उन्हें अन्ना हजारे का रवैया बहुत गहरे तक ब्राह्मणवादी लगता है। शराब, तंबाकू यहां तक कि केबल टीवी पर वहां पाबंदी है। दलित परिवारों को भी शाकाहारी भोजन करने पर मजबूर किया जाता है। जो इन नियमों या आदेशों को तोड़ता है, उसे एक खंबे से बांधकर उसकी पिटाई की जाती है।
लगभग बीस बरस पहले मैंने अन्ना हजारे को दिल्ली में सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायर्नमेंट की एक बैठक में देखा था। तब तक अन्ना हजारे को पर्यावरण के हलकों में अपने गांव रालेगण सिद्धि में किए गए काम से कुछ-कुछ जाना जाने लगा था। जल संरक्षण और पेड़ लगाने के उनके कार्यक्रम कामयाब हुए थे, जबकि वन विभाग के ऐसे ही कार्यक्रम नाकाम रहे थे, जिसने अच्छे-खासे वन उद्योगों को सौंप दिए थे। उस बैठक में अन्ना हजारे जब आए थे, तो वह उसी पहनावे में थे, जो वह इन दिनों पहनते हैं। वह बहुत धीरे-धीरे और हिचक के साथ बोल रहे थे। यह साफ था कि वह हॉल में बैठे उन शहरी लोगों के बीच बहुत सहज नहीं महसूस कर रहे थे, जिनकी नैतिक नहीं लेकिन सांस्कृतिक पूंजी हजारे से काफी ज्यादा थी।
अब अपने टेलीविजन स्क्रीन पर मैं जिस इंसान को देख रहा हूं, वह नई दिल्ली की बैठक में दिखे इंसान से अलग है। वह सरकार और उसके मंत्रियों को चुनौती देते हैं, उन पर व्यंग्य कसते हैं। किसी वक्त में अन्ना रालेगण सिद्धि के ग्रामीणों की आवाज और विवेक थे। अब उनका दावा है कि वह इस देश के उद्धारकर्ता हैं। कुछ टीवी चैनल यह दावा करते हैं कि अन्ना बहुसंख्यक भारतीयों का प्रतिनिधित्व करते हैं। अखबार, इंटरनेट और सड़कों से आती आवाजें कुछ ज्यादा जटिल तस्वीरें पेश करती हैं। उदारवादी चिंतित हैं, क्योंकि नीतियों में सुधार को सड़कों के आंदोलन से निर्धारित करने में बड़े खतरे हैं। इसका नेतृत्व ऐसा व्यक्ति कर रहा है, जिसके ओजस्वी भाषण संवैधानिक लोकतंत्र की अवहेलना करते हैं। दलित और पिछड़ों को यह मंडल विरोधी आंदोलन का ही संस्करण लगता है, जिसे सवर्ण चला रहे हैं।
इन राजनैतिक आशंकाओं को एक व्यावहारिक समाजशास्त्री की सावधानी से भी जोड़ा जा सकता है। दिल्ली महानगर की आबादी तकरीबन एक करोड़ है। फिर भी रामलीला मैदान में कभी 50 हजार से ज्यादा लोग नहीं इकट्ठा हुए। मई 1998 में कोलकाता के चार लाख नागरिक पोखरण विस्फोटों के खिलाफ सड़कों पर उतर आए थे, तब किसी ने नहीं कहा कि भारत परमाणु हथियारों के खिलाफ है। इसके बावजूद अन्ना हजारे के आंदोलन के सामाजिक प्रभाव को नकारना एक भूल होगी। यह आंदोलन मौजूदा संप्रग सरकार के कार्यकाल में हुए कई घोटालों जैसे-राष्ट्रमंडल, 2-जी, आदर्श सोसाइटी वगैरा की पृष्ठभूमि में शुरू हुआ है। इन घोटालों की मीडिया कवरेज की वजह से पिछले करीब एक साल से इस सरकार के खिलाफ नफरत का माहौल बन गया है। लेकिन चिंताजनक यह है कि यह नफरत सरकार नामक परिकल्पना के ही खिलाफ है। इस क्षण के इस मिजाज को, इस गुस्से और विश्वासघात की भावना को अन्ना हजारे ने पकड़ा है।
अन्ना हजारे की सफलता को मोटे तौर पर उन लोगों के चरित्र से समझा जा सकता है, जिनका वह विरोध कर रहे हैं। अन्ना में लोग वे सारे गुण देख रहे हैं, जो वे प्रधानमंत्री और उनके मंत्रियों में नहीं देखते। साहस, स्वतंत्रता और किसी सिद्धांत के लिए अपने जीवन को दांव पर लगा देना।
सीपी सुरेंद्रन ने एक व्यंग्यात्मक लेख लिखा है, जिसमें उन्होंने अन्ना को एक नैतिक तानाशाह कहा है, जो एक हास्यास्पद, भ्रष्टाचार विरोधी नाटक के निर्देशक हैं। लेकिन उन्होंने आगे लिखा है कि उस पार्टी को सत्ता में रहने का अधिकार नहीं, जो सेना के एक ऐसे रिटायर्ड ट्रक ड्राइवर से नहीं मुकाबला कर सकती, जिसकी कुल जमा शक्ति एक तरह की ठोस नैतिकता और भूखे रहने की प्रतिभा है। ये दो ताकतें, ईमानदारी और भोजन या भौतिक जीवन के तमाम सुख छोड़ देने की तैयारी अन्ना हजारे को अपने विरोध में खड़े भ्रष्ट और लालची लोगों से अलग करती है।
मध्यम वर्ग के बड़े जनसमुदाय ने मनमोहन सिंह की सरकार से चिढ़कर अन्ना को गले लगाया है। लेकिन अन्ना के साथ पहचान जोड़ने के अपने खतरे हैं। हजारे एक भले आदमी हैं, संभवत: साधु पुरुष व्यक्ति भी हैं, लेकिन उनकी समझ किसी ग्रामीण जमींदार जैसी है। मुकुल शर्मा की एक किताब ‘ग्रीन ऐंड सैफ्रन’ इस साल के अंत में आने वाली है, जिसमें उन्होंने अन्ना हजारे की क्षमताओं और सीमाओं का विश्लेषण किया है। मुकुल शर्मा प्रतिष्ठित पर्यावरण पत्रकार हैं, जिन्होंने रालेगण सिद्धि में काफी जमीनी शोध कार्य किया है। उन्होंने वहां जो देखा, उससे वह बहुत प्रभावित हुए। पानी के कुशल प्रबंधन से खेती की उपज बढ़ी है, लोगों की आय बढ़ी है और कर्जों पर निर्भरता घटी है।
दूसरी ओर, उन्हें अन्ना हजारे का रवैया बहुत गहरे तक ब्राह्मणवादी लगता है। शराब, तंबाकू यहां तक कि केबल टीवी पर वहां पाबंदी है। दलित परिवारों को भी शाकाहारी भोजन करने पर मजबूर किया जाता है। जो इन नियमों या आदेशों को तोड़ता है, उसे एक खंबे से बांधकर उसकी पिटाई की जाती है।
अन्ना हजारे कहते हैं कि मनमोहन सिंह और कपिल सिब्बल भारत को नहीं पहचानते, क्योंकि उन्होंने विदेशी विश्वविद्यालयों से डिग्रियां ली हैं। हमें याद रखना चाहिए कि कई महान लोगों ने भी विदेश से डिग्री ली थी, जिनमें आधुनिक भारत के दो महान समाज सुधारक शामिल हैं, महात्मा गांधी और बाबा साहेब अंबेडकर। अन्ना हजारे कहते हैं कि पिछले 64 साल में हमें सही आजादी नहीं मिली है। वास्तविकता यह है कि अगर हमारे संविधान ने जमीन नहीं बनाई होती और नेहरू, पटेल, अंबेडकर, कमला देवी चट्टोपाध्याय जैसे द्रष्टाओं ने मेहनत न की होती, तो दलितों और स्त्रियों को कानून के तहत समान अधिकार नहीं मिलते और न ही सार्वभौमिक मताधिकार के आधार पर नियमित व स्वतंत्र चुनाव होते। महिलाएं और दलित ब्रिटिश राज में भी समान अधिकार नहीं पा सके थे। हालांकि यह भी सच है कि सिद्धांत और व्यवहार में हमारे यहां अब भी बहुत फर्क है।
अन्ना हजारे का दावा है कि सिर्फ जन लोकपाल के आ जाने से 65 प्रतिशत भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। इस टिप्पणी में वह देश को एक गांव समझ रहे हैं। एक भला और यदाकदा क्रूर जमींदार एक छोटे-से समुदाय में सुधार ला सकता है, लेकिन एक देश की समस्याएं किसी एक सुपरकॉप या सुपर सरपंच से हल होने वाली नहीं हैं। लोकतांत्रिक संस्थाओं की गुणवत्ता और कामकाज सुधारने के लिए एक जन या सरकारी लोकपाल से कहीं ज्यादा की जरूरत है। हमें कई चीजों पर काम करना पड़ेगा। जैसे चुनावों के फंड ज्यादा पारदर्शी बनाना, अपराधियों को चुनाव लड़ने से पूरी तरह रोकना, राजनैतिक दलों में सुधार करना, जिससे वे परिवार और कुनबे पर कम से कम निर्भर हों, नौकरशाही और पुलिस को राजनैतिक हस्तक्षेप से बचाना और पेशेवर विशेषज्ञों को सरकारी सेवाओं में लाना वगैरा। इन परिवर्तनों के लिए हमें उन ढेर सारे भारतीयों के अनुभव और विशेषज्ञता की जरूरत पड़ेगी, जिनके पास अन्ना हजारे का आदर्शवाद तो है, लेकिन संकीर्णता नहीं है। (ये लेखक के अपने विचार हैं) स्त्रोत : लाइव हिंदुस्तान.कॉम अन्ना की राह में मुश्किलें हजार-लेखक : रामचंद्र गुहा, प्रसिद्ध इतिहासकार (26.08.2011)
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