Thursday, July 18, 2013

अपने ही इतिहास से डरते हैं संघी

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ : भारतीय फासीवादियों की असली जन्मकुण्डली

अभि‍नव–(मजदूर बिगुल)

भारत में फासीवाद का इतिहास लगभग उतना ही पुराना है जितना कि जर्मनी और इटली में। जर्मनी और इटली में फासीवादी पार्टियाँ 1910 के दशक के अन्त या 1920 के दशक की शुरुआत में बनीं। भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 में नागपुर में विजयदशमी के दिन हुयी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक थे केशव बलिराम हेडगेवार। हेडगेवार जिस व्यक्ति के प्रभाव में फासीवादी विचारों के सम्पर्क में आये थे वह था मुंजे। मुंजे 1931 में इटली गया था और वहाँ उसने मुसोलिनी से भी मुलाकात की थी। 1924 से 1935 के बीच आर.एस.एस. से करीबी रखने वाले अख़बार ‘केसरी’ ने मुसोलिनी और उसकी फासीवादी सत्ता की प्रशंसा में लगातार लेख छापे। मुंजे ने हेडगेवार को मुसोलिनी द्वारा युवाओं के दिमाग़ों में ज़हर घोलकर उन्हें फासीवादी संगठन में शामिल करने के तौर-तरीकों के बारे में बताया। हेडगेवार ने उन तौर-तरीकों का इस्तेमाल उसी समय से शुरू कर दिया और आर.एस.एस. आज भी उन्हीं तरीकों का इस्तेमाल करती है। 1930 के दशक के अन्त तक भारतीय फासीवादियों ने बम्बई में उपस्थित इतालवी कांसुलेट से भी सम्पर्क स्थापित कर लिया। वहाँ मौजूद इतालवी फासीवादियों ने हिन्दू फासीवादियों से सम्पर्क कायम रखा।

लगभग इसी समय एक अन्य हिन्दू कट्टरपन्थी विनायक दामोदर सावरकर, जिनके बड़े भाई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापकों में से एक थे, ने जर्मनी के नात्सियों से सम्पर्क स्थापित किया। सावरकर ने जर्मनी में हिटलर द्वारा यहूदियों के सफाये को सही ठहराया और भारत में मुसलमानों की ”समस्या” के समाधान का भी यही रास्ता सुझाया। जर्मनी में ‘यहूदी प्रश्न’ का ‘अन्तिम समाधान’ सावरकर के लिये एक मॉडल था। सावरकर के लिये नात्सी राष्ट्रवादी थे जबकि यहूदी राष्ट्र-विरोधी और साम्प्रदायिक। लेनिन ने बहुत पहले ही आगाह किया था कि नस्लवादी अन्‍धराष्ट्रवादी पागलपन अक्सर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का चोला पहनकर आ सकता है। भारत में हिन्दू साम्प्रदायिक अन्‍धराष्ट्रवाद भी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का जामा पहनकर ही सामने आ रहा था।

आर.एस.एस. ने भी खुले तौर पर जर्मनी में नात्सियों द्वारा यहूदियों के कत्ले-आम का समर्थन किया। हेडगेवार ने मृत्यु से पहले गोलवलकर को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ‘वी, ऑर अवर नेशनहुड डिफाइण्ड‘ और बाद में प्रकाशित हुयी‘बंच ऑफ थॉट्स‘ में जर्मनी में नात्सियों द्वारा उठाये गये कदमों का अनुमोदन किया था। गोलवलकर आर.एस.एस. के लोगों के लिये सर्वाधिक पूजनीय सरसंघचालक थे। उन्हें आदर से संघ के लोग ‘गुरुजी’ कहते थे। गोलवलकर ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में मेडिकल की पढ़ाई की और उसके बाद कुछ समय के लिये वहाँ पढ़ाया भी। इसी समय उन्हें ‘गुरुजी’ नाम मिला। हेडगेवार के कहने पर गोलवलकर ने संघ की सदस्यता ली और कुछ समय तक संघ में काम किया। अपने धार्मिक रुझान के कारण गोलवलकर कुछ समय के लियेआर.एस.एस. से चले गये और किसी गुरु के मातहत संन्यास रखा। इसके बाद 1939 के करीब गोलवलकर फिर से आर.एस.एस. में वापस आये। इस समय तक हेडगेवार अपनी मृत्युशैया पर थे और उन्होंने गोलवलकर को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। 1940 से लेकर 1973 तक गोलवलकर आर.एस.एस. के सुप्रीमो रहे।

गोलवलकर के नेतृत्व में ही आर.एस.एस. के वे सभी संगठन अस्तित्व में आये जिन्हें आज हम जानते हैं। आर.एस.एस. ने इसी दौरान अपने स्कूलों का नेटवर्क देश भर में फैलाया। संघ की शाखाएँ भी बड़े पैमाने पर इसी दौरान पूरे देश में फैलीं। विश्व हिन्दू परिषद जैसे आर.एस.एस. के आनुषंगिक संगठन इसी दौरान बने। गोलवलकर ने ही आर.एस.एस. कीफासीवादी विचारधारा को एक सुव्यवस्थित रूप दिया और उनके नेतृत्व में ही आर.एस.एस. की पहुँच महाराष्ट्र के ब्राह्मणों से बाहर तक गयी। आर.एस.एस. सही मायनों में एक अखिल भारतीय संगठन गोलवलकर के नेतृत्व में ही बना। यही कारण है कि गोलवलकर आज भी संघ के लोगों में सबसे आदरणीय माने जाते हैं और अभी दो वर्ष पहले ही संघियों ने देश भर में उनकी जन्मशताब्दी मनायी थी।

आर.एस.एस. ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ किसी भी स्वतन्त्रता संघर्ष में हिस्सा नहीं लिया। संघ हमेशा ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के साथ तालमेल करने के लिये तैयार था। उनका निशाना शुरू से ही मुसलमान, कम्युनिस्ट और ईसाई थे। लेकिन ब्रिटिश शासक कभी भी उनके निशाने पर नहीं थे। ‘भारत छोड़ो आन्दोलन‘ के दौरान संघ देशव्यापी उथल-पुथल में शामिल नहीं हुआ था। उल्टे जगह-जगह उसने इस आन्दोलन का बहिष्कार किया और अंग्रेज़ों का साथ दिया था। श्यामाप्रसाद मुखर्जी द्वारा बंगाल में अंग्रेज़ों के पक्ष में खुलकर बोलना इसका एक बहुत बड़ा उदाहरण था। ग़लती से अगर कोई संघ का व्यक्ति अंग्रेज़ों द्वारा पकड़ा गया या गिरफ्तार किया गया तो हर बार उसने माफीनामा लिखते हुये ब्रिटिश शासन के प्रति अपनी वफादारी को दोहराया और हमेशा वफादार रहने का वायदा किया। स्वयं पूर्व प्रधानमन्‍त्री अटलबिहारी वाजपेयी ने भी यह काम किया। ऐसे संघियों की फेहरिस्त काफी लम्बी है जो माफीनामे लिख-लिखकर ब्रिटिश जेलों से बाहर आये और जिन्होंने भारतीय स्वतन्त्रता-संग्राम सेनानियों के ख़िलाफ अंग्रेज़ों से मुख़बिरी करने का घिनौना काम तक किया।

ब्रिटिश उपनिवेशवादी राज्य ने भी इसी वफादारी का बदला चुकाया और हिन्दू साम्प्रदायिक फासीवादियों को कभी भी निशाना नहीं बनाया। संघ आज राष्ट्रवादी होने का चाहे जितना गुण गा ले वह स्वतन्त्रता आन्दोलन में शामिल न होने और अंग्रेज़ों का साथ देने का दाग़ अपने दामन से कभी नहीं मिटा सकता है। इतिहास को फिर से लिखने के संघ के प्रयासों के पीछे का मुख्य कारण यही है। वे अपने ही इतिहास से डरते हैं। वे जानते हैं कि उनका इतिहास ग़द्दारियों और कायरताओं का एक काला इतिहास रहा है। हिंसा से उनको बहुत प्रेम है, लेकिन झुण्ड में पौरुष प्रदर्शन वाली हिंसा से। वे कभी किसी जनान्दोलन में शामिल नहीं हुये और उनमें किसी दमन को झेलने की ताक़त नहीं है। हमेशा सत्ता के साथ नाभिनालबद्ध रहते हुये व्यवस्था के ख़िलाफ लड़ने वालों पर कायराना हिंस्र हमले करना इनकी फितरत रही है। चाहे वे मुसलमान रहे हों, ईसाई या फिर कोई भी राजनीतिक विरोधी। बहादुराना संघर्ष से इनका दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं रहा है, कभी नहीं।

संघ का पूरा ढाँचा शुरू से ही फासीवादी रहा था। यह लम्बे समय तक सिर्फ पुरुषों के लिये ही खुला था। संघ की महिला शाखा बहुत बाद में बनायी गयी।

संघ का पूरा आन्तरिक ढाँचा हिटलर और मुसोलिनी की पार्टियों से हूबहू मेल खाता है। हर सदस्य यह शपथ लेता है कि वह सरसंघचालक के हर आदेश का बिना सवाल किये पालन करेगा। सरसंघचालक सबसे ऊपर होता है और उसके नीचे एक सरकार्यवाह होता है जिसे सरसंघचालक ही नियुक्त करता है। एक केन्द्रीय कार्यकारी मण्डल होता है जिसे स्वयं सरसंघचालक चुनता है। अपना उत्तराधिकारी भी सरसंघचालक चुनता है। यानी पूरी तरह एक ‘कमाण्ड स्ट्रक्चर’ जिसमें जनवाद की कोई जगह नहीं है। नात्सी और फासीवादी पार्टी का पूरा ढाँचा इसी प्रकार का था। नात्सी पार्टी में ‘फ्यूहरर‘ के नाम पर शपथ ली जाती थी और फासीवादी पार्टी में ‘डयूस‘ के नाम पर शपथ ली जाती थी।

यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि यह हमेशा से सिर्फ हिन्दुओं के लिये खुला रहा है। यह खुले तौर पर कहता है कि यह हिन्दुओं के हितों की सेवा करने के लिये है। संघ ने कभी भी निचली जातियों या निचले वर्गों के हिन्दुओं के लिये कोई काम नहीं किया है। इनका समर्थन भी हमेशा से उजड़े टुटपुँजिया पूँजीपति वर्ग, नवधनाढ्यों और लम्पट सर्वहारा के बीच रहा है। संघ के सामाजिक आधार पर हम आगे आयेंगे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भारत में फासीवाद का अपना मौलिक संस्करण तैयार किया। इसकी हिटलर और मुसोलिनी के फासीवाद से काफी समानताएँ थीं और उनसे इन्होंने काफी कुछ सीखा। गोलवलकर अपनी पुस्तक ‘वी, ऑर अवर नेशनहुड डिफाइण्ड’ में लिखते हैं –”आज दुनिया की नज़रों में सबसे ज्यादा जो दूसरा राष्ट्र है, वह है जर्मनी। यह राष्ट्रवाद का बहुत ज्वलन्त उदाहरण है। आधुनिक जर्मनी कर्मरत है तथा जिस कार्य में वह लगा हुआ है, उसे काफी हद तक उसने हासिल भी कर लिया है… पितृभूमि के प्रति जर्मन गर्वबोध, जिसके प्रति उस जाति का परम्परागत लगाव रहा है, सच्ची राष्ट्रीयता का ज़रूरी तत्व है। आज वह राष्ट्रीयता जाग उठी है तथा उसने नये सिरे से विश्वयुद्ध छेड़ने का जोखिम उठाते हुये अपने ”पुरखों के क्षेत्र” पर एकजुट, अतुलनीय, विवादहीन, जर्मन साम्राज्य की स्थापना करने की ठान ली है।…” (गोलवलकर, ‘वी, ऑर अवर नेशनहुड डिफाइण्ड, पृ. 34-35)

गोलवलकर ने इसी पुस्तक में यहूदियों के कत्लेआम का भरपूर समर्थन किया और इसे भारत के लिये एक सबक मानते हुये लिखा – ”…अपनी जाति और संस्कृति की शुद्धता बनाये रखने के लिये जर्मनी ने देश से सामी जातियों – यहूदियों का सफाया करके विश्व को चौंका दिया है। जाति पर गर्वबोध यहाँ अपने सर्वोच्च रूप में व्यक्त हुआ है। जर्मनी ने यह भी बता दिया है कि सारी सदिच्छाओं के बावजूद जिन जातियों और संस्कृतियों के बीच मूलगामी फर्क हों, उन्हें एक रूप में कभी नहीं मिलाया जा सकता। हिन्दुस्तान में हम लोगों के लाभ के लिये यह एक अच्छा सबक है।” (गोलवलकर, वही, पृ. 35)।

हिटलर की इसी सोच को गोलवलकर भारत पर लागू कैसे करते हैं, देखिये : ”…जाति और संस्कृति की प्रशंसा के अलावा मन में कोई और विचार न लाना होगा, अर्थात हिन्दू राष्ट्रीय बन जाना होगा और हिन्दू जाति में मिलकर अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को गँवा देना होगा, या इस देश में पूरी तरह हिन्दू राष्ट्र की गुलामी करते हुये, बिना कोई माँग किये, बिना किसी प्रकार का विशेषाधिकार माँगे, विशेष व्यवहार की कामना करने की तो उम्मीद ही न करें; यहाँ तक कि बिना नागरिकता के अधिकार के रहना होगा। उनके लिये इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं छोड़ना चाहिये। हम एक प्राचीन राष्ट्र हैं। हमें उन विदेशी जातियों से जो हमारे देश में रह रही हैं उसी प्रकार निपटना चाहिये जैसे कि प्राचीन राष्ट्र विदेशी नस्लों से निपटा करते हैं।” (गोलवलकर, वही, पृ. 47-48)

बात बिल्कुल साफ है। मुसलमानों और ईसाइयों के प्रति संघ के विचार वही हैं जो यहूदियों के प्रति हिटलर के थे।
(फासीवाद क्‍या है और इससे कैसे लड़ें – बि‍गुल पु‍स्‍तिका से)

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