाहार जैसे कृत्रिम मुद्दे बनाकर किया जा रहा उनका दमन रोकना होगा.उन्हें न्याय और समानता के साथ अवसरों में समान रूप से भागीदार बनाना होगा ,ताकि हम एक शांतिपूर्ण तथा सुरक्षित विकसित राष्ट्र का स्वप्न पूरा कर सकें .
- भँवर मेघवंशी 
( लेखक स्वतंत्र पत्रकार है , bhanwarmeghwanshi@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है



Saturday, October 19, 2013

आर एस एस क्या है?

मधु लिमये

मैंने राजनीति में 1937 मे प्रवेश किया। उस समय मेरी उम्र बहुत कम थी, लेकिन चूकिं मैने मैट्रिक की परीक्षा जल्दी पास कर ली थी, इसलिए कालेज में भी मैने बहुत जल्दी प्रवेश किया। उस समय पूना में आर एस एस और सावरकरवादी लोग एक तरफ और राष्ट्रवादी और विभिन्न समाजवादी और वामपंथी दल दूसरी तरफ थे। मुझे याद है कि 1 मई 1937 को हम लोगों ने मई दिवस का जुलूस निकाला था। उस जुलूस पर आर एस एस के स्वयंसेवकों और सावरकरवादी लोगों ने हमला किया था और उसमें प्रसिध्द क्रान्तिकारी सेनापति बापट और हमारे नेता एस एम जोशी को भी चोटें आयी थी। तो उसी समय से इन लोगों के साथ हमारा मतभेद था। हमारा संघ से पहला मतभेद था राष्ट्रीयता की धारणा पर। हम लोगों की यह मान्यता थी कि जो भारतीय राष्ट्र है, उसमें हिन्दुस्तान में रहनेवाले सभी लोगों को समान अधिकार हैं। लेकिन आर एस एस के लोगों और सावरकर ने हिन्दु राष्ट्र की कल्पना सामने रखी। जिन्ना भी इसी किस्म के सोच के शिकार थे – उनका मानना था कि भारत में मुस्लिम राष्ट्र और हिन्दु राष्ट्र दो राष्ट्र हैं। और सावरकर भी यही कहते थे। दूसरा महत्वपूर्ण मतभेद यह था कि हम लोग लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना करना चाहते थे और आर एस एस के लोग लोकतंत्र को पश्चिम की विचारधारा मानते थे और कहते थे कि वह भारत के लिए उपयुक्त नहीं है। उन दिनों आर एस एस के लोग हिटलर की बहुत तारीफ करते थे। गुरूजी संघ के न केवल सरसंघचालक थे, बल्कि आधयात्मिक गुरू भी थे। गुरूजी के विचारों में और नाजी लोगों के विचारों में आश्चर्यजनक साम्य है। गुरूजी की एक किताब है ‘वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड’ जिसका चतुर्थ संस्करण 1947 में प्रकाशित हुआ था। गुरूजी एक जगह कहते है, ‘हिन्दुस्तान के सभी गैर हिन्दु लोगों को हिन्दु संस्कृति और भाषा अपनानी होगी, हिन्दु धर्म का आदर करना और हिन्दु जाति और संस्.ति के गौरव- गान के अलावा कोई और विचार अपने मन में नही लाना होगा। एक वाक्य में कहें तो वे विदेशी हो कर रहना छोडे नही तो उन्हें हिन्दु राष्ट्र के अधीन होकर ही यहां रहने की अनुमति मिलेगी- विशेष सुलुक की तो बात ही अलग, उन्हें कोई लाभ नही मिलेगा, उनके कोई विशेषाधिकार नही होगें- यहां तक की नागरिक अधिकार भी नही।’ तो गुरूजी करोडों हिन्दुस्तानियों को गैर-नागरिक के रूप में देखना चाहते थे। उनके नागरिकता के सारे अधिकार छीन लेना चाहते थे। और यह कोई उनके नए विचार नही है। जब हम लोग कालेज में पढते थे, उस समय से आर एस एस वाले हिटलर के आदर्शों पर ले चलना चाहते थे। उनका मत था कि हिटलर ने यहूदियों की जो हालत की थी, वही हालत यहां मुसलमानों और इसाइयों की करनी चाहिए।

नाजी पार्टी के विचारों के प्रति गुरूजी की कितनी हमदर्दी है, यह उनकी ‘वी’ नामक पुस्तिका के पृष्ठ 42 से, मैं जो उदाहरण दे रहा हूॅ, उससे स्पष्ट हो जाएगा – ‘जर्मनी ने जाति और संस्.ति की विशुध्दता बनाये रखने के लिए सेमेटिक यहूदियों की जाति का सफाया कर पूरी दुनिया को स्तंभित कर दिया था। इससे जातीय गौरव के चरम रूप की झांकी मिलती है। जर्मनी ने यह भी दिखला दिया कि जड़ से ही जिन जातियों और संस्कृतियों में अंतर होता है उनका एक संयुक्त घर के रूप में विलय असंभव है। हिन्दुस्तान में सीखने और बहस करने के लिए यह एक सबक है।

आप यह कह सकते है कि वह एक पुरानी किताब है – जब भारत आजाद हो रहा था उस समय की किताब है। लेकिन इनकी दूसरी किताब है ‘ए बंच ऑफ थॉट्स’। में उदाहरण दे रहा हूँ उसके ‘लोकप्रिय संस्करण’ से, जो नवंबर 1966 में प्रकाशित हुआ। इसमें गुरूजी ने आंतरिक खतरों की चर्चा की है और तीन आंतरिक खतरे बताये हैं। एक हैं मुसलमान, दूसरे हैं ईसाई और तीसरे हैं कम्युनिस्ट। सभी मुसलमान, सभी ईसाई और सभी कम्युनिस्ट भारत के लिए खतरा हैं, यह राय है गुरूजी की। इस तरह की इनकी विचारधारा है।

गुरूजी के साथ, मतलब आर एस एस के साथ, हमारा दूसरा मतभेद यह है कि गोलवलकर जी और आर एस एस वर्ण व्यवस्था के समर्थक है और मेरे जैसे समाजवादी वर्ण-व्यवस्था के सबसे बडे दुश्मन है। मैं अपने को ब्राह्मणवाद और वर्ण व्यवस्था का सबसे बडा शत्रु मानता हॅु। मेरी यह निश्चित मान्यता है कि जब तक वर्ण-व्यवस्था और उसके ऊपर आधारित विषमताओं का नाश नहीं होगा, तब तक भारत में आर्थिक और सामाजिक समानता नही बन सकती है। लेकिन गुरूजी कहते है कि ‘हमारे समाज की दूसरी विश्ष्टिता थी वर्ण-व्यवस्था, जिसे आज जातिप्रथा कह कर उपहास किया जाता है। आगे वे कहते है कि ‘समाज की कल्पना सर्वशक्तिमान ईश्वर की चतुरंग अभिव्यक्ति के रूप में की गयी थी, जिसकी पूजा सभी को अपने अपने ढंग से और अपनी अपनी योग्यता के अनुसार करनी चाहिए। ब्राह्मण को इसलिए महान माना जाता था, क्योकि वह ज्ञान-दान करता था। क्षत्रिय भी उतना ही महान माना जाता था, क्योंकि वह शत्रुओं का संहार करता था। वैश्य भी कम महत्वपूर्ण नही था, क्योंकि वह कृषि और वाणिज्य के द्वारा समाज की आवश्यकताएं पूरी करता था और शुद्र भी, जो अपने कला-कौशल से समाज की सेवा करता था। इसमें बडी चालाकी से शूद्रों के बारे में कहा गया है कि वे अपने हुनर और कागरी के द्वारा समाज की सेवा करते है। लेकिन इस किताब में चाणक्य के जिस अर्थशास्त्र की गुरूजी ने तारीफ की है, उसमें यह लिखा है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की सेवा करना शुद्रों का सहज धर्म है। इसकी जगह पर गुरूजी ने चालाकी से जोड़ दिया- समाज की सेवा।

हमारे मतभेद का चौथा बिंदु है भाषा। हम लोग लोक भाषा के पक्ष में है। सारी लोकभाषाएं भारतीय है। लेकिन गुरूजी की क्या राय है गुरूजी की यह राय है कि बीच में सुविधा के लिए हिंदी को स्वीकारा, लेकिन अंतिम लक्ष्य यह है कि राष्ट्र की भाषा संस्कृत हो। ‘बंच आफ थॉट्स’ में उन्होने कहा है, ‘संपर्क भाषा की समस्या के समाधान के रूप में जब तक संस्कृत स्थापित नही हो जाती, तब तक सुविधा के लिए हमें हिन्दी को प्राथमिकता देनी होगी।’ सुविधा के लिए हिन्दी, लेकिन अंत में वे संपर्क-भाषा चाहते है संस्कृत।

हमारे लिए यह शुरू से मतभेद का विषय रहा। महात्मा गांधी की तरह, लोकमान्य तिलक की तरह हम लोग लोक भाषाओं के समर्धक रहे। हम किसी के उपर भी हिन्दी लादना नही चाहते। लेकिन हम चाहते है कि तमिलनाडु में तमिल चले, आंध्र में तेलुगु चले, महाराष्ट्र में मराठी चले, पश्चिम बंगाल में बंगला भाषा चले। अगर गैर-हिन्दी भाषी राज्य अंग्रेजी का इस्तेमाल करना चाहते है तो वे करें। हमारा उनके साथ कोई मतभेद नही। लेकिन संस्कृत इने-गिने लोगों की भाषा है, एक विशिष्ट वर्ग की भाषा है। संस्कत को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा देने का मतलब है देश में मुट्ठी भर लोगों का वर्चस्व, जो हम नहीं चाहते।

पांचवी बात, राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में संघराज्य की कल्पना को स्वीकार किया गया था। संघराज्य में केन्द्र के जिम्मे निश्चित विषय होंगे, उनके अलावा जो विषय होंगे, वह राज्यों के अंर्तगत होगे। लेकिन मुल्क के विभाजन के बाद राष्ट्रीय नेता चाहते थे कि केन्द्र को मजबूत बनाया जाये, इसलिए संविधान में एक समवर्ती सूची बनायी गयी। इस समबर्ती सूची में बहुत सारे अधिकार केन्द्र और राज्य दोनों को दिये गये और जो वशिष्ट अधिकार है वह पहले तो राज्य को मिलनेवाले थे, लेकिन केन्द्र को मजबूत करने के लिए केन्द्र को दे दिये गये। बहरहाल, संद्यराज्य बन गया। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके आधयात्मिक गुरू गोलवलकर – इन्होने हमेशा भारतीय संविधान के इस आधारभूत तत्व का विरोध किया।

ये लोग ‘ए यूनियन ऑफ स्टेट्स’ संघराज्य की जो कल्पना है, उसकी खिल्ली उडाते है और कहते है कि हिन्दुस्तान में यह जो संघराज्यवाला संविधान है, उसको खत्म कर देना चाहिए। गुरूजी ‘बंच ऑफ थाट्स’ में कहते है, ‘संविधान का पुनरीक्षण होना चाहिए और इसका पुन: लेखन कर शासन की एकात्मक प्रणाली स्थापित की जानी चाहिए।’ गुरूजी एकात्मक प्रणाली यानी केन्द्रनुगामी शासन चाहते है। वे यह कहते है कि ये जो राज्य वगैरह है, यह सब खत्म होने चाहिए। इनकी कल्पना है कि एक देश, एक राज्य, एक विधयिका और एक कार्यपालिका। यानी राज्यों के विधानमंडल, राज्यों के मंत्रिमंडल सब समाप्त। यानी ये लोग डंडें के बल पर अपनी राजनीति चलायेंगे। अगर डंडा इनके हाथ में आ गया राजदंड, तो केन्द्रनुगामी शासन स्थापित करके छोडेंगे। इसके अलावा स्वतंत्रता आंदोलन का राष्ट्रीय झंडा था तिरंगा। तिरंगे झंडे की इज्जत के लिए, शान के लिए सैकडों लोगों ने बलिदान दिया, हजारों लोगों ने लाठियाँ खायीं। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कभी भी तिरंगे झंडे को राष्ट्रीय ध्वज नही मानता। वह तो भगवा ध्वज को ही मानता था और कहता था, भगवा ध्वज हिन्दु राष्ट्र का प्राचीन झंडा है। हमारा वही आदर्श है, हमारा वही प्रतीक है।

जिस तरह संघ राज्य की कल्पना को गुरूजी अस्वीकार करते थे, उसी तरह लोकतंत्र में भी उनका विश्वास नहीं था। लोकतंत्र की कल्पना पश्चिम से आयात की हुई कल्पना है और पश्चिम का संसदीय लोकतंत्र भारतीय विचार और संस्कृति के अनुकूल नहीं है, ऐसी उनकी धारणा है। जहां तक समाजवाद का सवाल है, उसको तो वे सर्वथा परायी चीज मानते थे और कहते थे कि यह जितने ‘इज्म’ हैं यानी डेमोक्रेसी हो या समाजवाद, यह सब विदेशी है और इनका त्याग करके हमको भारतीय संस्कति के आधार पर समाज रचना करनी चाहिए। जहां तक हमारे जैसे लोगों को सवाल है हम लोग तो संसदीय लोकतंत्र में विश्वास रखते है, समाजवाद में विश्वास रखते है और यह भी चाहते है कि शांतिपूर्ण ढंग से और महात्मा जी के सृजनात्मक सिध्दांत को अपना कर हम लोकतंत्र की प्रतिष्ठापना करें, सामाजिक संगठन करें और समाजवाद लायें।

जब कांग्रेस के एकतंत्रीय शासन के खिलाफ हमारी लडाई चल रही थी, तो हमारे नेता डॉ. राममनोहर लोहिया कहते थे कि जिस कांग्रेस ने चीन के हाथ भारत को अपमानित करवाया, उस कांग्रेस को हटाने के लिए और देश को बचाने के लिए हमको विपक्ष के सभी राजनीतिक दलों के साथ तालमेल बैठाना चाहिए। इस विषय पर डाक्टर साहब से मेरी बहुत चर्चा होती थी। दो साल तक बहस चली। आखिर तक मै यह कहता रहा कि आर एस एस और जनसंघ के साथ हमारा तालमेल नही बैठेगा। अंत में डाक्टर साहब ने कहा कि मेरे नेतृत्व को तुम मानते हो या नही? मैने कहा – हाँ, मैं मानता हूँ। वे बोले, क्या यह जरूरी है कि सभी प्रश्नों पर तुम्हारी और मेरी राय मिले या सभी प्रश्नों पर मैं तुमको सहमत करू। एक-आध प्रश्न ऐसा भी रहे जो हम दोनो के बीच मतभेद का विषय हो। और मै तो इस तरह का तालमेल चाहता हूं एक बडे दुश्मन को हराने के लिए, तो इस मामले मे तुम मान जाओ, इसको ‘ट्रायल’ दे दो। हो सकता है मेरी बात सही निकले, यह भी हो सकता है तुम्हारी बात सही निकले। लेकिन मेरी यह मान्यता रही है कि अंत में आर एस एस और डॉ. राममनोहर लोहिया की विचारधारा में संघर्ष हो कर रहेगा।

जब इंदिरा गांधी ने हमारे उपर इमरजेंसी लादी या वह तानाशाही की ओर बढ़ने लगी, संजय को आगे बढ़ाने लगी, मारूती कांड हुआ तो यह बात सही है कि इमरजेंसी के खिलाफ लडने के लिए लोगों ने इन लोगों के साथ तालमेल बिठाया। लोकनायक जयप्रकाश जी कहते थे कि एक पार्टी बनाये बिना हम लोग इंदिरा को और तानाशाही को नही हटा सकते। चौधरी चरण सिंह की भी यही राय थी कि एक पार्टी बने।

हम लोग जब जेल मे थे, यह पूछा गया था कि एक पार्टी बनाने के बारे में और चुनाव लड़ने के बारे में आपकी क्या राय है। मुझे याद है कि मैने यह संदेश जेल में भेजा था कि मेरी राय में चुनाव लड़ना चाहिए। चुनाव में करोड़ों लोग हिस्सा लेंगे। चुनाव एक गतिशील चीज” है। चुनाव अभियान जब जोर पर आएगा, तो इमरजेंसी के जितने बंधन है वह सब टूट जाऐंगे और लोग अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल करेंगे। इसीलिए मेरी राय थी कि चुनाव लड़ना चाहिए। अब चूंकि लोकनायक जयप्रकाश नारायण और सभी लोगों की यह राय थी कि एक पार्टी बनाए बिना हम लोगों को सफलता नही मिलेगी, तो हम लोगों ने भी इसके लिए मान्यता दे दी थी। लेकिन में कहना चाहता हुँ कि यह जो समझौता हुआ था, वह दलों के बीच में हुआ था – जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी, संगठन कांग्रेस, भालोद और कुछ विद्रोही कांग्रेसी। आर एस एस के साथ ना हमारा कोई करार हुआ न आर एस एस की कोई शर्त मानी गई। बल्कि जेलों मे हमारे बीच मनु भाई पटेल का एक परिपत्र प्रसारित किया गया था, उससे तो हम यह पता चला कि चौधरी चरण सिंह ने 7 जुलाई 1976 को आर एस एस की सदस्यता और जो नयी पार्टी बनेगी उसकी सदस्यता इन दोनो में मेल होगा या टकराव, इसकी चर्चा उठायी थी। जनसंघ के उस समय के कार्यकारी महासचिव ओमप्रकाश त्यागी ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि नयी पार्टी जो शर्त लगाना चाहे लगा सकती है। फिलहाल आर एस एस के ऊपर तो पाबंदी है, आर एस एस को भंग किया जा चुका है, इसलिए आर एस एस का तो सवाल ही नही उठता।

बाद में जब हम लोग पार्टी का नया संविधान बना रहे थे, तो हमारी संविधान उपसमिति ने एक सिफारिश की थी कि ऐसे किसी संगठन के सदस्यों को, जिसके उद्देश्य, नीतियों और कार्यक्रम जनता पार्टी के उद्देश्य नीतियों और कार्यक्रम से मेल नही खाते, पार्टी का सदस्य नही बनने देना चाहिए। इसका विरोध करने की किसी को भी कोई आवश्यकता नहीं थी, यह तो एक बिलकुल सामान्य बात थी। लेकिन यह विचारणीय बात है कि अकेले सुंदरसिंह भंडारी ने इसका विरोधा किया। बाकी सभी सदस्यों ने – इनमें रामकृष्ण हेगडे भी थे, श्रीमती मृणाल गोरे थी, श्री बहुगुणा थे, श्री वीरेन शाह थे और मै स्वयं था – मिल कर एक राय से यह प्रस्ताव लिया था कि हम सुंदरसिंह भंडारी का विरोधा करेंगे। 1976 के दिसंबर महीने में इस पर विचार करने के लिए जब बैठक हुई, तो अटल जी ने जनसंघ और आर एस एस की ओर से एक पत्र लिखा था राष्ट्रीय समिति को, जिसमें उन्होने यह चर्चा की थी कि कुछ नेताओं में इस पर आपसी रजामंदी थी कि आर एस एस का सवाल नही उठाया जा सकता। लेकिन कई नेताओं ने मुझे बताया कि इस तरह कि कोई रजामंदी नहीं थी और इस तरह का कोई वचन नही दिया गया था, क्योंकि उस समय तो आर एस एस सामने था ही नहीं। मैं यह कहना चाहता हूँ कि मैं उस वक्त जेल में था और अगर ऐसा कोई गुप्त करार था भी, तो मैं उसका भागीदार नहीं हुँ।

जनता पार्टी का जो चुनाव घोषणापत्र बना, मै बिलकुल सफाई के साथ कहना चाहता हुँ, उस पर आर एस एस की विचारधारा का जरा भी असर नही था, बल्कि एक-एक मुद्दे को सफाई के साथ स्पष्ट किया गया था। क्या यह बात सही नहीं है कि जनता पार्टी का चुनाव घोषणापत्र धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और गांधीवादी मूल्यों पर आधारित समाजवादी समाज की चर्चा करता है – उसमें हिन्दु राष्ट्र का कहीं कोई उल्लेख नही। अल्पसंख्यकों के अधिकारों की- समान अधिकार की चर्चा और यह भी कहा गया है कि उनके अधिकारों की पुरी रक्षा की जायेगी और गुरूजी तो कहते है कि जो अल्पसंख्यक लोग हैं उनको नागरिकता के भी अधिकार नही रहने चाहिए। उनको हिन्दु राष्ट्र के बिलकुल अधीन होकर रहना पडेगा। जनता पार्टी ने विकेद्रीकरण की बात और गुरूजी तो धाोर केन्द्रीकरणवादी थे। वे तो राज्यों को ही समाप्त करना चाहते राज्य विधान मंडलों को ही समाप्त करना चाहते राज्य के मंत्रिमंडलों को समाप्त करना चाहते लेकिन जनता पार्टी ने तो विकेंद्रीकरण की चर्चा की। यानी राज्यों की स्वायत्ता पर जनता पार्टी आक्रमण नहीं करना चाहती। समाजवाद की चर्चा की गयी, समाजिक न्याय की चर्चा की गयी, समानता की चर्चा की गयी। क्या जनता पार्टी ने अपने चुनाव घोषणापत्र में यह कहा था कि वर्णव्यवस्था रहेगी और शुद्रों को दूसरों की सेवा में ही अपना जीवन बिताना चाहिए ? जनता पार्टी ने तो यह कहा था कि पिछडों को हम लोग पूरा मौका देंगे, इतना ही नही, विशेष अवसर देंगे और यह कहा था कि उनके लिए सरकारी सेवाओं में 25 से 33 प्रतिशत तक आरक्षण किया जायेगा।

हां, यह बात सही है कि आर एस एस के लोगों ने दिल से इस चुनाव घोषणापत्र को नहीं स्वीकारा। मेरी यह शिकायत रही और कुशाभाऊ ठाकरे को एक पत्र में मैने कहा भी था कि मेरी तरफ से शिकायत यह है कि चर्चा के दौरान आप बहुत जल्दी चीजों को मान जाते है लेकिन दिल से नहीं मानते। इसलिए आपके बारे में शक पैदा होता है। यह मैने उनको बहुत पहले कहा था, और मेरे मन मैं आर एस एस के बारे में शुरू से संदेह रहे। डॉक्टर साहब के जमाने से रहे। लेकिन इसके बावजूद तानाशाही के खिलाफ लड़ने के लिए हम लोगों ने जरूर उनसे तालमेल किया। लोकनायक जयप्रकाश जी की यह इच्छा थी कि एक पार्टी बने, तो चूंकि चुनाव घोषणापत्र में किसी तरह का समझौता नही किया गया था, इसलिए हमने इस बात को स्वीकार कर लिया। लेकिन साथ-ही-साथ मैं कहना चाहता हूँ कि मै शुरू से इसके बारे में बिलकुल स्पष्ट था अपने मन में कि अगर जनता पार्टी को एकरस होकर, एक सुसंबद्ध पार्टी के रूप में काम करना है, तो दो काम अवश्य करने पडेंगे। नंबर एक, आर एस एस वालों को अपनी विचारधारा बदलनी पडेगी और धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की कल्पना को स्वीकारना पडेगा। नंबर दो, आर एस एस के परिवार के जो संगठन हैं- जैसे भारतीय मजदूर संघ, विद्यार्थी परिषद, इन संगठनों को अपना अलग अस्तित्व समाप्त करना पडेगा और जनता पार्टी के समानधार्मी संगठनो के साथ अपने को विलीन करना पडेगा। इसके बारे में मै शुरू से ही स्पष्ट था और चुंकि मुझे जनता पार्टी के मजदूर और युवा संगठनों की देख-रेख का भार दिया गया था, मैंने यह लगातार कोशिश की कि विद्यार्थी परिषद अपने अस्तित्व को मिटाये, भारतीय मजदूर संघ अपने अस्तित्व को मिटाये।

लेकिन ये लोग अपनी स्वायत्ता की चर्चा करने लगे। वस्तुत: ये लोग हमेशा नागपूर के आदेश से चलते है, एक चालकानुवर्तित्व का सिध्दांत मानते है। मैं गुरूजी का ही उदाहरण देता हूँ। गुरूजी ने यह कहा कि हम लोग इस तरह का मन बनाते हैं कि वह बिलकुल अनुशासित होता है और जो हम लोग कहेंगे वही सब लोग मानते हैं। इनके संगठन का एक ही सूत्र है – एकचालकानुवर्तित्व। ये लोकतंत्र को नहीं मानते। बहस में भी इनका विश्वास नही। इनकी कोई आर्थिक नीति नहीं है। उदाहरण के लिए गुरूजी ने अपने ‘बंच आफॅ थॉट्स’ में इस बात पर खेद प्रकट किया है कि जमीदारी प्रथा का उन्मूलन किया गया है। जमींदार के खत्म होने पर गुरूजी को बडी तकलीफ है, बडी पीड़ा है। लेकिन गरीबों के लिए उनके मन में दर्द नही है।

मैंने आर एस एस वालों से कहा कि आपको हिन्दु संगठन की कल्पना छोड़ कर सभी धार्मों के और सभी संप्रदायों के लोगों को अपनी संस्था में स्थान देना पडेगा। आपके जो वर्ग-संगठन हैं, उनको जनता पार्टी के दूसरे वर्ग। संगठन के साथ मिला देना पडेगा। तो उन लोगों ने कहा कि यह इतना जल्दी कैसे होगा। बड़ी दिक्कतें है, लेकिन हम धीरे-धीरे बदलना चाहते है। वे इस तरह की गोलमोल बातें करते रहते थे। उनके आचरण को देखकर में इस नतीजे पर पहुंचा कि उसको बदलना है नही। खासकर 1977 के जून के विधानसभा चुनावों के बाद जब उनके हाथ में चार राज्यों और एक केन्द्र शासित प्रदेश का शासन आ गया तथा उत्तर प्रदेश और बिहार में उनको बहुत बडी हिस्सेदारी मिल गयी, तो इसके बाद वे सोचने लगे कि अब हमको बदलने की क्या जरूरत है। हम लोगों ने चार राज्यों को फतह कर लिया है, धीरे-धीरे अन्य राज्यों को करेंगे, फिर केन्द्र भी हमारे हाथ में आयेगा। बाकी जो नेता है वे बुङ्ढें नेता है, आज नही तोकल मर जायेंगे और किसी नेता नये को हम बनने नही देंगे। इसलिए आपने देखा होगा ‘आर्गनाइजर’, पांचजन्य आदि सभी अखबारों में जनता पार्टी के किसी भी नेता को उन्होने नही बख्शा। मेरे उपर तो उनका विशेष अनुग्रह रहा है, विशेष .पा रही है। मुझे गाली देने में अपने अखबारों का जितना स्थान उन्होने खर्च किया उतना तो शायद इंदिरा गांधी को भी गाली देने के लिए नही किया होगा।

एक अरसे तक इन लोगों से मेरी बातचीत होती रही। एक दफा तो मुझे याद है मेरे घर में, बंबई में बाला साहब देवरस आये। फिर उसके बाद 71 के चुनाव के बाद एक दफा मै उनसे मिला। इमर्जेन्सी के पहले एक दफा माधवराव मुले से मेरी बातचीत हुई। चौथी बार माधवराव मुले और बाला साहब देवरस से मई 1977 में मेरी बात हुई थी। तो ऐसा कोई नहीं कह सकता कि मैंने उनसे चर्चा नहीं की थी, लेकिन मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि उनके दिमाग का जो किवाड है, वह बंद है और उसमें कोई नया विचार पनप नहीं सकता। बल्कि आर एस एस की यह विशेषता रही है कि वह बचपन में ही लोगों को एक खास दिशा में मोड़ देते हैं। पहला काम वह यही करते हैं कि बच्चो की, युवको की विचारप्रक्रिया को ‘फ्रीज़’ कर देते है-जड़ बना देते है। उसके बाद कोई नया विचार वे ग्रहण ही नहीं कर पाते। तो कोशिश मैने की। एक बार मैंने ट्रेड युनियन कार्यकर्ताओं की बैठक बुलायी। जनता पार्टी के सभी संगठनों के प्रतिनिधि उसमें आये, लेकिन भारतीय मजदूर संघ ने उसका बहिष्कार किया। इतना ही नही, अकारण मुझे गालियां भी दी। विद्यार्थी परिषद और युवा मोर्चा के साथ भी विलीनीकरण की बात चलायी गयी, लेकिन वे लोग हमेशा अलग रहे, क्योंकि आर एस एस अपने को ‘सुपर पार्टी’ के रूप मे चलाना चाहता है। यह लोग जीवन के हर अंग को न केवल छुना चाहते है, बल्कि उस पर कब्जा करना चाहते हैं। जार्ज फर्नाड़िस ने उसी समय लेख लिखा ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में, उसमें उन्होने इसी विचार को ले कर दत्तोपंत ठेंगडी का एक उदाहरण दिया। लेकिन दत्तोपंत ठेंगड़ी ने कहा कि पूरे समाज में हम लोग छा जाना चाहते है, जीवन का कोई पहलू हम लोग छोडेंगे नही – सब पर कब्जा करेंगे, यह कोई नया विचार नही है ठेंगड़ी का। यह तो ‘वी’ और ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में गुरूजी ने जगह जगह पर कहा है। और कोई भी सर्वसत्तावादी संगठन जीवन के किसी भी पहलू को स्वतंत्र नही छोडना चाहता। वह कला पर छा जायेगा, संगीत पर छा जायेगा, अर्थनीति पर छा जायेगा, संस्कृति पर छा जायेगा। फासिस्ट संगठन का यही तो धर्म है।

दरअसल ये लोग हमारी जनता पार्टी पर कब्जा करना चाहते थे। ये लोग सरकारों पर कब्जा करना चाहते थे। एक साथ इन्होंने कई नेताओं को लालच दिखाया था प्रधानमंत्री बनने का। इधर ये मोरारजी भाई को भी अंत तक कहते रहे कि आप ही को रखेंगे हम लोग। ये चरण सिंह को भी बीच-बीच में कहते थे कि आप को बनायेंगे। ये जगजीवन राम को भी कहते थे कि हम आप ही को बनायेंगे। ये चंद्रशेखर को भी कहते थे। ये जार्ज फर्नाडिस को भी कहते थे। हां, उन्होने कभी मुझे यह कहने का साहस नहीं किया। एक दफा अटल जी से मैने कहा, तो उन्होंने कहा, ‘नानाजी ने ना केवल तुमको, बल्कि मुझको भी कभी नहीं कहा। न वे आपको बनाना चाहते हैं न कभी मुझको बनाना चाहते हैं। ऐसा मजाक में अटल जी ने मुझसे कहा। बहरहाल, वे मुझसे इसलिए इस तरह की बात नहीं करते थे क्योकि में न किसी की वंचना करता हूं न किसी के द्वारा वंचित होता हुँ। वे सोचते हैं इसको बेवकूफ नही बनाया जा सकता, तो इसको कहने से क्या फायदा ? यह तो और सावधान हो जाएगा।

ये लोग समय समय पर क्या कहते है, उसका कोई मूल्य नही। क्या आर एस एस के नेताओं ने कहा है कि गुरू गोलवरकर के जो विचार है, उन्हें हमने त्याग दिया? सिर्फ अटल जी कहते है कि राष्ट्रीयता, लोकतंत्र, समाजवाद, सामाजिक न्याय आदि धारणाओं को स्वीकारना चाहिए, उसके बिना अब नहीं चला जा सकता। पर यह केवल अटल जी कहते है। बाकि संधियों पर तो मेरा विश्वास ही नहीं। ये लोग जेल में माफी मांगते थे रिहाई हासिल करने के लिए, बाला साहब देवरस ने इंदिरा गांधी का अभिनंदन किया था जब वे सुप्रीम कोर्ट में राजनारायण के केस में जीतीं। तो इन लोगों के वचनों पर मेरा विश्वास नहीं है। मेरी स्पष्ट राय है कि आर एस एस के नेताओं को अगर वे पार्टी से निकाल देते, राष्ट्रीय समिति से, उनके सदस्यों पर पाबंदी लगा देते और विशेषकर नानाजी, सुंदर सिंह भंडारी एंड कंपनी को पार्टी से निकाल देते, तभी मैं विश्वास कर सकता था।

स्त्रोत : आवाज़ ए हिन्द, १२ अक्टूबर, १३  

Wednesday, July 24, 2013

मोदी जी, आप गोलवलकर के साथ हैं या लोकतंत्र के साथ?

हिंदू राष्ट्रवादी और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम एक खुला पत्र

श्रीमान!

आशा है आप स्वस्थ होंगे। बीती 22 जुलाई को यूरोपीय न्यूज एजेंसी रायटर्स के दो पत्रकारों, रॉस कोल्विन तथा गोत्तिपति के साथ बात करते हुए आपने स्वयं को “हिंदू राष्ट्रवादी’” घोषित किया और आप में एक देशभक्त होने की भावना संचार करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को शुक्रिया अदा किया। यह आरएसएस का प्रशिक्षण है कि “आप जो भी काम करते हैं, आपको लगता है कि आप देश की भलाई के लिए यह कर रहे हैं? यह बुनियादी प्रशिक्षण है। अन्य बुनियादी प्रशिक्षण अनुशासन है। आपके जीवन को अनुशासित होना चाहिए।” [1]

न्यूज एजेंसी का दावा है कि यह आपके आधिकारिक गांधीनगर निवास पर लिया गया एक ‘दुर्लभ साक्षात्कार’ है। इस साक्षात्कार को पढ़ कर मैं हैरान रह गया क्योंकि आप एक साधारण भारतीय नागरिक की हैसियत से नहीं बल्कि भारत के लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष संविधान के अंतर्गत आने वाले गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में बात कर रहे थे। चूंकि आप पारदर्शिता में विश्वास रखने का दावा करते हैं, इसलिए मैं इस आशा के साथ यह खुला खत लिख रहा हूं कि आप मेरे द्वारा उठाये गये सवालों के उत्तर अवश्य देंगे।

आरएसएस के एक परिपक्व प्रचारक और पूर्णकालिक कार्यकर्ता होने के नाते आप अपनी जड़ों के बारे में मुझसे बेहतर जानते होंगे। मैं आपका ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित करना चाहूंगा कि ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ शब्द की उत्पत्ति ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एक ऐतिहासिक संदर्भ में हुई।

यह स्वतंत्रता संग्राम मुख्य रूप से एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष भारत के लिए कांग्रेस के नेतृत्व में लड़ा गया था। ‘मुस्लिम राष्ट्रवादियों’ ने मुस्लिम लीग के बैनर तले और ‘हिंदू राष्ट्रवादियों’ ने ‘हिंदू महासभा’ और ‘आरएसएस’ के बैनर तले इस स्वतंत्रता संग्राम का यह कह कर विरोध किया कि हिंदू और मुस्लिम दो पृथक राष्ट्र हैं। स्वतंत्रता संग्राम को विफल करने के लिए इन हिंदू और मुस्लिम राष्ट्रवादियों ने अपने औपनिवेशिक आकाओं से हाथ मिला लिया ताकि वे अपनी पसंद के धार्मिक राज्य ‘हिंदुस्थान’ या ‘हिंदू राष्ट्र’ और पाकिस्तान या इस्लामी राष्ट्र हासिल कर सकें।

भारत को विभाजित करने में मुस्लिम लीग की भूमिका और इसकी राजनीति के विषय में लोग अच्छी तरह परिचित हैं लेकिन मुझे लगता है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद और स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ‘हिंदू राष्ट्रवादियों’ ने कैसी घटिया और कुटिल भूमिका अदा की, इसके विषय में आपकी याददाश्‍त को ताजा करना जरूरी है।

नरेंद्र जी! ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ मुस्लिम लीग की तरह ही द्विराष्ट्र सिद्धांत में यकीन रखते हैं। मैं आपका ध्यान इस तथ्य की ओर आकृष्ट करना चाहूंगा कि हिंदुत्व के जन्मदाता, वीडी सावरकर और आरएसएस दोनों की द्विराष्ट्र सिद्धांत में साफ-साफ समझ में आने वाली आस्था रही है कि हिंदू और मुस्लिम दो अलग-अलग राष्ट्र हैं। मुहम्मद अली जिन्नाह के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने 1940 में भारत के मुसलमानों के लिए पाकिस्तान की शक्ल में पृथक होमलैंड की मांग का प्रस्ताव पारित किया था, लेकिन सावरकर ने तो उससे काफी पहले, 1937 में ही जब वे अहमदाबाद में हिंदू महासभा के 19वें अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण कर रहे थे, तभी उन्होंने घोषणा कर दी थी कि हिंदू और मुसलमान दो पृथक राष्ट्र हैं।

“फि़लहाल भारत में दो प्रतिद्वंद्वी राष्ट्र अगल बगल रह रहे हैं। कई अपरिपक्व राजनीतिज्ञ यह मान कर गंभीर गलती कर बैठते हैं कि हिंदुस्तान पहले से ही एक सद्भावपूर्ण राष्ट्र के रूप ढल गया है या केवल हमारी इच्छा होने से इस रूप में ढल जाएगा। इस प्रकार के हमारे नेक नीयत वाले पर कच्ची सोच वाले दोस्त मात्र सपनों को सच्चाई में बदलना चाहते हैं। इसलिए वे सांप्रदायिक उलझनों से अधीर हो उठते हैं और इसके लिए सांप्रदायिक संगठनों को जि़म्मेदार ठहराते हैं। लेकिन ठोस तथ्य यह है कि तथाकथित सांप्रदायिक प्रश्न और कुछ नहीं बल्कि सैकड़ों सालों से हिंदू और मुसलमान के बीच सांस्कृतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्विता के नतीजे में हम तक पहुंचे हैं। हमें इन अप्रिय तथ्यों का हिम्मत के साथ सामना करना चाहिए। आज यह कतई नहीं माना जा सकता कि हिंदुस्तान एकता में पिरोया हुआ राष्ट्र है, इसके विपरीत हिंदुस्तान में मुख्यतः दो राष्ट्र हैं, हिंदू और मुसलमान।” [2]

श्रीमान!, आरएसएस ने हमेशा ‘वीर’ सावरकर के पद चिन्हों पर चलते हुए इस विचार को खारिज किया कि हिंदू, मुस्लिम, सिख और ईसाइयों ने मिलकर एक साथ एक राष्ट्र का गठन किया है। आजादी की पूर्व संध्या (14 अगस्त 1947) पर प्रकाशित आरएसएस के अंग्रेजी के मुखपत्र ‘ऑर्गनाइजर’ में ‘किधर’ (‘Whither’) शीर्षक से प्रकाशित संपादकीय में एक बार पुनः द्विराष्ट्र सिद्धांत में इन शब्दों में विश्वास व्यक्त किया है।

“राष्ट्रत्व की छद्म धारणाओं से गुमराह होने से हमें बचना चाहिए। बहुत सारे दिमागी विभ्रम और वर्तमान एवं भविष्य की परेशानियों को दूर किया जा सकता है, अगर हम इस आसान तथ्य को स्वीकारें कि हिंदुस्थान में सिर्फ हिंदू ही राष्ट्र का निर्माण करते हैं और राष्ट्र का ढांचा उसी सुरक्षित और उपयुक्त बुनियाद पर खड़ा किया जाना चाहिए।… स्वयं राष्ट्र को हिंदुओं द्वारा हिंदू परम्पराओं, संस्कृति, विचारों और आकांक्षाओं के आधार पर ही गठित किया जाना चाहिए।”

‘मेरा सेक्युलरिज्म, इंडिया फर्स्ट’ वाला आपका दावा भी समस्यामूलक है। आप स्वयं को ‘भारतीय राष्ट्रवादी’ नहीं बल्कि ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ मानते हैं। यदि आप ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ हैं, तो निश्चित रूप से फिर तो देश में ‘मुस्लिम राष्ट्रवादी’, ‘सिख राष्ट्रवादी’, ‘ईसाई राष्ट्रवादी’ एवं अन्य ‘राष्ट्रवादी’ भी होंगे। इस प्रकार आप भारत विभाजन के लिए जमीन तैयार कर रहे हैं। निश्चित रूप से यह आपके संगठन की द्विराष्ट्र सिद्धांत में अखंड विश्वास के कारण है।

‘हिंदू राष्ट्रवादी’ राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे की निंदा व अपमान करते हैं

श्रीमान मोदी जी! आरएसएस के एक वरिष्ठ और पूर्णकालिक कार्यकर्ता होने के नाते आप अच्छी तरह जानते होंगे कि आरएसएस के मुखपत्र ‘ऑर्गनाइजर’ ने स्वतंत्रता प्राप्ति की पूर्व संध्या पर राष्ट्रीय ध्वज के लिए इस भाषा का प्रयोग किया था –

 ‘वे लोग जो किस्मत के दांव से सत्ता तक पहुंचे हैं वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगे को थमा दें, लेकिन हिंदुओं द्वारा न इसे कभी सम्मानित किया जा सकेगा, न अपनाया जा सकेगा। तीन का आंकड़ा अपने आप में अशुभ है और एक ऐसा झंडा, जिसमें तीन रंग हों बेहद खराब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुकसानदेय होगा…’ [3]

‘हिंदू राष्ट्रवादियों’ ने 1942- 43 में मुस्लिम लीग के साथ मिलकर गठबंधन सरकारें चलायी

सन 1942 भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में बहुत ही महत्वपूर्ण वर्ष है। अंग्रेजों के खिलाफ एक राष्ट्रव्यापी आह्वान “अंग्रेजों भारत छोड़ो” किया गया था। इसके प्रत्युत्तर में ब्रिटिश शासकों ने देश को नरक में बदल दिया था। ब्रिटिश सशस्त्र दस्तों ने पूरी तरह से कानून के शासन की अनदेखी करते हुए बड़े पैमाने पर आम भारतीयों को मार डाला। लाखों लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया और हजारों को भयानक दमन व यातना का सामना करना पड़ा। ब्रिटिश भारत के विभिन्न प्रांतों में शासन कर रही कांग्रेसी सरकारें बर्खास्त कर दी गयीं। केवल हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग ही ऐसे राजनैतिक संगठन थे, जिनको अपना कार्य जारी रखने की अनुमति दी गयी। इन दोनों संगठनों ने न केवल ब्रिटिश शासकों की सेवा की बल्कि मिलकर गठबंधन सरकारें भी चलायीं। आरएसएस के महाप्रभु ‘वीर’ सावरकर ने 1942 में कानपुर में हिंदू महासभा के 24वें महाधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में इसकी पुष्टि की कि…..

 “व्यावहारिक राजनीति में भी हिंदू महासभा जानती है कि हमें तर्कसंगत समझौते करके आगे बढ़ना चाहिए। इस तथ्य पर ध्यान दीजिए कि हाल ही में सिंध हिंदू महासभा ने निमंत्रण के बाद मुस्लिम लीग के साथ मिलीजुली सरकारें चलाने की जिम्मेदारी ली। बंगाल का मामला सर्वविदित है। उद्दंड लीगियों (मुस्लिम लीग के सदस्य) को कांग्रेस भी अपने दब्बूपन के बावजूद खु़श नहीं रख सकी, लेकिन जब वे हिंदू महासभा के संपर्क में आये तो काफी तर्कसंगत समझौतों और सामाजिक व्यवहार के लिए तैयार हो गये और श्री फजलुल हक के प्रधानमंत्रित्व (उन दिनों मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री ही कहा जाता था) और हिंदू महासभा के काबिल व सम्मान्य नेता डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के काबिल नेतृत्व में ये सरकार दोनों संप्रदायों के फायदे के लिए एक साल से भी ज्यादा चली। और हमारे सम्मानित महासभा नेता डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी और यह सरकार करीब एक साल तक दोनों समुदायों के हित में सफलतापूर्वक चली।” [4]

जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस देश को आजाद कराने के लिए लड़ रहे थे, तब ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ ब्रिटिश हुकूमत और ब्रिटिश सेना को ताकतवर बनाने में मदद कर रहे थे।

श्रीमान! मैं समझता हूं कि आप नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नाम से जरूर परिचित होंगे जिन्होंने जर्मनी और जापान के सैन्य सहयोग से भारत को मुक्त कराने का प्रयास किया था। लेकिन, इस अवधि के दौरान ‘हिंदू राष्ट्रवादियों’ ने बजाय नेताजी को मदद करने के, नेताजी के मुक्ति संघर्ष को हराने में ब्रिटिश शासकों के हाथ मजबूत किये। हिंदू महासभा ने ‘वीर’ सावरकर के नेतृत्व में ब्रिटिश फौजों में भर्ती के लिए शिविर लगाये। हिंदुत्ववादियों ने अंग्रेज शासकों के समक्ष मुकम्मल समर्पण कर दिया था जो ‘वीर’ सावरकर के निम्न वक्तव्य से और भी साफ हो जाता है – 

“जहां तक भारत की सुरक्षा का सवाल है, हिंदू समाज को भारत सरकार के युद्ध संबंधी प्रयासों में सहानुभूतिपूर्ण सहयोग की भावना से बेहिचक जुड़ जाना चाहिए, जब तक यह हिंदू हितों के फायदे में हो। हिंदुओं को बड़ी संख्या में थल सेना, नौसेना और वायुसेना में शामिल होना चाहिए और सभी आयुध, गोला-बारूद, और जंग का सामान बनाने वाले कारखानों वगै़रह में प्रवेश करना चाहिए… गौरतलब है कि युद्ध में जापान के कूदने कारण हम ब्रिटेन के शत्रुओं के हमलों के सीधे निशाने पर आ गये हैं। इसलिए हम चाहें या न चाहें, हमें युद्ध के कहर से अपने परिवार और घर को बचाना है और यह भारत की सुरक्षा के सरकारी युद्ध प्रयासों को ताकत पहुंचा कर ही किया जा सकता है। इसलिए हिंदू महासभाइयों को खासकर बंगाल और असम के प्रांतों में, जितना असरदार तरीके़ से संभव हो, हिंदुओं को अविलंब सेनाओं में भर्ती होने के लिए प्रेरित करना चाहिए।” [5]

आरएसएस अपने कार्यकर्ताओं में कैसी भावना भरता है?

श्रीमान! आपने अपने साक्षात्कार में दावा किया कि आरएसएस अपने कार्यकर्ताओं के मन में देशभक्ति की भावना, राष्ट्र की भलाई के लिए काम करना और अनुशासन की भावना भरता है। जब से आरएसएस ‘हिंदू राष्ट्र’ के लिए खड़ा हुआ है, कोई साधारण व्यक्ति भी समझ सकता है कि आरएसएस के हाथों लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत का क्या भविष्य हो सकता है। आपको संघ के प्रमुख विचारक गोलवरकर के उस वक्तव्य को भी साझा करना चाहिए कि आरएसएस एक स्वयंसेवक से क्या अपेक्षाएं करता है। 16 मार्च 1954 को सिंदी (वर्धा) में संघ के शीर्ष नेतृत्व को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था,

“यदि हमने कहा कि हम संगठन के अंग हैं, हम उसका अनुशासन मानते हैं तो फिर ‘सिलेक्टीवनेस’ (पसंद) का जीवन में कोई स्थान न हो। जो कहा वही करना। कबड्डी कहा तो कबड्डी, बैठक कहा तो बैठक … जैसे अपने कुछ मित्रों से कहा कि राजनीति में जाकर काम करो, तो उसका अर्थ यह नहीं कि उन्हें इसके लिए बड़ी रुचि या प्रेरणा है। वे राजनीतिक कार्य के लिए इस प्रकार नहीं तड़पते, जैसे बिना पानी के मछली। यदि उन्हें राजनीति से वापिस आने को कहा तो भी उसमें कोई आपत्ति नहीं। अपने विवेक की कोई जरूरत नहीं। जो काम सौंपा गया उसकी योग्यता प्राप्त करेंगे ऐसा निश्चय कर के यह लोग चलते हैं।” [6]

गुरु गोलकरकर का दूसरा वक्तव्य भी इस बारे में महत्वपूर्ण है

“हमें यह भी मालूम है कि अपने कुछ स्वयंसेवक राजनीति में काम करते हैं। वहां उन्हें उस कार्य की आवश्यकताओं के अनुरूप जलसे, जुलूस आदि करने पड़ते हैं, नारे लगाने होते हैं। इन सब बातों का हमारे काम में कोई स्थान नहीं है। परंतु नाटक के पात्र के समान जो भूमिका ली, उसका योग्यता से निर्वाह तो करना ही चाहिए। पर इस नट की भूमिका से आगे बढ़कर काम करते-करते कभी-कभी लोगों के मन में उसका अभिनिवेश उत्पन्न हो जाता है। यहां तक कि फिर इस कार्य में आने के लिए वे अपात्र सिद्ध हो जाते हैं। यह तो ठीक नहीं है। अतः हमें अपने संयमपूर्ण कार्य की दृढ़ता का भलीभांति ध्यान रखना होगा। आवश्यकता हुई तो हम आकाश तक भी उछल-कूद कर सकते हैं, परंतु दक्ष दिया तो दक्ष में ही खड़े होंगे।” [7]

श्रीमान मोदी! यहां हम देखते हैं कि गोलवरकर संघ के राजनैतिक जेबी संगठनों को उधार दिये गये स्वयंसेवकों को एक ‘नट’ या अभिनेता की संज्ञा देते हैं, जो आरएसएस की थाप पर नृत्य करे। यहां यह ध्यान देने की आवश्यकता है कि गोलवरकर ने अपने राजनीतिक संगठन को नियंत्रित करने का उपरोक्त डिजाइन मार्च 1960 में भारतीय जनसंघ (भाजपा का पूर्व स्वरूप) के गठन के लगभग नौ साल बाद व्यक्त किया था। मैं आपसे जानना चाहता हूं कि आप भारत की लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष राजनीति कर रहे हैं या आप एक “नट” मात्र हैं जो भारत को एक धार्मिक राज्य में बदलने का संघ का एक हथियार मात्र है। सत्यता यह है कि संघ अपने स्वयंसेवकों को रीढ़विहीन बनाता है।


भारत के स्वतंत्रता संग्राम से आरएसएस की गद्दारी

श्रीमान! दस्तावेजों में दर्ज आरएसएस के इतिहास को देखते हुए आपका यह दावा संदेहास्पद है कि आरएसएस ने आपको देशभक्ति का पाठ पढ़ाया। मैं आपके ध्यानार्थ कुछ तथ्य रखना चाहूंगा। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ‘असहयोग आंदोलन’ एवं ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ मील के दो पत्थर हैं। और यहां इन दो महत्वपूर्ण घटनाओं पर महान गोलवलकर की महान थीसिस है –
 “संघर्ष के बुरे परिणाम हुआ ही करते हैं। 1920-21 के आंदोलन के बाद लड़कों ने उद्दंड होना प्रारंभ किया, यह नेताओं पर कीचड़ उछालने का प्रयास नहीं है। परंतु संघर्ष के उत्पन्न होने वाले ये अनिवार्य परिणाम हैं। बात इतनी ही है कि इन परिणामों को काबू में रखने के लिए हम ठीक व्यवस्था नहीं कर पाये। सन 1942 के बाद तो कानून का विचार करने की ही आवश्यकता नहीं, ऐसा प्रायः लोग सोचने लगे।” [8]

इस तरह गुरु गोलवरकर यह चाहते थे कि हिंदुस्तानी अंग्रेज शासकों द्वारा थोपे गये दमनकारी और तानाशाही कानूनों का सम्मान करें! सन 1942 के आंदोलन के आंदोलन के बाद उन्होंने फिर स्वीकारा…

“सन 1942 में भी अनेकों के मन में तीव्र आंदोलन था। उस समय भी संघ का नित्य कार्य चलता रहा। प्रत्यक्ष रूप से संघ ने कुछ न करने का संकल्प किया। परंतु संघ के स्वयंसेवकों के मन में उथल-पुथल चल ही रही थी। संघ अकर्मण्य लोगों की संस्था है, इनकी बातों में कुछ अर्थ नहीं, ऐसा केवल बाहर के लोगों ने ही नहीं, कई अपने स्वयंसेवकों ने भी कहा। वे बड़े रुष्ट भी हुए।” [9]

श्रीमान! हमें बताया गया है कि संघ ने सीधे कुछ नहीं किया। हालांकि, एक भी प्रकाशन या दस्तावेज ऐसा उपलब्ध नहीं है जो यह प्रकाश डाल सके कि आरएसएस ने भारत छोड़ो आंदोलन के लिए परोक्ष रूप से क्या काम किया। वस्तुतः संघ के प्रश्रयदाता “वीर” सावरकर ने इस दौरान मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन सरकारें चलायीं। दरअसल आरएसएस ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भारत छोड़ो आंदोलन के समर्थन में कुछ भी नहीं किया बल्कि वास्तव में, उसने इस आंदोलन जो एक महान आंदोलन था, के खिलाफ ही काम किया जो आपके और आपके शुभचिंतकों के लिए देशभक्ति के विपरीत था।

आरएसएस स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों का अपमान करता है

श्रीमान! मोदी जी, मैं गुरुजी के उस वक्तव्य पर आपकी राय जानना चाहूंगा जो भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और अशफाकउल्लाह खां के बलिदान का अपमान करता है। यहां संघ कार्यकर्ताओं और आपके लिए गीता के समान सत्य “बंच ऑफ थॉट्स” से “बलिदान महान लेकिन आदर्श नहीं” (‘Martyr, Great But Not Ideal’) का एक अंश पेश है…

“निःसंदेह ऐसे व्यक्ति जो अपने आप को बलिदान कर देते हैं, श्रेष्ठ व्यक्ति हैं और उनका जीवन दर्शन प्रमुखतः पौरुषपूर्ण है। वे सर्वसाधारण व्यक्तियों से, जो कि चुपचाप भाग्य के आगे समर्पण कर देते हैं और भयभीत और अकर्मण्य बने रहते हैं, बहुत ऊंचे हैं। फिर भी हमने ऐसे व्यक्तियों को समाज के सामने आदर्श के रूप में नहीं रखा है। हमने बलिदान को महानता का सर्वोच्च बिंदु, जिसकी मनुष्य आकांक्षा करें, नहीं माना है। क्योंकि, अंततः वे अपना उदे्श्य प्राप्त करने में असफल हुए और असफलता का अर्थ है कि उनमें कोई गंभीर त्रुटि थी।” [10]

श्रीमान! क्या इससे अधिक शहीदों के अपमान का कोई बयान हो सकता है? जबकि आरएसएस के संस्थापक डॉ हेडगेवार तो और एक कदम आगे चले गये।

‘‘कारागार में जाना ही कोई देशभक्ति नहीं है। ऐसी छिछोरी देशभक्ति में बहना उचित नहीं है।” [11]

श्रीमान! क्या आपको नहीं लगता कि अगर शहीद भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, अशफाक उल्लाह खां, चंद्रशेखर आजाद तत्कालीन संघ नेतृत्व के संपर्क में आ गये होते तो उन्हें ‘छिछोरी देशभक्ति’ के लिए जान देने से बचाया जा सकता था? यकीनन, यही कारण था कि ब्रिटिश शासन के दौरान आरएसएस के नेताओं व कार्यकर्ताओं को किसी भी सरकारी दमन का सामना नहीं करना पड़ा। और संघ ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कोई शहीद पैदा नहीं किया। श्रीमान! क्या हम ‘वीर’ सावरकर द्वारा अंग्रेज सरकार को लिखे गये चापलूसी भरे माफीनामों को सच्ची देशभक्ति मानें?

आरएसएस लोकतंत्र से घृणा करता है

मोदी जी! गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा के प्रमुख नेता के रूप में आपसे आशा की जाती है कि आप भारत की लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष नीति के अंतर्गत काम करें। लेकिन गुरु गोलवककर के उस आदेश पर आपका क्या रुख है, जो उन्होंने 1940 में संघ के 1350 प्रमुख स्वयंसेवकों के समूह को संबोधित करते हुए दिया था। उनके अनुसार “एक ध्वज के नीचे, एक नेता के मार्गदर्शन में, एक ही विचार से अनुप्राणित होकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदुत्व की प्रखर ज्योति इस विशाल भूमि के कोने-कोने में प्रज्जवलित कर रहा है।” [12]

मैं आपका ध्यान इस ओर दिलाना चाहता हूं कि बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में, ‘एक झंडा, एक नेता, एक विचारधारा’ यूरोप की फासिस्ट और नाजी पार्टियों का नारा था। सारा विश्व जानता है कि उन्होंने प्रजातंत्र के साथ क्या किया।

आरएसएस संघीय व्यवस्था के विरुद्ध

आरएसएस संविधान में दिये गये संघीय व्यवस्था, जो भारतीय संवैधानिक ढांचे का एक मूल सिद्धांत है, के एकदम खिलाफ है। यह 1961 में गुरु गोलवरकर द्वारा राष्ट्रीय एकता परिषद् के प्रथम सम्मेलन को भेजे गये पत्र से स्पष्ट है। इसमें साफ लिखा था, 

“आज की संघात्मक (फेडरल) राज्य पद्धति पृथकता की भावनाओं का निर्माण तथा पोषण करने वाली, एक राष्ट्र भाव के सत्य को एक प्रकार से अमान्य करने वाली एवं विच्छेद करने वाली है। इसको जड़ से ही हटा कर तदनुसार संविधान शुद्ध कर एकात्मक शासन प्रस्थापित हो।” [13]

‘हिंदू राष्ट्रवादी’, जातिवाद और स्त्री विरोधी नीतियों के हामी हैं

यदि आप आरएसएस और इसके बगलबच्चा संगठन, जो भारत में हिंदुत्व का शासन चाहते हैं, के अभिलेखों में झांककर देखें तो तत्काल स्पष्ट हो जाएगा कि वे सब के सब डॉ अंबेडकर के नेतृत्व में प्रारूपित संविधान से घृणा करते हैं। जब भारत की संविधान सभा ने भारतीय संविधान को अंतिम रूप दिया तो आरएसएस खुश नहीं था। 30 नवंबर 1949 के संपादकीय में इसका मुखपत्र ‘ऑर्गनाइजर’ शिकायत करता है कि “हमारे संविधान में प्राचीन भारत में विलक्षण संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं है। मनु की विधि स्पार्टा के लाइकरगुस या पर्सिया के सोलोन के बहुत पहले लिखी गयी थी। आज तक इस विधि की जो ‘मनुस्मृति’ में उल्लिखित है, विश्वभर में सराहना की जाती रही है और यह स्वतःस्फूर्त धार्मिक नियम-पालन तथा समानुरूपता पैदा करती है। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए उसका कोई अर्थ नहीं है।”

वास्तव में आरएसएस ‘वीर’ सावरकर द्वारा निर्धारित विचारधारा का पालन करता है। श्रीमान! आपके लिए यह कोई राज नहीं है कि ‘वीर’ सावरकर अपने पूरे जीवन में जातिवाद और मनुस्मृति की पूजा के एक बड़े प्रस्तावक बने रहे। ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ की इस प्रेरणा के अनुसार “मनुस्मृति एक ऐसा धर्मग्रंथ है जो हमारे हिंदू राष्ट्र के लिए वेदों के बाद सर्वाधिक पूजनीय है और जो प्राचीन काल से ही हमारी संस्कृति रीति-रिवाज, विचार तथा आचरण का आधार हो गया है। सदियों से इस पुस्तक ने हमारे राष्ट्र के आध्यात्मिक एवं दैविक अभियान को संहिताबद्ध किया है। आज भी करोड़ों हिंदू अपने जीवन तथा आचरण में जिन नियमों का पालन करते हैं, वे मनुस्मृति पर आधारित हैं। आज मनुस्मृति हिंदू विधि है।” [14]

हिंदुत्व के एक महान ध्वजवाहक के रूप में आपको पता ही होगा ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ किस प्रकार का समाज बनाना चाहता है। चूंकि आप बहुत व्यस्त हैं इसलिए मैं दलितों, अछूतों एवं स्त्रियों के लिए मनुस्मृति से उनके निर्देश उद्दृत कर दे रहा हूं। इसमें निर्देशित अमानवीय और पतित नियम स्वतः स्पष्ट हैं।

दलितों एवं अछूतों के लिए मनु के सिद्धांत
(1) अनादि ब्रह्म ने लोक कल्याण एवं समृद्धि के लिए अपने मुख, बांह, जांघ तथा चरणों से क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र वर्णों को उत्पन्न किया।
(2) भगवान ने शूद्र वर्ण के लोगों के लिए एक ही कर्तव्य-कर्म निर्धारित किया है – तीनों अन्य वर्णों की निर्विकार भाव से सेवा करना।
(3) शूद्र यदि द्विजातियों (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) को गाली देता है तो उसकी जीभ काट लेनी चाहिए क्योंकि नीच जाति का होने से वह इसी सजा का अधिकारी है।
(4) शूद्र द्वारा अहंकारवश उपेक्षा से द्विजातियों के नाम एवं जाति उच्चारण करने पर उसके मुंह में दस उंगली लोहे की जलती कील ठोंक देनी चाहिए।
(5) शूद्र द्वारा अहंकारवश ब्राह्मणों को धर्मोपदेश देने का दुस्साहस करने पर राजा को उसके मुंह एवं कान में गरम तेल डाल देना चाहिए।
(6) यदि वह द्विजाति के किसी व्यक्ति पर जिस अंग से प्रहार करता है, उसका वह अंग काट डाला जाना चाहिए, यही मनु की शिक्षा है।
(7) यदि लाठी उठाकर आक्रमण करता है तो उसका हाथ काट डालना चाहिए और यदि वह क्रुद्ध होकर पैर से प्रहार करता है तो उसका पैर काट डालना चाहिए।
(8) उच्च वर्ग के लोगों के साथ बैठने की इच्छा रखने वाले शूद्र की कमर को दाग करके उसे वहां से निकाल भगाना चाहिए अथवा उसके नितंब को इस तरह से कटवा देना चाहिए जिससे वह न मरे और न जिये।
(9) एक ब्राह्मण का वध अथवा पिटाई नहीं करना चाहिए, भले ही उसने सभी संभव अपराध किये हों। अधिक से अधिक उसे अपने राज्य से निकाल देना चाहिए। ऐसा करते हुए सारा धन सौंप देना चाहिए तथा चोट नहीं पहुंचानी चाहिए। (राजा को आदेश)
स्त्रियों से संबंधित मनु के नियम
(1) पुरुषों को अपनी स्त्रियों को सदैव रात-दिन अपने वश में रखना चाहिए।
(2) स्त्री की बाल्यावस्था में पिता, युवावस्था में पति तथा वृद्धावस्था में पुत्र रक्षा करते हैं, अर्थात वह उनके अधीन रहती है और उसे अधीन ही बने रहना चाहिए; एक स्त्री कभी भी स्वतंत्रता के योग्य नहीं है।
(3) बिगड़ने के छोटे से अवसर से भी स्त्रियों को प्रयत्नपूर्वक और कठोरता से बचाना चाहिए, क्योंकि न बचाने से बिगड़ी स्त्रियां दोनों (पिता और पति के) कुलों को कलंकित करती हैं। (9/5)
(4) सभी जातियों के लोगों के लिए स्त्री पर नियंत्रण रखना उत्तम धर्म के रूप में जरूरी है। यह देखकर दुर्बल पतियों को भी अपनी स्त्रियों को वश में रखने का प्रयत्न करना चाहिए।
(5) कोई भी आदमी पूरी तरह से महिलाओं की रक्षा नहीं कर सकता है, लेकिन वे निम्न उपायों से ऐसा कर सकते हैं।
(6) पति को अपनी पत्नी को अपनी संपत्ति के संवर्द्धन व संचयन, साफ सफाई, धार्मिक कर्तव्यों, खाना पकाने व घर के बरतनों की साफ सफाई में लगाना होगा।
(7) विश्वस्त और आज्ञाकारी नौकरों के भरोसे स्त्रियों की सही सुरक्षा नहीं हो सकती लेकिन जो अपनी सुरक्षा स्वयं करती हैं वे ज्यादा सुरक्षित हैं।
(8) ये स्त्रियां न तो पुरुष के रूप का और न ही उसकी आयु का विचार करती हैं। इन्हें तो केवल पुरुष के पुरुष होने से प्रयोजन है। … चाहे वो कुरूप हो सुंदर। यही कारण है कि पुरुष को पाते ही ये उससे भोग के लिए प्रस्तुत हो जाती हैं चाहे वे कुरूप हों या सुंदर।
(9) पुरुषों के प्रति अपनी चाह, परिवर्तनशील व्यवहार एवं अपनी स्वाभाविक हृदयहीनता के चलते स्त्रियां अपने पतियों के प्रति बेवफा हो जाती हैं चाहे उनकी कितनी भी सावधानीपूर्वक देखभाल की जाए।
(10) मनु के अनुसार ब्रह्माजी ने निम्नलिखित प्रवृत्तियां सहज स्वभाव के रूप में स्त्रियों को दी हैं – उत्तम शैय्या और अलंकारों के उपभोग का मोह, काम-क्रोध, टेढ़ापन, ईर्ष्या द्रोह और घूमना-फिरना तथा सज-धजकर दूसरों को दिखाना।
(11) स्त्रियों के जातकर्म एवं नामकर्म आदि संस्कारों में वेद मंत्रों का उच्चारण नहीं करना चाहिए। यही शास्त्र की मर्यादा है, क्योंकि स्त्रियों में ज्ञानेंद्रियों के प्रयोग की क्षमता का अभाव (अर्थात सही न देखने, सुनने, बोलने वाली) है।
मैं आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं कि दिसंबर 1927 में डॉ बीआर अंबेडकर की उपस्थिति में ऐतिहासिक महाड़ आंदोलन के दौरान मनुस्मृति की प्रति विरोधस्वरूप जलायी गयी थी।

आरएसएस के लिए जातिवाद ‘हिंदू राष्ट्र’ का समानार्थी है

श्रीमान! आरएसएस के एक अनुशासित और प्रतिबद्ध कार्यकर्ता के नाते आप इस तथ्य से परिचित होंगे कि जातिवाद ‘हिंदू राष्ट्र’ का सार है। गुरु गोलवरकर ने तो यहां तक घोषणा की कि जातिवाद ‘हिंदू राष्ट्र’ का समानार्थी है। उनके अनुसार हिंदू और कोई नहीं बल्कि विराट पुरुष हैं…

“विराट पुरुष, खुद प्रगट होने वाला परमेश्वर… (‘पुरुष सूक्त’ के मुताबिक) सूर्य और चंद्रमा उसकी आंखें हैं, तारे और आकाश उसकी नाभि से निर्मित होते हैं और ब्राह्मण उसका सर है, राजा हाथ है, वैश्य जांघ है और शूद्र पैर है। इसका अर्थ यही है कि वे लोग जिनके यहां इस किस्म की चार परत वाली व्यवस्था होती है अर्थात हिंदू लोग, वही हमारे भगवान हैं। ईश्वर के बारे में ऐसी सर्वोच्च धारणा ही ‘राष्ट्र’ की हमारी अवधारणा की अंतर्वस्तु है और वह हमारे चिंतन में छा गयी है और उसने हमारी सांस्कृतिक विरासत की विभिन्न अनोखी अवधारणाओं को जन्म दिया है।” [15]
श्रीमान! कृपया मुझे बताने का कष्ट करें कि आप गुरुजी के साथ हैं या उस लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष राज्यव्यवस्था के साथ हैं, जिसने आपको सत्तासीन किया है। यह बहुत गंभीर मसला है, क्योंकि इसका संबंध दलितों और स्त्रियों के अधिकारों से है।

मुझे अफसोस है कि मेरा पत्र लंबा होता जा रहा है। मुझे आशा है कि आप मुझे क्षमा करेंगे, क्योंकि आपके रायटर्स को दिये गये साक्षात्कार एवं अन्य कथनों एवं गतिविधियों के एक विस्तृत परिप्रेक्ष्य में मेरे पास और कोई विकल्प नहीं है। आप मेरी इस बात की प्रशंसा करेंगे कि मैं अन्य व्यक्तियों और संगठनों की तरह 2002 गुजरात जनसंहार का मुद्दा नहीं उठा रहा हूं। मैं दृढ़तापूर्वक महसूस करता हूं कि मुझे केवल वे मामले उठाने चाहिए, जो सामान्यतः छोड़ दिये जाते हैं। आपका इस देश के हिंदुओं और वर्तमान लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष राजव्यवस्था के लिए क्या एजेंडा है, इस पर प्रकाश डालें?

श्रीमान, मैं दो और मुद्दे उठाकर इसे समाप्त करुंगा।

‘हिंदू राष्ट्रवादी’ गांधी हत्या का जश्न मनाते हैं

नाथूराम गोडसे और उनके सहयोगी जिन्होंने गांधी जी की हत्या करने का षड्यंत्र रचा और उसे कार्यान्वित किया, वे ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ होने का दावा करते थे। उन्होंने गांधी हत्या को प्रभु के आदेशपालन के रूप में बयान किया। आरएसएस ने मिठाई बांटकर गांधी जी की हत्या का जश्न मनाया। क्या उनका हिंदुत्ववादियों द्वारा सम्मान नहीं किया जाता? क्या आप उनमें से एक नहीं हैं? जून 2013 में भाजपा की कार्यकारिणी समिति के लिए जब आप गोवा मे थे, तब आपने हिंदू जनजागरण समिति द्वारा आयोजित हिंदू राष्ट्र की स्थापना के लिए अखिल भारतीय हिंदू सम्मेलन के लिए एक संदेश भेजा। जिसमें कह गया, “यद्यपि प्रत्येक हिंदू ईश्वर के साथ प्रेम, दया, अंतरंगतापूर्वक व्यवहार करता है, अहिंसा सत्य और सात्विकता को महत्व देते हुए राक्षसी प्रवृत्तियों को दूर करना हर हिंदू के भाग्य में है। उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाना और उसके प्रति सतर्क रहना हमारी परंपरा है। हमारी संस्कृति की रक्षा करते हुए ही धर्मध्वजा व एकता को अखंड रखा जा सकता है। राष्ट्रीयता, देशभक्ति एवं राष्ट्र के प्रति समर्पण से प्रेरित संगठन लोकशक्ति की सच्ची अभिव्यक्ति हैं।”

आपने हिंदू जनजागरण समिति को अच्छी तरह जानते हुए यह भ्रातृ संदेश भेजा होगा। जिस मंच से आपका बधाई संदेश पढ़ा गया, उसी मंच से एक प्रमुख वक्ता, केवी सीतारमैया ने घोषणा की कि “गांधी भयानक दुष्कर्मी और सर्वाधिक पापी था।”

महात्मा गांधी की हत्या पर खुशी मनाते हुए उन्होंने यह तक कह डाला कि –
“जैसा कि भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है – परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे (दुष्टों के विनाश के लिए, अच्छों की रक्षा के लिए और धर्म की स्थापना के लिए, मैं हर युग में पैदा हुआ हूं)… 30 जनवरी 1948 की शाम, श्रीराम नाथूराम गोडसे के रूप में आये और गांधी का जीवन समाप्त कर दिया।” [17]
यहां यह बताना भी उचित रहेगा कि केवी सीतारमैया ने ‘गांधी धर्मद्रोही एवं देशद्रोही’ शीर्षक से एक पुस्तक भी लिखी है, जिसमें पिछले कवर पृष्ठ पर महाकाव्य महाभारत को उद्धृत करते हुए मांग की गयी है कि-
“धर्मद्रोही की हत्या की जानी चाहिए। हत्या के अधिकारी को नहीं मारना, मारने से बड़ा पाप है। और जहां संसद सदस्य स्पष्ट रूप से सत्य व धर्म की हत्या की अनुमति देते हैं, उन्हें मरा हुआ होना चाहिए।“
श्रीमान! कृपया बताएं कि क्या यह उन संसद सदस्यों को खत्म करने का खुला आह्वान नहीं है जो लेखक की धर्म की परिभाषा से सहमत नहीं हैं।

नॉर्वे के नव नाजीवादी सामूहिक हत्यारे ब्रेविक ने ‘हिंदू राष्ट्रवादियों’ का महिमामंडन किया

अंत में आप मुझे बताने का कष्ट करें कि आप किस प्रकार यूरोपीय देश नॉर्वे के नवनाजीवादी सामूहिक हत्यारे एंडर्स बेहरिंग ब्रेविक का बयान जिसने भारत के ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ आंदोलन को विश्व भर में लोकतांत्रिक व्यवस्था को कुचलने के अभियान में प्रमुख सहयोगी करार दिया है, पर प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे। नॉर्वे में भयंकर जनसंहार करने से पहले उसने 1518 पृष्ठ का एक मेनीफेस्टो (घोषणापत्र) जारी किया, जिसमें 102 पृष्ठों में भारत के हिंदुत्ववादी आंदोलन की चर्चा और प्रशंसा की गयी है। उसने सनातन धर्म आंदोलन एवं ‘हिंदू राष्ट्रवादियों’ का समर्थन किया है। यह मेनीफेस्टो यूरोप के नवनाजीवादियों और भारत के हिंदू राष्ट्रवादियों के बीच एक रणनीतिक सहयोग की रूपरेखा बताता है। यह मेनीफेस्टो कहता है कि यूरोप के नवनाजीवादियों और भारत के हिंदूराष्ट्रवादियों को “एक दूसरे से सीखना एवं जितना मुमकिन सहयोग करना चाहिए” क्योंकि “दोनों के लक्ष्य कम या ज्यादा एक समान हैं।” इस मेनीफेस्टो में प्रमुख रूप से हिंदुत्ववादी संगठनों आरएसएस, भाजपा, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और विश्व हिंदू परिषद का उल्लेख किया गया है। महत्वपूर्ण बात यह है कि यह मेनीफेस्टो, मुसलमानों को देश से बाहर निकाल फेंकने के लिए गृह-युद्ध में और पश्चिम की समस्त बहुसांस्कृतिक सरकारों को उखाड़ फेंकने के लिए हिंदू राष्ट्रवादियों को, सैन्य सहायता का आश्वासन देता है। दरअसल वास्तव में मैं उन मुद्दों पर आपकी प्रतिक्रिया चाहता हूं, जो रायटर्स के पत्रकारों द्वारा उठाये जाने चाहिए थे।

मैं बहुत उत्सुकता के साथ आपके प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा कर रहा हूं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उपलब्ध विशाल संसाधनों के मद्देनजर आपको उत्तर देने में कोई कष्ट नहीं होगा।

साभार
आपका
शम्सुल इस्लाम
notoinjustice@gmail.com

संदर्भ

[1] http://www.ndtv.com/article/india/narendra-modi-defends-himself-on-2002-gujarat-riots-highlights-391361

[2] VD Savarkar cited in VD Savarkar, Samagra Savarkar Wangmaya: Hindu Rashtra Darshan, vol. 6, Maharashtra Prantik Hindusabha, Poona, 1963, p. 296.

[3] Organizer, August 14, 1947.

[4] VD Savarkar cited in VD Savarkar, Samagra Savarkar Wangmaya: Hindu Rashtra Darshan, vol. 6, Maharashtra Prantik Hindusabha, Poona, 1963, pp. 479-80

[5] VD Savarkar cited in VD Savarkar, Samagra Savarkar Wangmaya: Hindu Rashtra Darshan, vol. 6, Maharashtra Prantik Hindusabha, Poona, 1963, p. 460. VD Savarkar cited in VD Savarkar, Samagra Savarkar Wangmaya: Hindu Rashtra Darshan, vol. 6, Maharashtra Prantik Hindusabha, Poona, 1963, pp. 479-80.

[6] SGSD, vol. iii, p. 32.

[7] SGSD, vol. iv, pp. 4-5.

[8] SGSD, volume IV, p. 41.

[9] SGSD, Volume IV, p. 40.

[10] MS Golwalkar, Bunch of Thoughts, Sahitya Sindhu, Bangalore, 1996, p. 283.

[11] CP Bhishikar, Sanghavariksh Ke Beej: Dr. Keshavrao Hedgewar, Suruchi, 1994, p. 21.

[12] Golwalkar, M. S., Shri guruji Samagar Darshan (Collected works of Golwalkar in Hindi), Vol. I (Nagpur: Bhartiya Vichar Sadhna, nd), p. 11.

[13] MS Golwalkar, Shri Guruji Samagar Darshan (collected works of Golwalkar in Hindi), Bhartiya Vichar Sadhna, Nagpur, nd., Volume iii, p. 128. Hereafter referred as SGSD.

[14] Savarkar, VD, ‘Women in Manusmriti’ in Savarkar Samagar, Vol. 4 [Collection of Savarkar’s Writings in Hindi] (New Delhi: Prabhat), 416.

[15] Golwalkar, M. S., We or Our Nationhood Defined, (Nagpur: Bharat Publications, 1939), p.36.

[16] http://search.yahoo.com/search?p=http%3A%2F%2Fen-maktoob.news.yahoo.com%2Fmodi-speaks-goa-hindu-convention-111920534.html&ei=UTF-8&fr=moz35

[17] http://www.hindujagruti.org/news/16527_mohandas-gandhi-was-terrible-wicked-and-most-sinful.html

[18] http://www.thehindu.com/news/national/norwegian-mass-killers-manifesto-hails-hindutva/article2293829.ece & http://ibnlive.in.com/news/norwegian-killer-anders-breiviks-manifesto-supports-hindutva/170496-3.html

Thursday, July 18, 2013

अपने ही इतिहास से डरते हैं संघी

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ : भारतीय फासीवादियों की असली जन्मकुण्डली

अभि‍नव–(मजदूर बिगुल)

भारत में फासीवाद का इतिहास लगभग उतना ही पुराना है जितना कि जर्मनी और इटली में। जर्मनी और इटली में फासीवादी पार्टियाँ 1910 के दशक के अन्त या 1920 के दशक की शुरुआत में बनीं। भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 में नागपुर में विजयदशमी के दिन हुयी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक थे केशव बलिराम हेडगेवार। हेडगेवार जिस व्यक्ति के प्रभाव में फासीवादी विचारों के सम्पर्क में आये थे वह था मुंजे। मुंजे 1931 में इटली गया था और वहाँ उसने मुसोलिनी से भी मुलाकात की थी। 1924 से 1935 के बीच आर.एस.एस. से करीबी रखने वाले अख़बार ‘केसरी’ ने मुसोलिनी और उसकी फासीवादी सत्ता की प्रशंसा में लगातार लेख छापे। मुंजे ने हेडगेवार को मुसोलिनी द्वारा युवाओं के दिमाग़ों में ज़हर घोलकर उन्हें फासीवादी संगठन में शामिल करने के तौर-तरीकों के बारे में बताया। हेडगेवार ने उन तौर-तरीकों का इस्तेमाल उसी समय से शुरू कर दिया और आर.एस.एस. आज भी उन्हीं तरीकों का इस्तेमाल करती है। 1930 के दशक के अन्त तक भारतीय फासीवादियों ने बम्बई में उपस्थित इतालवी कांसुलेट से भी सम्पर्क स्थापित कर लिया। वहाँ मौजूद इतालवी फासीवादियों ने हिन्दू फासीवादियों से सम्पर्क कायम रखा।

लगभग इसी समय एक अन्य हिन्दू कट्टरपन्थी विनायक दामोदर सावरकर, जिनके बड़े भाई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापकों में से एक थे, ने जर्मनी के नात्सियों से सम्पर्क स्थापित किया। सावरकर ने जर्मनी में हिटलर द्वारा यहूदियों के सफाये को सही ठहराया और भारत में मुसलमानों की ”समस्या” के समाधान का भी यही रास्ता सुझाया। जर्मनी में ‘यहूदी प्रश्न’ का ‘अन्तिम समाधान’ सावरकर के लिये एक मॉडल था। सावरकर के लिये नात्सी राष्ट्रवादी थे जबकि यहूदी राष्ट्र-विरोधी और साम्प्रदायिक। लेनिन ने बहुत पहले ही आगाह किया था कि नस्लवादी अन्‍धराष्ट्रवादी पागलपन अक्सर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का चोला पहनकर आ सकता है। भारत में हिन्दू साम्प्रदायिक अन्‍धराष्ट्रवाद भी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का जामा पहनकर ही सामने आ रहा था।

आर.एस.एस. ने भी खुले तौर पर जर्मनी में नात्सियों द्वारा यहूदियों के कत्ले-आम का समर्थन किया। हेडगेवार ने मृत्यु से पहले गोलवलकर को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ‘वी, ऑर अवर नेशनहुड डिफाइण्ड‘ और बाद में प्रकाशित हुयी‘बंच ऑफ थॉट्स‘ में जर्मनी में नात्सियों द्वारा उठाये गये कदमों का अनुमोदन किया था। गोलवलकर आर.एस.एस. के लोगों के लिये सर्वाधिक पूजनीय सरसंघचालक थे। उन्हें आदर से संघ के लोग ‘गुरुजी’ कहते थे। गोलवलकर ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में मेडिकल की पढ़ाई की और उसके बाद कुछ समय के लिये वहाँ पढ़ाया भी। इसी समय उन्हें ‘गुरुजी’ नाम मिला। हेडगेवार के कहने पर गोलवलकर ने संघ की सदस्यता ली और कुछ समय तक संघ में काम किया। अपने धार्मिक रुझान के कारण गोलवलकर कुछ समय के लियेआर.एस.एस. से चले गये और किसी गुरु के मातहत संन्यास रखा। इसके बाद 1939 के करीब गोलवलकर फिर से आर.एस.एस. में वापस आये। इस समय तक हेडगेवार अपनी मृत्युशैया पर थे और उन्होंने गोलवलकर को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। 1940 से लेकर 1973 तक गोलवलकर आर.एस.एस. के सुप्रीमो रहे।

गोलवलकर के नेतृत्व में ही आर.एस.एस. के वे सभी संगठन अस्तित्व में आये जिन्हें आज हम जानते हैं। आर.एस.एस. ने इसी दौरान अपने स्कूलों का नेटवर्क देश भर में फैलाया। संघ की शाखाएँ भी बड़े पैमाने पर इसी दौरान पूरे देश में फैलीं। विश्व हिन्दू परिषद जैसे आर.एस.एस. के आनुषंगिक संगठन इसी दौरान बने। गोलवलकर ने ही आर.एस.एस. कीफासीवादी विचारधारा को एक सुव्यवस्थित रूप दिया और उनके नेतृत्व में ही आर.एस.एस. की पहुँच महाराष्ट्र के ब्राह्मणों से बाहर तक गयी। आर.एस.एस. सही मायनों में एक अखिल भारतीय संगठन गोलवलकर के नेतृत्व में ही बना। यही कारण है कि गोलवलकर आज भी संघ के लोगों में सबसे आदरणीय माने जाते हैं और अभी दो वर्ष पहले ही संघियों ने देश भर में उनकी जन्मशताब्दी मनायी थी।

आर.एस.एस. ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ किसी भी स्वतन्त्रता संघर्ष में हिस्सा नहीं लिया। संघ हमेशा ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के साथ तालमेल करने के लिये तैयार था। उनका निशाना शुरू से ही मुसलमान, कम्युनिस्ट और ईसाई थे। लेकिन ब्रिटिश शासक कभी भी उनके निशाने पर नहीं थे। ‘भारत छोड़ो आन्दोलन‘ के दौरान संघ देशव्यापी उथल-पुथल में शामिल नहीं हुआ था। उल्टे जगह-जगह उसने इस आन्दोलन का बहिष्कार किया और अंग्रेज़ों का साथ दिया था। श्यामाप्रसाद मुखर्जी द्वारा बंगाल में अंग्रेज़ों के पक्ष में खुलकर बोलना इसका एक बहुत बड़ा उदाहरण था। ग़लती से अगर कोई संघ का व्यक्ति अंग्रेज़ों द्वारा पकड़ा गया या गिरफ्तार किया गया तो हर बार उसने माफीनामा लिखते हुये ब्रिटिश शासन के प्रति अपनी वफादारी को दोहराया और हमेशा वफादार रहने का वायदा किया। स्वयं पूर्व प्रधानमन्‍त्री अटलबिहारी वाजपेयी ने भी यह काम किया। ऐसे संघियों की फेहरिस्त काफी लम्बी है जो माफीनामे लिख-लिखकर ब्रिटिश जेलों से बाहर आये और जिन्होंने भारतीय स्वतन्त्रता-संग्राम सेनानियों के ख़िलाफ अंग्रेज़ों से मुख़बिरी करने का घिनौना काम तक किया।

ब्रिटिश उपनिवेशवादी राज्य ने भी इसी वफादारी का बदला चुकाया और हिन्दू साम्प्रदायिक फासीवादियों को कभी भी निशाना नहीं बनाया। संघ आज राष्ट्रवादी होने का चाहे जितना गुण गा ले वह स्वतन्त्रता आन्दोलन में शामिल न होने और अंग्रेज़ों का साथ देने का दाग़ अपने दामन से कभी नहीं मिटा सकता है। इतिहास को फिर से लिखने के संघ के प्रयासों के पीछे का मुख्य कारण यही है। वे अपने ही इतिहास से डरते हैं। वे जानते हैं कि उनका इतिहास ग़द्दारियों और कायरताओं का एक काला इतिहास रहा है। हिंसा से उनको बहुत प्रेम है, लेकिन झुण्ड में पौरुष प्रदर्शन वाली हिंसा से। वे कभी किसी जनान्दोलन में शामिल नहीं हुये और उनमें किसी दमन को झेलने की ताक़त नहीं है। हमेशा सत्ता के साथ नाभिनालबद्ध रहते हुये व्यवस्था के ख़िलाफ लड़ने वालों पर कायराना हिंस्र हमले करना इनकी फितरत रही है। चाहे वे मुसलमान रहे हों, ईसाई या फिर कोई भी राजनीतिक विरोधी। बहादुराना संघर्ष से इनका दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं रहा है, कभी नहीं।

संघ का पूरा ढाँचा शुरू से ही फासीवादी रहा था। यह लम्बे समय तक सिर्फ पुरुषों के लिये ही खुला था। संघ की महिला शाखा बहुत बाद में बनायी गयी।

संघ का पूरा आन्तरिक ढाँचा हिटलर और मुसोलिनी की पार्टियों से हूबहू मेल खाता है। हर सदस्य यह शपथ लेता है कि वह सरसंघचालक के हर आदेश का बिना सवाल किये पालन करेगा। सरसंघचालक सबसे ऊपर होता है और उसके नीचे एक सरकार्यवाह होता है जिसे सरसंघचालक ही नियुक्त करता है। एक केन्द्रीय कार्यकारी मण्डल होता है जिसे स्वयं सरसंघचालक चुनता है। अपना उत्तराधिकारी भी सरसंघचालक चुनता है। यानी पूरी तरह एक ‘कमाण्ड स्ट्रक्चर’ जिसमें जनवाद की कोई जगह नहीं है। नात्सी और फासीवादी पार्टी का पूरा ढाँचा इसी प्रकार का था। नात्सी पार्टी में ‘फ्यूहरर‘ के नाम पर शपथ ली जाती थी और फासीवादी पार्टी में ‘डयूस‘ के नाम पर शपथ ली जाती थी।

यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि यह हमेशा से सिर्फ हिन्दुओं के लिये खुला रहा है। यह खुले तौर पर कहता है कि यह हिन्दुओं के हितों की सेवा करने के लिये है। संघ ने कभी भी निचली जातियों या निचले वर्गों के हिन्दुओं के लिये कोई काम नहीं किया है। इनका समर्थन भी हमेशा से उजड़े टुटपुँजिया पूँजीपति वर्ग, नवधनाढ्यों और लम्पट सर्वहारा के बीच रहा है। संघ के सामाजिक आधार पर हम आगे आयेंगे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भारत में फासीवाद का अपना मौलिक संस्करण तैयार किया। इसकी हिटलर और मुसोलिनी के फासीवाद से काफी समानताएँ थीं और उनसे इन्होंने काफी कुछ सीखा। गोलवलकर अपनी पुस्तक ‘वी, ऑर अवर नेशनहुड डिफाइण्ड’ में लिखते हैं –”आज दुनिया की नज़रों में सबसे ज्यादा जो दूसरा राष्ट्र है, वह है जर्मनी। यह राष्ट्रवाद का बहुत ज्वलन्त उदाहरण है। आधुनिक जर्मनी कर्मरत है तथा जिस कार्य में वह लगा हुआ है, उसे काफी हद तक उसने हासिल भी कर लिया है… पितृभूमि के प्रति जर्मन गर्वबोध, जिसके प्रति उस जाति का परम्परागत लगाव रहा है, सच्ची राष्ट्रीयता का ज़रूरी तत्व है। आज वह राष्ट्रीयता जाग उठी है तथा उसने नये सिरे से विश्वयुद्ध छेड़ने का जोखिम उठाते हुये अपने ”पुरखों के क्षेत्र” पर एकजुट, अतुलनीय, विवादहीन, जर्मन साम्राज्य की स्थापना करने की ठान ली है।…” (गोलवलकर, ‘वी, ऑर अवर नेशनहुड डिफाइण्ड, पृ. 34-35)

गोलवलकर ने इसी पुस्तक में यहूदियों के कत्लेआम का भरपूर समर्थन किया और इसे भारत के लिये एक सबक मानते हुये लिखा – ”…अपनी जाति और संस्कृति की शुद्धता बनाये रखने के लिये जर्मनी ने देश से सामी जातियों – यहूदियों का सफाया करके विश्व को चौंका दिया है। जाति पर गर्वबोध यहाँ अपने सर्वोच्च रूप में व्यक्त हुआ है। जर्मनी ने यह भी बता दिया है कि सारी सदिच्छाओं के बावजूद जिन जातियों और संस्कृतियों के बीच मूलगामी फर्क हों, उन्हें एक रूप में कभी नहीं मिलाया जा सकता। हिन्दुस्तान में हम लोगों के लाभ के लिये यह एक अच्छा सबक है।” (गोलवलकर, वही, पृ. 35)।

हिटलर की इसी सोच को गोलवलकर भारत पर लागू कैसे करते हैं, देखिये : ”…जाति और संस्कृति की प्रशंसा के अलावा मन में कोई और विचार न लाना होगा, अर्थात हिन्दू राष्ट्रीय बन जाना होगा और हिन्दू जाति में मिलकर अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को गँवा देना होगा, या इस देश में पूरी तरह हिन्दू राष्ट्र की गुलामी करते हुये, बिना कोई माँग किये, बिना किसी प्रकार का विशेषाधिकार माँगे, विशेष व्यवहार की कामना करने की तो उम्मीद ही न करें; यहाँ तक कि बिना नागरिकता के अधिकार के रहना होगा। उनके लिये इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं छोड़ना चाहिये। हम एक प्राचीन राष्ट्र हैं। हमें उन विदेशी जातियों से जो हमारे देश में रह रही हैं उसी प्रकार निपटना चाहिये जैसे कि प्राचीन राष्ट्र विदेशी नस्लों से निपटा करते हैं।” (गोलवलकर, वही, पृ. 47-48)

बात बिल्कुल साफ है। मुसलमानों और ईसाइयों के प्रति संघ के विचार वही हैं जो यहूदियों के प्रति हिटलर के थे।
(फासीवाद क्‍या है और इससे कैसे लड़ें – बि‍गुल पु‍स्‍तिका से)

Wednesday, April 24, 2013

कुछ रोचक और महत्वपूर्ण ख़बरों तथा आलेखों के लिंक्स. (24 अप्रेल, 2013 को प्रकाशित)

केरल धमाके पर चुप्पी क्यों?-मामला आरएसएस से जुड़ा है, इसलिए मीडिया खामोश है...


अपना बिजली बिल जमा क्यों कर रही है टीम केजरीवाल ?


झाबुआ: राजनीतिक उत्पीडन में आदिवासी पर ही लगा मारा एस.टी. एक्ट

पुण्‍य प्रसून वाजपेयी ने कहा, ये मजदूर नहीं मवाली हैं!

बिना पेंदी के लोटा हुये लालू प्रसाद यादव !

Tuesday, October 18, 2011

मैंने क़सम ली-मैं फासिस्ट राजनीति और उसके कारिंदों के खिलाफ कुछ नहीं लिखूंगा

शेष नारायण सिंह

प्रशांत भूषण की पिटाई के बाद इस देश की राजनीति ने करवट नहीं कई पल्थे खाए हैं . जिन लोगों को अपना मान कर प्रशांत भूषण क्रान्ति लाने चले थे उन्होंने उनकी विधिवत कुटम्मस की .टी वी पर उनकी हालत देख कर मैं भी डर गया हूँ . जिन लोगों ने प्रशांत जी की दुर्दशा की वही लोग तो पोर्टलों पर मेरे लेख पढ़कर गालियाँ लिखते हैं . लिखते हैं कि मेरे जैसे देशद्रोहियों को देश से निकाल दिया जाएगा. मार डाला जाएगा, काट डाला

Sunday, September 4, 2011

सांसद और पत्रकार तरुण विजय : हिंदू राष्ट्रवादी का ये इश्क महंगा पड़ा


अपनों पे सितम, गैरों पे रहम। एक मुस्लिम महिला के प्रेमपाश के कैदी हिंदू राष्ट्रवाद के प्रवक्ता श्रीमान तरुण विजय का कच्चा चिट्ठा आखिरकार जनता के सामने आ ही गया। दिल्ली से लेकर भोपाल और यूरोप तक जिस शेहला मसूद के साथ रंगरेलियां मनाई गईं, वो शेहला मसूद किसके हाथों कत्ल हुई, ये सवाल तो बाद का है।