लेखक : इरफान इंजीनियर
साम्प्रदायिक बनाम छद्म धर्मनिरपेक्षता :
भाजपा अपनी हिन्दू राष्ट्रवादी राजनीति की आकर्षक पैकेजिंग करने के लिए, एक बार फिर धर्मनिरपेक्षता को पुनर्परिभाषित करने का प्रयास कर रही है। हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति का आधार है अल्पसंख्यकों – विशेषकर मुसलमानों व ईसाइयों – को बदनाम करना। इन दोनों समुदायों का दानवीकरण, इस उद्देश्य से किया जाता है कि बहुसंख्यक समुदाय का कम से कम एक तबका, इस दुष्प्रचार पर यकीन करने लगे कि अल्पसंख्यक समुदाय उसके लिए बड़ा खतरा है। जाहिर है, कि असल में इस खतरे का कोई अस्तित्व नहीं होता। बहुसंख्यक समुदाय के इन आशंकित और भयग्रस्त लोगों का इस्तेमाल, एकाधिकारवादी व दमनकारी संस्कृति को, राज्य के जरिए, देश पर लादने के लिए किया जा सकता है। यह संस्कृति केवल आर्थिक व सामाजिक उच्च वर्ग को लाभान्वित करती है। हिन्दू राष्ट्रवादी, वर्षों से ईसाइयों व मुसलमानों पर वही घिसेपिटे आरोप लगाते आ रहे हैं। ईसाइयों के बारे में उनका कहना है कि वे लोभ-लालच व भय के जरिए, बड़ी संख्या में हिन्दुओं को ईसाई बना रहे हैं (यह इस तथ्य के बावजूद कि भारत की आबादी में ईसाइयों का प्रतिशत, सन् 1971 के 2.6 से घटकर सन् 2001 में 2.3 रह गया है)। मुसलमानों पर वे आतंकवादी होने का आरोप लगाते हैं (यह ‘स्वामी’ असीमानंद के इकबालिया बयान व ‘साध्वी’ प्रज्ञा सिंह ठाकुर व अन्यों पर आतंकी हमले अंजाम देने के आरोपों के बावजूद)। वे यह भी कहते हैं कि मुसलमानों की भारत के प्रति वफादारी संदिग्ध है, यह कि मुसलमान हमारे पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के प्रति अधिक वफादार हैं व यह कि पाकिस्तान व आईएसआई, भारतीय मुसलमानों का इस्तेमाल, भारत को अस्थिर करने और यहां आतंकी वारदातें करने के लिए करता है। यह भी कहा जाता है कि मुसलमान विघटनकारी हैं, उनमें बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन है, जिसके कारण उनकी आबादी तेजी से बढ़ रही है, यह कि वे पड़ोसी बांग्लादेश व पाकिस्तान से बड़े पैमाने पर भारत में घुसपैठ कर रहे हैं व यह कि मुस्लिम शासकों ने हिन्दू धर्म का नाश करने के लिए हिन्दू मंदिरों को ढहाया था।
अल्पसंख्यकों के दानवीकरण से राज्य को असीमित शक्तियों से लैस करना आसान हो जाता है। राज्य अक्सर इन शक्तियों का बेजा इस्तेमाल करता है और उसके सुरक्षा तंत्र से पारदर्शिता गायब हो जाती है। इससे पूंजीपतियों को श्रमिकों, किसानों, भूमिहीनों, दलितों आदिवासियों, महिलाओं व समाज के अन्य वंचित वर्गों की कीमत पर, प्रोत्साहन देना आसान हो जाता है। राज्य का सुरक्षातंत्र, वंचित वर्गों को आतंकित रखने के काम आता है। आशंकित और भयग्रस्त वंचित वर्ग, ‘राज्य की सुरक्षा’ के नाम पर अपने प्रजातांत्रिक अधिकारों को समर्पित कर देता है – उन अधिकारों को, जिनका इस्तेमाल वह अपने सामूहिक हितों की रक्षा करने के लिए कर सकता था। हिन्दू राष्ट्रवाद का एक लक्ष्य यह भी है कि बहुसंख्यक समुदाय के सदस्यों, विशेषकर निचले तबके को, प्राचीन हिन्दू गौरव के नाम पर जाति-आधारित सामंती गुणानुक्रम व परम्पराओं से चिपके रहने के लिए प्रेरित किया जाए। दरअसल, वे एक एकाधिकारवादी राज्य की स्थापना करना चाहते हैं, जिसमें अल्पसंख्यकों को दबाकर रखा जायेगा। इसे वे ‘सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता’ बताते हैं। दूसरी ओर, भाजपा, कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता को ‘छद्म धर्मनिरपेक्षता’ बताती है और कहती है कि वह ‘अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण’ के अतिरिक्त कुछ नहीं है। अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण के आरोप से भाजपा का मतलब यह है कि कांग्रेस, अल्पसंख्यकों के उतने खिलाफ नहीं है, जितनी कि वह है।
मुस्लिम और ईसाई अल्पसंख्यकों को सुरक्षा देने के मामले में कांग्रेस का रिकार्ड भी कोई बहुत अच्छा नहीं रहा है। आजादी के बाद से अब तक भारत में साम्प्रदायिक दंगों में 40,000 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं, जिनमें से अधिकांश अल्पसंख्यक समुदाय से थे। दंगों के दोषियों को बहुत कम मामलों में सजा मिल सकी है। कांग्रेस के राज में हुए दंगों में शामिल हैं – जबलपुर (1961), अहमदाबाद (1969 व 1984), भिवण्डी (1970 व 1984), नेल्ली (1983), सिक्ख-विरोधी दंगे (1984), भागलपुर (1989), मुरादाबाद व गोधरा (1981), मेरठ (1987) इत्यादि। इसके अतिरिक्त, पंजाब में सिक्खों व मुंबई, हैदराबाद, दिल्ली (बाटला हाउस) व अन्य शहरों में मुसलमानों की फर्जी मुठभेड़ों में हत्या की जाती रही है। इन फर्जी मुठभेड़ों से मीडिया को अल्पसंख्यकों के चेहरे पर कालिख पोतने वाली खबरों का प्रसारण/प्रकाशन करने का मौका मिलता है, जिससे उनकी टीआरपी और बिक्री बढ़ती है। इससे आतंकवाद से मुकाबला करने के नाम पर एएफएसपीए, यूएपीए, टाडा व पोटा जैसे प्रजातंत्र-विरोधी कानून बनाना आसान हो जाता है। इन कानूनों से सुरक्षा एजेन्सियों को ढेर सारे अधिकार मिल जाते हैं और वह भी बिना किसी जवाबदेही के। अल्पसंख्यकों को वे अवसर उपलब्ध नहीं होते जो अन्य नागरिकों को होते हैं। उनके साथ शिक्षा, सरकारी नौकरियों, बैंक से मिलने वाले कर्जो, सरकारी ठेकों आदि के मामलों में किस तरह भेदभाव किया जाता है, इसका सच्चर समिति विशद दस्तावेजीकरण कर चुकी है। सुरक्षाभाव न होने, बैंकों द्वारा कर्ज देने मे आनाकानी करने, सरकारी ठेके व नौकरियां न मिलने व रहवास के इलाकों में अधोसंरचना की कमी के कारण, मुसलमान शैक्षणिक, सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से पिछड़ गये हैं। भाजपा नेतृत्व के एक हिस्से ने भी सच्चर समिति की रपट आने के बाद यह स्वीकार किया कि मुसलमानों के साथ भेदभाव होता रहा है।
अल्पसंख्यकों में व्याप्त सामाजिक व शैक्षणिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए – देरी से ही सही, घोर अपर्याप्त ही सही – कांग्रेस जब भी कोई कदम उठाती है, उसे अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण करने के आरोप से दो चार होना पड़ता है। कांग्रेस पर भाजपा द्वारा एक और संदर्भ अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण करने का आरोप लगाया जाता है। वह यह कि कांग्रेस, अल्पसंख्यकों को उनके पारिवारिक मसलों में पारम्परिक कानून का पालन करते रहने की इजाजत दे रही है। सच यह है कि कांग्रेस ने उच्च जातियों के श्रेष्ठि वर्ग को मुसलमानों की तुलना में कहीं अधिक तरजीह दी है। इस वर्ग के सांस्कृतिक प्रतिमानों को संपूर्ण बहुसंख्यक समुदाय पर लाद दिया गया है। इनमें शामिल हैं परिवार संबंधी नियम, गौवध निषेध व धर्मांतरण-विरोधी कानून। इनमें से कुछ कानूनों का इस्तेमाल अल्पसंख्यकों को डराने-धमकाने के लिए किया जा रहा है। विहिप के सदस्यों ने कुछ पुलिस अधिकारियों के साथ मिलकर ऐसे दल गठित कर लिये हैं जिनका काम है जानवरों के परिवहन के व्यवसाय में रत अल्पसंख्यकों से अवैध वसूली करना। यह वसूली तब भी की जाती है जब वे कोई गैरकानूनी काम नहीं कर रहे होते हैं। वसूली की राशि शनैः-शनैः इतनी बढ़ गई है कि कई मुसलमान इस व्यवसाय से बाहर हो गए हैं और उनका स्थान अन्य समुदायों के व्यक्तियों ने ले लिया है।
कांग्रेस सरकारें, उच्च जातियों के श्रेष्ठि वर्ग की संस्कृति व धार्मिक विश्वासों को, कानून के जरिए, देश के अन्य निवासियों पर लाद रही है। उदाहरण के लिए, पहले सरकार ने बाबरी मस्जिद की भूमि का अधिग्रहण किया और बाद में मस्जिद को गिर जाने दिया। इसके बाद, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बाबरी मस्जिद की भूमि को तीन बराबर भागों में बांट कर तीनों ‘पक्षकारों’ को उनका हिस्सा दे दिया। दो-तिहाई भूमि हिन्दू पक्षकारों को मिल गई जबकि जमीन के मूल मालिक को केवल एक-तिहाई हिस्सा मिला और वह भी जमीन के एक कोने में। अगर जमीन का अधिग्रहण नहीं किया गया होता और मस्जिद गिराई न गई होती तो उच्च न्यायालय इस तरह का निर्णय दे ही नहीं सकता था। कुल मिलाकर, हिन्दू राष्ट्रवादी, समाज के उस तबके, जो उच्च जाति के श्रेष्ठि वर्ग का हिस्सा नहीं है, की विविधवर्णी संस्कृति को नष्ट कर देना चाहता है और यह सुनिश्चित करना चाहता है कि राजनीति में केवल उच्च जातियों की संस्कृति का बोलबाला रहे। कांग्रेस, अल्पसंख्यकों की संस्कृति को थोड़ी अधिक तरजीह देती है और राजनैतिक रणनीति के तहत उनके प्रति कुछ नर्म रहती है। भाजपा द्वारा कांग्रेस पर छद्म धर्मनिरपेक्षता (या अल्पसंख्यक तुष्टिकरण) की नीति अपनाने का आरोप व कांग्रेस का उसे साम्प्रदायिक पार्टी बताना, इसी संघर्ष को प्रतिबिम्बित करते हैं।
भारत पहले :
नरेन्द्र मोदी, जो कि स्वयं को एक राष्ट्रीय नेता और प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बतौर प्रस्तुत कर रहे हैं, ने धर्मनिरपेक्षता की एक नई परिभाषा दी है-इण्डिया फर्स्ट। रपटों के अनुसार, उन्होंने धर्मनिरपेक्षता को ‘परिभाषित’ करते हुए कहा कि ‘‘भारत की भलाई के अलावा, हमारा कोई लक्ष्य नहीं होना चाहिए और जब ऐसा हो जाएगा, तो धर्मनिरपेक्षता स्वमेव हमारी रगों में बहने लगेगी’’। इस परिभाषा से कई प्रश्न उपजते हैं। पहली बात तो यह है कि ‘भारत की भलाई’ किस में है? यदि कार्पोरेट सेक्टर देश के संसाधनों पर कब्जा कर अटूट मुनाफा कमाए, तो क्या यह देश की भलाई है? क्या ऐसी ‘प्रगति,’ जो गरीबों को न तो रोजगार दे और न सुरक्षित भविष्य, देश की भलाई है? क्या ‘स्टेण्डर्ड एण्ड पुअर’ द्वारा भारत को बेहतर रेटिंग दी जाना देश की भलाई है? क्या जीडीपी में बढ़ोत्तरी को हम देश की प्रगति का सूचक मान सकते हैं? क्या उदारीकरण, निजीकरण व वैश्वीकरण के कारण, देश में अस्थाई तौर पर, ढेर सारे जोखिमों के साथ, विदेशी पूंजी आना, देश की भलाई है? या फिर देश की भलाई इसमें है कि प्रगति ऐसी हो, जिसका लाभ गरीब से गरीब व्यक्ति तक पहुंचे, विकास स्थाई हो और वंचित वर्गों के जीवनस्तर को बेहतर बनाया जाए। यद्यपि मोदी इन प्रश्नों का उत्तर नहीं देते परन्तु उनकी प्राथमिकताएं इतनी स्पष्ट हैं कि उनके उत्तर क्या होंगे, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। शायद मोदी ‘इण्डिया फर्स्ट’ के नारे के जरिए यह कहना चाहते हैं कि ‘‘सब से गरीब फर्स्ट नहीं, जिसके साथ भेदभाव होता हो, वह फर्स्ट नहीं, पिछड़े क्षेत्र फर्स्ट नहीं, सामाजिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग फर्स्ट नहीं, आर्थिक प्रगति के विस्थापित फर्स्ट नहीं, कमजोर, फर्स्ट नहीं’’। क्योंकि अगर इन वर्गों को प्राथमिकता दी जाती है, फर्स्ट रखा जाता है, तो ‘स्टेण्डर्ड एण्ड पुअर’, भारत की रेटिंग को नहीं बढ़ायेगा और ना ही जल्दी से जल्दी ढेर सारा मुनाफा कमाने के लिए कुछ भी करने को तत्पर विदेशी धनकुबेर, भारत में पूंजी निवेश करेंगे।
भाजपा की ‘सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता’ :
धर्मनिरपेक्षता से क्या आशय है, इस विषय पर बहस जारी है और हर देश, धर्मनिरपेक्षता के अपने अपने संस्करण को लागू कर रहा है। परन्तु धर्मनिरपेक्षता पर कोई स्कूली पाठ्यपुस्तक पढ़ने से भी यह साफ हो जायेगा कि धर्मनिरपेक्षता की सभी परिभाषाओं में कुछ बातें समान हैं। जैसे, राज्य धार्मिक संस्थाओं, धर्मग्रन्थों व धार्मिक शिक्षा से दूरी बनाए रखेगा और किसी धार्मिक गतिविधि पर अपने संसाधन खर्च नहीं करेगा। परन्तु भाजपा की केन्द्र व राज्य सरकारों के कार्यकलापों से यह साफ है कि भाजपा, धर्मनिरपेक्षता की इस न्यूनतम परिभाषा को भी स्वीकार नहीं करती। जब भाजपा केन्द्र में सत्ता में थी, तब तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने वैदिक ज्योतिष विज्ञान, कर्मकाण्ड और योग चेतना आदि को उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनाने का प्रस्ताव किया था। क्या अब भारत के विश्वविद्यालयों से हिन्दू पंडित पढ़कर निकलेंगे? अगर आप वेद पढ़ाते हैं तो आप सकारात्मक धर्मनिरपेक्षतावादी हैं। परन्तु यदि आप कुरान या बाईबिल पढ़ाते हैं तो आप छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी हैं। मध्यप्रदेश सरकार ने स्कूलों में गीता की पढ़ाई शुरू की है और वह सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों पर सभी धार्मिक समुदायों के बच्चों को योग व सूर्यनमस्कार सिखाने और सरस्वती वंदना का गायन करवाने के लिए दबाव डाल रही है। राज्य भाजपा सरकार ने एक योजना शुरू की है जिसके अन्तर्गत वरिष्ठ नागरिकों को सरकारी खर्च पर भारत के विभिन्न तीर्थस्थलों की यात्रा करवाई जाती है। एकाध को छोड़कर, ये सभी तीर्थस्थल हिन्दू हैं इसलिए कोई मुस्लिम बुजुर्ग शायद ही इस योजना का लाभ उठायेगा। अगर हज यात्रियों को अनुदान दिया जाता है तो यह अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण है परन्तु यदि सरकारी खर्च पर हिन्दुओं को उनके तीर्थस्थलों की यात्रा करवाई जाती है तो यह सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता है? हम हाजियों को दिये जाने वाले अनुदान की निंदा करते हैं। और उतनी ही निंदा हम राज्य द्वारा किसी भी व्यक्ति की धार्मिक आस्थाओं पर किये जाने वाले खर्च की भी करते हैं।
भाजपा की यह मांग रही है कि देश में ऐसे कानून बनाए जाएं जिनसे धर्मांतरण पर राज्य का नियंत्रण स्थापित हो सके। परंतु इसके साथ ही, हिन्दू राष्ट्रवादी कंधमाल जिले में ईसाईयों को जबरदस्ती हिन्दू बना रहे हैं। सन् 2007-08 की ईसाई-विरोधी हिंसा के पीड़ितों को राहत शिविरों में रहने पर मजबूर थे। वे न तो अपने गांव लौट सकते थे, न अपनी जमीन पर खेती कर सकते थे और ना अपने मकानों का पुनर्निमाण कर सकते थे, जब तक कि वे हिन्दू बनने के लिए राजी न हो जाएं। उनपर कड़ी शर्तें लागू की गईं थीं। उन्हें अपने सिर मुंडवाने होते थे, पूर्व में ईसाई धर्म का पालन करने के लिए भारी जुर्माना चुकाना पड़ता था और यह वायदा करना होता था कि यदि ‘गांव‘ ईसाईयों पर हमला करने का निर्णय करेगा तो वे हमलावरों में शामिल होंगे। जहां किसी भी अन्य धर्म से जबरदस्ती हिन्दू बनाने को ‘घरवापसी‘ कहा जाता है वहीं अपनी इच्छा से ईसाई या मुसलमान बनने वाले व्यक्ति के बारे में यह आरोप लगाया जाता है कि उसका धर्मपरिवर्तन लालच देकर या डरा-धमकाकर कराया गया है। हिन्दू धर्म त्यागकर इस्लाम या ईसाई धर्म अपनाने की हर घटना का का विरोध होता है। ऐसे अधिकांश लोग हिन्दू धर्म की दमनकारी जाति व्यवस्था के शिकार होते हैं और उन्हें यह उम्मीद होती है कि उनके नए धर्म में उन्हें गरिमा और बराबरी का दर्जा प्राप्त होगा। स्वैच्छिक धर्मांतरण के अन्य कारण भी हैं जिन पर हम यहां चर्चा नहीं करना चाहेंगे। भाजपा शासनकाल में राजस्थान की सरकार ने एक कानून बनाया, जिसमें यह प्रावधान था कि अपने पूर्वजों के धर्म (अर्थात हिन्दू) को अपनाने को धर्मांतरण नहीं माना जाएगा। मोदी राज में गुजरात विधानसभा ने राज्य के धर्मांतरण-विरोधी कानून को संशोधित करते हुए एक विधेयक पारित किया, जिसके अनुसार सिक्ख, बौद्ध, जैन और हिन्दू धर्म में आपसी धर्मांतरण का कोई नियमन नहीं किया जाएगा क्योंकि सिक्ख, बौद्ध और जैन अलग धर्म नहीं है वरन् हिन्दू धर्म के पंथ हैं। गुजरात और राजस्थान दोनों सरकारों द्वारा पारित बिलों को वहां के राज्यपालों ने स्वीकृति नहीं दी और उन्हें राष्ट्रपति को अग्रेषित कर दिया। ‘इंडिया फर्स्ट ‘ ब्रांड की धर्मनिरपेक्षता का अर्थ यह है कि ईसाईयों को जबरदस्ती हिन्दू बनाया जा सकता है परंतु दलितों को ईसाई धर्म या इस्लाम अपनाने का अधिकार नहीं है। व यह भी कि नागरिकों को उनकी पसंद का धर्म मानने की स्वतंत्रता देना, अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण और राष्ट्र-विरोधी गतिविधि है।
देश में गौवध निषेध कानून कड़े, और कड़े बनते जा रहे हैं और भाजपा-शासित प्रदेशों में उनका इस्तेमाल, अल्पसंख्यकों का दमन करने के लिए हो रहा है। मध्यप्रदेश सरकार ने गौवध निषेध कानून में परिवर्तन कर, अपराधियो को सात वर्ष तक के कारावास से दंडित किए जाने का प्रावधान कर दिया है और स्वयं को निर्दोष साबित करने की जिम्मेदारी आरोपी पर डाल दी गई है। इस तरह के अपराधों में अब जमानत नहीं मिलेगी। पुलिस को यदि संदेह हो कि किसी घर में गौमांस पकाया जा रहा है तो वह रसोईघर में घुसकर बर्तन, खाना पकाने व उसे संग्रहित करने (अर्थात रेफ्रिजेटर इत्यादि) के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले उपकरण आदि जब्त कर सकेगी। यह कानून भेदभावपूर्ण और अल्पसंख्यक-विरोधी है। इसका इस्तेमाल अल्पसंख्यकों का दमन करने के लिए किया जा रहा है। गौवध निषेध कानून का केवल एक आधार है-उच्च हिन्दू जातियों की धार्मिक आस्था। आखिर राज्य को क्या अधिकार है कि वह यह तय करे कि देश के नागरिक क्या खाएं और क्या नहीं? और यहां तक कि उनके रसोईघरों में घुसकर, धर्म-आधारित विचारधारा को जबरदस्ती उन पर लादे। इसी तर्ज पर जैनी यह मांग कर सकते हैं कि सरकार को प्याज और लहसुन पर प्रतिबंध लगाना चाहिए और मुस्लिम यह कह सकते हैं कि देश में सुअर का मांस नहीं बिकना चाहिए।
अगर जैनियों और मुसलमानों के धार्मिक विश्वासों को नागरिकों के खानपान पर नियंत्रण का आधार नहीं बनाया जाता तो फिर उच्च जातियों के हिन्दुओं की धार्मिक आस्थाओं को अन्य नागरिकों पर क्यों लादा जाना चाहिए? क्या यह इंडिया फर्स्ट है या उच्च जातियां फर्स्ट?
नैतिक पुलिस
हिन्दू राष्ट्रवादियों ने एम एफ हुसैन की चित्र प्रदर्शनियों में इस आधार पर तोड़फोड़ की कि वे नागरिकों की धार्मिक भावनाओं को आहत करती थीं। हिंसा और मुकदमेबाजी से परेशान हो हुसैन अंततः देश छोड़कर चले गए। इसी तरह, वाराणसी में ‘वाटर‘ फिल्म की शूटिंग नहीं होने दी गई। बाल ठाकरे ने फिल्म निर्माताओं को अपनी फिल्मों के कई उन हिस्सों को हटाने पर मजबूर किया जिनसे उनके या उनकी पार्टी के हित प्रभावित हो रहे थे। यह इस तथ्य के बावजूद कि फिल्म सेंसर बोर्ड ने इन हिस्सों को अपनी स्वीकृति दी थी। हिन्दू राष्ट्रवादियों ने महिलाओं पर ड्रेस कोड लादने की कोशिश की। वे वेलेन्टाइन डे का विरोध करते हैं, पबों में महिलाओं के साथ मारपीट करते हैं और युवा लड़के-लड़कियों की पार्टियो में बाधा डालते हैं।
इस सिलसिले में हम अन्य कई मुद्दों पर चर्चा कर सकते हैं, जिनमें शामिल हैं समान नागरिक संहिता के नाम पर उच्च जातियों के पारिवार-संबंधी नियमों को लादने की कोशिश। स्थान की कमी के कारण हम इन मुद्दों पर चर्चा नहीं कर रहे हैं। इंडिया फर्स्ट, असल में राजनैतिक सत्ता पाने की सीढ़ी है और पितृसत्तातमक, सामंती व ऊँचनीच को उचित ठहराने वाली उच्च जातियों की संस्कृति को अन्य भारतीयों पर लादने की कोशिश-उन भारतीयों पर जिनकी समृद्ध और विविधवर्णी सांस्कृतिक परंपराएं हैं। भारतीयों को अपनी विविधताओं के बावजूद सद्भाव के साथ रहना अच्छी तरह आता है और इस परंपरा को समाप्त करने की किसी भी कोशिश की केवल निंदा ही की जा सकती है। (मूल अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)
लेखक : इरफान इंजीनियर, लेखक इंस्टीट्यूट फॉर स्टडीज़ एण्ड कंफ्लिक्ट रिसॉल्यूशन (Institute for Peace Studies & Conflict Resolution) के निदेशक हैं। स्त्रोत : हस्तक्षेप में दिनांक : 04/08/2013 को प्रकाशित।
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