क्यों गुवाहाटी मामले में पूरा राष्ट्र शर्म से मरा जा रहा है?
गुवाहाटी प्रकरण राष्ट्रीय शर्म का नहीं, राष्ट्रीय आक्रोश का विषय होना चाहिए
♦ नवोदिता
गुवाहाटी की शर्मनाक घटना आज चर्चा के केंद्र में है। सरेआम छेड़छाड़ और बदतमीजी के दोषियों को सजा दिलाने के बहाने एक बार फिर औरतों के खिलाफ अपराधों पर व्यापक बहस छिड़ गयी है। लोग राय दे रहे हैं कि ऐसी घटनाएं संभव ही न हों, इसलिए कठोर कानून बनाये जाने चाहिए। लोग यह भी कहने से नहीं चूक रहे कि जैसे अरब देशों में इसके लिए मौत की सजा है, वही यहां होना चाहिए, ताकि अपराध करने वालों में ऐसा खौफ बैठ जाए कि वह अपराध करने की हिम्मत ही न कर सके। किसी के इरादों पर संदेह नहीं है। सब चाहते हैं कि ये अपराध रुके। रुकना चाहिए। मगर तरीका क्या हो, इस पर बात करने और बहस करने की जरूरत है।
मामला सिर्फ कानून को कठोर बनाने से हल हो जाएगा, ऐसा सोचना भोलापन है। हमारे देश में हत्या के लिए आज भी मौत की सजा का कानून है–तो क्या इससे हत्याएं होना रुक गयीं? बात सिर्फ कानून की होती, तो सब बहुत आसान होता। लेकिन अपराध का सामाजिक-राजनीतिक पहलू ज्यादा महत्वपूर्ण है, जिसे अनदेखा करना भारी पड़ सकता है।
स्त्री के साथ दुराचार, छेड़छाड़ (इसके लिए हिंसा शब्द का प्रयोग जानबूझ कर नहीं किया जा रहा) जो करता है, वह तो दोषी है ही, लेकिन हम सभी उस अपराध को और उसके शिकार को हद दर्जे की नीची नजर से देखते हैं। किसी लड़की के साथ सड़क चलते छेड़छाड़ हो गयी, यह तो राष्ट्रीय शर्म की बात है … जब पूरे राष्ट्र को शर्म आ रही है तो भला लड़की को शर्म और लज्जा का अनुभव क्यों नहीं करना चाहिए। यह शर्म क्या है? सारे गंभीर अपराधों से अलग एक श्रेणी है, स्त्री की शर्म-लज्जा–इज्जत खराब करने वाले अपराधों की।
स्त्री के खिलाफ हमारा मानसिक आचरण, व्यवहार इस हद तक दूषित हो जाता है कि अगर उस स्त्री की क्रूर तरीके से हत्या कर दी जाती तो यह जघन्य अपराध भले होता पर राष्ट्रीय शर्म की बात तो नहीं ही होती। ऐसी हत्याएं तो रोज ही होती हैं। इन पर कोई चैनल अपना कीमती वक्त कभी खराब नहीं करता। इन मसलों पर कभी पुलिस, पत्रकार, महिला विषयक एनजीओ की खुली चर्चाएं नहीं होतीं। इसका क्या अर्थ है? यही न कि स्त्री का शील खराब करने वाला सिर्फ वही अपराधी ही नहीं होता, इस पूरे प्रकरण में समाज उस अपराधी के पाले में खड़े होकर ही बात करता है। अपराधी ये अपराध उस स्त्री को समाज में नीचा दिखाने के लिए, उसे सामाजिक बेइज्जती का शिकार बनाने के लिए करता है, ताकि वह समाज में सर उठा कर जीने का साहस न कर पाये। यही बात हम सब भी उस स्त्री के साथ करते हैं।
स्त्री पर हुए इस अपराध के खिलाफ बड़ी-बड़ी बातें, बड़े-बड़े सेमिनार इस अतिशय शर्मनाक कर्म की आलोचना के लिए किये जाते हैं, क्योंकि हम भी यही मानते हैं कि अब इससे ज्यादा लज्जाजनक और कुछ नहीं हो सकता, स्त्री का शारीरिक शील हमारे लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण है … बिना शील के स्त्री कैसे जिएगी, कैसे अब वह अपना मुंह समाज में दिखाएगी … नहीं अब तो यह संभव ही नहीं, उस अपराधी ने उसका “सब कुछ” नष्ट कर डाला … इस नजरिये से हम समाज के लोग स्त्री की इस पीड़ा से सहानुभूति दिखाते हैं, मूल्य-बोध हमारा भी वही होता है जो कि उस पीड़िता का और अपराधी का होता है। यानी शील-भंग, दुराचार, छेड़छाड़ बेहद शर्मिंदगी वाले अपराध हैं और इनकी शिकार स्त्री को समाज में इज्जत से जीने का अधिकार नहीं है। फर्क यही है कि अपराधी इसी इज्जत को खराब करने में लग जाता है और हम इसी इज्जत को बचाने में। इस मूल्यबोध से हम इस लड़ाई को कैसे लड़ पाएंगे?
अपराधी तो स्त्री को एक बार पीड़ा देता है, पर वह इस समाज का सामना कैसे करेगी–यह डर स्त्री को जीते जी मार डालता है। वह जीना चाहे तो भी समाज उसे जीने नहीं देगा।
मुझे एक कहानी याद आ रही है, जिसमें लेखिका बस में सफर कर रही है। लेखिका के पास एक ग्रामीण मजदूर स्त्री बैठी है। बातचीत में वह स्त्री बताती है कि उसका जीवन कैसा है। लेखिका उससे पूछती है कि मजदूरिनें जंगल में काम से जाती हैं, अगर किसी दिन उनके साथ कुछ गलत हो जाए तो? स्त्री जवाब देती है – हां “गलत” हो भी जाता है तो वहीं “धो” कर चले आते हैं–और फिर काम पर लग जाते हैं। हो सकता है कहानी में कुछ ज्यादा उदारता बरती गयी हो, पर यह सवाल तो पूछा ही जाना चाहिए कि स्त्री के साथ छेड़छाड़ के मामले को उसके पूरे वजूद का सवाल क्यों बना दिया जाता है? यह एक अपराध है। बिल्कुल वैसे ही जैसे किसी पुरुष को गुंडे राह चलते भारी सड़क पर पीट दें, उसके जननांगों के साथ छेड़छाड़ करें, उसके कपडे फाड़ दें और उसे जख्मी कर के भाग जाएं। जैसा कि गुवाहाटी मामले में लड़की के साथ हुआ। तब यह मसला निश्चित तौर पर नागरिकों की सुरक्षा और प्रशासन की लापरवाही से जुडेगा। उसने एफआईआर भी करायी होगी, सब ठीक चला तो हो सकता है दोषियों को सजा भी हो जाए। यहां तक कि पुरुष के साथ दुराचार के मामले में भी यह उस पुरुष का परिवार या समाज या मीडिया “जिंदगी बर्बाद होने” जैसे जुमले इस्तेमाल नहीं करेगा, इसे राष्ट्रीय शर्म घोषित नहीं किया जाएगा।
मानव शरीर की अपनी गरिमा होती है। उसका सम्मान होना चाहिए और उसकी हिफाजत करना समाज और कानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी। स्त्री के शरीर पर अपराध भी इसी श्रेणी में आना चाहिए। दुराचार करने वालों को मौत की सजा की मांग करने वालों के मूल्य वही हैं कि अब स्त्री का जीवन तो बर्बाद/खत्म हो ही गया, इसलिए दुराचारी को फांसी होनी चाहिए। तो फिर स्त्री को महज नाक का सवाल बना कर देखने वाले नजरिये का इलाज कैसे किया जाए? स्त्री को सामंती समाज में इज्जत से जोड़कर देखा जाता है। वहां उसका कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं होता है। वह पुरुष की संपत्ति मात्र है। अगर पुरुष को नीचा दिखाना है तो उसकी स्त्री को बेइज्जत करना आसान शिकार बनता रहा है, जिसमें आमने-सामने लड़ाई भी नहीं करनी पड़ेगी और वह पुरुष “शर्म” से ही डूब मरेगा (जैसे गुवाहाटी मामले में राष्ट्र शर्म से मरा जा रहा है।)
ये घटनाएं राष्ट्रीय शर्म नहीं, राष्ट्रीय आक्रोश का विषय होनी चाहिए। हमें इसी पल अपने मूल्यों पर भी विचार करना चाहिए कि कब हम जैसे लोग जो स्त्री से सहानुभूति रखने, उसके लिए लड़ने का दावा करते हैं और कब उसे एक सामान्य इंसान, सामान्य नागरिक का दर्जा देंगे?
हमारे समाज की राजनीतिक–सामाजिक बुनावट ऐसी है, जहां कमजोर सबसे ज्यादा असुरक्षित हैं। बच्चे, बुजुर्ग, स्त्री, दलित, गरीब … ताकतवर लोग इन तबकों का रोज ही शिकार करते हैं। घोर असमानता पर आधारित हमारी व्यवस्था इन्हें कोई इज्जत नहीं देती। इनके साथ रोज ही दुराचार होता है। रोज ही ये संघर्ष करते हैं। भूख से दम तोड़ते हैं। आत्महत्याएं करते हैं। रोज जीते हैं और रोज मरते हैं। कमाल है कि इनमें से किसी पर राष्ट्रीय शर्म की घोषणा नहीं होती। किसी धनपशु के धन में हर मिनट करोड़ों रुपयों का इजाफा हो जाता है और किसी को अपनी पूरी मेहनत स्वाहा करने के बाद भी पेट भर खाना नसीब नहीं होता, पर ये राष्ट्रीय शर्म नहीं होती।
जरूरत इस बात की है कि स्त्री के साथ हुए दुराचार/ छेड़छाड़ को उसके जीवन–मरण का सवाल न बनने दें। स्त्री के जीवन को इतना तुच्छ न बनाएं कि ये घटनाएं उसके गरिमामय जीवन का अंत बन जाएं। उसका बचा हुआ सारा जीवन अपनी “लाज” के लिए लड़ने और दुराचारी को सजा दिलाने की त्रासदी में तब्दील न हो जाए। उसकी पहचान एक “दुराचार-पीड़िता” भर की न बन कर रह जाए। स्त्री के शील को दर्पण सा नाजुक मानने की ग्रंथि से बाहर निकलने की जरूरत है।
दुराचार का अपराध स्त्री के शरीर में कोई अपूरणीय नुकसान नहीं करता। स्त्री अपनी इच्छा से पुरुष से दैहिक संबंध बनाती ही है। पहले के समाजों में कम उम्र कन्याओं का विवाह रजस्वला होने के पहले ही हो जाता था। कई बार पति भी स्त्री की अनिच्छा के बावजूद यौनाचार करता है। जब तक इस संबंध में कानून नहीं बना था, इसे अपराध नहीं माना जाता था। आज भी कानून जो भी कहता हो रिवाजन तो पति की इच्छा ही सर्वोपरि होती है। यहां मामला बलात बनाये गये दैहिक संबंध का है। दुराचार शरीर को पीड़ित करता है, लेकिन वह पीड़ा मन तक कैसे पहुंचा दी जाती है, शरीर जख्मी होता है, पर मन का घाव हमेशा हरा रहने की स्थितियां कौन बनाता है?
यह तो सच है कि स्त्री के शरीर में कुछ ऐसा नहीं हुआ, जिसकी भरपाई संभव न हो। सामाजिक अवधारणाएं, मूल्य, मान्यताएं उसे ऐसी मनःस्थिति में लाकर खड़ा कर देते हैं कि वह सामाजिक उपेक्षा, अपमान, प्रवंचना के डर से आत्महत्या जैसा कदम तक उठाने को मजबूर हो जाती है। उससे और उसके परिवार से अब कोई सामाजिक संबंध नहीं रखेगा, लोग ताना देंगे, मजाक बनाएंगे, अब उसका कहीं विवाह नहीं होगा।
“यौनागों की पवित्रता” हमारे समाज की बीमारी है। स्त्री के साथ यौन शुचिता का मूल्यबोध जोड़ा गया है, वह खंडित होता है। अब चूंकि शुचिता तो वापस आ नहीं सकती, शुचिता के आईने की किरचें बिखर जाती हैं, जो किसी हाल में नहीं जुड़ सकतीं, इसलिए तूफान आ जाता है। अपराध को अपराध की तरह ही देखा जाना चाहिए वरना अपराध–लज्जा–अपमान–आत्महत्या–मनोचिकित्सक तक होते हुए समाज न जाने कहां तक पहुंचेगा। ये घातक स्थितियां हैं और ये स्थिति हमारा समाज पैदा करता है।
(नवोदिता। एक्टिविस्ट और पत्रकार। समाज और विकास के मुद्दों पर सहारा समय में फीचर्स की लंबी शृंखला प्रकाशित। नवोदिता से navodita50@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
From : Mohalla Live Posted: 14 Jul 2012 08:31 PM PDT
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