नेहरू की आदिवासी पत्नी की त्रासदी
अनन्त//
पंडित नेहरू की आदिवासी पत्नी जिंदा है। वह धनबाद के पंचेत में गुमनामी की जिंदगीं गुजर-बसर कर रही है। दो बेटे और एक बेटी की मां बन चुकी बुधनी जीवन के पुराने पन्नों को पलटना नहीं चाहती। वह यह भी नहीं बताना चाहती कि नेहरू की समाजवादी और गांधीवादी आदर्श ने कैसे उसके जीवन को अभिशप्त बना दिया? वह यह भी नहीं बताना चाहती कि नेहरू के शतरंजी समाजवादी चाल की शिकार होने के बाद समाज ने उसके साथ कैसा बर्ताव किया? सच तो यह है कि दर-दर भटकने वाली बुधनी को अहसास हो गया है कि दुखों का कोई बाजार नहीं होता। दरअसल बुधनी नेहरू के पोलिटकल प्रयोगशाला की रसायण है। जो सामाजिक-राजनैतिक प्रतिक्रिया के दौर से गुजरते हुये अपना रूप बदल चुकी है। वह अब अपने दुःखों के विज्ञापन से भी डरती है। क्योंकि बुधनी का उपयोग कर नेहरू ने स्वयं को गांधी के सपनों को सच करने वाला मसीहा साबित किया। वहीं बुधनी को ईनाम के रूप में मिला त्रासदीपूर्ण जीवन।
उसकी पथरायी आँखें ही उसकी पीड़ा की दास्तान कहती है। पश्चिम बंगाल के पुरूलिया से लगभग 75 और झारखंड के धनबाद से 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित पंचेत में अपने बेटे के साथ रह रही है। सबसे बड़ी बेटी की शादी कर माँ का फर्ज अदा कर चुकी है। कैमरे की चकाचौंध से वह दूर रहना चाहती है। वह किसी अजनबी से बात भी नहीं करना चाहती है। 67 बसंत देख चुकी बुधनी का जीवन पतझर क्यों बना रहा? इसे समझने के लिये फ्लैशबैक में जाना होगा।
दरअसल आजादी के बाद नेहरू भारत के नवनिर्माण का सपना लिये औद्योगिकरण का विस्तार करने में जुटे थे। उनका यह कथन कि ‘औद्योगिकरण विकास के नये मंदिर हैं’ आजादी के बाद नवनिर्मित सभी औद्योगिक शहरों में ग्लोबलाइजेशन के इस क्रूर दौर में भी सरकारी होर्डिंगों पर ‘समाजवादी विकास’ की घोषणा करता हुआ मिल जाएगा। नेहरू और पटेल जैसे कद्दावर नेताओं के इस नीति का विरोध करते हुये झारखंड आन्दोलन के अगुआ रहे जयपाल सिंह मुण्डा ने 1947 में ही कहा था, ‘आप जिस विकास की बात कर रहे हैं, वह एक दिन आदिवासियों की कब्रगाह बनकर रह जाएगा।’ ठेठ आदिवासी बुधनी का जीवन सच में कब्रगाह का गवाह बन चुका है।’
बताते चले कि नेहरू देश में औद्योगिकरण का विस्तार करते हुये समाजवादी बने रहना चाहते थे। डी0वी0सी0 योजना के तहत बन रहे पंचेत डैम का उदघाटन करने 6 दिसंबर 1959 को झारखंड आये थे। समाजवादी आंदोलन का पर्याय बनने के मकसद से उन्होंने डैम का उद्घाटन उसके हाथों से करवाने का फैसला किया, जिसने निर्माण में मजदूर की भूमिका निभायी है। डैम के अधिकारियों ने पंडित नेहरू की उपस्थिति में बटन दबाने के लिये बुधनी का चयन किया। बुधनी एक संथाल युवती थी, उस वक्त उसकी उम्र महज 15 साल की थी और वह मैथन डैम में दिहाड़ी मजदूर का काम करती थी। नेहरू ने उस 15 वर्षीय नाबालिग आदिवासी युवती से पंचेत डैम का उद्घाटन करा जनता के बीच यह संदेश देने की कोशिश की थी कि वे ‘राष्ट्र निर्माण’ के लिए तैयार रहें। विकास की परियोजनाओं से आदिवासी समाज को देश में सम्मान मिलेगा। उनके बीच खुशहाली आएगी, और समाजिक न्याय के साथ देश का विकास होगा।
बटन दबाते ही जहां बुधनी सुर्खियों में आई वहीं से शुरू हुई उसके त्रासदीपूर्ण जीवन की शुरुआत। दरअसल दिसंबर 1959 के समारोह में बुधनी ने नेहरु को माला पहनायी थी। बुधनी द्वारा नेहरू को माला पहनाने की घटना को उसके समाज ने माना कि बुधनी ने गैर आदिवासी नेहरु को अपने पति के रूप में वरण किया है। संथाल समाज ने एक ‘दिकु (बाहरी) को पति बनाने का आरोप लगाकर सामाजिक निर्वासन का दंड दिया। इस प्रकार उसे अपना गांव ‘खोरबोना’ के साथ घर-परिवार गांव-समाज तत्काल छोड़ देना पड़ा। फिलवक्त में ‘खोरबोना’ गांव अपना अस्तित्व खो चुका है। डैम बनने के बाद यह गांव डुब गया था। गांव का अस्तित्व समाप्त होते ही वहां के ग्रामीण सालतोड़ जा बसे।
परिवार-समाज से बहिष्कृत होने के बाद वह (बुधनी) दर-ब-दर भटकने लगी। फिर उसकी मुलाकात एक बंगाली सज्जन सुधीर दत्ता से हुई जिसने उसे पनाह दी। पर बुधनी की मुश्किलें कम नहीं हुईं और वह अब भी गांव-समाज से निर्वासित थी। बताते चले कि नेहरु युगीन औद्योगीकरण की शुरुआत के ऐतिहासिक कार्य विशेष के एवज में बुधनी को कुछ वर्षों के लिए डीवीसी में नौकरी दी गई थी। नौकरी ही उसके जीवन का सहारा था। लेकिन कुछ ही वर्षों बाद उसे नौकरी से निकाल दिया गया। इसके बाद बेसहारा बुधनी वर्षों तक बेसहारा भटकती रही। जीवन की जंग से हार चुकी बुधनी 1985 में तत्कालीन प्रधान मंत्री और नेहरु के नवासे राजीव गांधी से मिलने दिल्ली गई। उसके दिल्ली प्रवास के बाद फिर से उसे डीवीसी में काम पर रख लिया गया। कयास लगाया जाता है कि राजीव गांधी की पहल पर ही पुनः उसे अस्थायी तौर पर बहाल किया गया।
‘डेक्कन क्रोनिकल’ (30 मार्च 2001) और ‘द हिंदू’ (2 जून 2012) के उन पत्रकारों को जिन्होंने बुधनी पर महत्वपूर्ण रपट लिखी है। 2001 में जब ‘डेक्कन क्रोनिकल’ का पत्रकार बुधनी से पंचेत में मिला था। द हिंदू के जर्नलिस्ट ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि बहुत कोशिशों के बाद भी वह बुधनी को ढूंढने में नाकाम रही और उसे अपने एक दोस्त के दोस्त से जो कि रांची में रहता है से सूचना मिली की एक वर्ष पहले बुधनी की मृत्यु हो चुकी है। लेकिन बुधनी आज भी जिंदा है। उसके चेहरे पर औद्योगिकरण की चमक के बदले विस्थापन की पीड़ा को साफ-साफ देखी जा सकती है। पंचेत के डीवीसी कॉलोनी से सटे उसके घर में बिजली तक नहीं है। जिंदा बुधनी के साथ कई सुलगते सवाल जिंदा हैं और विकास की पूरी परिभाषा को कटघरे में खड़ा किये हुए हैं। झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखाड़ा की महासचिव वंदना टेटे के अनुसार 'संपूर्ण झारखंड में कई बुधनियां हैं। विकास के बाहरी और भीतरी दोनों दबावों से हर दिन एक नयी बुधनी जनम रही है और दरबदर भटकने के लिए अभिशप्त है। आज पूरा झारखंड बुधनी है।'
सामाजिक राजनैतिक कार्यकर्ता महेन्द्र सुमन बुधनी की कहानी सुनने के बाद कहते हैं कि बुधनी के त्रासदपूर्ण जीवन के सामने ईमानदारी से खड़ा होना होगा और सभ्य समाज को इसका जवाब देना होगा। उसके परिवार का खेत-गांव डूबा। हजारों आदिवासी आजीविका और आश्रय से बेदखल हुए। जिस बुधनी ने बटन दबाकर राष्ट्रहित में सबकुछ गंवाया। कारखानों को उर्जा दी और अंधेरे में डूबे घरों को रौशन किया। आज वह खुद क्यों बिजली के लिए तरस रही है।-स्त्रोत : तेवर ओनलाइन (Posted on August 25, 2012 by एडिटर)
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