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Monday, December 7, 2015

अम्बेडकर पर संसद में चर्चा विचार दरकिनार ,सिर्फ गुणगान !

अम्बेडकर पर संसद में चर्चा
विचार दरकिनार ,सिर्फ गुणगान !

भारतीय संसद ने संविधान निर्माण में अम्बेडकर के योगदान पर दो दिन तक काफी सार्थक चर्चा करके एक कृतज्ञ राष्ट्र होने का दायित्व निभाया है .इस चर्चा ने कुछ प्रश्नों के जवाब दिये है तो कुछ नए प्रश्न खड़े भी किये है ,जिन पर आगे विमर्श जारी रहेगा .दो दिन तक सर्वोच्च सदन का चर्चा करना अपने आप में ऐतिहासिक माना जायेगा .यह इसलिये भी महत्वपूर्ण हो गया कि जो पार्टियाँ गाहे बगाहे अब तक डॉ अम्बेडकर के संविधान निर्माता होने पर संदेह प्रकट करती रही , आलोचना करती रही ,उनके भी सुर बदले है तथा उन्होंने भी माना कि संविधान निर्माण में डॉ अम्बेडकर का योगदान अतुलनीय है ,उसको नकारा नहीं जा सकता है .

जो लोग यह कहकर अम्बेडकर के महत्व को कम करने की कोशिश करते है कि संविधान सभा के अध्यक्ष तो डॉ राजेन्द्र प्रसाद थे .अम्बेडकर तो महज़ ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष थे .जिसमे उनके समेत कुल 9 सदस्य थे ,जिसमे के एम मुंशी ,गोपाल स्वामी अयंगार और कृष्ण स्वामी अय्यर जैसे विद्वान भी शामिल थे .अकेले अम्बेडकर ने क्या किया .अम्बेडकर के आलोचकों को संविधान सभा की बहस और कार्यवाही का अध्ययन करना चाहिए ताकि अम्बेडकर के योगदान को समझा जा सके .अब यह ऐतिहासिक सत्य है कि जो 9 लोग प्रारूप समिति में थे ,उनमे से एक ने त्यागपत्र दे दिया था .एक अमेरिका चला गया .दो सदस्य अपने स्वास्थ्य कारणों से दिल्ली से दूर रहे .एक राजकीय मामलों में व्यस्तता के चलते समय नहीं दे पाया और शेष लोग भी अपने अपने कारणों से प्रारूप निर्माण में अपनी भागीदारी नहीं निभा सके .इसलिए संविधान का प्रारूप तैयार करने का सारा उत्तरदायित्व अकेले डॉ अम्बेडकर के कन्धों पर आ पड़ा जिसे उन्होंने बखूबी निभाया .इसीलिए उन्हें भारतीय संविधान का असली निर्माता कहा जाता है .

संसद में पहले दिन की बहस का आगाज़ करते हुए केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथसिंह ने कहा कि अम्बेडकर का इस देश में बहुत अपमान हुआ ,लेकिन उन्होंने कभी देश छोड़ने की बात नहीं सोची .वे सच्चे अर्थों में राष्ट्रऋषि थे .दुसरे दिन बहस का समापन करते हुए प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि अम्बेडकर ने जहर खुद पिया और अमृत हमारे लिए छोड़ गए .गृहमंत्री का डॉ अम्बेडकर को राष्ट्रऋषि कहना और प्रधानमंत्री का उन्हें हलाहल पीनेवाला नीलकंठ निरुपित करना कई सवाल खड़े करता है .जब राजनाथसिंह कहते है कि देश में अम्बेडकर का बहुत अपमान हुआ ,तो उन्हें और साफगोई बरतनी चाहिये और देश को यह बताना चाहिये था कि आखिर वो कौन लोग थे ,जिन्होंने अम्बेडकर को अपमानित किया .तत्कालीन व्यवस्था और धार्मिक कारण तो थे ही जिनको अम्बेडकर ने आगे चलकर ठुकरा दिया था ,लेकिन आज़ादी के आन्दोलन के कई चमकते सितारों ने भी अम्बेडकर को अपमानित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी थी .उन पर कालाराम मंदिर प्रवेश आन्दोलन के वक़्त पत्थर बरसाने वाले कौन लोग थे ? उनकी उपस्थिति के बाद उन स्थानों को गंगाजल और गौमूत्र छिडक कर पवित्र करने वाले लोग कौन थे ? वो कोन थे जिन्होंने अछूतों से पृथक निर्वाचन का हक छीन लिया था और डॉ अम्बेडकर को खून के आंसू रोने को विवश किया था .वो कौनसी विचारधारा के लोग थे जिन्होंने अम्बेडकर को हिन्दू कोड बिल नहीं लाने दिया और अंततः उन्हें भारी निराशा के साथ केन्द्रीय मंत्रिमंडल छोड़ना पड़ा था .इससे भी आगे बढ़ कर एक दिन उन्हें देश ना सही बल्कि धर्म को छोड़ना पड़ा .इन बातों पर भी चर्चा होती तो कई कुंठाओं को समाधान मिल सकता था .जब प्रधानमन्त्री यह स्वीकारते है कि डॉ अम्बेडकर को जहर खुद पीना पड़ा तो वो क्या जहर था ,उससे देश को अवगत होना चाहिये .यह देश को जानने का हक है कि किन परिस्थितियों में अम्बेडकर ने अपना सार्वजनिक जीवन जिया और सब कुछ सहकर भी देश को अपना सर्वश्रेष्ठ देने की महानता दिखाई .

संसद में यह पहली बार हुआ कि एक कांग्रेसी सांसद मल्लिकार्जुन खरगे ने बामसेफ के संस्थापक बहुजन राजनीती के सूत्रधार कांशीराम के केडर केम्पों की भाषा का इस्तेमाल किया .उन्होंने राजनाथसिंह को जोरदार जवाब देते हुए एक नयी बहस को जन्म दिया है .हालाँकि मीडिया ने उसे बहुत खूबसूरती से दबा दिया है .आश्चर्य होता है कि असहिष्णुता पर आमिर खान के बयान को तिल का ताड़ बनाने वाला मीडिया ,हर छोटी छोटी प्रतिक्रिया को विवादित बयान में बदलनेवाला मीडिया मल्लिकार्जुन खरगे के बयान पर कैसे मौन रह गया .देश भर से कोई नहीं उठ खड़ा हुआ कि खरगे ने ऐसा क्यों कहा कि –“आप विदेशी लोग है ,आप आर्य है ,बाहर से आये है .अम्बेडकर और हम लोग तो इस देश के मूलनिवासी है ,पांच हजार साल से मार खा खा कर भी हम यहीं बने हुए है “. खरगे के बयान में इस देश में बर्षों से जारी आर्य- अनार्य ,आर्य -द्रविड़ ,यूरेशियन विदेशी आर्यन्स की अवधारणा पर नए सिरे से विमर्श पैदा कर दिया है ,लेकिन सत्तापक्ष और मीडिया ने बहुत ही चालाकी से खरगे के बयान को उपेक्षित कर दिया है ताकि इस बात पर कहीं कोई बहस खड़ी ना हो जाये और सच्चाई की परतें नहीं उतरने लगे .यह विचारधाराओं के अवश्यम्भावी संघर्ष को टालने की असफल कोशिश लगती है .इस एक बयान से मल्लिकार्जुन खरगे देश के अनार्यों के नए हीरो के रूप में उभरते दिखाई दे रहे है ,हालाँकि वे अपने इस प्रकार के बयान पर कितना मजबूती से टिके रहते है ,यह तो भविष्य में ही पता चल पायेगा मगर खरगे की साफगोई ने दलित बहुजन मूलनिवासी आन्दोलन में नई वैचारिक प्राणवायु संचरित की है .

इस बहस का सबसे बड़ा फलितार्थ आरक्षण और संविधान को बदलने की दक्षिणपंथी बकवास को मिला एक मुकम्मल जवाब माना जा सकता है .लुटियंस के टीले से नागपुर के केशव भवन को मिला यह अब तक का सबसे कड़वा जवाब है ,जिसमें संघ के प्रचारक रह चुके स्वयंसेवक प्रधानमन्त्री ने परमपूज्य सरसंघचालक मोहन राव भागवत को दो टूक शब्दों में कह दिया है कि ना तो आरक्षण की व्यवस्था में कोई बदलाव किया जायेगा और ना ही संविधान बदला जायेगा ,क्योंकि ऐसा करना आत्महत्या करने के समान होगा .इस कड़े जवाब से देश के वंचित समुदाय में एक राहत देखी जा रही है .अभी यह कहना जल्दबाजी ही होगी कि ऐसा कह कर मोदी देश के दलित वंचितों का भरोसा जीत पाने में वे कामयाब हो गए है ,लेकिन जिस तरह से बिहार चुनाव परिणाम से लेकर भारतीय संसद की बहस ने भागवत की किरकिरी की है ,उससे हाशिये का तबका ख़ुशी जरुर महसूस कर रहा है .

संसद में हुयी दो दिवसीय चर्चा और राष्ट्रव्यापी संविधान दिवस का मनाया जाना भारतीय राष्ट्र राज्य के लिए एक ऐतिहासिक आयोजन है ,मगर इन सबके मध्य बाबा साहब डॉ भीमराव अम्बेडकर को अतिमानव बना कर उनके अवतारीकरण की कोशिशों को खतरे के रूप में देखने की जरुरत है .अम्बेडकर को भगवान बनाना उनके उस विचार की हत्या करना है जिसमे वे सदैव व्यक्तिपूजा के विरोधी रहे .उन्हें मसीहाकरण से सख्त ऐतराज़ रहा ,मगर आज हम देख रहे है कि लन्दन से लेकर मुंबई के इंदु मिल तक स्थापित किये जा रहे स्मारकों के पीछे वही हीरो वर्सिपिंग का ही अलोकतांत्रिक विचार काम कर रहा है .कहीं ऐसा ना हो कि अम्बेडकर के विचारों को पूरी तरह दफन करते हुए कल उनके मंदिर बना दिये जाये ,उन्हें विष्णु का ग्यारहवां अवतार घोषित कर दिया जाये और मंदिरों में पंडित लोग घंटे घड़ियाल बजा कर आरतियाँ उतारने लगे .यह खतरा इसलिये बढ़ता जा रहा है क्योंकि कोई उन्हें आधुनिक मनु तो कोई राष्ट्रऋषि और कोई जहर पीनेवाला नीलकंठ बताने पर उतारू है .

आज सब लोग एक रस्म अदायगी की तरह डॉ अम्बेडकर की प्रशंसा में लगे है ,पर 26 नवम्बर 1949 को संविधान सौंपते हुए उनके द्वारा कही गयी बात पर चर्चा नहीं हो रही है कि आर्थिक एवं सामाजिक गैर बराबरी मिटाये बगैर यह राजनीतिक समानता स्थायी नहीं हो सकती है .काश ,इस विषय पर देश की संसद विचार विमर्श करती ,मगर अफ़सोस कि अम्बेडकर की व्यक्ति पूजा चालू है ,उनका अनथक गुणगान जारी है. बड़ी ही चालाकी से उनके विचारों को दरकिनार किया जा रहा है .एक राष्ट्र के नाते बाबा साहब जो चाहते थे क्या हम वो लक्ष्य प्राप्त करने में सफल रहे है ? इस सवाल पर मेरे देश की संसद मौन है !

- भंवर मेघवंशी
( स्वतंत्र पत्रकार )

Wednesday, November 4, 2015

गांधीवादी गुरुशरण की मौत

गांधीवादी गुरुशरण की मौत
लेखक-भंवर मेघवंशी
राजस्थान में सम्पूर्ण शराबबंदी तथा मजबूत लोकायुक्त की मांग को लेकर पिछले 31 दिन से अनशन कर रहे बुजुर्ग गांधीवादी नेता गुरुशरण छाबड़ा की मौत से राजस्थान सरकार पर संवेदनहीन होने के आरोप लगाये जा रहे है तथा मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के इस्तीफे की मांग जोर पकड़ती जा रही है .

2 अक्टूबर 2015 से अनशन कर रहे 72 वर्षीय गुरुशरण छाबड़ा की कल हालत बेहद नाजुक हो गयी थी ,उन्हें गहन चिकित्सा ईकाई में वेंटिलेटर पर रखा गया ,उपचार के दौरान वे कोमा में चले गए और अंततः आज सवेरे 4 बजे उनकी मौत हो गयी .प्रदेश में सम्पूर्ण शराबबंदी की मांग को लेकर पूर्व विधायक गुरुशरण छाबड़ा काफी लम्बे समय से आन्दोलनरत थे ,उन्होंने प्रसिद सर्वोदयी नेता गोकुलभाई भट्ट के साथ मिलकर शराबबंदी के लिए चलाये गए अभियान में प्रमुख भूमिका निभाई.1977 में वे सूरतगढ़ से जनता पार्टी से वे विधायक चुने गए थे .प्रदेश के सर्वोदयी तथा गांधीवादी आन्दोलन से उनका नजदीकी रिश्ता था .

वर्ष 2014 के अप्रैल - मई में भी उन्होंने 45 दिन का अनशन किया था ,जिसके फलस्वरूप वसुंधराराजे सरकार ने उनके साथ एक लिखित समझौता किया था कि शीघ्र ही एक सशक्त लोकायुक्त कानून तथा शराबबंदी के लिए कमेटी गठित की जाएगी और उस कमेटी की सिफारिशों को माना जायेगा ,मगर लिखित वादे पर एक साल बाद भी क्रियान्वयन नहीं होने पर गुरुशरण छाबड़ा इस साल गांधी जयंती पर फिर से अनशन पर बैठ गए .इस बार प्रदेश के कई संगठनो तथा सक्रीय लोगों ने उनके आन्दोलन का समर्थन किया .अनशन के 17वे दिन पुलिस ने उन्हें अनशन स्थल से उठा लिया तथा जयपुर के सवाई मानसिंह अस्पताल में जबरन भर्ती करा दिया ,वहां पर भी छाबड़ा ने अपना अनशन जारी रखा तथा राज्य में सम्पूर्ण शराबबंदी और मज़बूत लोकायुक्त कानून बनाने की मांग को बलवती किया .

उल्लेखनीय है कि पूर्ववर्ती सरकारों में भी गुरुशरण छाबड़ा गांधीवादी तरीकों से अपनी मांग के समर्थन में आन्दोलन करते रहे है .वर्ष 2003 में गहलोत के शासन में भी उन्होंने अनशन किया था ,तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने उनकी कईं मांगों को मानकर अपने हाथ से जूस पिला कर उनका अनशन तुड़वाया था .बाद में 2014 में तकरीबन डेढ माह तक उनका अनशन व मौनव्रत चला जो राज्य सरकार के साथ लिखित समझौते से समाप्त हुआ ,मगर इस बार राजस्थान सरकार ने छाबड़ा के आन्दोलन के प्रति उपेक्षा का रवैया अख्तियार कर लिया तथा उन्हें अपनी मौत मरने के लिए छोड़ दिया गया .एक माह से अनशन कर रहे बुजुर्ग गांधीवादी नेता गुरुशरण से संवाद तक करना भी सरकार ने उचित नहीं समझा ,अलबता उनके शांतिपूर्ण अनशन व आन्दोलन को कुचलने की कोशिशें जरुर की गयी .राज्य की मुख्यमंत्री वसुंधराराजे ने एक बार भी इस बारें में आन्दोलनकारी गांधीवादी से मिलने तथा बात करने की जरुरत नहीं समझी .कल 2 नवम्बर को जब अनशनकारी छाबड़ा की स्थिति बहुत ज्यादा बिगड गयी तब लोक दिखावे के लिए सुबह चिकित्सा एवं स्वास्थ्य मंत्री राजेन्द्रसिंह अस्पताल पंहुचे तथा डॉक्टर्स को दिशा निर्देश दे कर चले आये ,बाद में जब और भी हालात नाजुक हुए तो सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री अरुण चतुर्वेदी एस एम एस पंहुचे,मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी .

राजस्थान सरकार गुरुशरण छाबड़ा की मांगो को लेकर कितनी गंभीर थी ,इसका अंदाज़ा मुख्यमंत्री के खासमखास माने जाने वाले चिकित्सा मंत्री राजेन्द्रसिंह राठौड़ के बयान से लगता है ,मंत्रीजी का साफ कहना है कि प्रदेश में शराबबंदी संभव नहीं है ,क्योंकि यह राजस्व से जुड़ा मामला है .मंत्री महोदय का यह भी मानना है कि जिन राज्यों ने शराबबंदी की है उनके अनुभव अच्छे नहीं रहे है .मजबूत लोकायुक्त की मांग पर उन्होंने कहा कि एडवोकेट जनरल की अध्यक्षतावाली कमेटी बनी है जो अन्य राज्यों के साथ अध्ययन कर रही है ,जल्दी ही निर्णय हो जायेगा .आशय यह है कि राज्य में मजबूत लोकायुक्त कानून के लिए अध्ययन जारी है और राजस्व को देखते हुए शराबबंदी की मांग को नहीं माना जा सकता है .

राज्य की सकल राजस्व आय के आंकड़ों पर नज़र डालें तो शराब से होने वाली आय इतनी ज्यादा भी नहीं है कि यह कहा जा सके कि राज्य का संचालन उसके बिना संभव नहीं है और उसका कोई विकल्प नहीं है .बजट अध्ययन केंद्र राजस्थान के साथ कार्यरत युवा अर्थशास्त्री भूपेन्द्र कौशिक के अनुसार राजस्थान सरकार को वित्तीय वर्ष 2011 -12 में आबकारी से 12.29 % ,वर्ष 2012-13 में 12 .11 % ,वर्ष 2013 -14 में 13 .21 % ,वर्ष 2014 -15 में 13 .08 % तथा वर्ष 2015 -16 में 13 .38 % की राजस्व आय शराब से हुयी है .इसका मतलब यह है कि व्यापक लोकहित में सरकार अन्य प्रकार के टेक्सों में मामूली बढ़ोतरी करके शराब से होने वाली आय की भरपाई कर सकती है ,मगर माना जाता है कि राज्य शासन में शराब लॉबी इतनी सशक्त है कि सरकार उन पर पाबन्दी लगाने की बात तो दूर उनको छेड़ने की कल्पना भी नहीं कर सकती है ,ऐसे में शराबबंदी की मांग को अव्यवहारिक और राज्य के विकास के लिए हानिकारक बता कर पल्ला झाड़ने की कोशिस की जाती रही है .

बात सिर्फ राजस्व घाटे की पूर्ति या कर उगाही की नहीं है और ना ही एक सशक्त कानून लाने भर की है ,बात यह है कि एक लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी हुयी कल्याणकारी सरकार अपने नागरिकों की कितनी सुनती है ? सुनती भी है या नहीं ? आखिर एक पूर्व विधायक और नामचीन गांधीवादी बुजुर्ग की ही परवाह नहीं की गयी , वह भूख हड़ताल करते हुए ही संसार को अलविदा कह गए ,तो आम इन्सान की क्या सुनी जाएगी .जनता के आंदोलनों का क्या मूल्य है इस सरकार के लिए ? गांधीवादी गुरुशरण छाबड़ा की मांग और तरीके को लेकर मतभेद हो सकता है ,उनकी मांग की व्यावहारिकता और प्रासंगिकता को लेकर बहस हो सकती है ,उसे मानना या नहीं मान पाने की राजनीतिक व आर्थिक मजबूरियां गिनाई जा सकती है ,मगर यह कैसे संभव है कि एक शांतिपूर्ण आन्दोलनकर्ता को यूँ ही मरने के लिए छोड़ दिया जाये ,उसकी सुनी ही नहीं जाये और अंततः वह मर ही जाये . तब भी सरकार अपने सामन्ती रौब और सत्ता के नशे में ही ऐठीं रहे .यह स्वस्थ प्रजातंत्र की निशानी नहीं है ,यह रुग्ण राजतन्त्र के लक्षण है .जिनकी चौतरफा भर्त्सना आवश्यक है .

अब तो राजस्थान के आमजन की भी यह धारणा बन गयी है कि वसुंधराराजे की यह सरकार संवादहीनता और संवेदनहीनता नामक दो प्रमुख दुर्गणों का जनविरोधी मेल होती जा रही है .रिसर्जेंट राजस्थान में शायद गुरुशरण छाबड़ा जैसे गांधीवादी बुजुर्गों की कोई जरुरत नहीं है .सोशल मीडिया पर राज्य सरकार की निष्ठुरता और मुख्यमंत्री की संवेदनहीनता की सर्वत्र आलोचना हो रही है और मुख्यमंत्री वसुंधराराजे से इस्तीफ़ा माँगा जा रहा है .दूसरी ओर एक निष्काम कर्मयोगी की भांति जीवन भर जनहित में लगे रहे गांधीवादी नेता गुरुशरण छाबड़ा को लोग अश्रुपूर्ण श्रधांजलि दे रहे है ,लोग नत मस्तक है कि वे जब तक जिए लोगों के लिए जिए और मरे तो अपनी देह को भी मेडिकल के विद्यार्थियों के लिए दान कर गए और अपनी अंतिम साँस भी अपने उस ध्येय के लिए समर्पित कर दी ,जिसके लिए जीवन भर साँस लेते रहे .

- भंवर मेघवंशी

- (लेखक स्वतंत्र पत्रकार है )