बात बात में राष्ट्रीय अपमान!
12/08/2011 स्त्रोत : विस्फोट.कॉमयह परम्परा सा बन गया है कि प्रति वर्ष स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस के बाद हर क्षेत्र से दो एक समाचार ऐसे आते हैं जिनमें राष्ट्रीय ध्वज के अपमान का समाचार होता है। यह अपमान शाम को झंडा न उतारने या झंडे को उल्टा फहराये जाने से सम्बन्धित होता है। इस खबर के बाद कभी पता नहीं चलता कि ऐसे कितने मामलों में क्या हुआ और इस ‘अपराध’ के लिए किसी को दण्ड मिला या नहीं मिला। लगता है कि ऐसी घटनाओं की अंतिम परिणति केवल एक समाचार बन कर समाप्त हो जाना भर होती है। यह स्वाभाविक ही है क्योंकि हम लोग आम तौर पर किसी कानून को लादने के चक्कर में गलत भाषा का प्रयोग कर देते हैं, और यह आरोप उतनी ही आसानी से धुल भी जाता है।
राष्ट्रीय ध्वज हमारी राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक होता है और उसको फहराने और उतारने के कुछ नियम बना दिये गये हैं, जिनका पालन किया जाना अनिवार्य होता है। ऐसा न करना किसी शासकीय या गैरशासकीय संस्था और जिम्मेवार सम्बन्धित व्यक्ति को दण्ड का पात्र बनाती है। किंतु जो घटनाएं सूचना माध्यमों के द्वारा प्रकाश में आती हैं, वे ध्वज का अपमान न होकर किसी कर्मचारी की वैसी ही भूल का एक हिस्सा है जैसी कि वह अपने सेवाकाल में दूसरी सैकड़ों भूलों की तरह कभी कर देता है। सम्बन्धित कर्मचारी का राष्ट्रीय ध्वज से कोई बैर नहीं होता और न ही वह देश के शासन को चुनौती देते हुए ऐसा करने की कोशिश कर रहा होता है, इसलिए उसकी इस बड़ी भूल को अपमान कहना गलत होता है। ध्वज का अपमान तो कश्मीर में घुस आये वे अलगाववादी करते हैं जो जानबूझकर सार्वजनिक रूप से हिन्दुस्तान का झंडा जलाते हैं और उसे पैरों के नीचे कुचलते हैं। उनकी ऐसी ही असहनीय हरकतों से उत्तेजित होकर देश के लिए प्राणों की बाजी लगाने वाले भारतीय सैनिक अपनी सीमा लांघ कर अलगाववादियों को दण्डित कर देते हैं और इस पेटे में कभी कभी निर्दोष नागरिक भी आ जाते हैं। अपमान करने वाली तो पाकिस्तान की सरकार थी जिसने दोस्ती के नाम हिन्दुस्तान आये तत्कालीन राष्ट्रपति मुशर्रफ के विमान पर लगाये गये भारतीय झण्डे के रंगों को उलट दिया था।
प्रतिवर्ष दो तीन बार इस तरह के समाचार आते हैं कि किसी न किसी पश्चिमी देश में भारतीय देवी देवताओं के चित्रों को जूते चप्पलों या बनियान चड्ढियों पर छाप कर उनका अपमान किया गया है। रोचक यह है कि सम्बन्धित उत्पाद न तो भारत भेजने के लिए होता है और न ही विदेश में रहने वाले भारतीयों में बेचने के लिए ही होता है जिससे उन चित्रों के द्वारा वे अपने उत्पाद की बिक्री में वृद्धि की उम्मीद कर रहे हों जैसा कि हिन्दुस्तान में राधा छाप बीड़ी या गोपाल जर्दा आदि आदि धार्मिक प्रतीकों को भुनाने वाले व्यापारी करते हैं। उन चित्रों को प्रकाशित किये जाने वाले क्षेत्र में धर्मों की कोई प्रचार प्रतिद्वन्दता भी नहीं चल रही होती है कि दूसरे के धार्मिक प्रतीकों का अपमान करके उसके प्रचार को कमजोर किये जाने का प्रयास हो। अपनी इस जिज्ञासा को जब मैंने अपने एक चित्रकार मित्र के सामने रखते हुए पूछा कि भारतीय आस्था के प्रतीकों के ऐसे चित्रों के दुरुपयोग का क्या कारण है तो उसने हँसते हुए कहा कि यह दुरुपयोग तुम्हें लग रहा है क्योंकि तुम उन चित्रों की कथाओं से परिचित हो, पर उनके लिए तो यह उपयोग है। विस्तार में जाने से पहले यह बताओ कि इन चित्रों के अलावा क्या उनके उत्पाद और भी तरह के चित्र प्रदर्शित नहीं करते और जो करते हैं उनके सिर पैर के बारे में तुम्हें कितना पता है। इसी तरह उन्हें ये चित्र अपने वैचित्र्य के कारण आकर्षित करते हैं। अपनी आस्थाओं और उनकी कथाओं से दूर हटकर जरा सोचो कि तुम्हें कैसा लगेगा जब तुम एक बड़े पेट वाले मनुष्य के शरीर पर हाथी का सिर लगा देखोगे, जिसकी सवारी एक चूहा है। या किसी मृगछाला पहिने मनुष्य के गले में साँप जटाओं से पानी की धार, और आधा चन्द्रमा धारण किये हुए देखोगे जो हाथों में त्रिशूल लिए हुए नृत्य की मुद्रा में हो। एक निराट श्यामल महिला हाथों में तलवार लिए, लाल लाल लम्बी जीभ निकाले, गले में नरमुण्डों की माला पहिने हुए किसी मनुष्य के सीने पर पैर रख कर खड़ी हो तो क्या ये पश्चिमी सभ्यता के वैसे ही प्रतीक जैसे नहीं लगते जैसे कि सुपर मैन या स्पाइडर मैन आदि होते हैं, जिन्हें वे शौक से अपने उत्पादों पर चित्रित करते हैं। अनजाने में वे लोग भी ऐसी ही विचित्रताओं से आकर्षित होकर भारतीय चित्रों की नकल कर लेते हैं और अपने उत्पादों पर छाप लेते हैं। हमें भी बुरा तब लगता है जब ऐसे चित्र जूतों या चड्ढियों आदि पर छप जाते हैं और उनकी सूचना देश के उग्र धार्मिक समूहों के नेतृत्व के पास तक पहुँच जाती है, जो अपने राजनीतिक लाभों, और धार्मिक ध्रुवीकरण के लिए उनका स्तेमाल करने लगती है। सच तो यह है कि ऐसी घटनाओं के लिए न तो कोई विदेशी क्षेत्र विशेष दोषी होता है, और ना ही कोई धर्म दोषी होता है। मैं समझता हूं कि जब ऐसी घटनाएं किसी के स्वाभिमान को जानबूझ कर चोटिल करने के लिए नहीं की जा रही हों तो उनकी उपेक्षा की जानी चाहिए, क्योंकि अपराध में उद्देश्य का महत्व होता है। इनका बार बार उल्लेख करना और प्रचार करना ही अपने आप से अपने आप को अपमानित करवाना होता है क्योंकि न तो यह सब कुछ अपमान करने के लिए किया गया होता है और न ही इसके लिए देश की सरकार सुदूर देश के ऊपर हमला करने की भूल करना चाहेगी।
ऐसी घटनाओं में रुचि लेने वाले प्रादेशिक स्तर के वे साम्प्रदायिक नेता होते हैं जो राष्ट्रीय स्तर के नेताओं के विदेश में इलाज कराने के समाचार पर कहते हैं कि ऐसा करने से देश के डाक्टरों का अपमान हुआ है। ऐसे हास्यास्पद बयान देने वाले नेताओं को अपने प्रदेश में स्थान नहीं मिलता और वे दूसरे प्रदेश के कार्यकर्ताओं के समर्पण और बलिदानों को लतिया कर उन पर लद जाते हैं तो क्या वे उन का अपमान नहीं कर रहे होते हैं जो अपने प्रदेश में उनकी पार्टी की सरकार बना कर देते हैं। ऐसे ही नेताओं के बच्चे जहाँ अध्य्यन कर रहे होते हैं वहाँ के बारों में विदेशी शराब पीकर झगड़ा करते हुए पकड़े जाते हैं तो क्या वे देशी शराब का अपमान कर रहे होते हैं। अगर वे अपने नेताओं के बर्थडे और अपनी पार्टी का स्थापना दिवस देशी कलेन्डर की जगह ग्रेगेरियन कलेन्डर से प्रतिवर्ष मनाते हैं तो क्या वे देशी कलेन्डर का अपमान कर रहे होते हैं। मानव जीवन के लिए राजनीति बहुत ही पवित्र और पूज्यनीय बनायी जानी चाहिए तभी लोकतंत्र सफल होगा। अपने निहित स्वार्थों के लिए अपनी राजनीति का बेहूदा और गन्दा स्तेमाल करना और उसके लिए भाषा के शब्दों की हत्या करना ठीक नहीं है। डीजल चलित डीसीएम टोयटा को रथ कहने वाले, स्कूलों को धार्मिक आधार पर बाँटने के लिए उन्हें शिशु मन्दिर कहने वाले या आदिवासियों को [नगर से जाकर बस जाने वाले] बनवासी कहने वाले बहुत ही कुटिल राजनीति खेल रहे हैं। अपने धार्मिक प्रतीक और उनके मन्दिर का अपमान तो वे लोग कर रहे होते हैं जो विकीलीक्स के खुलासे के अनुसार अमेरिकन राजदूत से कहते हैं कि राम मन्दिर आन्दोलन तो केवल एक चुनावी हथकण्डा भर है। जिन्हें इस अपमान की चिंता नहीं है उन्हें देश के डाकटरों का अपमान सता रहा है जबकि किसी भी डाक्टर ने ऐसा नहीं कहा। डा. तोगड़िया ने कहा हो तो मुझे पता नहीं, पर वे भी अब डाक्टर कहाँ रहे।
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