Saturday, August 20, 2011

मैं अन्ना हजारे क्यों नहीं हूँ!

मुझे अच्छी तरह से पता है कि लोकपाल प्रशासन की खामियों को दूर करने की कोई रामबाण दवा नहीं है।

दक्षिण मुंबई की एक गली में सूफी दरगाह के बाहर एक बैनर लगा है- ‘जो घूस देता है या लेता है, वह नरक में जाएगा।’ उस बैनर पर यह बात हदीस शरीफ के सूरा 786/92 के हवाले-से लिखी गई
है। चंडीगढ़ से भारतीय थल सेना के रिटायर कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल एचएस पनाग ट्वीट करते हैं-‘विवा! विवा! विवा! युवा भारत को 101 तोपों की सलामी।’

किसन बाबूराव हजारे या अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को लेकर अगर किसी के मन में कोई संदेह था भी, तो जिस ढंग से उन्हें गिरफ्तार किया गया, उससे वे सारे संदेह अब बेमतलब हो चुके हैं। तिहाड़ जेल जो भ्रष्ट नेताओं, बलात्कारियों, आतंकवादियों के लिए बनी काल कोठरी का प्रतीक है, उसमें इस 74 साल के बूढ़े भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनकारी को बंद कर देना किसी मूर्खता से कम नहीं था। अन्ना हजारे के इस छह महीने पुराने आंदोलन की नई लहर ने लोगों को वर्ग, धर्म और व्यवसाय की सीमाओं से ऊपर उठा दिया है। मुंबई के भाजपा अध्यक्ष राज पुरोहित मंगलवार को जब अपने सहयोगियों के साथ पार्टी का झंडा लेकर पहुंचे, तो उन्हें वहां मौजूद भीड़ ने वापस जाने को मजबूर कर दिया।

और लोग जुटे भी खूब। व्यापारी, क्लर्क, माताएं सब नई दिल्ली के इंडिया गेट पर मोमबत्ती जला रहे थे। वे ठीक वैसे ही आगे आ रहे थे, जैसे 64 साल पहले आजाद देश की पहली सुबह को देखने के लिए उनके दादा-दादी आगे आए थे। वे मुंबई के आजाद मैदान में जमा हो रहे थे, जहां कभी लाखों लोग देश को आजादी दिलाने के लिए जमा हुए थे। वहां हिंदू और मुसलमान दुकानदार भी आ रहे थे और जींस पहने कॉलेज के युवक और युवतियां भी। उनके सिर पर गांधी टोपी थी, जिस पर लिखा था- मैं अन्ना हजारे हूं। यही सब बंगलुरु के फ्रीडम पार्क में हो रहा था। टेक्नोलॉजी कंपनियों के लोग लंच ब्रेक में बाहर निकलकर उस लहर में शामिल हो रहे थे, जिसे अन्ना हजारे ‘आजादी का दूसरा आंदोलन’ कहते हैं। लोकतांत्रिक आंदोलन की इस लहर में खुद को बहने से रोकना सचमुच ही एक मुश्किल काम है। लेकिन यहां मैं आपको यह बता दूं कि मैं गांधी टोपी लगाकर, मोमबत्ती जलाकर ‘आजादी के दूसरे आंदोलन’ में शामिल नहीं होने जा रहा। मैं आपको बताना चाहता हूं कि मैं अन्ना हजारे क्यों नहीं बनना चाहता।

सबसे पहली बात तो यह कि मैं उस आंदोलन के अतिवादी जज्बे से नहीं जुड़ना चाहता, जिसके मूल में एक विधेयक है, जो भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मजबूत ओम्बड्समैन को स्थापित करना चाहता है। इस विधेयक के अन्ना हजारे संस्करण को जन लोकपाल बिल कहा जाता है। इस बिल में कई खामियां हैं और जो लोग इस आंदोलन का अंध-समर्थन कर रहे हैं, उन्हें इन खामियों को समझना चाहिए। इसमें इतने विवादास्पद मुद्दे हैं कि उन सबकी यहां सूची देना शायद मुनासिब न हो। इन सबका समाधान हो सकता है, लेकिन बातचीत का यह तरीका नहीं चल सकता कि या तो हमारी बात मानो या हम कुछ नहीं होने देंगे। सरकार ने कई मूर्खताएं कीं। उसकी तरफ से कहा गया कि अन्ना हजारे ‘सिर से पांव तक भ्रष्टाचार में डूबे’ हैं। फिर सरकार आंदोलनकारियों के साथ निरंकुश ढंग से निपटी, हालांकि इसका अर्थ यह भी नहीं है कि एक नया आपातकाल आने वाला है। यह विरोध आंदोलन है, कोई क्रांति नहीं। मुझे इसकी भावनाओं में मध्य वर्ग का एक पाखंड दिखाई देता है। हमारे पास इससे ज्यादा कई गंभीर मुद्दे हैं, लेकिन उन्हें लेकर वह कभी सामने नहीं आता। लड़कियों की हत्या, घरों, होटलों, फैक्टरियों में होने वाली बाल मजदूरी या कार की खिड़की से दिखने वाली गरीबी। इस समय विरोध प्रदर्शन के अधिकार पर खूब बहस चल रही है, लेकिन ये अधिकार हम कश्मीर के लोगों को तो नहीं देते हैं। या हम तब कुछ नहीं बोलते, जब ये अधिकार आदिवासियों से छीन लिए जाते हैं। हम कभी उस इरोम शर्मिला देवी के लिए नहीं खड़े होते, जो एक दशक से अस्पताल के बिस्तर पर हैं और जिन्हें ट्यूब के जरिये जबरदस्ती भोजन दिया जाता है।

लोकपाल एक बहुत उपयोगी संस्था हो सकती है, लेकिन कर्नाटक के लोकायुक्त का मामला यह दिखाता है कि मौजूदा संस्थाओं को मजबूत करने की जरूरत है। अन्ना हजारे के हंगामे में लोगों का ध्यान इस ओर गया ही नहीं कि कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा को अग्रिम जमानत लेनी पड़ी है, क्योंकि उनके खिलाफ भ्रष्टाचार का मामला दर्ज हो गया है। लोकपाल प्रशासन की खामियों को दूर करने की कोई रामबाण दवा नहीं है।

इन दिनों एक लोकप्रिय एसएमएस चल रहा है, जो कहता है, ‘अन्ना हजारे विदेशों में जमा काले धन को वापस लाना चाहते हैं। क्या आप जानते हैं कि 1,456 लाख करोड़ रुपये अगर वापस आ गए, तो क्या होगा?’ फिर यह संदेश हमें बताता है कि इससे वित्तीय रूप से भारत दुनिया का पहला देश हो जाएगा, देश के हर गांव को 100 करोड़ रुपये मिल सकेंगे, देश के लोगों को अगले 20 साल तक बिजली का बिल भरने या टैक्स जमा करने की जरूरत नहीं रहेगी, पेट्रोल 25 रुपये लीटर बिकेगा और दूध आठ रुपये लीटर, हम पेरिस की तरह की 28,000 किलोमीटर रबराइज्ड सड़कें बना सकेंगे, ऑक्सफोर्ड जैसे 1,500 विश्वविद्यालय खोले जा सकेंगे, 2,000 मुफ्त अस्पताल बन जाएंगे।

इस तरह के सपनों के बहकावे में आना एक गलती होगी। ऐसे अजीब संदेशों और ई-मेल का लोकप्रिय होना शहरी भारत की दैनिक कुंठाओं, अधूरी रह गई इच्छाओं, रोक दिए गए आर्थिक सुधारों और खराब प्रशासन का भी नतीजा है। यह बढ़ती कीमतों, खराब परिवहन, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं से बेहाल लोगों की लाचारी भी दिखाता है। यह हर उस चीज का प्रतिनिधित्व करता है, जिन्हें भारत चाहता है, और तुरंत चाहता है। यह साफ है कि पिछले 20 साल में भारत ने जो तरक्की की है, वह सरकार के कारण नहीं की, बल्कि सरकार के बावजूद की है। लेकिन 1991 के आर्थिक सुधार कार्यक्रम के बाद भारत पहली बार अब हर चीज तुरंत चाहता है। इस समय संसद में 35 विधेयक पहले से ही विचाराधीन हैं और 32 नए विधेयक अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं। इनमें गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स, डायरेक्ट टैक्स कोड, भूमि अधिग्रहण विधेयक और हां लोकपाल विधेयक भी शामिल हैं। अन्ना जो चाहते हैं, वह उस पर ध्यान खींचते रहेंगे, लेकिन भारत के पास और भी बहुत-बहुत सी चीजें हैं ध्यान देने के लिए।-मैं अन्ना हजारे क्यों नहीं हूँ!
लेखक : समर हलर्नकर, एडीटर एट लार्ज, हिंदुस्तान टाइम्स (ये लेखक के अपने विचार हैं स्त्रोत : लाईव हिंदुस्तान.कॉम )

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