संतुष्टि ही जीवन का सच है
कहानी
उसका नाम कमली है.पर वह पागल समझी जाने वाली कमली नहीं है. हां, प्रभु के प्रेम में कमली अवश्य है. हालांकि उसके पास पूजा नाम की चीज़ के लिए न तो जगह है और न ही साधन. मंदिर में जाने का भी न तो समय है और न कोई उसको मंदिर में घुसने देता है. एक बार मंदिर कमेटी की नज़र में उसके बेटे की
काबिलेतारीफ़ लियाकत आ गई थी सो, एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में उसे भाग लेने का अवसर मिला. रिहर्सल वाले दिन मां को भी साथ लाने के लिए कहा गया था, लेकिन, अपने नियमित काम से छुट्टी पाने के बाद वह देर से आ पाई. लाख दुहाई देने पर भी मंदिर के पुजारी द्वारा सुरक्षा कारणों से उसे अंदर नहीं आने दिया गया. बाद में तो अपने बेटे का कार्यक्रम सबसे अंत में रखने के निवेदन के कारण बेटे के साथ आती और बेटे को इतने बड़े-बड़े घरों के बच्चों के साथ गाते-बजाते-नाचते-अल्पाहार खाते-पीते देखकर बहुत खुश होती थी. इस सबके बीच में वह मंदिर की मूर्तियों के दर्शन कर पाने के लिए बराबर भगवान का स्मरण व धन्यवाद करती रहती.
काबिलेतारीफ़ लियाकत आ गई थी सो, एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में उसे भाग लेने का अवसर मिला. रिहर्सल वाले दिन मां को भी साथ लाने के लिए कहा गया था, लेकिन, अपने नियमित काम से छुट्टी पाने के बाद वह देर से आ पाई. लाख दुहाई देने पर भी मंदिर के पुजारी द्वारा सुरक्षा कारणों से उसे अंदर नहीं आने दिया गया. बाद में तो अपने बेटे का कार्यक्रम सबसे अंत में रखने के निवेदन के कारण बेटे के साथ आती और बेटे को इतने बड़े-बड़े घरों के बच्चों के साथ गाते-बजाते-नाचते-अल्पाहार खाते-पीते देखकर बहुत खुश होती थी. इस सबके बीच में वह मंदिर की मूर्तियों के दर्शन कर पाने के लिए बराबर भगवान का स्मरण व धन्यवाद करती रहती.
शायद मन में प्रश्न उठ रहा होगा कि उस कमली का काम क्या था. उसका उत्तर यह है कि आजकल सरकार द्वारा चार मंज़िले मकानों की स्वीकृति मिलने के कारण एक-से-एक बढ़िया चीज़ें लगाकर बड़े चाव से बनवाए गए एक या दोमंज़िले मकान धराशाई हो रहे हैं और उनकी जगह चार-चार मंज़िले मकान बन रहे हैं. ऐसे में बिल्डरों, आर्किटैक्टों और इससे संबंधित काम करने वालों के साथ-साथ मज़दूरों की भी बन आई है. कमली का परिवार भी ऐसे भाग्यशाली लोगों की सूची में सम्मिलित था. उसके परिवार को एक जगह चौकीदारी का काम मिल जाने के कारण रहने का अस्थाई ठिकाना भी मिल गया था. वह मज़दूरी का काम शुरु करने से पहले सुबह-सवेरे उठकर बाहर रैम्प बनने की जगह पर खुले आसमान के नीचे पूरे दिन की रोटियां पकाने का काम हंसते-हंसते करती और आने-जाने वालों को राम-राम भी करती. जो उसके राम-राम का एक बार प्यार से उत्तर दे देता उनकी तो मानो वह बाट ही जोहती रहती. जिनकी बाट वह जोहती रहती उनमें, मेरा भी नाम सम्मिलित था. रोज़ सुबह सैर पर जाते हुए ऐसी परिस्थितियों में हंसते हुए काम करती हुई कमली का दिल से राम-राम करना मुझे बहुत कुछ सिखाता भी था और यह सोचकर कि अस्थाई झोंपड़ी में रहकर भी किस तरह खुश रहा जा सकता है, यह देखकर मन को सुकून भी मिलता था. शाम की सैर से वापिस आते हुए सुबह के बनाए हुए रोटलों को पूरा परिवार हंसते-हंसते खाता दिखता था.
एक दिन सुबह सैर पर जाते हुए मैंने उससे पूछ ही तो लिया कि ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में भी वह हंसते हुए काम कैसे कर लेती है? उसका उत्तर सुनकर मेरे आश्चर्य की सीमा न रही. वह बोली,-
"बात असल में यह है कि जीवन की मूल आवश्यकताएं पूरी होने के बाद हम जो भी चाहते हैं, वह लोभ है. रोटी, कपड़ा, मकान हर इंसान को चाहिए. इसकी इच्छा करना किसी भी मनुष्य का अधिकार है. जब देश का प्रशासन नहीं दे सकता तो ईश्वर की शरण में जाना स्वाभाविक है. पर होता क्या है? भूख मिटाने के लिए दाल-रोटी मिल जाए तो पकवानों की मांग होने लगती है. तन ढकने को साफ-सुथरी पोशाक का इंतजाम हो जाए तो फैशन के हिसाब से कपड़े बनवाने को मन ललचाता है. वाहन सुख साइकल-स्कूटर से होते हुए बड़ी गाड़ी की इच्छा में बदल जाता है. सिर छिपाने का सीधा-सादा घर मिल जाए तो बंगले की इच्छा मन में उठने लगती है. पहले बस मिल जाने की तमन्ना, बस मिल जाए तो सीट की तमन्ना, सीट मिल जाए अच्छी सीट की तमन्ना सताने लगती है. संतान के रूप में बेटी गोद में आ गई तो कुलतारक बेटे की लालसा तंग करने लगती है. जीवन में तृप्ति कैसे आए, हम कैसे उतने में ही संतुष्ट हो जाएं जितना हमें मिला है? इसका एक उपाय एक विचारक ने कुछ इस तरह सुझाया है: धन हो तो दूसरों की मदद करके खुशी हासिल करो. धन न हो तो शुक्र मनाओ कि उसे संभालने के झंझट से छूटे. जीवन में कोई बड़ी सफलता न मिल पाए तो सोचो दूसरों की ईर्ष्या से बच गए.
यह जानना स्वाभाविक ही था कि इतनी अच्छी-अच्छी, बड़ी-बड़ी बातें उसने कहां से सीखी हैं, उसका जवाब था कि, हर इतवार को वह और उसके पतिदेव मालिक से सुबह आठ से नौ बजे तक की एक घंटे की छुट्टी लेकर सपरिवार अपने गुरुजी की कथा में जाते थे. वहां अक्सर इस तरह की अच्छी-अच्छी बातें सुनने को मिलती थीं. घर आकर उन पर मनन करने पर लगता था कि यही तो जीवन का सच है. जो इन बातों पर विश्वास करके उन पर अमल करते हैं वे, सदैव संतुष्ट रहते हैं, सतुष्टि ही जीवन का सच है. मैं इन उपदेशों पर अमल करने की कोशिश करती हूं. जब कामयाब हो पाती हूं तो, चेहरे पर प्रसन्नता स्वतः ही आ जाती है, उसके लिए प्रयत्न नहीं करना पड़ता. उस दिन मुझे भी मानो जीवन का एक उत्तम व्यावहारिक सबक मिल गया था और मैं कब बिना सैर किए वापिस घर पहुंच गई, पता ही नहीं चला. स्त्रोत : लीला तिवानी Friday January 20, २०१२, नवभारत टाइम्स
nice article
ReplyDeleteThanks
Gunjan Kumar