जब राज्य में न्याय का चरित्र ही न हो!
----सचिन कुमार जैन , मध्यप्रदेश
इसमें कोई दो मत नहीं हैं कि हकों की बात अब ज्यादातर टुकड़ों-टुकड़ों में होती है, और हकों के लिए संघर्ष भी टुकड़ों-टुकड़ों में ही है। इस पूरी बहस में जनकल्याण की अवधारणा महत्वपूर्ण मानी जाने लगी है, परन्तु यह बहस गायब है कि क्या न्याय के बिना अधिकार मिल पाना संभव है? अब हर लड़ाई के जवाब में सरकार एक नीति और एक कानून बना देती है। ये सारे कानून बिना व्यवस्था, बिना प्रशासनिक और आर्थिक ढांचे और बिना जवाबदेहिता के लागू किया जाते है। आखिर में हम सब उन कानूनों के सही क्रियान्वयन के लिए लड़ रहे होते हैं। एक तरह से हम एक जाल में फंसा दिए जाते हैं। और राज्य अपनी सत्ता हो मजबूत करते जाता है। ऐसे में हमें पुनः यह विश्लेषण करने की जरूरत है कि जिन अधिकारों के लिए जन संघर्षों की मेहनतकश प्रक्रिया चल रही है, उनके हनन की जड़ें राज्य व्यवस्था में कहाँ और कितनी गहराई तक जाती हैं।
इस देश में 3000 से ज्यादा आन्दोलन चल रहे हैं, 6 लाख गाँव के देश में 14 लाख स्वैच्छिक संस्थाएं काम कर रही हैं, दुनिया के सबसे ज्यादा प्रगतिशील कानून यहाँ बने हुए हैं, और इसे सबसे बड़ा जीवित लोकतंत्र माना जाता है। उस देश में हिरासत में 9000 से ज्यादा मौतें होती हैं, 15 लाख बच्चों की मौतें कुपोषण के कारण होती हैं। नीतियां बनना भी जारी हैं। ऐसे में हम यह सवाल कैसे भूल सकते हैं कि व्यवस्था में वह बदलाव क्यों नहीं आ रहा है, जिससे लोगों की जिन्दगी और जीवन स्तर में बदलाव आये। मध्यप्रदेश की जेलों में 15777 और महाराष्ट्र की जेलों में 15784 ऐसे लोग बंद हैं, जिनके मामलों पर सुनवाई चल रही है। उन्हें जमानत का भी अधिकार नहीं दिया गया है। इनमे से कई ऐसे हैं जो उस अपराध के लिए मुकर्रर सजा के ज्यादा समय जेलों में बिता चुके हैं। हमारे यहाँ न्याय की प्रक्रिया अन्याय के रास्ते पर अक्सर ही चल पड़ती है, क्योंकि उसे विशेष अधिकार तो हैं, पर न्याय देने की जवाबदेहिता का अभाव रखा गया है शायद यह भी राज्य की सोची समझी व्यवस्था है।
हमें सबसे पहले अपने आप से यह जरूर पूछना चाहिए कि समाज की समस्या क्या है और उन्हें हल करने के लिए किस तरह के बदलाव की जरूरत है? आज का दौर नीतियों और कानूनों का दौर है। सरकार समस्याओं के निपटान के लिए नीतियां और कानून बनाती है, ये कानून पहले कागज पर आते हैं। इन्हें समाज में तभी उतारा जा सकता है जब उन नीतियों और कानूनों के क्रियान्वयन के लिए पूरा ढांचा खड़ा किया जाए, बजट आवंटित किया जाए, पूरे लोगों की नियुक्ति की जाए, आधारभूत ढांचा खड़ा किया जाए। सरकार कह सकती है कि हम स्वास्थ्य का अधिकार दे रहे हैं, परन्तु डाक्टर नहीं है, अस्पताल नहीं हैं और दवाओं के लिए बजट नहीं है, तो क्या स्वास्थ्य का अधिकार मिल पायेगा? सरकार ने शिक्षा के अधिकार का कानून बना दिया है, परन्तु गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने के लिए लाखों प्रशिक्षित शिक्षकों, स्कूलों में कमरों, शौचालयों, नई तकनीकों की जरूरत है। इस जरूरतों को पूरा करने के लिए जितने बजट की जरूरत है, सरकार उससे आधा भी आवंटित नहीं कर रही है, ऐसे में क्या गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अधिकार हासिल हो पायेगा?
हमें यह समझना होगा कि न्याय सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में हमेशा नजर आना चाहिए। अधिकारों को न्यायपूर्ण व्यवस्था से अलग हटा कर नहीं देखा जा सकता है। यदि राज्य अपने मूल चरित्र में न्यायपक्षीय नहीं है, तो वहां लोगों के अधिकार भी सुरक्षित नहीं हो सकते हैं। और यदि हमारे राज्य या समाज में लगातार अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है तो यह मान लेना चाहिए की राज्य न्याय-केन्द्रित नहीं है, वहां नीतियों और कानून का बनना राज्य से जनपक्षीय होना महज एक अभिनय है, इससे ज्यादा कुछ और नहीं! हमारे कानून में यह कहीं नहीं लिखा होता है कि कानून के प्रावधानों होने की स्थिति में सरकार कोई समझौता नहीं करेगी और ऐसी कार्यवाही करेगी जिससे व्यक्ति को केवल अधिकार नहीं, बल्कि न्याय भी मिले। भारत में सूचना के अधिकार का कानून लागू है। यह कानून कहता है कि यदि सूचना नहीं दी गयी तो जिम्मेदार अधिकारी पर अर्थ दंड लगाया जाएगा ताकि फिर से सूचना के अधिकार का उल्लंघन न हो और व्यक्ति को सूचना भी दिलाई जायेगी। यहाँ सूचना मिलना अधिकार की बात है और ऐसे कदम उठाये जाना जिनसे अधिकार हनन करने वाले को दंड मिले, वह न्याय का पक्ष है। जब तक न्याय के पक्ष को नजरंदाज किया जाता रहेगा, तब तक अधिकारों की बात किसी धोखाधड़ी से कम नहीं है।
न्याय और अधिकार की बात का जुड़ाव केवल न्यायपालिका से ही नहीं है। न्याय एक चरित्र है। जैसे बहादुरी एक चरित्र है, मिलनसार होना एक चरित्र है, समानता का व्यवहार एक चरित्र है, प्रकृति का सम्मान करने की भावना एक चरित्र है, उसी तरह न्याय भी एक चारित्रिक सच्चाई है, न्याय केवल अदालत में नहीं होता। न्याय आता है उस पड़ोस से, जिसने आपके साथ अन्याय होते देखा है और उसके खिलाफ वह आपके साथ खड़ा होता है। न्याय आता है उस अधिकारी और तंत्र से जहाँ आप अपने हक के लिए जाते हैं, जैसे उस पुलिस थाने के अधिकारियों और कर्मचारियों से, जो आपके हक को समझे और आपके साथ ऐसा व्यवहार करें, जिससे आपका मनोबल और व्यवस्था में विश्वास बरकरार रहे। यदि उसका चरित्र न्यायिक नहीं है तो वह आपके साथ न्यायपूर्ण व्यवहार नहीं करेगा और आपका केस इस तरह से दर्ज नहीं किया जाएगा, जिससे आपको आगे चल कर न्याय मिल सके, इसके बाद आप अदालत में जाते हैं। वहां पुलिस जो प्रकरण बनाती है, उसी के आधार पर कार्यवाही होती है न! इसलिए न्याय केवल अदालत में नहीं मिल सकता है। फिर आपके प्रकरण को लोगों के सामने ले जाता है मीडिया। यदि उसके चरित्र में न्याय नहीं है, तो वह आपके हक हो महसूस नहीं कर सकता न ही उस नजरिए से मामले की जांच पड़ताल कर सकता है, इसके बाद यदि इस तरह के हकों के उल्लंघन के बहुत से प्रकरण हैं, परन्तु इस पूरी प्रक्रिया में वे न्याय के नजरिए से नहीं देखे जाते हैं तो उस पर आगे बनने वाली नीति में भी न्याय नहीं होगा। और जहाँ न्याय चरित्र में नहीं है, वहां व्यवस्था का हर हिस्सा अन्याय का पहरेदार हो जाता है। या तो न्याय होगा या अन्याय होगा, या तो भ्रष्टाचार होगा या भ्रष्टाचार नहीं ही होगा! बीच का कोई रास्ता नहीं है। कोई यह नहीं कह सकता कि 40 प्रतिशत न्याय हो रहा है या व्यवस्था पूरी भ्रष्ट नहीं है केवल 50 प्रतिशत भ्रष्ट है। यह विश्लेषण बिलकुल गलत है कि कलेक्टर साहब तो ईमानदार हैं, भ्रष्ट तो उनके आफिस के अधिकारी हैं, मुख्यमंत्री तो ईमानदार हैं, उनके मंत्री भ्रष्ट हैं या फिर प्रधानमन्त्री बहुत अच्छे और ईमानदार हैं परन्तु उनका मंत्रिमंडल भ्रष्ट है! इस तरह के तर्क लोकतंत्र, समाज और संविधान के लिए बेहद खतरनाक हैं।
ब्रिटेन ने भारत पर 200 वर्षों तक शासन किया- एक उपनिवेश की तरह अपने साम्राज्य के एक हिस्से की तरह, एक गुलाम की तरह। वे भारत व्यापार के लिए आये थे और धीरे धीरे व्यवस्था - राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक के भीतर घुसते चले गए। उन्होने भी कानून बनाए, नीतियां बनायी और व्यवस्था के लिए नियम बनाए। निःसंदेह उन्होने वे कानून और नियम लोगों के कल्याण और उन्हें न्याय देने के लिए नहीं बनाए थे। उन्होंने कानून इसलिए बनाए ताकि ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ उठने वाली आवाजों का दमन किया जा सके। वे चाहते थे कि लोग बोलें नहीं, और राज्य का भय उनके मन में रहे, इसके लिए उन्होने 1861 में पुलिस कानून बनाया और एक ऐसी व्यवस्था खड़ी की जिसका काम कानून-व्यवस्था के नाम पर समाज पर नियंत्रण करना था। उन्होने इसी साल वन विभाग की स्थापना करके में उस जंगल और प्राकृतिक संसाधनों को राज्य की संपत्ति बना दिया, जिस पर हजारों सालों से समुदाय का मालिकाना रहा। और एक सरकारी विभाग की स्थापना से जंगल के मालिक, अचानक से ही अप्रत्याशित तरीके से अतिक्रमणकारी घोषित कर दिए गए।
उपनिवेशवाद में लोगों के लिए अवसर और स्थान इतने कम कर दिए कि लोगों के लिए सांस लेने के लिए भी मौके कम पडने लगे। उपनिवेशवादी सत्ता के लिए कानून के राज के मायने और मकसद कुछ दूसरा ही रहता है। इसके जरिये वे स्थानीय समाज के ऊपर अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए करते हैं न्याय और कल्याण के लिए नहीं। वे समाज की ताकत को तोडने के लिए इसका उपयोग करते हैं, ताकि साम्राज्यवादी हितो के खिलाफ लोग आवाज ना उठा सकें। वहां असहमति और विरोध को मान्यता नहीं मिलती है, यह अपराध माना गया। यह याद रखिये एक देश दूसरे देश पर कब्जा इसीलिए करना चाहता है ताकि वहां के संसाधनों को लूटा जा सके, समाज का शोषण किया जा सके, इसके अलावा उपनिवेशवाद का कोई और मकसद हो ही नहीं सकता है। ऐसी स्थिति में यह अपेक्षा करना बेमानी है कि ब्रिटेन जैसे देश भारत में जीवन स्तर के मापदंड तय करते, मानवाधिकार और कल्याणकारी व्यवस्था की भूमिका बांधते। स्वाभाविक है कि इन परिस्थितियों में शासक (यहाँ राज्य नहीं) मानव अधिकारों के हनन के लिए मुख्य अपराधी माना जाना चाहिए। वह शासक राज्य के शोषणकारी चरित्र की रूपरेखा गढ़ता है। और जब हम यहाँ न्याय की बात करते हैं तब इसका मतलब होता है उस खास तबके को संरक्षण दिया जाना जो शासक को भारत में उसकी सत्ता बनाये रखने में सहयोग करता रहा।
ब्रिटेन ने हजारों उन भारतीयों को फांसी पर टांग दिया या सजायाफ्ता बना दिया जो न्याय, गरिमा, अधिकार और स्वाधीनता की मांग करते थे। जो उपनिवेशवाद से मुक्ति की मांग कर रहे थे। हालांकि उन्होंने न्यायपालिका की व्यवस्था बनायी, पर उसका मकसद न्याय देना नहीं, बल्कि न्याय के सिद्धांतों को दरकिनार करते हुए उन लोगों को सजा देना था जो ब्रिटिश राजसत्ता के खिलाफ खड़े हो रहे थे, जो स्वतंत्रता चाहते थे। उन लोगों की आँखें फोड़ने का काम करने के लिए जो गुलामी से मुक्ति का सपना देख रहे थे।
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