Saturday, August 13, 2011

आदिवासियों की व्यथा!

9 अगस्त को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित विश्व आदिवासी दिवस मनाने के लिए छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में एक वृहद् सम्मेलन का आयोजन किया गया।
अतिथि के रूप में देश भर के आदिवासी नेता जुटे, सम्मेलन में हजारों की संख्या में शामिल हुए
आदिवासियों का उत्साह देखते ही बनता था। मंच से अधिकांश नेताओं ने आदिवासी समाज को आगे बढ़ाने के लिए चिंता जताई, लेकिन सबसे अधिक जोर इस बात पर दिया गया कि आदिवासियों के जल-जंगल-जमीन की रक्षा कैसे हो सके?


आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत होने के बाद देश में कहीं भी उद्योग लगाने का सिलसिला शुरू हुआ। बहुराष्ट्रीय कंपनियां हों या फिर देश के कार्पोरेट उद्योग स्थापित करने ऐसे स्थानों का चयन किया जो खनिज संसाधन के करीब हो। यह संयोग ही है कि अधिकांश खनिज भंडार आदिवासियों के निवास क्षेत्रों में है। इसलिए जमीन अधिग्रहण करने का सिलसिला शुरू हुआ। उद्योग को बढ़ावा देने के लिए ऐसे नियम कानून बने जिससे आदिवासियों का जल-जंगल-जमीन पर हक कमजोर होता चला गया। अब स्थिति यह हो गई है कि बंगाल से लेकर महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश से लेकर कर्नाटक तक आदिवासी अपनी जमीन बचाने संघर्षरत हैं।

वैसे उद्योग लगाने के लिए आदिवासियों की जमीन लेना इसलिए जरूरी नहीं है कि वे सबसे उपयुक्त स्थान है। ऐसा लगता है आदिवासियों की जमीन कौड़ी के मोल हथियाने के लिए चुने जाते हैं। साम-दाम-दण्ड-भेद से आदिवासियों की जमीन ली जा रही है। प्रेम से नहीं तो प्रशासनिक दबाव से, छल कपट से। जबकि संविधान में आदिवासी क्षेत्रों की जमीन की रक्षा करने के उपाय समाहित हैं। अधिकांश आदिवासी इलाकों में पांचवी अनुसूची लागू है। पंचायती राज कानून के तहत आदिवासी क्षेत्रों के लिए विशेष 'पेसा' लागू है जिसके तहत ग्राम सभाओं को विशेष अधिकार दिए गए हैं। इन संवैधानिक व्यवस्था को ताक पर रखकर जमीनें हड़पी जा रही हैं। ऐसे में आदिवासी क्या कर सकते हैं। 

आदिवासियों की सबसे बड़ी कमजोरी समाज का शिक्षित न होना और जागरूकता और एकता का अभाव है। देशभर की जनजातियां आपस में बंटे हुए हैं। यह आदिवासी एकता में बड़ी बाधा है। वहीं राजनीति इन जनजातियों को एक होने से रोकती है क्योंकि कई राज्य हैं जहां आदिवासी एका हो जाय तो फिर सत्ता इनके हाथ में चली जाएगी। वैसे यह नारा तो लम्बे समय से लग रहा है-'एक तीर एक कमान, सारे आदिवासी एक समान।' सम्मेलन में इसका स्वरूप देखने को मिला। समाज को किस तरफ ले जाया जाय, इस बात पर भी नेताओं ने अपनी चिंता जताई। यह बात सही है कि समाज की मुख्यधारा में आज जो घटित हो रहा है उससे दुनिया खतरे में है। प्रदूषण, अप्राकृतिक जीवन शैली, कन्या भ्रूण हत्या, संसाधनों का अतिदोहन, जैसी कितनी विकृतियां आज मुख्य समाज ने अपनी करतूतों से पैदा कर दी है। इस संदर्भ में सांसद नंदकुमार साय ने सही कहा कि लोग कहते हैं कि आदिवासी समाज को मुख्यधारा में शामिल होना चाहिए, इसका क्या मतलब है। श्री साय की चिंता पर गौर करें तो आज जरूरत यह है कि मुख्यधारा आदिवासी समाज की विशेषताओं को अपनाए। शायद यही दुनिया को बचाने का रास्ता शेष है। फिर आर्थिक उदारीकरण, वैश्वीकरण का क्या होगा? 

वर्तमान समय की ज्यादातर समस्याएं नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की देन है। इस आग से अब आदिवासी भी झुलस रहे हैं। रायपुर में आयोजित सम्मेलन में राजनीति को ताक पर रखकर नेताओं का अपने समाज के बारे में जो चिंता दिखी शायद यह समाज को बचाने की पीड़ा है। जल- जंगल-जमीन को बचाने के साथ-साथ समाज को शिक्षित करने पर भी जोर दिया गया। इस सम्मेलन का आयोजन भले ही किसी उत्सव के रूप में हुआ, लेकिन जो संदेश यहां से निकला उसका व्यापक राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक असर होगा। ब्रिटिशकाल में आदिवासियों ने जल-जंगल-जमीन की रक्षा के लिए कई सशस्त्र लड़ाईयां लड़ी हैं। यही वजह है कि संविधान ने उनके प्राकृतिक संसाधनों पर उन्हें विशेष अधिकार दिया है। यह ध्यान रखना होगा कि व्यवस्था ऐसी परिस्थिति न पैदा करे कि उन्हें फिर से संघर्ष का रास्ता अख्तियार करना पड़े।
-स्त्रोत : देशबंधु  आदिवासियों की व्यथा! (सम्पादकीय) 11, Aug, 2011,

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