राजीव यादव
पहले तीन उदाहरण देखिए। एक अंडर गारमेंट के विज्ञापन में जिसका पंच लाइन है ‘बडे आराम से’ में सैफ अली खान एक नवाब की हत्या की गुत्थी सुलझाते हैं। वे नवाब की पत्नी, दो सम्भ्रांत दिखने वाले लोग और एक माली से पूछताछ करते हैं। सभी इस हत्या से इंकार करते हैं। तभी नवाब साहब उठ खडे़ होते हैं और बताते हैं
कि माली ही उनका हत्यारा है। एक मोबाइल फोन के विज्ञापन में अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा का मोबाइल उनकी नौकरानी चुरा लेती है। लेकिन अचानक फोन बजने से वो पकड़ी जाती है। एक च्यूंगम के विज्ञापन में दावा किया जाता है कि इसे चबाने से दांत इतने ज्यादा चमकते हैं कि बल्ब की जरूरत नहीं पड़ती। इसमें आदिवासी दिखने वाले लोगांे को गाडि़यांे के हेड लाइट, लैम्प पोस्टों और विवाह समारोह मे झूमर की जगह छत से उल्टा लटकते दिखाया गया है।
कि माली ही उनका हत्यारा है। एक मोबाइल फोन के विज्ञापन में अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा का मोबाइल उनकी नौकरानी चुरा लेती है। लेकिन अचानक फोन बजने से वो पकड़ी जाती है। एक च्यूंगम के विज्ञापन में दावा किया जाता है कि इसे चबाने से दांत इतने ज्यादा चमकते हैं कि बल्ब की जरूरत नहीं पड़ती। इसमें आदिवासी दिखने वाले लोगांे को गाडि़यांे के हेड लाइट, लैम्प पोस्टों और विवाह समारोह मे झूमर की जगह छत से उल्टा लटकते दिखाया गया है।
इन तीनों अलग-अलग विज्ञापनों पर गौर किया जाए तो एक समानता यह दिखेगी कि इनमें माली, नौकर और आदिवासी यानी गरीब तबकों को ही अपराधी, चोर और अमानवीय रूप से इस्तेमाल होते हुए दिखाया गया है।
सवाल उठता है कि इन कम्पनियों को ऐसा क्यूं लगता है कि गरीबों-वंचितों की ही ऐसी प्रस्तुति उनके सामान की बिक्री को बढ़ा सकती है। क्योंकि कोई भी कम्पनी किसी प्रोडक्ट के विज्ञापन पर काफी शोध करती है और उसकी रणनीति ग्राहक की जेब तक पहुंचने से पहले ग्राहक के मनोविज्ञान को समझना और उसको संतुष्ट करना होता है। यानी ऐसे विज्ञापनों पर सिर्फ गरीब या वंचित वर्ग विरोधी मानसिकता से संचालित होने का आरोप नहीं लगाया जा सकता। बल्कि उसे बहुत हद तक समाज में व्याप्त नजरिये को कैश कराने की कोशिश के बतौर भी देखा जाना चाहिए।
दरअसल बाजार, जो बहुत शक्तिशाली है और आज राजनीति को भी निंयत्रित करता है, उसकी शक्ति का स्रोत समाज में व्याप्त मनोविज्ञान और शक्ति संतुलन ही है। यानी अगर बाजार, जिसका उद्येश्य जनकल्याण के बजाय सिर्फ मुनाफा है, ताकतवर और नियामक भूमिका में पहुंचता है तो इसका एक अर्थ यह भी होता है कि समाज में ताकतवर लोगों का वर्चस्व बढ़ा है और कमजोर-वंचित तबकों का घटा है। भारत जैसे समाज में जहां ऊंच-नीच का आधार वर्गीय के साथ- साथ जाति भी है, में बाजार की आक्रामकता के निशाने पर गरीब और दमित स्वतः हो जाते हैं। जिसकी अभिव्यक्ति ऐसे विज्ञापनों में होती देखी जा सकती है।
इन विज्ञापनों की एक खासियत यह भी है इसे बाजार बहुत खूबसूरती से नैतिकता की आड़ में संचालित करता है ताकि उस पर कोई सवाल भी न उठा सके। मसलन उपरोक्त पहले और दूसरे विज्ञापनों में ‘हत्यारे का पकड़ा जाना’ और ‘चोर की पोल खुल जाने’ जैसे नैतिक मूल्यों की आड़ ली गयी है। लेकिन क्या ऐसे नैतिक मूल्य सर्वमान्य मानकों पर निर्मित होते हैं? क्या ये जाति या वर्गीय तौर पर निरपेक्ष होते हैं? दूसरे शब्दों में कहें तो क्या इन विज्ञापनों में किसी सम्भ्रांत या उच्च वर्ण के लुक वाले व्यक्तियों को चोरी करते या लैम्प पोस्ट पर उल्टा लटकते दिखाया जाता तो क्या तब भी वह ग्राहक के मन को उतना ही लुभावना लगता? जाहिर है नहीं। क्योंकि हमारे यहां चोरी, अपराध या दूसरों की सेवा करना जातीय पहचान के साथ जुड़ा है। इसीलिये हमारेे यहां चोरी के साथ ‘चमारी’ प्रत्यय जुड़ा है और कुछ जातियों की तो पहचान ही अपराधी जातियों के बतौर रही है।
बहरहाल, ऐसा नहीं है कि विज्ञापनों की यह टोन सिर्फ निजी कम्पनियों तक सीमित हो, सरकारी विज्ञापनों में भी इन प्रवृत्तियों की झलक देखी जा सकती है। मसलन 4-5 साल पहले दिल्ली सरकार ने बिजली की चोरी के खिलाफ अभियान के तहत जो विज्ञापन जारी किया था उसमें एक धोती कुर्ता और सर पर गमछा बांधे, गरीब दिखने वाले आदमी को साइकिल पर पीछे पोटली में बिजली के खम्भे बांध कर भागते दिखाया गया था। जिसके नीचे लिखा था ‘यह आपके हिस्से की बिजली चुरा रहा है’। जाहिर है सरकारों की नजर में लाखों करोड़ों रूपये की बिजली चोरी करने वाले नेताओं और उद्योग घरानों के बजाय एक बल्ब की कटियामारी करने वाला गरीब ही चोर है।
दरअसल कल्याणकारी राज्य की विदाई और भूमंडलीकरण की बाजार आधारित नीतियों ने समाज के कमजोर तबकों को सिर्फ हाशिये पर ही नहीं धकेला है बल्कि उसके खिलाफ लगातार हिंसक रवैया अपनाये रहना ही उसकी नियति बन गई है। ऐसा इसलिये कि भारत में पूंजीवाद और लोकतंत्र दोनों का विकास यूरोप की तरह सामंतवाद को उखाड़ कर फेंकने के बाद नहीं उसके कंधों पर सवार हो कर ही हुआ। ऐसे में विकास या प्रगति के उसने जो भी मानक और लक्ष्य तय किए हैं उस पर खरे उतरने और हासिल करने के लिये गरीबों-दमितों पर आक्रामक बने रहना उसका अनिवार्य शर्त बन जाता है। और चूंकि नैतिकताएं और सामाजिक मूल्य भी इन्हीं सामंती अवधारणाओं पर विकसित हुए हैं इसलिये इस हिंसा को सामाजिक स्वीकृति भी आसानी से हासिल हो जाती है।
राजीव कुमार यादव, लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। पीयूसीएल के पदाधिकारी राज्य प्रायोजित आतंकवाद के विशेषज्ञ हैं। स्त्रोत : हस्तक्षेप
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