Tuesday, August 23, 2011

गांधी और दलित प्रश्न

यहां पाठको का ध्यान आकृष्ठ कराना चाहूगां कि गांधीजी ये मानते थे कि गवांर का बेटा गवांर और कुलीन का बेटा जन्म से ही कुलीन पैदा होता है । वे कहते है कि जैसे ''मनुष्य अपने पूर्वजो की आकृति पैदा होता है वैसे ही वह खास गुण लेकर ही पैदा होता है।``

यह सर्वविदीत है कि महात्मा गांधी वर्ण व्यवस्था के पोषक थे। इसके पीछे वे तर्क देते थे कि यह व्यवस्था विश्व के अधिकांश उन्नत समाजो में देखने मिलती है। वे जाति भेद को वर्ण भेद से अलग मानते थे। वे मानते है कि ''वर्ण व्यवस्था में उंच नीच की भेद वृत्ति नही है।`` वे मनु की तरह वर्गो को उच्च और निम्न बड़ा या छोटा नही मानते है।

गांधीजी के हरिजन उत्थान मुद्दे पर निम्न चार बिन्दुओं को उदघृत किया जाता है जो इस प्रकार है-


1. पुना पैक्ट जिसमें उन्होने यरवदा जेल में अनशन किया था।
2. अपनी पत्रिका का नाम हरिजन (गांधीजी का अंग्रेजी साप्ताहिक विचार पत्र) रखना।
3. साबरमती आश्रम में अछुत जातियों को शामिल करना।
4. दिल्ली की एक भंगी बस्ती में कुछ दिन प्रवास करना।

यहां पर हमें गांधीजी के व्दारा समय समय पर किये गये इन कार्यो की एतिहासिक, सामाजिक एवं राजनीतिक पहलूओं पर चर्चा करेगें साथ-साथ अपना ध्यान इस ओर भी आकृष्ट करेगे की इस मुद्दे पर उनके विचार क्या थे तथा व्यवहारिक धरातल पर उनके विचार क्या प्रभाव छोड़ते है।

वैसे गांधी के परिप्रेक्ष्य में दलित (यहां हरिजन कहना उचित होगा) के विषय में चर्चा करना एक गैर जरूरी पहलू जान पड़ता है। क्योकि दलितों का एक बड़ा समूह गांधी के हरिजन उत्थान पर किये गये कार्यो को संदेह कि नगाह से देखता है। इसका महत्वपूर्ण कारण यह है कि जाति-भेद वर्ण-भेद तथा अस्पृश्यता भेद के उनमूलन सम्बधी ज्यादातर उनके विचार केवल उपदेशात्मक थे व्यवहारिक नही थे।

एक ओर वे वर्ण व्यवस्था के बारे में कहते है-

''वर्ण व्यवस्था का सिध्दान्त ही जीवन निर्वाह तथा लोक मर्यादा की रक्षा के लिए बनाया गया है। यदि कोई ऐसे काम के योग्य है जो उसे उसके जन्म से नही मिला तो व्यक्ति उस काम को कार सकता है। बर्शते कि वह उस कार्य से जीविका निर्वाह न करे, उसे वह निष्काम भाव से, सेवा भाव से करे लेकिन जीविका निर्वाह के लिए अपना वर्णागत जन्म से प्राप्त कर्म ही करे।``

यानि जिसका व्यवसाय शिक्षा देना है वो मैला उठाने का काम मनोरंजन के लिए करें (व्यवसाय के रूप में नही)। इसी प्रकार गाय चराने का पुश्तैनी कार्य करने वाले चाहे तो पूजा कराने का काम कर सकते हैं, लेकिन पूजा से लाभ नही प्राप्त कर सकते ।

जाहिर है उच्च व्यवसाय वाला व्यक्ति निम्न व्यवसाय को पेशा के रूप में कभी भी अपनाना नही चाहेगा। किन्तु निम्न व्यवसाय वाला व्यक्ति उच्च व्यवसाय को अपनाने की चेष्टा करेगा। अत: यहां गांधी जी के उक्त कथन से आशय निकलता है कि यह बंदिश केवल निम्न जातियों के लिए तय की गई ताकी वे उच्च पेशा अपना न सके और अराम तलब तथा उच्च आय वाले पेशे पर उच्च जातियों का ही एकाधिकार रहे। यहां स्पष्ट है गांधी जातिगत पेशा के आरक्षण के पक्षधर थे।

कहीं-कहीं पर गांधीजी के विचार साफ-साफ बुजुर्वावर्ग को सुरक्षित करने हेतु रखे गये मालूम होते है-गांधीजी के समाज में विश्वविद्यालय का प्रोफेसर, गांव का मुन्शी, बड़ा सेनापति, छोटा सिपाही, मजदूर और भंगी सब एक से खानदानी माने जायेगे। सबकी व्यक्तिगत आर्थिक स्थिति समान होगी इससे प्रतिष्ठा या आय वृध्दि के लिए धन्ध छोड़कर दूसरा धन्धा करने का प्रलोभन नही रहेगा। यानि प्रोफेसर और भंगी दोनों  खानदानी माने जायेगें। क्यो माने जायेगे कैसे माने जायेगे ? ये स्पष्ट नही है। लेकिन धन्धा बदलने की पावंदी गांधी स्पष्ट लगाते है। जो आज के दौर में प्रासंगिक बिल्कुल भी नही है। पहले भी नही था।

गांधी के करीबी एवं फाईनेन्सर टाटा लुहार तो नही थे लेकिन लुहार का काम (व्यवसाय) करते थे। ऐसे ही कई उनके करीबी थे जो गैरजातिगत पेशा अपनाए हुए थे। गांधी अपनी आत्मकथा में खुद को एक पंन्सेरी बताते है लेकिन सियासत करते थे। यहां पाठको का ध्यान आकृष्ठ कराना चाहूगां कि गांधीजी ये मानते थे कि गवांर का बेटा गवांर और कुलीन का बेटा जन्म से ही कुलीन पैदा होता है । वे कहते है कि जैसे ''मनुष्य अपने पूर्वजो की आकृति पैदा होता है वैसे ही वह खास गुण लेकर ही पैदा होता है।``

गांधीजी अछूतपन या अस्पृश्यता का तो विरोध करते है। लेकिन एक मेहतर को अपना व्यवसाय बदलने की अनुमति भी नही देते है। वे कहते है कि-अपनी संतानों के संदर्भ में प्रत्येक व्यक्ति मेहतर है तथा आधुनिक औषधि विज्ञान का प्रत्येक व्यक्ति एक चमार किन्तु हम उनके कार्य-कलापों को पवित्र कर्म के रूप में देखते है। गांधी जी पेशेगत आनुवंशिक व्यवस्था का समर्थन करते है। 

वे एक स्थान पर लिखते है कि ब्राम्हण वंश का पुत्र ब्राम्हण ही होगा, किन्तु बड़े होने पर उससे ब्रामहण जैसे गुण नही है तो उसे ब्राम्हण नही कहा जा सकेगा। वह ब्राम्हणत्व से च्युत हो जायेगा, दूसरी ओर ब्राम्हण के रूप में उत्पन्न न होने वाला भी ब्राम्हण माना जायेगा यद्यपि वह स्वयं अपने लिए उस उपाधि का दावा नही करेगा। यानि कोई भी गैर ब्राम्हण प्रकाण्ड विद्वान होने पर भी पण्डितजी की उपाधि का दावा न करे।

गांधीजी के इन आदर्शो के विपक्ष में डा. अम्बेडकर आपत्ति दर्ज कराते है कि जाति-पांति ने हिन्दू धर्म को नष्ट कर दिया है। चार वर्णो के आधार पर समाज को मान्यता देना असंभव है क्योकि वर्ण व्यवस्था छेदो से भरे बर्तन के समान है। अपने गुणो के आधार पर कायम रखने मे यह असमर्थ है। और जाति प्रथा के रूप में विकृत हो जाने की इसकी आंतरिक प्रवृत्ति है।

ज्यादातर यह माना जाता है कि 1932 के बाद ही गांधीजी के अंदर हरिजन प्रेम उमड़ा। इसके पहले वे निहायत ही परंपरा पोशी एवं संस्कृतिवादी थे। भारत में दलितों के काले इतिहास के रूप में दर्ज यह घटना पूना पैक्ट के नाम से प्रसिध्द है। ज्यादातर साथी पूना पैक्ट के बारे में अवगत है।

दरअसल स्वतंत्रता पूर्व डा.अम्बेडकर की सलाह पर अंग्रेज प्रधान मंत्री रैम्जले मैक्डोनल्ड ने 17 अगस्त 1932 में '`कम्युनल अवार्ड`` के अंतर्गत दलितों को दोहरे वोट का अधिकार दिया था। जिसके व्दारा दलितों को यह अधिकार प्राप्त होना था कि आरक्षित स्थानों पर केवल वे ही अपनी पसंद के व्यक्ति को वोट देकर चुन सकते थे तथा समान्य सीटों पर भी वे अन्य जातियों के प्रत्याशियों को वोट देकर अपनी ताकत दिखा सकते थे। 

गांधीजी इस प्रस्ताव के विरूध्द थे उन्होने यह तर्क दिया कि इससे हरिजन हिन्दुओं से अलग हो जायेगे। उन्होने लगभग 30 दिनों का आमरण अनशन किया। घोर दबाव में दलितों के मसिहा डा.अम्बेडकर को झुकना पड़ा और दलित अपने अधिकार से वंचित हो गये। इसपर जो समझौता हुआ वही आगे चलकर आरक्षण व अन्य सुविधाओं के रूप में साकार हुआ। इसे पूरा दलित समाज काले इतिहास के रूप में आज भी याद करता है।

पूना पैक्ट के संदर्भ में यरवदा जेल में हुए इस अनशन में गांधीजी जीत तो गये, लेकिन उन्होने दलितों की समस्या को काफी करीब से देखा एवं महसूस किया। शायद उनके अंदर जलती हुई पश्चाताप का नतीजा ही रहा होगा कि उन्होने अपनी हरिजन सेवक नाम की हिन्दी साप्ताहिक विचार पत्रिका प्रारंभ 1932 की तथा काफी सारे लेख अस्पृश्यता पर केन्द्रित करते हुए लिखां उन्होने अपने आश्रम में पैखाने सफाई हेतु लगे भंगी को हटा कर पारी-पारी सभी को पैखाने सफाई कराने के निर्देश दिये। जिस पर उनका उनकी पत्नी से तकरार भी हुई।

ऐसा कहा जाता है कि महात्मा गांधी भंगी जाति से बहुत प्रेम करते थे और उन्होने ''हरिजन`` शब्द केवल भंगियों को ध्यान में रखते हुए ही इस्तेमाल करना शुरू किया था। दूसरा वाक्या अकसर सुनाया और बार-बार दोहराया जाता है कि गांधी जी ने कहा था कि-

''यदि मेरा जन्म हो तो मै भंगी के घर पैदा होना चाहूंगा।`` 

अक्सर हरिजन नेता इन वाक्यों को गांधीजी के भंगियों के प्रति प्रेम को साबित करने के लिए सुनाते है। एक दलील और भी दी जाती है कि गांधी जी भंगियों से प्रेम तथा उनकी हालत सुधारने के लिए ही दिल्ली की भंगी बस्ती में कुछ दिन रहे। पर वास्तव में जो सुविधाएं उन्हे बिरला भवन या साबरमती आश्रम में उपलब्ध थी, वही यहां उपलब्ध करायी गयी थी। गांधीजी न किसी के हाथ का छुआ पानी पीते थे और न उसके घर मे पका खाना खाते थे। अगर कोई व्यक्ति फल आदि उन्हे भेट करने के लिए लाता था तो वे कहते थे कि मेरी बकरी को खिला दो इसका दूध मै पी लूगां।

यानि गांधीजी खुद दलितों से एक आवश्यक दूरी बना कर रहे। पत्रिका हरिजन 12 जनवरी सन 1934 में वे लिखते है-

''एक भंगी जो अपने कार्य इच्छा तथा पूर्ण वफादारी के साथ करता है वह भगवान का प्यारा होता है।`` यानि गांधीजी एक भंगी को भंगी बनाये रखने की वकालत करते नजर आते है।

ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रसिध्द अधिकारी कर्नल सलीमन ने अपनी पुस्तक "RAMBLINGS IN OUDH" सफाई कर्मचारियों की 1834 की हड़तालों का जिक्र किया है। इस पुस्तक से जाहिर है कि सफाई कर्मचारियों की हड़ताल से वे परेशान थे। परन्तु गांधीजी जो सिविल नाफरमानी, हड़तालो और भूख हड़ताल का अपने राजनीतिक कार्य तथा अछूतों के अधिकारों के विरूध्द इस्तेमाल करते रहे थे, भंगियों की हड़ताल के बड़े विरोधी थे।

1945 में बंबई लखनउ आदि कई बड़े शहरों में एक बहुत बड़ी हड़ताल सफाई कामगारों ने की। यदि गांधीजी चाहते तो इन कामगारो का समर्थन कर हड़ताल जल्द समाप्त करवाकर इस अमानवीय कार्य में भंगियों को कुछ सुविधा दिलवा सकते थे, किन्तु उन्होने उल्टे अंग्रेज सरकार का समर्थन करते हुए हड़ताल की निन्दा इस संबंध में एक लेख में वे लिखते है। ''सफाई कर्मचारियों की हड़ताल के खिलाफ मेरी राय वही है जो १८९७ में थी जब मै डरबर (द.अफ्रीका) में था। वहां एक आम हड़ताल की घोषणा की गयी थी। और सवाल उठा कि क्या सफाई कर्मचारियों को इसमें शामिल होना चाहिए, मैने अपना वोट इस प्रस्ताव के विरोध में दिया।`` इसी लेख में वे बंबई में हुए हड़ताल के बारे में लिखते है-''विवादों के समाधान के लिए हमेशा एक मध्यस्थ को स्वीकार कर लेना चाहिए। इसे अस्वीकार करना कमजोरी की निशानी है। एक भंगी को एक दिन के लिए भी अपना काम नही छोड़ना चाहिए। न्याय प्राप्त करने के और भी कई तरीके उपलब्ध है।`` यानी भंगियों को न्याय प्राप्त करने के लिए हड़ताल करना महात्मा गांधी की दृष्टी में अवैध है।

गांधीजी मानते है कि भारत में रहने वाला व्यक्ति हिन्दू या मुसलमान, ब्राम्हण या शूद्र नहीं होगा, बल्कि उसकी पहचान केवल भारतीय के रूप में होगी। लेकिन वास्तविकता यह है कि वर्ण व्यवस्था की जड़ पर कुठाराघात किये बिना अस्पृश्यता को दूर करने का प्रयत्न रोग के केवल बाहरी लक्षणों की चिकित्सा करने के समान है। छुआछूत या अस्पृश्यता और जातिभेद को मिटाने के लिए शास्त्रों की सहायता ढूंढना जरूर कहा जाएगा कि जब तक हिन्दू समाज में वर्ण विभाजन विद्यमान रहेगी तब तक अस्पृश्यता के निराकरा की आशा नही की जा सकती। अत: वर्ण व्यवस्था में नई पीढ़ी की आस्था एवं श्रध्दा समाप्त करना हिन्दू समाज की मौलिक आवश्यकता है। इस व्यवस्था के औचित्य के लिए शास्त्रों का प्रमाण प्रस्तुत करना उचित नहीं।

अम्बेडकर ने कहा-शास्त्रों के आदेशो के कारण ही हिन्दू समाज में वर्ण विभाजन बना हुआ है जिसने हिन्दुओं में उंच-नीच की भावना उत्पन्न की है, जो अस्पृश्यता का मूल कारण है। स्पष्ट है आधुनिक युग में वर्ण विभाजन के आधार पर हिन्दू समाज का संगठन उचित प्रतीत नही होता। 

डा.अंबेडकर इस बारे में आगे कहते है-''हिन्दू समाज को ऐसे धार्मिक आधार पर पुन: संगठित करना चाहिए जो स्वतंत्रता, समता और बन्धुता के सिध्दान्त को स्वीकार करता हो। इस उद्देश्य की प्राप्ति को लिए जाति भेद और वर्ण की अलंध्यता तभी नष्ट की जा सकती है, जब शास्त्रों को भगवद मानना छोड़ दिया जाय।``

आखिर में यही कहा जा सकता है कि दलित संदर्भ में गांधी के विचार प्रासंगिता की कसौटी पर कई प्रश्न चिन्ह खड़े करते है। बहुत अच्छा होता यदि महात्मा गांधी अन्य मामले की तरह दलित समस्याओं को भी प्राकृतिक न्याय की कसौटी में कस कर देखते। तथा सभी को उच्च कोटि के व्यवसाय अपनाने की आज्ञा देते। समाज में उच्च कोटी तथा निम्न कोटी के व्यवसाय दोनो की जरूरत समान रूप से है। फिर इनके पुश्तैनी स्वरूप को बदलने की आजादी गांधी क्यों नही देतें? क्यो उच्च जातियों के पेशे आरक्षित करने का पक्ष लेते है? आखिर श्रेष्ठता का सीधा संबंध संलग्न व्यवसाय से ही हैं। इसकी स्वतंत्रता के बिना समाज में समानता की कल्पना करना हास्यास्पद प्रतीत होता है। स्त्रोत : संजीव खुदशाह, मोबाईल ०७८६९७७४८७३ देशबंधु!, गांधी और दलित प्रश्न, (11 .09 .2010)

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