तस्लीमा के बयानों को अपने पक्ष में अपने तरीके से इस्तेमाल किये जाने का मीडिया को जो भी लाभ मिलता हो उससे एक बड़ा नुकसान ये होता है कि तस्लीमा द्वारा कही गयी सही बातों, जिन पर कि व्यापक विमर्श संभव हो सकता है, सामने नहीं आ पातीं ...
तसलीमा आहत हैं,मगर हारी नहीं हैं.इस बार उन्हें देश की मीडिया से शिकायत है ,जो अपनी सुर्ख़ियों के लिए बार -बार उनका इस्तेमाल करता है और धर्म की आड़ में करने वालों के हाथों में हथियार थमा देता है.जिससे वो जब नहीं तब तसलीमा को छलनी करते रहते हैं.तसलीमा पर ताजा हमला बकरीद से पूर्व पशु हत्या को नाजायज कहे जाने से सम्बंधित ट्विट की वजह से हुआ है,जिसमे तस्लीमा ने किसी भी धर्म में पशु हत्या को नाजायज ठहराते हुए कहा था कि वो इश्वर महान कैसे हो सकता है जो निर्दोष प्राणियों की हत्या से खुश होता हो.
तस्लीमा के इस बयान को दैनिक भास्कर के हिंदी और अंग्रेजी संस्करणों ने जानबूझ कर इस तरह से प्रस्तुत किया मानो वो इस्लाम के खिलाफ बोल रही हों नतीजा ये हुआ कि पंजाब के शाही इमाम हबीब -उर -रहमान ने जुमे की नमाज के बाद तसलीमा को इस्लाम से निष्काषित किये जाने का फतवा सुना दिया.शाही इमाम का कहना था कि तसलीमा का दिमाग खराब हो गया है इसलिए वो अपने ही धर्म के खिलाफ बोल रही हैं ,उन्होंने ये भी कहा कि "तसलीमा मानवता पर काले धब्बे की तरह हैं इसलिए उन्हें और इस्लाम और ज्यादा बर्दाश्त नहीं कर सकता".
गौरतलब है कि दुर्गा पूजा और उसके बाद बकरीद के दौरान पूरे देश में लाखों पशुओं की आस्था के नाम पर बलि चढ़ा दी जाती है. तसलीमा इस पूरे मामले पर एक बातचीत में कहती हैं "भास्कर ने मेरे बयान को इमानदारी से प्रस्तुत नहीं किया, शायद वो मेरे खिलाफ फतवे की अपेक्षा कर रहे थे और उन्होंने अंततः वो कर डाला. अपने ताजा बयान के सम्बन्ध में वो कहती हैं "मै दर्द रहित मृत्यु की कामना करती हूँ, पशुओं को भी इसका अधिकार होना चाहिए".
तसलीमा के खिलाफ मीडिया के दुष्प्रचार का पहला मामला नहीं है, दरअसल देश का मीडिया उनके बयानों को अपनी टीआरपी के लिए इस्तेमाल करता रहा है. ऐसे में कई बार उनके द्वारा कही गयी बातें सही ढंग से लोगों के बीच नहीं आ पाती और नतीजा वो बार-बार फतवों का शिकार हो जाती हैं. इसके पूर्व मीडिया ने सत्य साई बाबा की मौत के बाद उन्हें कथित तौर पर दिए गए उस बयान को लेकर कटघरे में खड़ा करदिया था, जिसमे उन्होंने सत्य साईं बाबा के निधन के पहले सचिन तेंदुलकर द्वारा देश से प्रार्थना किये जाने की अपील से सम्बंधित उस ट्वीट को री ट्वीट कर दिया था, जिसमे कहा गया था कि "साई बाबा 86 साल के हो गए थे, उन्हें मरने देना चाहिए?"
हुआ ये था कि तसलीमा ने किसी अन्य व्यक्ति के ट्वीट को री ट्विट कर दिया था, टाइम्स आफ इण्डिया ने उसे तस्लीमा का व्यक्तिगत बयान मान कर खबर छाप दी. तस्लीमा का कहना था कि आम आदमी री ट्विट के बारे में न जानता हो ये संभव है ये कैसे संभव है कि टाइम्स आफ इण्डिया को इसकी जानकारी न हो.
गौरतलब है कि इस खबर के प्राकशित होने के बाद तसलीमा के वीजा को रद्द किये जाने को लेकर मीडिया में बहस शुरू हो गयी थी. दरअसल तस्लीमा के बयानों को अपने पक्ष में अपने तरीके से इस्तेमाल किये जाने का मीडिया को जो भी लाभ मिलता हो उससे एक बड़ा नुकसान ये होता है कि तस्लीमा द्वारा कही गयी सही बात जिन पर व्यापक विमर्श संभव हो सकता है, सामने नहीं आ पाती. अक्सर उनके बारे में छापने वाली ख़बरों की शुरुआत ही विवादास्पद या फिर कंट्रोवर्शियल लेखिका तस्लीमा नसरीन ...से शुरू होती है.
हिंदुस्तान की मीडिया को समझने की कोई भी कोशिश तस्लीमा को केन्द्र में रखकर आसानी से की जा सकती है, दरअसल जब कभी तस्लीमा कुछ बोलती है, अयोध्या और गुजरात से जुड़े अपने चरित्र को छोड़कर मीडिया तत्काल सेक्युलर हो जाता है, तस्लीमा के बयानों का प्रस्तुतीकरण उसके लिए वो माध्यम है, जिससे वो जब नहीं तब दिखने वाली अपनी भगवा छवि को उजला कर सकता है, ज्यादा से ज्यादा उजला दिखने की कोशिश में तस्लीमा पर हमले और भी तेज कर दिए जाते हैं.तसलीमा साफ़ कहती हैं "मीडिया मेरी बात क्यूँ कहेगा, क्या वो भी धर्म से प्रभावित हो रहा है ?"
हमें नहीं याद है कि पश्चिम बंगाल में तसलीमा के प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगाए जाने के बाद देश के किसी भी अखबार ने लोकतांत्रिक मूल्यों की इस शर्मनाक अवहेलना पर एक शब्द भी नहीं लिखा, यूँ लग रहा था, जैसे नहीं तैसे तस्लीमा को पश्चिम बंगाल से क्या देश से ही खदेड़ दिया जाए.
अफ़सोस ये है कि तसलीमा के खिलाफ मीडिया की इस मनमानी को लेकर देश के तमाम बुद्धिजीवी भी अपने होंठ सीए रहते हैं, इस मनमानी पर उनका सीधा तर्क होता है कि तसलीमा अतिवादी बयान दे रही हैं, जबकि सच्चाई ये है कि वो डरते हैं कि कहीं तसलीमा के पक्ष में खड़ा होकर वो खुद अन्सेक्युलर साबित हो जायेंगे. ऐसा नहीं है कि तसलीमा के बयानों से असहमति नहीं हो सकती, निश्चित तौर पर हो सकती है. लेकिन मीडिया उनके मामले में गेम खेलकर बहस के सारे रास्तों पर ही ताला लगा देती है. जहाँ तक फतवों का सवाल है, लगता है देश के तमाम इमाम और मौलवी इस इन्तजार में रहते हैं कि कब तसलीमा कुछ बोलें, जिसकी खबर बने और कब फतवा जारी कर दिया जाये.
तसलीमा के खिलाफ जो भी हालिया फतवे जारी हुए हैं वो सभी कतरनों का करिश्मा हैं. बंगलादेश में तो ये असंभव था, लेकिन हिंदुस्तान में स्वतंत्र कहे जाने वाले मीडिया का वर्ग भी इन फतवों के खिलाफ कुछ नहीं बोलता, भास्कर ने शुक्रवार के फतवे को लेकर जो खबर छपी है उसे पढ़कर यूँ लगता है मानो वो दाउद इब्राहिम हो तसलीमा नहीं. पत्रकारिता में आदर्शों और मानकों की दुहाई देने वाली मीडिया कभी भी किसी भी खबर को छपने के पहले उस मामले में उनकी राय जानने की कोशिश नहीं करता, जो कुछ जहाँ मिलता है, उसे अपनी समझ और पाने लाभ के हिसाब से तोड़ फोड़ कर लगा दिया जाता है.
अब वक्त आ गया है कि देश की मीडिया तसलीमा के साथ किये जा रहे अपने अन्याय पूर्ण व्यवहार की मीमांसा करे. आलोचना की वो कभी परवाह नहीं करती, निस्संदेह उनकी आलोचना हो, लेकिन सच भी शीशे की तरह साफ़ दिखना चाहिए. सोशल नेटवर्किंग के इस जमाने में जब धर्म, जाति, संप्रदायों से जुडी सभी नकारात्मक प्रवृतियाँ भर भरा कर टूट रही हैं, तसलीमा को उनकी बात साहस के साथ कहने में हमें मदद करनी ही होगी, नहीं तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सारे दावे बेमानी साबित तो होंगे ही, पत्रकारिता के पाखण्ड से भी पर्दा उठ जायेगा, जहाँ हम सब नंगे हैं.-स्त्रोत : आवेश तिवारी, जनज्वार, १३.११.११
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