प्रेसपालिका न्यूज ब्यूरो
भारत में विदेशी वस्तुओं और तकनीक को अपनाने वालों की अच्छी खासी तादाद है| विदेशी सामग्री को अपनाने के प्रति हर आम-ओ-खास में शर्म नहीं, बल्कि गर्व का भाव है| इस प्रकार से आजादी के समय में विदेशी कपड़ों की होली जलाने का भाव अब भारत में ध्वस्त हो चुका है| अब तो स्वदेशी की बात करने वाले और संत महात्मा भी आधुनिक सुविधा सम्पन्न जीवन शैली एवं वातानुकूलित संयन्त्रों में जीवन जीने के आदी हो चुके हैं| ऐसे में यह बात निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि आज वैश्विक अर्थव्यवस्था तथा अन्तरजाल (इंटरनैट) के युग में केवल भारत की विरासत और सोच को ही सर्वश्रेष्ठ कहने वालों को अब अपनी परम्परागत सोच पर पुनिर्विचार करके खुले दिमाग और उदारता से सोचने की जरूरत है, जिससे कि हम संसार के किसी भी कोने में अपनायी जाने वाली अच्छी बातों और नियमों को देश में खुशी-खुशी अपना सकें|
आज की कड़वी सच्चाई यह है कि केवल हम ही नहीं, बल्कि सारा संसार विकसित देशों का पिछलग्गू बना हुआ है| जिसका कारण विकसित देशों की जीवन शैली है, लेकिन हमारा मानना है कि किसी भी बात को आँख बन्द करके अपनाने की जरूरत नहीं है, बल्कि जो बात, जो सोच और जो विचार हमारे देश के लोगों के जीवन को बदलने वाले हों, उन्हें मानने, स्वीकरने और अपनाने में कोई आपत्ति या झिझक नहीं होनी चाहिये| जैसे कि हम कम्प्यूटर तकनीक को हर क्षेत्र में अपना रहे हैं, जिससे जीवन में क्रान्तिकारी बदलाव आये हैं| जो काम व्यक्तियों का बहुत बड़ा समूह सालों में भी नहीं कर पाता, उसी कार्य को कम्प्यूटर तकनीक के जरिये कुछ पलों में पूर्ण शुद्धता (एक्यूरेसी) से आसानी किया जा सकता है| ऐसे में हमारे जीवन और व्यवस्था से जुड़ी अन्य बातों को भी हमें सहजता और उदारता से अपनाने की जरूरत है|
इसी प्रसंग में संयुक्त राज्य अमेरिका की न्यायिक व्यवस्था के एक उदाहरण के जरिये भारत की न्यायिक व्यवस्था में बदलाव के लिये यहॉं एक विचार प्रस्तुत किया जा रहा है| जिस पर भारत के न्यायविदों, नीति नियन्ताओं और विधि-निर्माताओं को विचार करने की जरूरत है| इसके साथ-साथ आम लोगों को भी इस प्रकार के मामलों पर अपनी राय को अपने जनप्रतिनिधियों के जरिये संसद तथा विधानसभाओं तक पहुँचाने की भी सख्त जरूरत है|
यहॉं सबसे पहले यह बतलाना जरूरी है कि अमेरिका में हर एक राज्य का संविधान और सुप्रीम कोर्ट अलग होते हैं| जो प्रत्येक राज्य की विशाल और स्थानीय सभी जरूरतों तथा आशाओं को सही अर्थों में पूर्ण करते हैं| प्रस्तुत मामले में अमेरिका के मिस्सिस्सिपी राज्य के सुप्रीम कोर्ट ने मिस्सिस्सिपी राज्य के न्यायिक निष्पादन आयोग बनाम जस्टिस टेरेसा ब्राउन डीयरमैन मामले में सुनाये गये निर्णय दिनांक 13.04.2011 के कुछ तथ्य पाठकों के चिन्तन और विचारार्थ प्रस्तुत हैं|
मिस्सिस्सिपी राज्य के न्यायिक निष्पादन आयोग ने वहॉं के सुप्रीम कोर्ट की जज डीयरमैन के विरुद्ध दिनांक 19.01.2011 को औपचारिक शिकायत दर्ज करवाई| डीयरमैन पर आरोप लगाया कि उन्होंने जजों के लिये लागू आचार संहिता के निम्न सिद्धांतों का उल्लंघन किया :-
(1) न्यायिक निष्ठा को संरक्षित करने के आचरण के उच्च मानकों को स्थापित करने, बनाये रखने और लागू करना|
(2) जज द्वारा हमेशा इस प्रकार कार्य करना कि उससे न्यायपालिका की निष्ठा व निष्पक्षता में जन विश्वास बढे|
(3) जज द्वारा अपने पद की साख को अन्य व्यक्ति के हित साधन के लिए उपयोग में नहीं लाना|
(4) जज द्वारा कानून का विश्वासपूर्वक पालना करना और व्यक्तिगत हितों के लिए कार्य करने से दूर रहना|
उपरोक्त सिद्धान्तों का उल्लंघन करके वहॉं के एक कोर्ट की जज डीयरमैन ने प्रथम न्यायिक फ्लोरिडा जिला सर्किट न्यायालय के जज लिंडा एल नोबल्स को दिनांक 05.11.2010 को एक टेलीफोन किया और अपने एक पुराने मित्र के पक्ष में सिफारिश करके उसे जमानत पर छोड़ने के लिये संदेश छोड़ा| यद्यपि उक्त फोन संदेश से पूर्व ही मामले की सुनवाई हो चुकी थी, जिससे जिला कोर्ट के निर्णय पर संदेश का कोई प्रभाव नहीं पड़ा, लेकिन जस्टिस डीयरमैन के विरुद्ध आरोप लगाये गये, जिन्हें स्वयं डीयरमैन ने भी स्वीकार कर लिया| डीयरमैन का आचरण मिस्सिस्सिपी राज्य के संविधान की धारा 177 ए के अंतर्गत भी दंडनीय होने के कारण और आचरण संहिता के उल्लंघन का आरोप लगने के बाद जस्टिस डीयरमैन स्वयं को सार्वजनिक रूप से प्रता़ड़ित किये जाने और 100 डॉलर (5000 रुपये) तक के खर्चे के दंडादेश को भुगतने के लिए भी स्वेच्छा से सहमत हो गयी| इसके बाद वहॉं के राज्य के सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस डीयरमैन को दोषी मानते हुए तीस दिन के लिए अवैतनिक निलंबन, सार्वजनिक प्रताड़ना और 100 डॉलर खर्चे का दण्डादेश जारी किया गया|
इसके विपरीत भारत के सुप्रीम कोर्ट द्वारा उत्तर प्रदेश न्यायिक अधिकारी संघ (1994 एससीसी 686) के मामले में सुनाये गये निर्णय में किसी भी जज के विरुद्ध मुख्य न्यायाधीश की अनुमति के बिना मामला दर्ज करने तक पर कानूनी प्रतिबन्ध लगा रखा है और भारत में तकरीबन सभी न्यायालयों द्वारा अमेरिका के उक्त मामले जैसे मामलों को तुच्छ मानते हुए कोई संज्ञान तक नहीं लिया जाता है| यह भारतीय न्याय व्यवस्था के लिये घोर चिंता और आम लोगों तथा संसद के लिये विचार का विषय है|
तथ्य संग्रह : मनीराम शर्मा, एडवोकट, लेखन एवं सम्पादन : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
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