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Tuesday, August 13, 2013

इंडिया फर्स्ट या उच्च जातियों का कुलीन वर्ग फर्स्ट?

लेखक : इरफान इंजीनियर

साम्प्रदायिक बनाम छद्म धर्मनिरपेक्षता :

भाजपा अपनी हिन्दू राष्ट्रवादी राजनीति की आकर्षक पैकेजिंग करने के लिए, एक बार फिर धर्मनिरपेक्षता को पुनर्परिभाषित करने का प्रयास कर रही है। हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति का आधार है अल्पसंख्यकों – विशेषकर मुसलमानों व ईसाइयों – को बदनाम करना। इन दोनों समुदायों का दानवीकरण, इस उद्देश्य से किया जाता है कि बहुसंख्यक समुदाय का कम से कम एक तबका, इस दुष्प्रचार पर यकीन करने लगे कि अल्पसंख्यक समुदाय उसके लिए बड़ा खतरा है। जाहिर है, कि असल में इस खतरे का कोई अस्तित्व नहीं होता। बहुसंख्यक समुदाय के इन आशंकित और भयग्रस्त लोगों का इस्तेमाल, एकाधिकारवादी व दमनकारी संस्कृति को, राज्य के जरिए, देश पर लादने के लिए किया जा सकता है। यह संस्कृति केवल आर्थिक व सामाजिक उच्च वर्ग को लाभान्वित करती है। हिन्दू राष्ट्रवादी, वर्षों से ईसाइयों व मुसलमानों पर वही घिसेपिटे आरोप लगाते आ रहे हैं। ईसाइयों के बारे में उनका कहना है कि वे लोभ-लालच व भय के जरिए, बड़ी संख्या में हिन्दुओं को ईसाई बना रहे हैं (यह इस तथ्य के बावजूद कि भारत की आबादी में ईसाइयों का प्रतिशत, सन् 1971 के 2.6 से घटकर सन् 2001 में 2.3 रह गया है)। मुसलमानों पर वे आतंकवादी होने का आरोप लगाते हैं (यह ‘स्वामी’ असीमानंद के इकबालिया बयान व ‘साध्वी’ प्रज्ञा सिंह ठाकुर व अन्यों पर आतंकी हमले अंजाम देने के आरोपों के बावजूद)। वे यह भी कहते हैं कि मुसलमानों की भारत के प्रति वफादारी संदिग्ध है, यह कि मुसलमान हमारे पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के प्रति अधिक वफादार हैं व यह कि पाकिस्तान व आईएसआई, भारतीय मुसलमानों का इस्तेमाल, भारत को अस्थिर करने और यहां आतंकी वारदातें करने के लिए करता है। यह भी कहा जाता है कि मुसलमान विघटनकारी हैं, उनमें बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन है, जिसके कारण उनकी आबादी तेजी से बढ़ रही है, यह कि वे पड़ोसी बांग्लादेश व पाकिस्तान से बड़े पैमाने पर भारत में घुसपैठ कर रहे हैं व यह कि मुस्लिम शासकों ने हिन्दू धर्म का नाश करने के लिए हिन्दू मंदिरों को ढहाया था।

अल्पसंख्यकों के दानवीकरण से राज्य को असीमित शक्तियों से लैस करना आसान हो जाता है। राज्य अक्सर इन शक्तियों का बेजा इस्तेमाल करता है और उसके सुरक्षा तंत्र से पारदर्शिता गायब हो जाती है। इससे पूंजीपतियों को श्रमिकों, किसानों, भूमिहीनों, दलितों आदिवासियों, महिलाओं व समाज के अन्य वंचित वर्गों की कीमत पर, प्रोत्साहन देना आसान हो जाता है। राज्य का सुरक्षातंत्र, वंचित वर्गों को आतंकित रखने के काम आता है। आशंकित और भयग्रस्त वंचित वर्ग, ‘राज्य की सुरक्षा’ के नाम पर अपने प्रजातांत्रिक अधिकारों को समर्पित कर देता है – उन अधिकारों को, जिनका इस्तेमाल वह अपने सामूहिक हितों की रक्षा करने के लिए कर सकता था। हिन्दू राष्ट्रवाद का एक लक्ष्य यह भी है कि बहुसंख्यक समुदाय के सदस्यों, विशेषकर निचले तबके को, प्राचीन हिन्दू गौरव के नाम पर जाति-आधारित सामंती गुणानुक्रम व परम्पराओं से चिपके रहने के लिए प्रेरित किया जाए। दरअसल, वे एक एकाधिकारवादी राज्य की स्थापना करना चाहते हैं, जिसमें अल्पसंख्यकों को दबाकर रखा जायेगा। इसे वे ‘सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता’ बताते हैं। दूसरी ओर, भाजपा, कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता को ‘छद्म धर्मनिरपेक्षता’ बताती है और कहती है कि वह ‘अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण’ के अतिरिक्त कुछ नहीं है। अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण के आरोप से भाजपा का मतलब यह है कि कांग्रेस, अल्पसंख्यकों के उतने खिलाफ नहीं है, जितनी कि वह है।

मुस्लिम और ईसाई अल्पसंख्यकों को सुरक्षा देने के मामले में कांग्रेस का रिकार्ड भी कोई बहुत अच्छा नहीं रहा है। आजादी के बाद से अब तक भारत में साम्प्रदायिक दंगों में 40,000 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं, जिनमें से अधिकांश अल्पसंख्यक समुदाय से थे। दंगों के दोषियों को बहुत कम मामलों में सजा मिल सकी है। कांग्रेस के राज में हुए दंगों में शामिल हैं – जबलपुर (1961), अहमदाबाद (1969 व 1984), भिवण्डी (1970 व 1984), नेल्ली (1983), सिक्ख-विरोधी दंगे (1984), भागलपुर (1989), मुरादाबाद व गोधरा (1981), मेरठ (1987) इत्यादि। इसके अतिरिक्त, पंजाब में सिक्खों व मुंबई, हैदराबाद, दिल्ली (बाटला हाउस) व अन्य शहरों में मुसलमानों की फर्जी मुठभेड़ों में हत्या की जाती रही है। इन फर्जी मुठभेड़ों से मीडिया को अल्पसंख्यकों के चेहरे पर कालिख पोतने वाली खबरों का प्रसारण/प्रकाशन करने का मौका मिलता है, जिससे उनकी टीआरपी और बिक्री बढ़ती है। इससे आतंकवाद से मुकाबला करने के नाम पर एएफएसपीए, यूएपीए, टाडा व पोटा जैसे प्रजातंत्र-विरोधी कानून बनाना आसान हो जाता है। इन कानूनों से सुरक्षा एजेन्सियों को ढेर सारे अधिकार मिल जाते हैं और वह भी बिना किसी जवाबदेही के। अल्पसंख्यकों को वे अवसर उपलब्ध नहीं होते जो अन्य नागरिकों को होते हैं। उनके साथ शिक्षा, सरकारी नौकरियों, बैंक से मिलने वाले कर्जो, सरकारी ठेकों आदि के मामलों में किस तरह भेदभाव किया जाता है, इसका सच्चर समिति विशद दस्तावेजीकरण कर चुकी है। सुरक्षाभाव न होने, बैंकों द्वारा कर्ज देने मे आनाकानी करने, सरकारी ठेके व नौकरियां न मिलने व रहवास के इलाकों में अधोसंरचना की कमी के कारण, मुसलमान शैक्षणिक, सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से पिछड़ गये हैं। भाजपा नेतृत्व के एक हिस्से ने भी सच्चर समिति की रपट आने के बाद यह स्वीकार किया कि मुसलमानों के साथ भेदभाव होता रहा है।

अल्पसंख्यकों में व्याप्त सामाजिक व शैक्षणिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए – देरी से ही सही, घोर अपर्याप्त ही सही – कांग्रेस जब भी कोई कदम उठाती है, उसे अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण करने के आरोप से दो चार होना पड़ता है। कांग्रेस पर भाजपा द्वारा एक और संदर्भ अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण करने का आरोप लगाया जाता है। वह यह कि कांग्रेस, अल्पसंख्यकों को उनके पारिवारिक मसलों में पारम्परिक कानून का पालन करते रहने की इजाजत दे रही है। सच यह है कि कांग्रेस ने उच्च जातियों के श्रेष्ठि वर्ग को मुसलमानों की तुलना में कहीं अधिक तरजीह दी है। इस वर्ग के सांस्कृतिक प्रतिमानों को संपूर्ण बहुसंख्यक समुदाय पर लाद दिया गया है। इनमें शामिल हैं परिवार संबंधी नियम, गौवध निषेध व धर्मांतरण-विरोधी कानून। इनमें से कुछ कानूनों का इस्तेमाल अल्पसंख्यकों को डराने-धमकाने के लिए किया जा रहा है। विहिप के सदस्यों ने कुछ पुलिस अधिकारियों के साथ मिलकर ऐसे दल गठित कर लिये हैं जिनका काम है जानवरों के परिवहन के व्यवसाय में रत अल्पसंख्यकों से अवैध वसूली करना। यह वसूली तब भी की जाती है जब वे कोई गैरकानूनी काम नहीं कर रहे होते हैं। वसूली की राशि शनैः-शनैः इतनी बढ़ गई है कि कई मुसलमान इस व्यवसाय से बाहर हो गए हैं और उनका स्थान अन्य समुदायों के व्यक्तियों ने ले लिया है।

कांग्रेस सरकारें, उच्च जातियों के श्रेष्ठि वर्ग की संस्कृति व धार्मिक विश्वासों को, कानून के जरिए, देश के अन्य निवासियों पर लाद रही है। उदाहरण के लिए, पहले सरकार ने बाबरी मस्जिद की भूमि का अधिग्रहण किया और बाद में मस्जिद को गिर जाने दिया। इसके बाद, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बाबरी मस्जिद की भूमि को तीन बराबर भागों में बांट कर तीनों ‘पक्षकारों’ को उनका हिस्सा दे दिया। दो-तिहाई भूमि हिन्दू पक्षकारों को मिल गई जबकि जमीन के मूल मालिक को केवल एक-तिहाई हिस्सा मिला और वह भी जमीन के एक कोने में। अगर जमीन का अधिग्रहण नहीं किया गया होता और मस्जिद गिराई न गई होती तो उच्च न्यायालय इस तरह का निर्णय दे ही नहीं सकता था। कुल मिलाकर, हिन्दू राष्ट्रवादी, समाज के उस तबके, जो उच्च जाति के श्रेष्ठि वर्ग का हिस्सा नहीं है, की विविधवर्णी संस्कृति को नष्ट कर देना चाहता है और यह सुनिश्चित करना चाहता है कि राजनीति में केवल उच्च जातियों की संस्कृति का बोलबाला रहे। कांग्रेस, अल्पसंख्यकों की संस्कृति को थोड़ी अधिक तरजीह देती है और राजनैतिक रणनीति के तहत उनके प्रति कुछ नर्म रहती है। भाजपा द्वारा कांग्रेस पर छद्म धर्मनिरपेक्षता (या अल्पसंख्यक तुष्टिकरण) की नीति अपनाने का आरोप व कांग्रेस का उसे साम्प्रदायिक पार्टी बताना, इसी संघर्ष को प्रतिबिम्बित करते हैं।

भारत पहले :

नरेन्द्र मोदी, जो कि स्वयं को एक राष्ट्रीय नेता और प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बतौर प्रस्तुत कर रहे हैं, ने धर्मनिरपेक्षता की एक नई परिभाषा दी है-इण्डिया फर्स्ट। रपटों के अनुसार, उन्होंने धर्मनिरपेक्षता को ‘परिभाषित’ करते हुए कहा कि ‘‘भारत की भलाई के अलावा, हमारा कोई लक्ष्य नहीं होना चाहिए और जब ऐसा हो जाएगा, तो धर्मनिरपेक्षता स्वमेव हमारी रगों में बहने लगेगी’’। इस परिभाषा से कई प्रश्न उपजते हैं। पहली बात तो यह है कि ‘भारत की भलाई’ किस में है? यदि कार्पोरेट सेक्टर देश के संसाधनों पर कब्जा कर अटूट मुनाफा कमाए, तो क्या यह देश की भलाई है? क्या ऐसी ‘प्रगति,’ जो गरीबों को न तो रोजगार दे और न सुरक्षित भविष्य, देश की भलाई है? क्या ‘स्टेण्डर्ड एण्ड पुअर’ द्वारा भारत को बेहतर रेटिंग दी जाना देश की भलाई है? क्या जीडीपी में बढ़ोत्तरी को हम देश की प्रगति का सूचक मान सकते हैं? क्या उदारीकरण, निजीकरण व वैश्वीकरण के कारण, देश में अस्थाई तौर पर, ढेर सारे जोखिमों के साथ, विदेशी पूंजी आना, देश की भलाई है? या फिर देश की भलाई इसमें है कि प्रगति ऐसी हो, जिसका लाभ गरीब से गरीब व्यक्ति तक पहुंचे, विकास स्थाई हो और वंचित वर्गों के जीवनस्तर को बेहतर बनाया जाए। यद्यपि मोदी इन प्रश्नों का उत्तर नहीं देते परन्तु उनकी प्राथमिकताएं इतनी स्पष्ट हैं कि उनके उत्तर क्या होंगे, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। शायद मोदी ‘इण्डिया फर्स्ट’ के नारे के जरिए यह कहना चाहते हैं कि ‘‘सब से गरीब फर्स्ट नहीं, जिसके साथ भेदभाव होता हो, वह फर्स्ट नहीं, पिछड़े क्षेत्र फर्स्ट नहीं, सामाजिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग फर्स्ट नहीं, आर्थिक प्रगति के विस्थापित फर्स्ट नहीं, कमजोर, फर्स्ट नहीं’’। क्योंकि अगर इन वर्गों को प्राथमिकता दी जाती है, फर्स्ट रखा जाता है, तो ‘स्टेण्डर्ड एण्ड पुअर’, भारत की रेटिंग को नहीं बढ़ायेगा और ना ही जल्दी से जल्दी ढेर सारा मुनाफा कमाने के लिए कुछ भी करने को तत्पर विदेशी धनकुबेर, भारत में पूंजी निवेश करेंगे।

भाजपा की ‘सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता’ :

धर्मनिरपेक्षता से क्या आशय है, इस विषय पर बहस जारी है और हर देश, धर्मनिरपेक्षता के अपने अपने संस्करण को लागू कर रहा है। परन्तु धर्मनिरपेक्षता पर कोई स्कूली पाठ्यपुस्तक पढ़ने से भी यह साफ हो जायेगा कि धर्मनिरपेक्षता की सभी परिभाषाओं में कुछ बातें समान हैं। जैसे, राज्य धार्मिक संस्थाओं, धर्मग्रन्थों व धार्मिक शिक्षा से दूरी बनाए रखेगा और किसी धार्मिक गतिविधि पर अपने संसाधन खर्च नहीं करेगा। परन्तु भाजपा की केन्द्र व राज्य सरकारों के कार्यकलापों से यह साफ है कि भाजपा, धर्मनिरपेक्षता की इस न्यूनतम परिभाषा को भी स्वीकार नहीं करती। जब भाजपा केन्द्र में सत्ता में थी, तब तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने वैदिक ज्योतिष विज्ञान, कर्मकाण्ड और योग चेतना आदि को उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनाने का प्रस्ताव किया था। क्या अब भारत के विश्वविद्यालयों से हिन्दू पंडित पढ़कर निकलेंगे? अगर आप वेद पढ़ाते हैं तो आप सकारात्मक धर्मनिरपेक्षतावादी हैं। परन्तु यदि आप कुरान या बाईबिल पढ़ाते हैं तो आप छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी हैं। मध्यप्रदेश सरकार ने स्कूलों में गीता की पढ़ाई शुरू की है और वह सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों पर सभी धार्मिक समुदायों के बच्चों को योग व सूर्यनमस्कार सिखाने और सरस्वती वंदना का गायन करवाने के लिए दबाव डाल रही है। राज्य भाजपा सरकार ने एक योजना शुरू की है जिसके अन्तर्गत वरिष्ठ नागरिकों को सरकारी खर्च पर भारत के विभिन्न तीर्थस्थलों की यात्रा करवाई जाती है। एकाध को छोड़कर, ये सभी तीर्थस्थल हिन्दू हैं इसलिए कोई मुस्लिम बुजुर्ग शायद ही इस योजना का लाभ उठायेगा। अगर हज यात्रियों को अनुदान दिया जाता है तो यह अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण है परन्तु यदि सरकारी खर्च पर हिन्दुओं को उनके तीर्थस्थलों की यात्रा करवाई जाती है तो यह सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता है? हम हाजियों को दिये जाने वाले अनुदान की निंदा करते हैं। और उतनी ही निंदा हम राज्य द्वारा किसी भी व्यक्ति की धार्मिक आस्थाओं पर किये जाने वाले खर्च की भी करते हैं।

भाजपा की यह मांग रही है कि देश में ऐसे कानून बनाए जाएं जिनसे धर्मांतरण पर राज्य का नियंत्रण स्थापित हो सके। परंतु इसके साथ ही, हिन्दू राष्ट्रवादी कंधमाल जिले में ईसाईयों को जबरदस्ती हिन्दू बना रहे हैं। सन् 2007-08 की ईसाई-विरोधी हिंसा के पीड़ितों को राहत शिविरों में रहने पर मजबूर थे। वे न तो अपने गांव लौट सकते थे, न अपनी जमीन पर खेती कर सकते थे और ना अपने मकानों का पुनर्निमाण कर सकते थे, जब तक कि वे हिन्दू बनने के लिए राजी न हो जाएं। उनपर कड़ी शर्तें लागू की गईं थीं। उन्हें अपने सिर मुंडवाने होते थे, पूर्व में ईसाई धर्म का पालन करने के लिए भारी जुर्माना चुकाना पड़ता था और यह वायदा करना होता था कि यदि ‘गांव‘ ईसाईयों पर हमला करने का निर्णय करेगा तो वे हमलावरों में शामिल होंगे। जहां किसी भी अन्य धर्म से जबरदस्ती हिन्दू बनाने को ‘घरवापसी‘ कहा जाता है वहीं अपनी इच्छा से ईसाई या मुसलमान बनने वाले व्यक्ति के बारे में यह आरोप लगाया जाता है कि उसका धर्मपरिवर्तन लालच देकर या डरा-धमकाकर कराया गया है। हिन्दू धर्म त्यागकर इस्लाम या ईसाई धर्म अपनाने की हर घटना का का विरोध होता है। ऐसे अधिकांश लोग हिन्दू धर्म की दमनकारी जाति व्यवस्था के शिकार होते हैं और उन्हें यह उम्मीद होती है कि उनके नए धर्म में उन्हें गरिमा और बराबरी का दर्जा प्राप्त होगा। स्वैच्छिक धर्मांतरण के अन्य कारण भी हैं जिन पर हम यहां चर्चा नहीं करना चाहेंगे। भाजपा शासनकाल में राजस्थान की सरकार ने एक कानून बनाया, जिसमें यह प्रावधान था कि अपने पूर्वजों के धर्म (अर्थात हिन्दू) को अपनाने को धर्मांतरण नहीं माना जाएगा। मोदी राज में गुजरात विधानसभा ने राज्य के धर्मांतरण-विरोधी कानून को संशोधित करते हुए एक विधेयक पारित किया, जिसके अनुसार सिक्ख, बौद्ध, जैन और हिन्दू धर्म में आपसी धर्मांतरण का कोई नियमन नहीं किया जाएगा क्योंकि सिक्ख, बौद्ध और जैन अलग धर्म नहीं है वरन् हिन्दू धर्म के पंथ हैं। गुजरात और राजस्थान दोनों सरकारों द्वारा पारित बिलों को वहां के राज्यपालों ने स्वीकृति नहीं दी और उन्हें राष्ट्रपति को अग्रेषित कर दिया। ‘इंडिया फर्स्ट ‘ ब्रांड की धर्मनिरपेक्षता का अर्थ यह है कि ईसाईयों को जबरदस्ती हिन्दू बनाया जा सकता है परंतु दलितों को ईसाई धर्म या इस्लाम अपनाने का अधिकार नहीं है। व यह भी कि नागरिकों को उनकी पसंद का धर्म मानने की स्वतंत्रता देना, अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण और राष्ट्र-विरोधी गतिविधि है।

देश में गौवध निषेध कानून कड़े, और कड़े बनते जा रहे हैं और भाजपा-शासित प्रदेशों में उनका इस्तेमाल, अल्पसंख्यकों का दमन करने के लिए हो रहा है। मध्यप्रदेश सरकार ने गौवध निषेध कानून में परिवर्तन कर, अपराधियो को सात वर्ष तक के कारावास से दंडित किए जाने का प्रावधान कर दिया है और स्वयं को निर्दोष साबित करने की जिम्मेदारी आरोपी पर डाल दी गई है। इस तरह के अपराधों में अब जमानत नहीं मिलेगी। पुलिस को यदि संदेह हो कि किसी घर में गौमांस पकाया जा रहा है तो वह रसोईघर में घुसकर बर्तन, खाना पकाने व उसे संग्रहित करने (अर्थात रेफ्रिजेटर इत्यादि) के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले उपकरण आदि जब्त कर सकेगी। यह कानून भेदभावपूर्ण और अल्पसंख्यक-विरोधी है। इसका इस्तेमाल अल्पसंख्यकों का दमन करने के लिए किया जा रहा है। गौवध निषेध कानून का केवल एक आधार है-उच्च हिन्दू जातियों की धार्मिक आस्था। आखिर राज्य को क्या अधिकार है कि वह यह तय करे कि देश के नागरिक क्या खाएं और क्या नहीं? और यहां तक कि उनके रसोईघरों में घुसकर, धर्म-आधारित विचारधारा को जबरदस्ती उन पर लादे। इसी तर्ज पर जैनी यह मांग कर सकते हैं कि सरकार को प्याज और लहसुन पर प्रतिबंध लगाना चाहिए और मुस्लिम यह कह सकते हैं कि देश में सुअर का मांस नहीं बिकना चाहिए।

अगर जैनियों और मुसलमानों के धार्मिक विश्वासों को नागरिकों के खानपान पर नियंत्रण का आधार नहीं बनाया जाता तो फिर उच्च जातियों के हिन्दुओं की धार्मिक आस्थाओं को अन्य नागरिकों पर क्यों लादा जाना चाहिए? क्या यह इंडिया फर्स्ट है या उच्च जातियां फर्स्ट?
नैतिक पुलिस

हिन्दू राष्ट्रवादियों ने एम एफ हुसैन की चित्र प्रदर्शनियों में इस आधार पर तोड़फोड़ की कि वे नागरिकों की धार्मिक भावनाओं को आहत करती थीं। हिंसा और मुकदमेबाजी से परेशान हो हुसैन अंततः देश छोड़कर चले गए। इसी तरह, वाराणसी में ‘वाटर‘ फिल्म की शूटिंग नहीं होने दी गई। बाल ठाकरे ने फिल्म निर्माताओं को अपनी फिल्मों के कई उन हिस्सों को हटाने पर मजबूर किया जिनसे उनके या उनकी पार्टी के हित प्रभावित हो रहे थे। यह इस तथ्य के बावजूद कि फिल्म सेंसर बोर्ड ने इन हिस्सों को अपनी स्वीकृति दी थी। हिन्दू राष्ट्रवादियों ने महिलाओं पर ड्रेस कोड लादने की कोशिश की। वे वेलेन्टाइन डे का विरोध करते हैं, पबों में महिलाओं के साथ मारपीट करते हैं और युवा लड़के-लड़कियों की पार्टियो में बाधा डालते हैं।

इस सिलसिले में हम अन्य कई मुद्दों पर चर्चा कर सकते हैं, जिनमें शामिल हैं समान नागरिक संहिता के नाम पर उच्च जातियों के पारिवार-संबंधी नियमों को लादने की कोशिश। स्थान की कमी के कारण हम इन मुद्दों पर चर्चा नहीं कर रहे हैं। इंडिया फर्स्ट, असल में राजनैतिक सत्ता पाने की सीढ़ी है और पितृसत्तातमक, सामंती व ऊँचनीच को उचित ठहराने वाली उच्च जातियों की संस्कृति को अन्य भारतीयों पर लादने की कोशिश-उन भारतीयों पर जिनकी समृद्ध और विविधवर्णी सांस्कृतिक परंपराएं हैं। भारतीयों को अपनी विविधताओं के बावजूद सद्भाव के साथ रहना अच्छी तरह आता है और इस परंपरा को समाप्त करने की किसी भी कोशिश की केवल निंदा ही की जा सकती है। (मूल अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)

लेखक : इरफान इंजीनियर, लेखक इंस्टीट्यूट फॉर स्टडीज़ एण्ड कंफ्लिक्ट रिसॉल्यूशन (Institute for Peace Studies & Conflict Resolution) के निदेशक हैं। स्त्रोत : हस्तक्षेप में दिनांक : 04/08/2013 को प्रकाशित।

Wednesday, July 17, 2013

जब भी मुँह खोलते हैं मोदी, देश को बाँटने वाली भाषा बोलते हैं

एल.एस.हरदेनिया

नरेन्द्र मोदी जब भी बोलते हैं, देश को बाँटने वाली बातें कहते हैं। पिछले कुछ दिनों में उन्होंने कम से कम तीन आपत्तिजनक बातें कही हैं।

पहली आपत्तिजनक बात यह है कि उन्होंने सन् 2002 के राज्य प्रायोजित हत्याकाण्ड में मारे गये लोगों की तुलना कुत्ते के पिल्ले से की है। दूसरी आपत्तिजनक बात उन्होंने यह कही है कि वे हिन्दू राष्ट्रवादी हैं। तीसरी आपत्तिजनक बात यह कही कि कांग्रेस अपनी असफलताओं को छिपाने के लिये धर्मनिरपेक्षता का बुर्का ओड़ लेती है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि जो लोग कुत्तों को पालते हैं, उनके मरने पर उन्हें वैसा ही दुःख होता है जैसे उनके परिवार का कोई सदस्य चला गया हो। परन्तु यह भी एक वास्तविकता है कि जब कोई अपने दुश्मन के बारे में यह कहता है कि वह कुत्ते की मौत मरे, तो वह उसके प्रति अपनी गहरी घृणा प्रगट कर रहा होता है। कुत्ते की मौत बड़ी दर्दनाक होती है। बहुसंख्यक मामलों में, उसे मृत्यु के पूर्व भारी यंत्रणा से गुजरना पड़ता है। इसलिये मोदी ने जब 2002 में हुयी मौतों की तुलना कुत्ते के पिल्ले की मौत से की तो वे वास्तव में अपने मन की असली भावना को प्रगट कर रहे थे। वे मुसलमानों से अपने मन की गहराईयों से घृणा करते हैं। उनकी दिली इच्छा होगी कि सभी मुसलमानों को वैसी ही यंत्रणायुक्त मौत मिले, जैसी कुत्तों को मिलती है। वैसे भी, आज गुजरात में बहुसंख्यक मुसलमान जिस तरह की जिन्दगी जी रहे हैं जो आवारा कुत्ते की होती है। अहमदाबाद जैसे शहर में भी मुसलमानों की लगभग सभी बस्तियों में आज भी वे सुविधायें उपलब्ध नहीं हैं, जो एक नागरिक को मिलनी चाहिये। आज भी अनेक मुसलमान, जिन्हें 2002 में अपने गाँव छोड़ने पड़े थे, वे वापस नहीं आ पाये हैं। मैंने स्वयम् अहमदाबाद में मुसलमानों की एक ऐसी बस्ती देखी जिसकी गलियों में स्ट्रीट लाईट की व्यवस्था वहाँ के निवासियों को स्वयम् करनी पड़ी थी। इस तरह के भेदभाव के अनेक उदाहरण गुजरात के अनेक क्षेत्रों में देखने को मिलते हैं।

उसी इंटरव्यू में, जिसमें मोदी ने कहा था कि कुत्ते के पिल्ले की मौत पर भी उन्हें दुःख होता है, उन्होंने यह भी कहा था, ‘‘चूँकि मैं हिन्दू हूँ और राष्ट्रवादी हूं इसलिये मैं हिन्दू राष्ट्रवादी हूँ। राष्ट्रवादी का एक अर्थ राष्ट्रभक्त भी होता है। इस तरह, यह कहकर कि वे हिन्दू राष्ट्रवादी हैं, मोदी ने राष्ट्रभक्तों के बीच विभाजन की रेखा खींच दी है। यदि हमारे देश में राष्ट्रभक्ति की पहचान धर्म के आधार पर होगी तो हमारे देश में विभिन्न प्रकार के राष्ट्रभक्त हो जायेंगे। यदि इस देश के कुछ नागरिक हिन्दू नेशनलिस्ट हैं, तो फिर मुस्लिम, ईसाई, सिक्ख, और बौद्ध और जैन नेशनलिस्ट भी होंगे। जब धर्म के आधार पर नेशनलिस्टों की पहचान होगी तब धर्म के आधार पर नेशन अर्थात राष्ट्र की पहचान भी होगी। इस तरह, हमारे देश में धर्म-आधारित अनेक राष्ट्र हो जायेंगे।

सबसे पहले विनायक दामोदर सावरकर ने कहा था कि भारत में दो राष्ट्र हैं-एक हिन्दू राष्ट्र और दूसरा मुस्लिम राष्ट्र। इसी बात को जिन्ना ने भी दोहराया था। सच पूछा जाए तो सावरकर द्वारा दी गयी राष्ट्रवाद की धर्म-आधारित परिभाषा ने ही हमारे देश का विभाजन किया था। फिर, सावरकर ने यह भी कहा था कि जिनकी जन्मभूमि और पुण्यभूमि भारत में है उन्हें ही भारत में रहने का अधिकार है। अर्थात् जिन धर्मों की उत्पत्ति भारत में हुयी थी उन्हें मानने वाले ही भारत में रह सकते हैं। इस तरह, भारत में हिन्दू, सिक्ख, बौद्ध और जैन ही रह सकते हैं। इस परिभाषा ने ही मुसलमानों के मन में शंका पैदा की और उन्हें लगा कि आजाद भारत में उन्हें देश का नागरिक नहीं समझा जायेगा। मुसलमानों के एक वर्ग में उत्पन्न इसी शंका का लाभ उठाकर पाकिस्तान का नारा दिया गया और अन्ततः हमारे देश का विभाजन हुआ।

हिन्दू राष्ट्रवादी या मुस्लिम राष्ट्रवादी कहना वैसा ही है जैसे एक समय प्लेटफार्म पर हिन्दू चाय और मुस्लिम चाय या हिन्दू पानी और मुस्लिम पानी की आवाजें लगती थीं। सच पूछा जाय तो स्वयम् को हिन्दू राष्ट्रवादी कहकर, मोदी ने फिर देश के मानस को बांटने की कोशिश की है।

अभी कुछ दिन पहले, मोदी ने एक और विवादग्रस्त बयान दिया था। उन्होंने कहा कि जब भी कांग्रेस की आलोचना होती है कांग्रेस, धर्मनिरपेक्षता के बुर्के से अपना चेहरा ढँक लेती है। यह प्रायः देखा गया है कि मोदी जब भी कोई बात करते हैं या किसी की आलोचना करते हैं तो मुस्लिम प्रतीकों का उपयोग करते हैं। एक समय था जब वे कहा करते थे कि सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं परन्तु यह एक वास्तविकता है कि सभी आतंकवादी, मुसलमान हैं। मोदी अपने व्यवहार में, अपनी बातचीत के लहजे में, हिटलर की नकल करते हैं। हिटलर का एक सिद्धान्त था कि एक झूठ की बार-बार पुनरावृत्ति करो तो वह आम आदमी को सच प्रतीत होने लगता है। इसलिये, यह जानते हुये भी कि वे झूठ बोल रहे हैं, वे उसे बार-बार दोहराते हैं। उन्होंने एक झूठ और बोला है। वे देश की बढ़ती हुयी आबादी का जिक्र करते हुये उसका दोष मुसलमानों पर थोपते हैं। इस बारे में वे मुसलमानों की तरफ इशारा करते हुये कहते हैं कि ‘‘हम पांच, हमारे पच्चीस’’। इसका अर्थ होता है कि एक मुसलमान पुरूष की चार बीवियाँ होती हैं और फिर उनसे 25 सन्ताने होती हैं। इससे बड़ा झूठ और कोई नहीं हो सकता। परन्तु मोदी जानते हैं कि एक झूठ को बार-बार कहने से वह सच प्रतीत होने लगता है। इस तरह, समस्या कुछ भी हो, वे उसका दोषरोपण मुसलमानों पर कर देते हैं।

मोदी को समझना चाहिये कि धर्मनिरपेक्षता, भारतीय राष्ट्र की बुनियाद है। सभी को उसके प्रति अपनी प्रतिबद्धता रखनी चाहिये। धर्मनिरपेक्षता मखौल की वस्तु नहीं है। मोदी राष्ट्रीय स्वयम्सेवक संघ के प्रशिक्षित स्वयम्सेवक हैं। स्वयम् राष्ट्रीय स्वयम्सेवक संघ ने कभी भी धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्त को स्वीकार नहीं किया। संघ के दूसरे सरसंघचालक गुरू गोलवलकरसमेत सभी संघ प्रमुखों ने यह कहा है कि धर्मनिरपेक्षता, भारतीय राष्ट्र का आधार हो ही नहीं सकती। अभी भी संघ के नेताओं के भाषणों और उनके प्रकाशनों में धर्मनिरपेक्षता का मजाक उड़ाया जाता है। भारतीय जनता पार्टी समेत संघ से जुड़े अनेक संगठन, धर्मनिरपेक्षता में आस्था रखने वालों को छद्म धर्मनिरपेक्षवादी कहते हैं। इस तरह मोदी ने बुर्के को धर्मनिरपेक्षता से जोड़कर, धर्मनिरपेक्षता का मजाक उड़ाया है। मोदी इस बात को भूल जाते हैं कि उन्होंने उस संविधान की रक्षा की शपथ ली है जिसका मूल आधार धर्मनिरपेक्षता है। इसके बावजूद यदि वे धर्मनिरपेक्षता का मजाक उड़ाते हैं तो सच पूछा जाए तो वे संविधान का अपमान करते हैं। और यदि ऐसा व्यक्ति जिसने स्वयम् संविधान की रक्षा की शपथ ली है वह उस शपथ के विपरीत आचरण करे तो वह उस पद पर बने रहने की पात्रता खो देता है। जिस संविधान के प्रावधानों के अन्तर्गत वे विधायक और मुख्यमंत्री बने हैं, उस संविधान का मखौल बनाने का उन्हें अधिकार नहीं है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्ध कार्यकर्ता हैं। एल.एस.हरदेनिया। लेखक वरिष्ठ 
पत्रकार व धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्ध कार्यकर्ता हैं। L. S. Hardenia. As a professional journalist, a trade unionist, and officer of organizations like Sarvadhrma Sadbhav Samiti, Samprdayikta Virodhi Committee, Qaumi Ekta Trust, National Secular Forum, Centre for Study of Society and Secularism, and Madhya Pradesh government’s National Integration Committee, for many years.
स्त्रोत : हस्तक्षेप डॉट कॉम, 17/07/2013 |

Friday, August 3, 2012

अन्ना के समर्थकों के समक्ष निराशा का आसन्न संकट?

आखिरकार अन्ना ने सत्ता के बजाय व्यवस्था को बदलने के लिये कार्य करने की सोच को स्वीकार कर ही लिया है। जिसकी लम्बे समय से मॉंग की जाती रही है। जहॉं तक अन्ना की प्रस्तावित राजनैतिक विचारधारा का सवाल है तो सबसे पहली बात तो ये कि यह सवाल उठाने का देश के प्रत्येक व्यक्ति को हक है!
दूसरी बात ये कि अन्ना और उसकी टीम की करनी और कथनी में कितना अंतर है या है भी या नहीं! ये भी अपने आप में एक सवाल है, जो अनेक बार उठा है, लेकिन अब इसका उत्तर जनता को मिलना तय है।

अन्ना की ओर से अपना नजरिया साफ करने से पूर्व ही इन सारी बातों पर, विशेषकर ‘‘वैब मीडिया’’ पर ‘‘गर्मागरम बहस’’ लगातार जारी है, जिसमें अभद्र और अश्‍लील शब्दावली का खुलकर उपयोग और प्रदर्शन हो रहा है। अनेक "न्यूजपोर्टल्स" ने शायद इस प्रकार की सामग्री और टिप्पणियों के प्रदर्शन और प्रकाशन को ही अन्ना टीम की भॉंति खुद को पापुलर करने का "सर्वोत्तम तरीका" समझ लिया है।

कारण जो भी हों, लेकिन किसी भी विषय पर "चर्चा सादगी और सभ्य तरीके से होनी चाहिए" और अन्ना के उन समर्थकों को जो कुछ समय बाद "अन्ना विरोधी" होने जा रहे हैं! उनको अब अन्ना को छोड़कर शीघ्र ही कोई नया मंच तलाशना होगा! उनके सामने अपने अस्तित्व को बचाने का एक आसन्न संकट मंडराता दिख रहा है। उन्हें ऐसे मंच की जरूरत है जो जो मीडिया के जरिये देश में सनसनी फ़ैलाने में विश्‍वास करता हो तथा इस प्रकार के घटनाक्रम में आस्था रखता हो! हॉं बाबा रामदेव की दुकान में ऐसे लोगों को कुछ समय के लिए राहत की दवाई जरूर मिल सकती है! हालांकि वहॉं पर भी कुछ समय बाद "सामाजिक न्याय तथा धर्मनिरपेक्षता रूपी राजनैतिक विचारधारा" को "शुद्ध शहद की चासनी" में लपेटकर बेचे जाने की पूरी-पूरी सम्भावना व्यक्त की जा रही है।

मैं यहॉं साफ कर दूँ यह मेरा राजनैतिक अनुमान है, कि धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के मुद्दों को अपनाये बिना, इस देश में कोई राजनैतिक पार्टी स्थापित होकर राष्ट्रीय स्तर पर सफल हो ही नहीं सकती और इसे "अन्ना का दुर्भाग्य कहें या इस देश का"-कि अन्ना की सभाओं में या रैलियों में अभी तक जुटती रही भीड़ को ये दोनों ही संवैधानिक अवधारणाएँ कतई भी मंजूर नहीं हैं! बल्कि कड़वा सच तो यही है कि अन्ना अन्दोलन में अधिकतर वही लोग बढचढकर भाग लेते रहे हैं, जिन्हें देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप में कतई भी आस्था नहीं है। जिन्हें इस देश में अल्पसंख्यक, विशेषकर मुसलमान फूटी आँख नहीं सुहाते हैं और जो हजारों वर्षों से गुलामी का दंश झेलते रहे दमित वर्गों को समानता का संवैधानिक हक प्रदान किये जाने के सख्त विरोध में हैं। जो स्त्री को घर की चार दीवारी से बाहर शक्तिसम्पन्न तथा देश के नीति-नियन्ता पदों पर देखना पसन्द नहीं करते हैं।

यह भी सच है कि इस प्रकार के लोग इस देश में पॉंच प्रतिशत से अधिक नहीं हैं, लेकिन इन लोगों के कब्जे में वैब मीडिया है। जिस पर केवल इन्हीं की आवाज सुनाई देती है। जिससे कुछ मतिमन्दों को लगने लगता है कि सारा देश अन्ना के साथ या आरक्षण या धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ चिल्ला रहा है। जबकि सम्भवत: ये लोग ही इस देश की आधुनिक छूत की राजनैतिक तथा सामाजिक बीमारियों के वाहक और देश की भ्रष्ट तथा शोषक व्यवस्था के असली पोषक एवं समर्थक हैं।

इस कड़वी सच्चाई का ज्ञान और विश्‍वास कमोबेश अन्ना तथा बाबा दोनों को हो चुका है। इसलिये दोनों ने ही संकेत दे दिये हैं कि अब देश के सभी वर्गों को साथ लेकर चलना होगा। बाबा का रुख कुछ दिनों में और अधिक साफ हो जाने वाला है| जहाँ तक अन्ना का सवाल है तो अभी तक के रुख से यही लगता है कि अन्ना चाहकर भी न तो साम्प्रदायिकता का खुलकर समर्थन कर सकने की स्थिति में हैं और न हीं वे देश के दबे-कुचले वर्गों के उत्थान की नीति और स्त्री समानता का विरोध कर सकते हैं, जो "सामाजिक न्याय की आत्मा" हैं। इसलिये अन्ना के कथित समर्थकों के समक्ष निराशा का भारी आसन्न संकट मंडरा रहा है। उनके लिये इससे उबरना आसान नहीं होगा।

इसलिये अन्ना टीम की विचारधारा की घोषणा सबसे अधिक यदि किसी को आहत करने वाली है तो अन्ना के कथित कट्टर समर्थकों को ही इसका सामना करना होगा। इसके विपरीत जो लोग अभी तक अन्ना का विरोध कर रहे थे या जो अभी तक तटस्थ थे या जिन्हें अन्ना से कोई खास मतलब नहीं है और न हीं जिन लोगों को देश की संवैधानिक या राजनैतिक विचारधारा से कोई खास लेना देना है। ऐसे लोगों के लिये अवश्य अन्ना एक प्रायोगिक विकल्प बन सकते हैं और यदि अन्ना टीम कोई राजनैतिक पार्टी बनती है तो इससे सबसे अधिक नुकसान "भारतीय जनता पार्टी" को होने की सम्भावना है, क्योंकि अभी तक जो लोग अन्ना के साथ "भावनात्मक या रागात्मक" रूप से जुड़े दिख रहे हैं, वे "संघ और भाजपा" के भी इर्दगिर्द मंडराते देखे जाते रहे हैं।-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

Thursday, January 19, 2012

अभिव्यक्ति और धर्म की आजादी के मायने!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

राजस्थान की राजधानी जयपुर में ‘जयपुर फेस्टीवल’ में शीर्ष साहित्यकारों को आमन्त्रित किया गया था, जिनमें भारत मूल के ब्रिटिश नागरिक सलमान रुश्दी को भी बुलावा भेजा गया| सलामन रुश्दी की भारत यात्रा के विरोध में अनेक मुस्लिम संगठन आगे आये और सरकार द्वारा उनके दबाव में आकर सलमान रुश्दी को भारत बुलाने का विचार त्याग दिया गया|

इस बात को लेकर देशभर में धर्मनिरपेक्षता, धर्म की आजादी की रक्षा और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की आजादी के विषय पर अनेक प्रकार की बातें सामने आ रही हैं| हालांकि मूल रूप से दो पक्ष हैं! एक मुस्लिम पक्ष है, जो सलमान रुश्दी के विचारों को इस्लाम के विरोध में मानता है और उनका मानना है कि सलमान रुश्दी ने इस्लाम के बारे में जो कुछ कहा है, उससे इस्लाम के अनुयाई खफा हैं| ऐसे में यदि सलमान रुश्दी को भारत में आने दिया गया तो इस्लाम के अनुयाई इससे आहत होंगे| दूसरा पक्ष कहता है कि भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है, जिसमें हर व्यक्ति को हर धर्म या हर विषय पर अपनी बात कहने की आजादी है| ऐसे में देश के करीब पन्द्रह फीसदी मुसलमानों के मुठ्ठीभर लोगों के विरोध के कारण संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी को नहीं छीना जा सकता है|

कहा यह जा रहा है कि सलमान रुश्दी का विरोध करने वालों का विरोध करने वाले मूलत: कट्टरपंथी हिन्दूवादी लोग हैं| जिनके बारे में यह कहा जा रहा है कि उन्होंने भारतीय नागरिक और प्रख्यात चित्रकार एम एफ हुसैन की अभिव्यक्ति की आजादी का इतना विरोध किया कि हुसैन को अन्तत: भारत छोड़ना पड़ा और उन्होंने जीवन की अन्तिम सांस भारत से बाहर ही ली|

ऐसे में कुछ अन्य लोगों का कहना है कि सलमान रुश्दी के साथ खड़े दिखाई देने वाले लोग केवल मुस्लिम कौम की खिलाफत करने के लिये अभिव्यक्ति की आजादी की बात कर रहे हैं| अन्यथा उनके मन में संविधान या अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के प्रति किसी प्रकार का कोई सम्मान नहीं है| इन हालातों में हमें इस बात की पड़ताल करनी होगी कि इस बारे में हमारा संविधान क्या कहता है?

संविधान का अनुच्छेद 19 (1) (क) भारत के सभी नागरिकों को वाक-स्वतन्त्रता और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का मूल अधिकार प्रदान करता है| जिसके आधार पर सलमान रुश्दी के पक्ष में दलीलें दी जा रही हैं, उन्हें अपने विचार व्यक्त करने से रोका जा रहा है| इसमें सबसे पहली बात तो यह है कि सलमान रुश्दी भारत का नागरिक ही नहीं है| अत: तकनीकी तौर पर उन्हें यह मूल अधिकार प्राप्त ही नहीं है| जबकि भारत का नागरिक होने के कारण एमएफ हुसैन को उक्त मूल अधिकार प्राप्त था, फिर भी उन्हें भारत छोड़ना पड़ा|

दूसरी और महत्वूपर्ण बात यह है कि इसी अनुच्छेद 19 के भाग (2) में साफ किया गया है कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता अबाध नहीं है| सरकार भारत की प्रभुता और अखण्डता, सुरक्षा, विदेशों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों, लोक व्यवस्था, शिष्टाचार, सदाचार के हितों में और न्यायिक अवमानना, अपराध करने को उकसाना आदि स्थिति निर्मित होने की सम्भावना हो तो अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर जरूरत के अनुसार प्रतिबन्ध भी लगा सकती है|

ये तो हुई अभिव्यक्ति के कानून की बात| निश्‍चय ही यह बात प्रमाणित है कि किसी को भी निर्बाध या अबाध आजादी या स्वतन्त्रता उसे तानाशाह बना देती है| अत: समाज या कानून या संविधान हर बात की सीमा का निर्धारण करता है| इसी बात को ध्यान में रखते हुए देश के दूरदर्शी संविधान निर्माताओं ने बोलने की आजादी देने के साथ-साथ साफ कर दिया कि जहॉं आप दूसरे की अभिव्यक्ति की आजादी में हस्तक्षेप करते हैं, वहीं से आपकी खुद की सीमा शुरू हो जाती है|

इस बात को अनेक बार अदालत ने भी गम्भीरतापूर्वक विचार करके निर्धारित किया है| लोक व्यवस्था के नाम पर सलमान रुश्दी को रोका गया है, जिसके बारे में बिहार राज्य बनाम शैलबाला, एआईआर, 1952 सुप्रीम कोर्ट, पृष्ठ-329 पर सर्वोच्च न्यायालय ने साफ किया है कि संविधान के अनुच्छेद 19 (2) में 'लोक व्यवस्था' पदावलि शब्द के परिणामस्वरूप देश में लोक व्यवस्था के साधारण भंग होने या अपराध करने के लिये उकसाने की सम्भावना के आधार पर भी नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है|

जहॉं पर राज्य सुरक्षा या लोकशान्ति और कानून व्यवस्था का मामला भी साथ में जुड़ा हो वहॉं पर तो स्थिति और भी गम्भीर मानी जानी चाहिये| एमएफ हुसैन और सलमान रुश्दी दोनों के ही मामले में संविधान के उपरोक्त उपबन्ध सरकार को यह अधिकार देते हैं कि सरकार ऐसे लोगों की अभिव्यक्ति की आजादी को छीन ले| सलमान रुश्दी के मामले में तो संविधान में कोई रुकावट है ही नहीं, क्योंकि जैसा कि पूर्व में लिखा गया है कि सलमान रुश्दी भारत का नागरिक ही नहीं है|

लेकिन अनेक अन्तर्राष्ट्रीय ऐसे समझौते तथा कानून हैं, जो अभिव्यक्ति की आजादी को हर देश में संरक्षण देने के लिये सभी सरकारों को निर्देश देते हैं| जिन पर भारत ने भी हस्ताक्षर किये हुए हैं| मानव अधिकारों में बोलने की आजादी को भी शामिल किया गया है| इसलिये सलमान रुश्दी की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को संरक्षण देना भी भारत का अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिमानों के अनुसार अनिवार्य दायित्व है| बशर्ते भारत के संविधान में इसकी स्वीकृति हो| यद्यपि इसके अनुसार भी भारत बाध्य नहीं है|

इन हालातों में भारत सरकार को अपने देश के हालात, देश के संविधान, लोक-व्यवस्था और शान्ति को बनाये रखने को प्राथमिकता देना पहली जरूरत है| इस प्रकार से सलमान रुश्दी को भारत आने से रोकने के निर्णय से किसी भी भारतीय या अन्तर्राष्ट्रीय कानून या समझौते का उल्लंघन नहीं होता है| एमएफ हुसैन के मामले में भी यही स्थिति थी|

हर व्यक्ति को अपनी आजादी के साथ-साथ दूसरों की आजादी का भी खयाल रखना होगा| तब ही संविधान या अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा सम्भव है| अन्यथा हमें जो-जो भी स्वतन्त्रताएँ या मूल अधिकार प्राप्त हैं, उन्हें न्यून या समाप्त करने या उन पर निर्बन्धन लगाने के लिये सरकारों और न्यायालयों के पास अनेक कारण होंगे| जिन्हें गलत ठहरा पाना असम्भव होगा|

इसी प्रकरण में एक अन्य पहलु भी समाहित है, वह यह कि संविधान देश के लोगों को धार्मिक स्वतन्त्रता का भी मूल अधिकार देता है| जिसके अनुसार इस्लाम के अनुयाईयों का कहना है कि उनको सलमान रुश्दी और बांग्लादेश की लेखिका तसलीमा नसरीन जैसे लोगों का और हिन्दुधर्मावलम्बियों का कहना है कि उनको एफएफ हुसैन जैसों का विरोध करने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है| इसलिये भी सरकार को दोनों ही धर्म के लोगों की भावनाओं का खयाल करना होगा|

इस बारे में भारत के संविधान के उपबन्ध किसी भी धर्म के अनुयाईयों का समर्थन नहीं करते हैं| क्योंकि संविधान द्वारा प्रदान की गयी धार्मिक आजादी का अर्थ यह कदापि नहीं है कि हम अपने धर्म की रक्षा के लिये दूसरों के मूल अधिकारों में अतिक्रमण करें| क्योंकि धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार भी अबाध या निर्बाध नहीं है| धर्म की स्वतन्त्रता पर अनेक कारणों से निर्बन्धन लगाये जा सकते हैं| धर्म की स्वतन्त्रता में मूल रूप से अन्त:करण की स्वतन्त्रता है| जिसे संविधान के अनुच्छेद-21 में अतिरिक्त संरक्षण भी प्रदान किया गया है| जिसके अन्तर्गत समुचित विधि या रीति से उपासना, ध्यान, पूजा, अर्चना, प्रार्थना करने या नहीं करने का मूल अधिकार शामिल है|

इसी अधिकार में अपने धर्म को अबाध रूप से मानने, धर्म के अनुसार आचरण करने और अपने धर्म का प्रचार-प्रसार करने का भी सम्पूर्ण अधिकार दिया गया है| जिसके तहत सभी नागरिकों को अपने धर्मानुकूल अनुष्ठान करने या कराने का मूल अधिकार भी है| जिसमें सभी हिन्दुओं को मन्दिरों में प्रवेश करके अपने आराध्य की प्रार्थना और पूजा अर्चना करने का मूल अधिकार है! (जिससे भारत में अधिकतर दलित वर्ग को वंचित किया हुआ है| लेकिन इसके विरुद्ध आवाज उठाने के लिए मीडिया या अन्य लोगों के पास वक्त नहीं है!) इसी प्रकार से सभी मुस्लिमों को मस्जिदों में नमाज अदा करने का हक है| लेकिन इसके तहत किसी भी व्यक्ति विशेष को ये हक नहीं है कि वह किसी विशेष मन्दिर या मस्जिद में जाकर के ही प्रार्थना/पूजा या नमाज अदा करेगा| ऐसा करने से उसे युक्तियुक्त कारणों से सरकार द्वारा रोका जा सकता है|

जहॉं तक धर्म के प्रचार-प्रसार के मूल अधिकार की बात है तो भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक बार, अनेक मामलों में स्पष्ट किया है कि भारत में हर एक धर्म के प्रचार-प्रसार की पूर्ण आजादी है, लेकिन इसका ये अर्थ कदापि नहीं है कि किसी को अपना धर्म बदलने के लिये उकसाया या विवश किया जावे| हॉं ये हक अवश्य है कि दूसरे धर्म के लोगों को धर्म-प्रचारक के धर्म के बारे में उचित रीति से सम्पूर्ण जानकारी दी जाने की पूर्ण आजादी हो| ताकि उसके धर्म की बातों से प्रभावित होकर कोई भी अन्य धर्म का व्यक्ति अपना धर्म बदलना चाहे तो वह अपना धर्म बदल सके| क्योंकि जब तक किसी को दूसरे के धर्म की बातों की अच्छाई के बारे में जानकारी नहीं होगी, तब तक वह अपना धर्म या आस्था बदलने के बारे में निर्णय कैसे ले सकेगा|

लेकिन सलमान रुश्दी के मामले में धार्मिक आजादी का मूल अधिकार मुस्लिम बन्धुओं को किसी भी प्रकार का संवैधानिक या कानूनी हक प्रदान नहीं करता है| क्योंकि जिस प्रकार से किसी भी धर्म के प्रचारक को अपने धर्म की अच्छी बातें बतलाने का संवैधानिक हक है, उसी प्रकार से धर्मनिरपेक्षता के अधिकार के तहत या धर्म की आजादी के मूल अधिकार के तहत भारत में हर व्यक्ति को ये मूल अधिकार भी प्राप्त है कि वह अपने या किसी भी अन्य धर्म की बुराईयों, खामियों के बारे में भी आलोचना या निन्दा कर सके| जिसे अनुच्छेद 19 (1) (क) में भी संरक्षण हैं, लेकिन साथ ही साथ अनुच्छेद 19 (2) के निर्बन्धन यहॉं पर भी लागू होंगे| लेकिन इस प्रकार के निर्बन्धन धार्मिक भावनाओं के संरक्षण के लिये स्पष्ट रूप से उपलब्ध नहीं हैं|