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Friday, April 5, 2013

राजस्थान को गुजरात बनाने से रोक पाना मुश्किल होगा।


डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

राजस्थान शुरू से ही शान्ति, सौहार्द, सांस्कृतिक मिठास और मेहमान नवाजी के लिये जाना जाता रहा है, लेकिन पिछले दो दशकों से राजस्थान में ऐसे तत्वों का दबदबा बढा है, जो यहॉं की शान्ति और सौहार्द को तहस-नहस करने पर तुले हुए हैं। इनका एकमात्र लक्ष्य है किसी भी प्रकार से सत्ता पर काबिज होना। ये जब-जब सत्ता में होते हैं या सत्ता के करीब होते हैं, लोगों को लड़ाने के लिये षड़यंत्रों की संरचना करते हैं और प्रायोजित तरीके से ऐसी घटनाओं को अंजाम देते हैं, जिससे लोगों में जातिगत या साम्प्रदायिक घृणा इस सीमा तक बढ जाये कि उनके बीच के संघर्ष को रोका नहीं जा सके और प्रशासन के लिये कानून और व्यवस्था बनाये रखना असम्भव हो जाये।

पिछले दो दिनों में राजस्थान का राजनैतिक माहौल तो गर्मा ही रहा है, लेकिन साथ ही साथ राज्य के साम्प्रदायिक माहौल को बिगाड़ने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी जा रही है। नागौर जिले के मकराना कस्बे में 3 अप्रेल की घटना और राजधानी जयपुर के सांगानेर में 4 अप्रेल की घटनाएँ (साम्प्रदायिक) इसी बात का संकेत हैं। यदि सरकार और प्रशासन ने हालातों को तत्काल समझकर, नियंत्रित नहीं किया तो आने वाले बीस-पच्चीस दिनों की राजनैतिक सरगर्मियों के बीच राज्य के साम्प्रदायिक माहौल को बिगड़ने से रोक पाना असम्भव हो जायेगा।

राज्य के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की सबसे बड़ी समस्या ये है कि उन्हें जनता के दु:खदर्द और जनता की दैनिक समस्याओं की असली कारक-भ्रष्ट नौकीशाही के खिलाफ कठोर कार्रवाई करने से डर लगता है। जबकि जनता नौकरशाही और विशेषकर ब्यूरोक्रेसी की मनमानियों से बुरी तरह से त्रस्त है। केवल जनता ही नहीं, बल्कि सत्ताधारी पार्टी के विधायक, जनप्रतिनिधि और पार्टी कार्यकर्ता भी अफसरशाही की मनमानियों  से अत्यधिक व्यथित हैं, लेकिन मुख्यमंत्री गहलोत को अफसरों के खिलाफ कुछ भी सुनना पसन्द नहीं है।

ऐसे हालात में सरकार के विरुद्ध जनता के दिल में स्वाभाविक रूप से गुस्सा उबल रहा है, जिसका फायदा उठाने के लिये सत्ताधारी पार्टी के राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते हैं। आजकल राजनीति इसी स्तर पर काम करने लगी है। दूसरी सबसे बड़ी बात ये भी है कि विरोधियों के पास कोई बड़ा और सार्थक राजनैतिक मुद्दा भी नहीं है। क्योंकि गहलोत के वर्तमान कार्यकाल के दौरान डॉ किरोड़ी लाल मीणा की राजनीतक महत्वाकांक्षाओं के चलते गुर्जरों और मीणाओं का टकराव, आपसी सौहार्द में बदल गया है। राज्य में हिन्दू-मुसलमानों के बीच भी कोई बड़ी झड़प नहीं हुई। हॉं सवर्णों द्वारा दलितों का लगातार अपमान करते रहने और दलितों तथा आदिवासियों पर अत्याचार की घटनाएँ अवश्य राज्य में बदस्तूर जारी हैं, जिनको लेकर यहॉं का सवर्ण मीडिया चुप रहता है। जिसके चलते दोनों बड़ी पार्टियों की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता है, क्योंकि ले-देकर दलितों तथा आदिवासियों को अन्तत: इन्हीं दोनों पार्टियों की शरण में आना मजबूरी रहा है।

ऐसे हालातों में राज्य में पिछले दो दिनों की घटनाएँ इस बात का साफ संकेत देती हैं कि कुछ तत्व इस प्रकार के प्रयास कर सकते हैं कि राज्य को धर्म के नाम पर गुजरात की तरह से आग में झोंक दिया जाये। जिससे सरकार के प्रति जनता में और अधिक रोष व्याप्त हो जाये और हालात सरकार के नियंत्रण से बाहर हो जायें। जिसका लाभ आगामी विधानसभा और लोकसभा चुनावों के दौरान उठाया जा सके। 

अफसरशाही के प्रति मुख्यमंत्री गहलोत का अटूट प्रेम और अफसरों की लगातार मनमानी दो ऐसे कारण हैं, जो हर आम-ओ-खास को सरकार एवं सत्ताधारी पार्टी के विरुद्ध आवाज उठाने का पर्याप्त कारण प्रदान करते हैं।

मुख्यमंत्री गहलोत के दरबार में जनसुनवाई के लिये जो लोग दूरदराज से जैसे-तैसे जयपुर तक का कठिन  सफर करके पहुँचते हैं, उनके मामलों में मुख्यमंत्री के विशेषाधिकारी की ओर से सम्बंधित अफसर को पत्र लिखकर मामले को समाप्त मान लिया जाता है। जिसका दुष्परिणाम ये हो रहा है कि मुख्यमंत्री के विशेषाधिकारी की ओर से लिखे जाने वाले पत्रों पर कार्रवाई होना तो दूर 90 फीसदी पत्रों का तो निर्धारित समय में मुख्यमंत्री के विशेषाधिकारी को जवाब तक नहीं मिलता है। मुख्यमंत्री के विशेषाधिकारी की ओर से ऐसे मामलों में निगरानी की कोई ऐसी कारगर व्यवस्था नहीं है, जिससे उनको ये ज्ञात हो सके कि जो लोग जनसुनवाई में मुख्यमंत्री के समक्ष उपस्थित हुए, अन्तत: उनको न्याय मिला या नहीं!

अपने विभागीय सचिव, मंत्रियों की नहीं सुनते हैं। आईएएस सीधे मुख्यमंत्री के मुंह लगे हुए हैं। मंत्री पांच वर्ष तक पद और आधी-अधूरी पावर का आनन्द उठा रहे हैं। मीडिया बिका हुआ है। इसके उपरान्त भी सरकार चल रही है और आश्‍चर्यजनक रूप से फिर से सत्ता में आने के सपने भी देख रही है। यदि इन हालातों में भी सरकार फिर से सत्ता में आती है, क्योंकि अनेक विश्‍लेषक ऐसा मानते भी हैं, तो इसके लिये सरकार की उपलब्धियॉं नहीं, बल्कि मुख्य प्रतिपक्ष जिम्मेदार होगा। जो वर्तमान सरकार की तुलना में पूरी तरह से अपनी साख खो चुका है। इस बात का प्रतिपक्ष को भी बखूबी अहसास है। इसी लिए राज्य के शांत माहौल को गर्माने के लिए हर हथकंडे को अपनाने में कोई भी पीछे नहीं है!

दूसरी इसी कमजोरी का राजनैतिक लाभ उठाने के लिये आगामी विधानसभा चुनावों के दौरान राज्य में तीसरी ताकत के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिये मुलायम सिंह, मायावती और डॉ. किरोड़ी लाल मीणा बेताब हैं। यह अलग बात है कि ये तीनों ही कोई बड़ी सफलता अर्जित कर पायेंगे, इसमें जनता को अभी तक सन्देश है।

ऐसे हालातों में सत्तालोलुप दुराचारियों की ओर से वर्तमान सरकार को सत्ता से येनकेन बेदखल करने और इसके लिए सौहार्दप्रिय राजस्थानियों के बीच साम्प्रदायिक वैमनस्यता बढाने के सुनियोजिक प्रयास शुरू हो चुके हैं। अन्यथा फेसबुक पर की गयी टिप्पणी के मामले में पुलिस द्वारा कानूनी कार्रवाई हेतु मामला दर्ज कर लिए जाने के बाद भी, नागौर के मकराना कसबे में दोषी के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई करने की मांग को लेकर समुदाय विशेष के लोगों का सड़क पर हुडदंग मचाने का क्या कारण हो सकता है? इसी प्रकार से जयपुर के सांगानेर क्षेत्र में बाइक खड़ी करने के मामूली से विवाद को लेकर दो समुदायों का आमने-सामने आ जाना और मामले को इतना तूल दे देना कि जयपुर के पुलिस आयुक्त सहित दो दर्जन पुलिस वालों घायल हो जाना, किस बात का संकेत है?

यदि राजस्थान सरकार और सरकार के मुखिया अशोक गहलोत की आँख-नाक-कान के रूप में काम करने वाली अफसरशाही अभी भी पिछले चार साल की तरह ही सोती रही और मनमानी करती रही तो 2013 में राजस्थान को गुजरात बनाने रोक पाना मुश्किल होगा।

Thursday, October 11, 2012

भ्रष्टाचार के खिलाफ मु:ह बंद रखें!

देशभक्त, जागरूक और सतर्क लोगों को इस बात पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना होगा कि भ्रष्ट जन राजनेताओं से कहीं अधिक भ्रष्ट, देश की अफसरशाही है और पूर्व अफसर से राजनेता बने जन प्रतिनिधि उनसे भी अधिक भ्रष्ट और खतरनाक होते हैं। इन्हें किस प्रकार से रोका जावे, इस बारे में गहन चिंतन करने की सख्त जरूरत है, क्योंकि ऐसे पूर्व भ्रष्ट अफसरों को संसद और विधानसभाओं में भेजकर देश की जनता खुद अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रही है!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

10 अक्टूबर को नयी दिल्ली में सीबीआई और भ्रष्टाचार निरोधी ब्यूरो का 19वां सम्मेलन आयोजित किया गया।जिसमें मूल रूप से जवाबदेही (लेकिन किसकी ये ज्ञात नहीं) और पारदर्शिता (किसके लिये) तय करने के लिये भ्रष्टाचार निरोधक कानून में बदलाव करने पर कथित रूप से विचार किया गया। लेकिन आश्‍चर्यजनक रूप से सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए देश के प्रधानमन्त्री ने कहा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ अधिक चिल्लाचोट करना ठीक नहीं है! उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों द्वारा आवाज उठाना एक प्रकार से भ्रष्टाचार का दुष्प्रचार करना है, जिससे देश के अफसरों का मनोबल गिरता है और विश्‍व के समक्ष देश की छवि खराब होती है। इसलिये उन्होंने उन लोगों को जो भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाते रहते हैं को एक प्रकार से अपना मुंह बन्द रखने को की सलाह दी है। दूसरी ओर प्रधानमन्त्री ने माना है कि देश की आर्थिक तरक्की के साथ-साथ देश में भ्रष्टाचार भी तेजी से बढा है! वहीं उन्होंने अन्य कुछ बातों के अलावा इस बात पर गहरी चिन्ता व्यक्त की, कि ईमानदार अफसरों और कर्मचारियों को बेवजह भ्रष्ट कहकर बदनाम किया जा रहा है, जो ठीक नहीं है, क्योंकि इससे उनका मनोबल गिरता है! उन्होंने माना कि भ्रष्टाचार के अधिकतर बड़े मामले कारोबारी कम्पनियों से सम्बन्धित हैं। (जबकि इन कम्पनियों को खुद प्रधानमन्त्री ही आमन्त्रित करते रहे हैं!) जिन्हें रोकने और दोषियों को सजा देने के लिये नये तरीके ढूँढने और नये कानून बनाने की जरूरत है| प्रधानमन्त्री ने भ्रष्टाचार को रोकने के लिये सख्त रवैया अपनाये जाने की औपचारिकता को भी दोहराया।

प्रधानमन्त्री का उपरोक्त बयान इस बात को साफ लफ्जों में इंगित करता है कि उनको भ्रष्टाचार या भ्रष्टाचार से बेहाल देशवासियों की नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार के कारण संसार के समक्ष देश के बदनाम होने की और देश के अफसरों को परेशान किये जाने की सर्वाधिक चिन्ता है। सच में देखा जाये तो ये बयान भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश के प्रधानमन्त्री का कम और एक अफसर या एक रूढिवादी परिवार के मुखिया का अधिक प्रतीत होता है। वैसे भी इन दोनों बातों में कोई विशेष अन्तर नहीं है, क्योंकि भारत की अफसरशाही देश का वो चालाक वर्ग है, जो शासन चलाने में सर्वाधिक रूढिवादी है। अफसर कतई भी नहीं चाहते कि देश में अंग्रेजी शासन प्रणाली की शोषणकारी रूढियों को बदलकर लोक-कल्याणकारी नीतियों को लागू किया जावे।

डॉ. मनमोहन सिंह का उपरोक्त बयान इस बात को प्रमाणित करता है कि वे एक अफसर पहले हैं और एक लोकतान्त्रिक देश के प्रमुख बाद में, इसलिये देश के लोगों द्वारा उनसे इससे अधिक उम्मीद भी नहीं करनी चाहिये! वे तकनीकी रूप से भारत के प्रधानमन्त्री जरूर हैं, लेकिन जननेता नहीं, राष्ट्रनेता या लोकप्रिय नेता नहीं, बल्कि ऐसे नेता हैं, जिन्हें देश की जनता के हितों का संरक्षण करने के लिये नहीं, बल्कि राजनैतिक हितों का संरक्षण करने के लिये; इस पद पर बिठाया गया है। जो एक जननेता की भांति नहीं, बल्कि एक अफसर और एक सीईओ (मुख्य कार्यकारी अधिकारी) की भांति देश को चलाते हुए अधिक प्रतीत होते रहे हैं।

इस बारे में, एक पुरानी घटना का जिक्र करना जरूरी समझता हूँ, जब मैं रेलवे में सेवारत था। एक काम को एक अधिकारी द्वारा इस कारण से दबाया जा रहा है, क्योंकि उन्हें बिना रिश्‍वत के किसी का काम करने की आदत ही नहीं थी! जब मुझे इस बात का ज्ञान हुआ, तो मैंने उससे सम्पर्क किया। उसने परोक्ष रूप से मुझसे रिश्‍वत की मांग कर डाली। मैंने रिश्वत की राशि एकत्र करने के लिये उससे कुछ समय मांगा और मैंने इस समय में रिश्‍वत नहीं देकर; उस भ्रष्टाचारी के काले कारनामों के बारे में पूरी तहकीकात करके, अनेक प्रकरणों में उसके द्वारा अनियमितता, भेदभाव और मनमानी बरतने और रिश्‍वत लेकर अनेक लोगों को नियमों के खिलाफ लाभ पहुँचाने के सबूत जुटा लिये और इस बात की विभाग प्रमुख को लिखित में जानकारी दी। इस जानकारी को सूत्रों के हवाले से स्थानीय दैनिक ने भी खबर बनाकर प्रकाशित कर दिया।

विभाग प्रमुख की ओर से भ्रष्टाचारी के खिलाफ कानूनी कार्यवाही करने के बजाय, मुझसे लिखित में स्पष्टीकरण मांगा गया कि मैंने लिखित में आरोप लगाकर और एक रेलकर्मी को बदनाम करने की शिकायत करके, रेलवे की छवि को नुकसान पहुँचाने का कार्य किया है। जिसके लिये मुझसे कारण पूछा गया कि क्यों ना मेरे विरुद्ध सख्त अनुशासनिक कार्यवाही की जावे? खैर...इस मामले को तो मैंने अपने तरीके से निपटा दिया, लेकिन इस देश के प्रधानमन्त्री आज इसी सोच के साथ काम कर रहे हैं कि भ्रष्टाचारियों के मामले में आवाज उठाने से देश की छवि खराब हो रही है और अफसरों का मनोबल गिर रहा है।

एक अफसर की सोच के साथ-साथ प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह का बयान एक रूढिवादी परिवार प्रमुख का बयान भी लगता है, हमें इसे भी समझना होगा। भारत में 90 फीसदी से अधिक मामलों में स्त्रियों के साथ घटित होने वाली छेड़छाड़ और यौन उत्पीड़न की घटनाओं को रूढिवादी परिवारों में यही कहकर दबा दिया जाता है कि ऐसा करने से परिवार की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचेगा और परिवार के साथ-साथ ऐसी स्त्री की छवि को नुकसान होगा। शासन चलाने में अंग्रेजों की दैन इसी शोषणकारी रूढिवादी व्यवस्था और जनता को अपनी गुलाम बनाये रखने की रुग्ण अफसरी प्रवृत्ति का निर्वाह करते हए प्रधानमन्त्री देशवासियों को सन्देश देना चाह रहे हैं कि भ्रष्ट अफसरों और भ्रष्ट व्यवस्था के बारे में बातें करने और आवाज उठाने से अफसरों की छवि खराब होती है और विदेशों में देश की प्रतिष्ठा दाव पर लगती है। जिसका सीधा और साफ मतलब यही है कि प्रधानमन्त्री आज भी देशवासियों के लिये कम और भ्रष्ट अफसरशाही के लिये अधिक चिन्तित हैं।

यह इस देश का दुर्भाग्य है कि भ्रष्टाचार के जरिये अनाप-शनाप दौलत कमाने वाने पूर्व अफसरों की संख्या दिनोंदिन राजनीति में बढती जा रही है और ऐसे में आने वाला समय पूरी तरह से भ्रष्ट अफसरशाही के लिये अधिक मुफीद सिद्ध होना है। ऐसे जननेता जनता को कम और लोकसेवक से लोकस्वामी बन बैठे अफसरों के हित में काम करके अधिक से अधिक माल कमाने और देश को अपनी बपौती समझने वाले होते हैं।

ऐसे हालात में देशभक्त, जागरूक और सतर्क लोगों को इस बात पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना होगा कि भ्रष्ट जन राजनेताओं से कहीं अधिक भ्रष्ट, देश की अफसरशाही है और पूर्व अफसर से राजनेता बने जन प्रतिनिधि उनसे भी अधिक भ्रष्ट और खतरनाक होते हैं। इन्हें किस प्रकार से रोका जावे, इस बारे में गहन चिंतन करने की सख्त जरूरत है, क्योंकि ऐसे पूर्व भ्रष्ट अफसरों को संसद और विधानसभाओं में भेजकर देश की जनता खुद अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रही है!