धर्म क्या है?
एक संत आता है। भीतर की गुफा में जाकर धर्म के तत्व अध्यात्म को जानता है। फिर वह चला जाता है। फिर मत बचा रहता है। उसके आधार पर एक संस्कृति विकसित होती है। संस्कृति के फूल खिलते हैं। काल क्रम में संस्कृति मुख्य हो जाती है। अध्यात्म गौण हो जाता है। और फिर एक संत को, एक जीवित संत को इस धरती पर आना पड़ता है। फिर से अंगारे जलाने होते हैं। फिर से दीप जलाना होता है।
जो दीप कभी जला था, उसके आधार पर जो गीत रह गए थे, वे पुराने पड़ जाते हैं। फिर से एक नया दीपक जलता है। नई रोशनी आती है। नया गीत फूटता है। नई नदी बहती है। सब कुछ नूतन हो जाता है। तो कहूँगा कि तुम जानो या न जानो, तुम सब धर्म के मार्ग पर ही हो। कोई व्यक्ति ऐसा नहीं हैं, जो धर्म के मार्ग पर नहीं है।
यह और बात है कि उसे पता है, या नहीं पता है। लेकिन धर्म का तत्व क्या है? धर्म का उद्गम क्या है? कहाँ पहुँचना है हमें? गंतव्य कहाँ है?
उस बात को बताने के लिए ही संत इस धरती पर आता है। स्वामी विवेकानंद जी भी आए। और ये याद दिलाने के लिए आता है संत कि तुम कौन हो? 'अमृतस्य पुत्राः।' तुम राम-कृष्ण की संतान हो। तुम कबीर और गुरुनानक की संतान हो। तुम बुद्ध और महावीर की संतान हो। तुम क्यों दीन-हीन और दरिद्र जैसा जीवन जी रहे हो? क्यों अशांत हो, क्यों दुःखी हो? अपना स्वरूप हम भूल गए हैं। करीब-करीब ऐसे ही हम जीवन जीते हैं अपने वास्तविक स्वरूप को भूलकर।
इस जीवन की कितनी गरिमा है। इस जीवन की कितनी क्षमता है। अनंत आनन्द का खजाना, जो हमारे भीतर है, उसकी ओर हम पीठ करके जीते हैं। महर्षि नारद की तरह फिर कोई संत आता है हमारे बीच। कभी बुद्ध, कभी महावीर, कभी कृष्ण, कभी राम, कभी गुरुनानक, कभी गुरु अर्जुनदेव, कभी दादू, कभी दरिया, कभी रैदास, कभी मीरा, कभी सहजो, कभी दया बनकर आता है और हमसे कहता हैं कि चलो! उस मानसरोवर को चलो, जहाँ से तुम आए हो।
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धर्म क्या है?
मई 25, 2010
मैं धर्म क्या कहूं? जो कहा जा सकता है, वह धर्म नहीं होगा। जो विचार के परे है, वह वाणी के अंतर्गत नहीं हो सकता है। शास्त्रों में जो है, वह धर्म नहीं है। शब्द ही वहां है। शब्द सत्य की और जाने के भले ही संकेत हों,पर वे सत्य नहीं है। शब्दों से संप्रदाय बनते है, और धर्म दूर ही रह जाता है। इन शब्दों ने ही मनुष्य को तोड़ दिया है। मनुष्यों के बीच पत्थरों की नहीं, शब्दों की ही दीवारें है।
मनुष्य और मनुष्य के बीच शब्द की दीवारें है। मनुष्य और सत्य के बीच भी शब्द की ही दीवार है। असल में जो सत्य से दूर किए हुए है, वहीं उसे सबसे दूर किए हुए है। शब्दों का एक मंत्र घेरा है और हम सब उसमें सम्मोहित है। शब्द हमारी निद्रा है, और शब्द के सम्मोहक अनुसरण में हम अपने आपसे बहुत दूर निकल गए है।
स्वयं से जो दूर और स्वयं से जो अपरिचित है वह सत्य से निकट और सत्य से परिचित नहीं हो सकता है। यह इसलिए कि स्वयं का सत्य ही सबसे निकट का सत्य है, शेष सब दूर है। बस स्वयं ही दूर नहीं है।
शब्द स्वयं को नहीं जानने देते है। उनकी तरंगों में वह सागर छिप ही जाता है। शब्दों का कोलाहल उस संगीत को अपने तक नहीं पहुंचने देता जो कि मैं हूं। शब्द का धुआं सत्य की अग्नि प्रकट नहीं होने देता है। और हम अपने वस्त्रों को ही जानते-जानते मिट जाते है और उसे नहीं मिल पाते जिसके वस्त्र थे, और जो वस्त्रों में था, लेकिन केवल वस्त्र ही नहीं थ।
मैं भीतर देखता हूं। वहां शब्द ही शब्द दिखाई देते है। विचार, स्मृतियाँ, कल्पनाएं और स्वप्न ये सब शब्द ही है, और मैं शब्द के पर्त-पर्त घेरों में बंधा हूं। क्या मैं इन विचारों पर ही समाप्त हूं, या कि इनसे भिन्न और अतीत भी मुझमें कुछ है। इस प्रश्न के उतर पर ही सब कुछ निर्भर है। उतर विचार से आया तो मनुष्य धर्म तक नहीं पहुंच पाता,क्योंकि विचार से अतीत को नहीं जान सकता। विचार की सीमा विचार है। उसके पार की गंध भी उसे नहीं मिल सकती है।
साधारणत: लोग विचार से ही वापिस लौट आते है। वह अदृष्य दीवार उन्हें वापिस कर देती है। जैसे कोई कुंआ खोदने जाए और कंकड़-पत्थर को पाकर निराश हो रूक जाए। वैसा ही स्वयं की खुदाई में भी हो जाता है। शब्दों के कंकड़ पत्थर ही पहले मिलते है और वह स्वाभाविक ही है। वे ही हमारी बाहरी पर्त है। जीवन यात्रा में उनकी ही धूल हमारा आवरण बन गई है।
आत्मा को पाने को सब आवरण चीर देने जरूरी है। वस्त्रों के पास जो नग्न सत्य है, उस पर ही रूकना है। शब्द को उस समय तक खोदे चलना है, जब तक कि निशब्द का जल स्त्रोत उपलब्ध नहीं हो जाए। विचार की धूल को हटाना है, जब तक कि मौन का दर्पण हाथ न आ जाए। यह खुदाई कठिन है। यह वस्त्रों को उतारना ही नहीं है, अपनी चमड़ी को उतारना है। यही तप है।
प्याज को छीलते हुए देखा है, ऐसा ही अपने को छीलना है। प्याज में तो अंत में कुछ भी नहीं बचता है, अपने में सब कुछ बच रहता है। सब छीलनें पर जो बच रहता है, वही वास्तविक है। वहीं मेरी प्रामाणिक सत्ता है। वह मेरी आत्मा है।
एक-एक विचार को उठाकर दूर रखते जाना है, और जानना है कि यह मैं नहीं हूं। और इस भांति गहरे प्रवेश करना है। शुभ या अशुभ को नहीं चुनना है। वैसा चुनाव वैचारिक ही है, और विचार के पार नहीं ले जा सकता है। यहीं नीति और धर्म अलग रास्तों के लिए हो जाते है। निति अशुभ विचारों के विरोध में शुभ विचारों का चुनाव है। धर्म चुनाव नहीं है। वह तो उसे जानना है, जो सब चुनाव करता है। और सब चुनावों के पीछे है। यह जानना भी हो सकता है। जब चुनाव का सब चुनाव शून्य हो और केवल वहीं शेष रह जाए तो हमार चुनाव नहीं है वरन हम स्वयं है।
विचार के तटस्थ, चुनाव शून्य निरीक्षण से विचार शून्यता आती है। विचार तो नहीं रह जाते, केवल विवेक रह जाता है। विषय-वस्तु तो नहीं होती, केवल चैतन्य मात्र रह जाता हे। इसी क्षण में प्रसुप्त प्रज्ञा का विस्फोट होता है। और धर्म के द्वार खुल जाते है।
इसी उद्घाटन के लिए मैं सबको आमंत्रित करता हूं। शस्त्र जो तुम्हें नहीं दे सकते, वह स्वयं तुम्हीं में है। और तुम्हें जो कोई भी नहीं दे सकता, उसे तुम अभी और इसी क्षण पा सकते हो। केवल शब्द को छोड़ते ही सत्य अपलब्ध होता है।स्त्रोत : –ओशो, ‘’मैं कौन हूं? से संकलित क्रांति सूत्र
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मैं धर्म क्या कहूं? जो कहा जा सकता है, वह धर्म नहीं होगा। जो विचार के परे है, वह वाणी के अंतर्गत नहीं हो सकता है। शास्त्रों में जो है, वह धर्म नहीं है। शब्द ही वहां है। शब्द सत्य की और जाने के भले ही संकेत हों,पर वे सत्य नहीं है। शब्दों से संप्रदाय बनते है, और धर्म दूर ही रह जाता है। इन शब्दों ने ही मनुष्य को तोड़ दिया है। मनुष्यों के बीच पत्थरों की नहीं, शब्दों की ही दीवारें है।
मनुष्य और मनुष्य के बीच शब्द की दीवारें है। मनुष्य और सत्य के बीच भी शब्द की ही दीवार है। असल में जो सत्य से दूर किए हुए है, वहीं उसे सबसे दूर किए हुए है। शब्दों का एक मंत्र घेरा है और हम सब उसमें सम्मोहित है। शब्द हमारी निद्रा है, और शब्द के सम्मोहक अनुसरण में हम अपने आपसे बहुत दूर निकल गए है।
स्वयं से जो दूर और स्वयं से जो अपरिचित है वह सत्य से निकट और सत्य से परिचित नहीं हो सकता है। यह इसलिए कि स्वयं का सत्य ही सबसे निकट का सत्य है, शेष सब दूर है। बस स्वयं ही दूर नहीं है।
शब्द स्वयं को नहीं जानने देते है। उनकी तरंगों में वह सागर छिप ही जाता है। शब्दों का कोलाहल उस संगीत को अपने तक नहीं पहुंचने देता जो कि मैं हूं। शब्द का धुआं सत्य की अग्नि प्रकट नहीं होने देता है। और हम अपने वस्त्रों को ही जानते-जानते मिट जाते है और उसे नहीं मिल पाते जिसके वस्त्र थे, और जो वस्त्रों में था, लेकिन केवल वस्त्र ही नहीं थ।
मैं भीतर देखता हूं। वहां शब्द ही शब्द दिखाई देते है। विचार, स्मृतियाँ, कल्पनाएं और स्वप्न ये सब शब्द ही है, और मैं शब्द के पर्त-पर्त घेरों में बंधा हूं। क्या मैं इन विचारों पर ही समाप्त हूं, या कि इनसे भिन्न और अतीत भी मुझमें कुछ है। इस प्रश्न के उतर पर ही सब कुछ निर्भर है। उतर विचार से आया तो मनुष्य धर्म तक नहीं पहुंच पाता,क्योंकि विचार से अतीत को नहीं जान सकता। विचार की सीमा विचार है। उसके पार की गंध भी उसे नहीं मिल सकती है।
साधारणत: लोग विचार से ही वापिस लौट आते है। वह अदृष्य दीवार उन्हें वापिस कर देती है। जैसे कोई कुंआ खोदने जाए और कंकड़-पत्थर को पाकर निराश हो रूक जाए। वैसा ही स्वयं की खुदाई में भी हो जाता है। शब्दों के कंकड़ पत्थर ही पहले मिलते है और वह स्वाभाविक ही है। वे ही हमारी बाहरी पर्त है। जीवन यात्रा में उनकी ही धूल हमारा आवरण बन गई है।
आत्मा को पाने को सब आवरण चीर देने जरूरी है। वस्त्रों के पास जो नग्न सत्य है, उस पर ही रूकना है। शब्द को उस समय तक खोदे चलना है, जब तक कि निशब्द का जल स्त्रोत उपलब्ध नहीं हो जाए। विचार की धूल को हटाना है, जब तक कि मौन का दर्पण हाथ न आ जाए। यह खुदाई कठिन है। यह वस्त्रों को उतारना ही नहीं है, अपनी चमड़ी को उतारना है। यही तप है।
प्याज को छीलते हुए देखा है, ऐसा ही अपने को छीलना है। प्याज में तो अंत में कुछ भी नहीं बचता है, अपने में सब कुछ बच रहता है। सब छीलनें पर जो बच रहता है, वही वास्तविक है। वहीं मेरी प्रामाणिक सत्ता है। वह मेरी आत्मा है।
एक-एक विचार को उठाकर दूर रखते जाना है, और जानना है कि यह मैं नहीं हूं। और इस भांति गहरे प्रवेश करना है। शुभ या अशुभ को नहीं चुनना है। वैसा चुनाव वैचारिक ही है, और विचार के पार नहीं ले जा सकता है। यहीं नीति और धर्म अलग रास्तों के लिए हो जाते है। निति अशुभ विचारों के विरोध में शुभ विचारों का चुनाव है। धर्म चुनाव नहीं है। वह तो उसे जानना है, जो सब चुनाव करता है। और सब चुनावों के पीछे है। यह जानना भी हो सकता है। जब चुनाव का सब चुनाव शून्य हो और केवल वहीं शेष रह जाए तो हमार चुनाव नहीं है वरन हम स्वयं है।
विचार के तटस्थ, चुनाव शून्य निरीक्षण से विचार शून्यता आती है। विचार तो नहीं रह जाते, केवल विवेक रह जाता है। विषय-वस्तु तो नहीं होती, केवल चैतन्य मात्र रह जाता हे। इसी क्षण में प्रसुप्त प्रज्ञा का विस्फोट होता है। और धर्म के द्वार खुल जाते है।
इसी उद्घाटन के लिए मैं सबको आमंत्रित करता हूं। शस्त्र जो तुम्हें नहीं दे सकते, वह स्वयं तुम्हीं में है। और तुम्हें जो कोई भी नहीं दे सकता, उसे तुम अभी और इसी क्षण पा सकते हो। केवल शब्द को छोड़ते ही सत्य अपलब्ध होता है।स्त्रोत : –ओशो, ‘’मैं कौन हूं? से संकलित क्रांति सूत्र
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किसी गांव में चार अन्धे रहते थे। एक बार उनके गांव में हाथी आया। उन्होंने पहले कभी हाथी देखा न था, इसलिये उन्हें भी उत्सुकता हुई कि चलों देखें यह हाथी क्या चीज है। महावत ने दयावश उन्हें हाथी को छूकर देखने की अनुमति दे दी। उन्होंने उस विशालकाय जीव को स्पर्श के द्वारा जानने की भरपूर कोशिश की, लेकिन नेत्रहीन होने के कारण वह उसके पूर्ण स्वरूप को ग्रहण नहीं कर सके, बस एक-एक अंग के साथ ही चिपके रहे। बाद में वह सारे एकत्र हुये और अपने अनुभवों की चर्चा करने लगे।
एक ने कहा, ‘आज पता लगा कि हाथी एक बहुत बड़े खम्भे की तरह होता है’ क्योंकि वह हाथी के पैर के साथ चिपटा हुआ था। दूसरा तुरन्त बोला, ‘अरे मूर्ख! हाथी तो एक बड़े ढोल की तरह होता है’, इन महाशय को हाथी के पेट का संज्ञान था। तीसरा कहने लगा, ‘अरे! तुम लोग कहां सो रहे थे, हाथी तो एक बहुत बड़े सूप की तरह होता है’, यह सज्जन हाथी के कान से ही परिचित हुये थे। चौथा कहने लगा, ‘तुम सब तो सचमुच अन्धे हो, अरे हाथी तो एक लचकदार झाड़ू की तरह होता है’ क्योंकि यह जनाब हाथी की पूंछ से लटके हुये थे।
वस्तुत: धर्म भी एक ऐसे ही हाथी की तरह है और हम सब उन अन्धों की तरह, जिसकी पकड़ में जितना आया वह उससे ही चिपक कर बैठ गया। समस्यान तब अधिक बढ़ जाती है जब हम एक अंग को ही पूर्ण मान बैठते हैं और इतना ही नहीं दूसरे को गलत भी कहने लगते हैं। आज पूरे विश्व में यही तो हो रहा है। प्रत्येक व्यक्ति अपने धर्म को बड़ा और पूर्ण तथा साथ ही दूसरे के धर्म को अधूरा या गलत कहने में ही बड़प्पन का अनुभव करने लगा है। कारण एक ही है कि हम सब वास्तविक धर्म से अनभिज्ञ हैं।
वस्तुत: धर्म शब्द की उत्पत्ति संस्कृत की ‘धृ’ धातु से हुई है जिसका अर्थ है, स्वभावत: धारण करना। अब तनिक विचार करें कि भला कोई भी व्यक्ति या वस्तु किसको धारण कर सकता है। अग्नि ही अग्नि को धारण कर सकती है, यदि हम लकड़ी को भी अग्नि में डाले तो वह अग्निरूप होकर ही अग्नि के द्वारा धारण की जा सकती है। यह नियम है कि स्व-स्वरूप की ही धारणा सम्भव है तो भला हम सच्चिदानन्द परमात्मा से भिन्न और किसी वस्तु या चिन्ह आदि को पूर्णरूपेण कैसे धारण कर सकते हैं? क्योंकि सभी शास्त्र पुकार रहे हैं, ‘तत्त्वमसि’, ‘मन तू जोतस्वरूप है’, ‘God made man in his own form.’। विभिन्न मत-मतान्तर अथवा मान्यताएं इस परम सत्य को पहचानने के साधन मात्र हैं। यदि हम साधन को ही साध्यी समझ लेंगे, रास्ते को ही मंजिल समझ लेंगे तो निश्चित ही दुखी होंगे। यही कारण है कि आज के युग में धर्म के नाम पर इतना अधिक प्रचार होने के बावजूद भी दु:ख कम होने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है। अपने को अलग अथवा विशेष सिद्ध करने के प्रयास में हम दूसरों से अलग होते जा रहे हैं, अधूरे होते जा रहे हैं।
धर्म की पालना तो देश-काल-परिस्थिति के अनुसार पृथक-पृथक विधियों से की ही जा सकती है किन्तु फिर भी धर्म तो प्राणी मात्र के लिये एक ही है, वह है अपने सच्चिदानन्द स्वरूप को पूर्णरूपेण धारण करना। धर्म हमें परमात्मा से अर्थात् अपनी आत्मा से जोड़ने का साधन हैं न कि तोड़ने और परस्पिर झगड़ने का। धर्म पालन के लिये बाहर के चिन्हों और मान्यताओं से अधिक आवश्यक है अपने अन्दर परमात्मा की धारणा और उससे योग। शुभस्य शीघ्रम्। स्त्रोत : प्रभु चरण चंचरीक – स्वामी सूर्येन्दु पुरी
एक ने कहा, ‘आज पता लगा कि हाथी एक बहुत बड़े खम्भे की तरह होता है’ क्योंकि वह हाथी के पैर के साथ चिपटा हुआ था। दूसरा तुरन्त बोला, ‘अरे मूर्ख! हाथी तो एक बड़े ढोल की तरह होता है’, इन महाशय को हाथी के पेट का संज्ञान था। तीसरा कहने लगा, ‘अरे! तुम लोग कहां सो रहे थे, हाथी तो एक बहुत बड़े सूप की तरह होता है’, यह सज्जन हाथी के कान से ही परिचित हुये थे। चौथा कहने लगा, ‘तुम सब तो सचमुच अन्धे हो, अरे हाथी तो एक लचकदार झाड़ू की तरह होता है’ क्योंकि यह जनाब हाथी की पूंछ से लटके हुये थे।
वस्तुत: धर्म भी एक ऐसे ही हाथी की तरह है और हम सब उन अन्धों की तरह, जिसकी पकड़ में जितना आया वह उससे ही चिपक कर बैठ गया। समस्यान तब अधिक बढ़ जाती है जब हम एक अंग को ही पूर्ण मान बैठते हैं और इतना ही नहीं दूसरे को गलत भी कहने लगते हैं। आज पूरे विश्व में यही तो हो रहा है। प्रत्येक व्यक्ति अपने धर्म को बड़ा और पूर्ण तथा साथ ही दूसरे के धर्म को अधूरा या गलत कहने में ही बड़प्पन का अनुभव करने लगा है। कारण एक ही है कि हम सब वास्तविक धर्म से अनभिज्ञ हैं।
वस्तुत: धर्म शब्द की उत्पत्ति संस्कृत की ‘धृ’ धातु से हुई है जिसका अर्थ है, स्वभावत: धारण करना। अब तनिक विचार करें कि भला कोई भी व्यक्ति या वस्तु किसको धारण कर सकता है। अग्नि ही अग्नि को धारण कर सकती है, यदि हम लकड़ी को भी अग्नि में डाले तो वह अग्निरूप होकर ही अग्नि के द्वारा धारण की जा सकती है। यह नियम है कि स्व-स्वरूप की ही धारणा सम्भव है तो भला हम सच्चिदानन्द परमात्मा से भिन्न और किसी वस्तु या चिन्ह आदि को पूर्णरूपेण कैसे धारण कर सकते हैं? क्योंकि सभी शास्त्र पुकार रहे हैं, ‘तत्त्वमसि’, ‘मन तू जोतस्वरूप है’, ‘God made man in his own form.’। विभिन्न मत-मतान्तर अथवा मान्यताएं इस परम सत्य को पहचानने के साधन मात्र हैं। यदि हम साधन को ही साध्यी समझ लेंगे, रास्ते को ही मंजिल समझ लेंगे तो निश्चित ही दुखी होंगे। यही कारण है कि आज के युग में धर्म के नाम पर इतना अधिक प्रचार होने के बावजूद भी दु:ख कम होने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है। अपने को अलग अथवा विशेष सिद्ध करने के प्रयास में हम दूसरों से अलग होते जा रहे हैं, अधूरे होते जा रहे हैं।
धर्म की पालना तो देश-काल-परिस्थिति के अनुसार पृथक-पृथक विधियों से की ही जा सकती है किन्तु फिर भी धर्म तो प्राणी मात्र के लिये एक ही है, वह है अपने सच्चिदानन्द स्वरूप को पूर्णरूपेण धारण करना। धर्म हमें परमात्मा से अर्थात् अपनी आत्मा से जोड़ने का साधन हैं न कि तोड़ने और परस्पिर झगड़ने का। धर्म पालन के लिये बाहर के चिन्हों और मान्यताओं से अधिक आवश्यक है अपने अन्दर परमात्मा की धारणा और उससे योग। शुभस्य शीघ्रम्। स्त्रोत : प्रभु चरण चंचरीक – स्वामी सूर्येन्दु पुरी
जानिए कि परम धर्म क्या है ?
चीजें बोलती हैं, हवा, पानी और रौशनी हर चीज़ बोलती है लेकिन वे हिंदी या अंग्रेज़ी में नहीं बोलती हैं, उनकी अपनी ज बान है, वे अपनी ज़बान में बोलती हैं और उनके बोलने को सुनते वे लोग हैं जिनके कान हैं यानि ऐसे लोग जो कि उनकी भाषा की समझ रखते हैं। वे उनकी बात भी समझते हैं और उनके मूड को भी भांप लेते हैं।
हवा और धूल भरी आंधी उठते देखकर बूढ़े तजर्बेकार लोग बारिश होने की भविष्यवाणी कर देते हैं।
चीज़ें अपनी क्रिया दर्शाती हैं और लोग उनकी क्रिया को उनकी तरफ से एक संदेश और चेतावनी के रूप में पढ ते हैं। जब से मानव जाति की शुरूआत हुई है तब से ही वह अपने आस पास की चीज़ें का अध्ययन करता हुआ आ रहा है।
ये अध्ययनशील लोग वैज्ञानिक कहलाए।
कुछ लोगों ने अपने शरीर का भी अध्ययन किया और उसकी क्रियाओं को जाना-समझा, ये लोग वैद्य, हकीम और डॉक्टर कहलाए।
कुछ लोगों ने मन का भी अध्ययन किया, ये लोग सूफ़ी, संत और योगी कहलाए।
कुछ लोग और ज् यादा गहराई में गए, उन्होंने इंसान और उसके आस पास की सारी चीज़ों को एक अलग तल पर जाना, ये लोग ऋषि और पैग म्बर कहलाए।
हिंदुस्तान में कितने सौ या कितने हज़ार ऋषि हुए हैं, आज कहना मुश्किल है लेकिन हुए ज़रूर हैं, यह ज़रूर कहा जा सकता है।
चाहे आज उनके बारे में पूरी और सही जानकारी मौजूद न हो लेकिन लोग आज भी अच्छे कामों को अच्छा समझते हैं और उन्हें करते हैं तो यह उनकी शिक्षा का ही नतीजा है और फिर ऐसा केवल हिंदुस्तान में ही नहीं है बल्कि सारी दुनिया में यही तरीक़ा है।
अच्छाई का यह तरीक़ा ही धर्म है।
खुदगर्ज़ और कमज़ोर राजनेताओं ने एक धरती को हजारों टुकड़ों में बांट डाला है लेकिन उनके बांटने से धरती हजारों नहीं बन गई हैं। धरती आज भी एक है और हमारी बनाई राजनीतिक सीमाओं को प्रकृति ने कभी नहीं माना, वह आज भी नहीं मानती है।
भलाई के तरीक़े को, धर्म को, जो कभी एक ही था, उसे भी कभी नासमझी की वजह से तो कभी लालच और नफ रत की वजह से हमने बांटा और बार बार बांटा लेकिन हमारे बांटने की वजह से वह बंट नहीं गया है।
धर्म आज भी एक ही है।
परोपकार धर्म है और ऐसा धर्म है कि इस जैसा धर्म दूसरा नहीं है। यह ऐसा धर्म है कि इससे कोई नास्तिक भी इंकार नहीं कर सकता।
नास्तिक जिस बात से इंकार करता है, वह शोषण और अन्याय होता है, जिसे धर्म का नाम लेकर किया जाता है।
धर्म के नाम पर अधर्म किया जाता है और आज से नहीं बल्कि यह पहले से होता आ रहा है।
न तो हर आदमी धार्मिक है और न ही हरेक आदमी का हरेक काम धर्म कहला सकता है।
धर्म वही है जो कल्याण करता है।
किसी भी मुल्क में समझदार नर-नारियों का कोई भी समूह जब भी समाज की सामूहिक उन्नति के लिए कुछ नियम-क़ायदे बनाएंगा तो उनका बहुत बड़ा हिस्सा हरेक धर्म-मत में पहले से मौजूद मिलेगा।
क्या यह ताज्जुब की बात नहीं है ?
हां, कुछ बातें उनसे टकराती हुई भी मिल सकती हैं। किसी जगह ये बातें कुछ होंगी और किसी जगह कुछ लेकिन इन सबका नतीजा एक समान होगा कि ये बातें उन लोगों के जीवन को नष्ट कर रही होंगी, जो कि इन पर चल रहे होंगे और अपना जीवन नष्ट होते देखकर लोगों ने इन पर चलना भी अब छोड दिया होगा।
इन बातों को कब किसने शुरू किया, आज ठीक से यह भी नहीं कहा जा सकता।
ऐसी बातों को लेकर अपने पूर्वजों को, अपने महापुरूषों को गालियां केवल वही दे सकता है, जिसे भले-बुरे की तमीज ही नहीं है।
ऐसे लोग जो धर्म और अधर्म तक का अंतर नहीं जानते वे अधर्म के काम को धर्म के नाम पर होता देखकर उसे भी धर्म समझ लेते हैं और फिर धर्म को कोसना शुरू कर देते हैं।
यह बिल्कुल ऐसे है जैसे कि एक शरीफ़ आदमी का 'मास्क' लगाकर कोई आदमी किसी का मर्डर करके भाग जाए और पब्लिक भागते हुए उसकी शक्ल देख ले और जा चढ़े शरीफ आदमी के घर और उसे पीट पीट कर मार डाले।
यह नासमझों का काम है, इसे न्याय नहीं अन्याय कहा जाएगा।
इसे समाज सुधार नहीं बल्कि इसे समाज में फ साद का नाम दिया जाएगा।
जो धर्म के नाम पर अधर्म कर रहे हैं, दूसरों को दबा रहे हैं, उन्हें अपमानित कर रहे हैं, वे भी समाज में फ़साद कर रहे हैं और जो लोग अधर्मी लोगों के कामों के कारण धर्मी महापुरूषों को गालियां दे रहे हैं, उनकी खिल्ली उड़ा रहे हैं, वे भी समाज में फ़साद ही फैला रहे हैं।
जो इंसान ख़ामोश चीज़ों तक की ज बान जानता हो, वह इतना बहरा कैसे हो जाता है कि धर्म की उन हज़ारों ठीक बातों को वह कभी सुनता ही नहीं, जिनका चर्चा दुनिया के हरेक धर्म-मत के ग्रंथ में मिलता है लेकिन अपना सारा ज़ोर उन बातों पर लगा देता है जिन पर सारी दुनिया तो क्या ख़ुद उस धर्म-मत के मानने वाले भी एक मत नहीं हैं।
यह कैसा अन्याय है ?
यह कैसा अंधापन है ?
कैसे मूर्ख हैं वे, जो इन अंधों को अपना साथी और अपना गुरू बनाते हैं ?
अपने अंधेपन को ये जानते तक नहीं हैं और कोई बताए तो मानते भी नहीं हैं।
जो आंख वाले हैं, उनकी नैतिक जि म्मेदारी है कि वे अंधों को मार्ग दिखाएं।
अंधों को मार्ग दिखाना परोपकार है, धर्म है बल्कि परम धर्म है।
कौन है जो इस धर्म की आलोचना कर सके ?
स्त्रोत : वेद-कुरान, सन्डे, सितम्बर 25, २०११
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हवा और धूल भरी आंधी उठते देखकर बूढ़े तजर्बेकार लोग बारिश होने की भविष्यवाणी कर देते हैं।
चीज़ें अपनी क्रिया दर्शाती हैं और लोग उनकी क्रिया को उनकी तरफ से एक संदेश और चेतावनी के रूप में पढ ते हैं। जब से मानव जाति की शुरूआत हुई है तब से ही वह अपने आस पास की चीज़ें का अध्ययन करता हुआ आ रहा है।
ये अध्ययनशील लोग वैज्ञानिक कहलाए।
कुछ लोगों ने अपने शरीर का भी अध्ययन किया और उसकी क्रियाओं को जाना-समझा, ये लोग वैद्य, हकीम और डॉक्टर कहलाए।
कुछ लोगों ने मन का भी अध्ययन किया, ये लोग सूफ़ी, संत और योगी कहलाए।
कुछ लोग और ज् यादा गहराई में गए, उन्होंने इंसान और उसके आस पास की सारी चीज़ों को एक अलग तल पर जाना, ये लोग ऋषि और पैग म्बर कहलाए।
हिंदुस्तान में कितने सौ या कितने हज़ार ऋषि हुए हैं, आज कहना मुश्किल है लेकिन हुए ज़रूर हैं, यह ज़रूर कहा जा सकता है।
चाहे आज उनके बारे में पूरी और सही जानकारी मौजूद न हो लेकिन लोग आज भी अच्छे कामों को अच्छा समझते हैं और उन्हें करते हैं तो यह उनकी शिक्षा का ही नतीजा है और फिर ऐसा केवल हिंदुस्तान में ही नहीं है बल्कि सारी दुनिया में यही तरीक़ा है।
अच्छाई का यह तरीक़ा ही धर्म है।
खुदगर्ज़ और कमज़ोर राजनेताओं ने एक धरती को हजारों टुकड़ों में बांट डाला है लेकिन उनके बांटने से धरती हजारों नहीं बन गई हैं। धरती आज भी एक है और हमारी बनाई राजनीतिक सीमाओं को प्रकृति ने कभी नहीं माना, वह आज भी नहीं मानती है।
भलाई के तरीक़े को, धर्म को, जो कभी एक ही था, उसे भी कभी नासमझी की वजह से तो कभी लालच और नफ रत की वजह से हमने बांटा और बार बार बांटा लेकिन हमारे बांटने की वजह से वह बंट नहीं गया है।
धर्म आज भी एक ही है।
परोपकार धर्म है और ऐसा धर्म है कि इस जैसा धर्म दूसरा नहीं है। यह ऐसा धर्म है कि इससे कोई नास्तिक भी इंकार नहीं कर सकता।
नास्तिक जिस बात से इंकार करता है, वह शोषण और अन्याय होता है, जिसे धर्म का नाम लेकर किया जाता है।
धर्म के नाम पर अधर्म किया जाता है और आज से नहीं बल्कि यह पहले से होता आ रहा है।
न तो हर आदमी धार्मिक है और न ही हरेक आदमी का हरेक काम धर्म कहला सकता है।
धर्म वही है जो कल्याण करता है।
किसी भी मुल्क में समझदार नर-नारियों का कोई भी समूह जब भी समाज की सामूहिक उन्नति के लिए कुछ नियम-क़ायदे बनाएंगा तो उनका बहुत बड़ा हिस्सा हरेक धर्म-मत में पहले से मौजूद मिलेगा।
क्या यह ताज्जुब की बात नहीं है ?
हां, कुछ बातें उनसे टकराती हुई भी मिल सकती हैं। किसी जगह ये बातें कुछ होंगी और किसी जगह कुछ लेकिन इन सबका नतीजा एक समान होगा कि ये बातें उन लोगों के जीवन को नष्ट कर रही होंगी, जो कि इन पर चल रहे होंगे और अपना जीवन नष्ट होते देखकर लोगों ने इन पर चलना भी अब छोड दिया होगा।
इन बातों को कब किसने शुरू किया, आज ठीक से यह भी नहीं कहा जा सकता।
ऐसी बातों को लेकर अपने पूर्वजों को, अपने महापुरूषों को गालियां केवल वही दे सकता है, जिसे भले-बुरे की तमीज ही नहीं है।
ऐसे लोग जो धर्म और अधर्म तक का अंतर नहीं जानते वे अधर्म के काम को धर्म के नाम पर होता देखकर उसे भी धर्म समझ लेते हैं और फिर धर्म को कोसना शुरू कर देते हैं।
यह बिल्कुल ऐसे है जैसे कि एक शरीफ़ आदमी का 'मास्क' लगाकर कोई आदमी किसी का मर्डर करके भाग जाए और पब्लिक भागते हुए उसकी शक्ल देख ले और जा चढ़े शरीफ आदमी के घर और उसे पीट पीट कर मार डाले।
यह नासमझों का काम है, इसे न्याय नहीं अन्याय कहा जाएगा।
इसे समाज सुधार नहीं बल्कि इसे समाज में फ साद का नाम दिया जाएगा।
जो धर्म के नाम पर अधर्म कर रहे हैं, दूसरों को दबा रहे हैं, उन्हें अपमानित कर रहे हैं, वे भी समाज में फ़साद कर रहे हैं और जो लोग अधर्मी लोगों के कामों के कारण धर्मी महापुरूषों को गालियां दे रहे हैं, उनकी खिल्ली उड़ा रहे हैं, वे भी समाज में फ़साद ही फैला रहे हैं।
जो इंसान ख़ामोश चीज़ों तक की ज बान जानता हो, वह इतना बहरा कैसे हो जाता है कि धर्म की उन हज़ारों ठीक बातों को वह कभी सुनता ही नहीं, जिनका चर्चा दुनिया के हरेक धर्म-मत के ग्रंथ में मिलता है लेकिन अपना सारा ज़ोर उन बातों पर लगा देता है जिन पर सारी दुनिया तो क्या ख़ुद उस धर्म-मत के मानने वाले भी एक मत नहीं हैं।
यह कैसा अन्याय है ?
यह कैसा अंधापन है ?
कैसे मूर्ख हैं वे, जो इन अंधों को अपना साथी और अपना गुरू बनाते हैं ?
अपने अंधेपन को ये जानते तक नहीं हैं और कोई बताए तो मानते भी नहीं हैं।
जो आंख वाले हैं, उनकी नैतिक जि म्मेदारी है कि वे अंधों को मार्ग दिखाएं।
अंधों को मार्ग दिखाना परोपकार है, धर्म है बल्कि परम धर्म है।
कौन है जो इस धर्म की आलोचना कर सके ?
स्त्रोत : वेद-कुरान, सन्डे, सितम्बर 25, २०११
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धर्म क्या है, धर्म के तत्व
भारत Tuesday February 14, 2012
धर्म क्या है ?
प्राय ब्लोगस पर पढते पढते ऐसा लगने लगा मानो धर्म का अर्थ केवल मात्र दुसरे को नीचा दिखाना हो गया,
दुसरो को हिनता का अहसास करवाना धर्म का उद्देश्य बना जाता है.
क्योकी मेँरा मानना है धर्म स्व-विकास के अतिरिक्त कुछ अन्य नही हो सकता, किंतु कुछ् लोगो का शंका समाधान भी अनिवार्य था,
अत: स्वाध्य्यन आरभ हो गया.
किंतु मैरा उद्देश्य किसी धर्म विशेष को नीचा अथवा ऊचा दिखाना नही रहा. ना ही मैरा उद्देश्य यह दिखाना है कि कोई धर्म विशेष कैसा है.
मैरा उद्देश्य है - धर्म और केवल धर्म क्या है ???
मैरा स्वाध्य्य आरम्भ हुआ मनुस्मृती से:-
मनु ने धर्म के दस लक्षण गिनाए हैं:
धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह: ।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ।। (मनुस्मृति ६.९२)
अर्थात - धैर्य , क्षमा , संयम , चोरी न करना , शौच ( स्वच्छता ), इन्द्रियों को वश मे रखना , बुद्धि , विद्या , सत्य और क्रोध न करना - ये दस धर्म के लक्षण हैं.
याज्ञवल्क्य के अनुसार:-
अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह: ।
दानं दमो दया शान्ति: सर्वेषां धर्मसाधनम् ।।
अर्थात - अहिंसा, सत्य, चोरी न करना (अस्तेय), शौच (स्वच्छता), इन्द्रिय-निग्रह (इन्द्रियों को वश में रखना) , दान, संयम (दम) , दया एवं शान्ति - धर्म के ये नौ लक्षण है.
पद्मपुराण कहता है:-
ब्रह्मचर्येण सत्येन तपसा च प्रवर्तते।
दानेन नियमेनापि क्षमा शौचेन वल्लभ।।
अहिंसया सुशांत्या च अस्तेयेनापि वर्तते।
एतैर्दशभिरगैस्तु धर्ममेव सुसूचयेत।।
अर्थात - ब्रह्मचर्य, सत्य, तप, दान, संयम, क्षमा, शौच, अहिंसा, शांति और अस्तेय इन दस अंगों से युक्त होने पर ही धर्म की वृद्धि होती है ।
विदुर ने धर्म के आठ अंग बताए हैं -
यज्ञो दानम्अध्य्न तपश च च्त्वार्येतान्य्न्ववेतानि सभ्दि:
दम: सत्यमार्जवमानृशन्सयम च्त्वार्येतान्यंववयंति संत:
अर्थात - यज्ञ, दान, अध्ययन, तप, सत्य, दया, क्षमा और अलोभ ये आठ धर्म के अंग है.
और इनमें से प्रथम चार अंगों का आचरण मात्र दिखावे के लिए भी हो सकता है,
किन्तु अन्तिम चार अंगों का आचरण करने वाला व्यक्ती ही धर्माचरण करता है.
विदुरजी की परीभाषा सर्व उपयुक्त एवम पुर्ण जान पडती है.
अब एक बार इन आठ गुणो को विस्तार से देख ले:
यज्ञ करना - अर्थात समस्त समाज के कल्याण के लिए किया गया कार्य
दान - अर्थात अपने धन आदि का कुछ हिस्सा समाज कल्याण के लिए सव्यम समर्पित करना
अध्ययन - अर्थात ज्ञान प्राप्ती
तप - अर्थात दुसरे के भले के लिए कष्ट सहने को तत्पर रहना
सत्य - अर्थात जैसा नेत्रो से देखा है वैसा जीव्हा से व्य्क्त करना
दया - अर्थात प्राणी मात्र को कष्ट देने से बचना या यथा सम्भव कम दण्ड देना
क्षमा - अर्थात अलक्षित अपराध पर दण्ड न देना या कम दण्ड देना
अलोभ - जो वस्तु अपनी नही है उस अनाधिकृत अधिकार चेष्टा न करना
अब मुझे बताईए, ऐसा कोन सा धर्म विशेष है जो इन गुणो से दुर करता है ???
सारे ही धर्म तो यही शिक्षा है.
फिर कोन सा धर्म अच्छा कोन सा बुरा. सभी तो एक जैसे हुए. फिर किसी धर्म को बुरा कहना ??? बस यही एक अधर्म है.
अगर किसी ने आपके धर्म को बरा या गलत कह भी दिया क्या आपका धर्म बुरा अथवा गलत हो जाएगा, कहने दिजीए, क्षमा और दया भी तो आपके ही धर्म का अंग है. दुसरे को क्षमा करके भी तो आप अपने धर्म का ही पालन कर रहे होगे.
किसी के लिए हम अपना क्षमा और दया का धर्म क्यो छोडे ???
स्त्रोत : नवभारत टाइम्स
धर्म क्या है?
उत्तम धर्म के दस अंग हैं-
1. क्षमा- सहनशीलता। क्रोध को पैदा न होने देना। क्रोध पैदा हो ही जाए तो अपने विवेक से, नम्रता से उसे विफल कर देना। अपने भीतर क्रोध का कारण ढूँढना, क्रोध से होने वाले अनर्थों को सोचना, दूसरों की बेसमझी का ख्याल न करना। क्षमा के गुणों का चिंतन करना।
2. मार्दव- चित्त में मृदुता व व्यवहार में नम्रता होना।
3. आर्दव- भाव की शुद्धता। जो सोचना सो कहना। जो कहना सो करना।
4. शौच- मन में किसी भी तरह का लोभ न रखना। आसक्ति न रखना। शरीर की भी नहीं।
5. सत्य- यथार्थ बोलना। हितकारी बोलना। थोड़ा बोलना।
6. संयम- मन, वचन और शरीर को काबू में रखना।
7. तप- मलीन वृत्तियों को दूर करने के लिए जो बल चाहिए, उसके लिए तपस्या करना।
8. त्याग- पात्र को ज्ञान, अभय, आहार, औषधि आदि सद्वस्तु देना।
9. अकिंचनता- किसी भी चीज में ममता न रखना। अपरिग्रह स्वीकार करना।
10. ब्रह्मचर्य- सद्गुणों का अभ्यास करना और अपने को पवित्र रखना।
धर्म क्या है ?
प्राय ब्लोगस पर पढते पढते ऐसा लगने लगा मानो धर्म का अर्थ केवल मात्र दुसरे को नीचा दिखाना हो गया,
दुसरो को हिनता का अहसास करवाना धर्म का उद्देश्य बना जाता है.
क्योकी मेँरा मानना है धर्म स्व-विकास के अतिरिक्त कुछ अन्य नही हो सकता, किंतु कुछ् लोगो का शंका समाधान भी अनिवार्य था,
अत: स्वाध्य्यन आरभ हो गया.
किंतु मैरा उद्देश्य किसी धर्म विशेष को नीचा अथवा ऊचा दिखाना नही रहा. ना ही मैरा उद्देश्य यह दिखाना है कि कोई धर्म विशेष कैसा है.
मैरा उद्देश्य है - धर्म और केवल धर्म क्या है ???
मैरा स्वाध्य्य आरम्भ हुआ मनुस्मृती से:-
मनु ने धर्म के दस लक्षण गिनाए हैं:
धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह: ।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ।। (मनुस्मृति ६.९२)
अर्थात - धैर्य , क्षमा , संयम , चोरी न करना , शौच ( स्वच्छता ), इन्द्रियों को वश मे रखना , बुद्धि , विद्या , सत्य और क्रोध न करना - ये दस धर्म के लक्षण हैं.
याज्ञवल्क्य के अनुसार:-
अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह: ।
दानं दमो दया शान्ति: सर्वेषां धर्मसाधनम् ।।
अर्थात - अहिंसा, सत्य, चोरी न करना (अस्तेय), शौच (स्वच्छता), इन्द्रिय-निग्रह (इन्द्रियों को वश में रखना) , दान, संयम (दम) , दया एवं शान्ति - धर्म के ये नौ लक्षण है.
पद्मपुराण कहता है:-
ब्रह्मचर्येण सत्येन तपसा च प्रवर्तते।
दानेन नियमेनापि क्षमा शौचेन वल्लभ।।
अहिंसया सुशांत्या च अस्तेयेनापि वर्तते।
एतैर्दशभिरगैस्तु धर्ममेव सुसूचयेत।।
अर्थात - ब्रह्मचर्य, सत्य, तप, दान, संयम, क्षमा, शौच, अहिंसा, शांति और अस्तेय इन दस अंगों से युक्त होने पर ही धर्म की वृद्धि होती है ।
विदुर ने धर्म के आठ अंग बताए हैं -
यज्ञो दानम्अध्य्न तपश च च्त्वार्येतान्य्न्ववेतानि सभ्दि:
दम: सत्यमार्जवमानृशन्सयम च्त्वार्येतान्यंववयंति संत:
अर्थात - यज्ञ, दान, अध्ययन, तप, सत्य, दया, क्षमा और अलोभ ये आठ धर्म के अंग है.
और इनमें से प्रथम चार अंगों का आचरण मात्र दिखावे के लिए भी हो सकता है,
किन्तु अन्तिम चार अंगों का आचरण करने वाला व्यक्ती ही धर्माचरण करता है.
विदुरजी की परीभाषा सर्व उपयुक्त एवम पुर्ण जान पडती है.
अब एक बार इन आठ गुणो को विस्तार से देख ले:
यज्ञ करना - अर्थात समस्त समाज के कल्याण के लिए किया गया कार्य
दान - अर्थात अपने धन आदि का कुछ हिस्सा समाज कल्याण के लिए सव्यम समर्पित करना
अध्ययन - अर्थात ज्ञान प्राप्ती
तप - अर्थात दुसरे के भले के लिए कष्ट सहने को तत्पर रहना
सत्य - अर्थात जैसा नेत्रो से देखा है वैसा जीव्हा से व्य्क्त करना
दया - अर्थात प्राणी मात्र को कष्ट देने से बचना या यथा सम्भव कम दण्ड देना
क्षमा - अर्थात अलक्षित अपराध पर दण्ड न देना या कम दण्ड देना
अलोभ - जो वस्तु अपनी नही है उस अनाधिकृत अधिकार चेष्टा न करना
अब मुझे बताईए, ऐसा कोन सा धर्म विशेष है जो इन गुणो से दुर करता है ???
सारे ही धर्म तो यही शिक्षा है.
फिर कोन सा धर्म अच्छा कोन सा बुरा. सभी तो एक जैसे हुए. फिर किसी धर्म को बुरा कहना ??? बस यही एक अधर्म है.
अगर किसी ने आपके धर्म को बरा या गलत कह भी दिया क्या आपका धर्म बुरा अथवा गलत हो जाएगा, कहने दिजीए, क्षमा और दया भी तो आपके ही धर्म का अंग है. दुसरे को क्षमा करके भी तो आप अपने धर्म का ही पालन कर रहे होगे.
किसी के लिए हम अपना क्षमा और दया का धर्म क्यो छोडे ???
स्त्रोत : नवभारत टाइम्स
धर्म क्या है?
उत्तम धर्म के दस अंग हैं-
1. क्षमा- सहनशीलता। क्रोध को पैदा न होने देना। क्रोध पैदा हो ही जाए तो अपने विवेक से, नम्रता से उसे विफल कर देना। अपने भीतर क्रोध का कारण ढूँढना, क्रोध से होने वाले अनर्थों को सोचना, दूसरों की बेसमझी का ख्याल न करना। क्षमा के गुणों का चिंतन करना।
2. मार्दव- चित्त में मृदुता व व्यवहार में नम्रता होना।
3. आर्दव- भाव की शुद्धता। जो सोचना सो कहना। जो कहना सो करना।
4. शौच- मन में किसी भी तरह का लोभ न रखना। आसक्ति न रखना। शरीर की भी नहीं।
5. सत्य- यथार्थ बोलना। हितकारी बोलना। थोड़ा बोलना।
6. संयम- मन, वचन और शरीर को काबू में रखना।
7. तप- मलीन वृत्तियों को दूर करने के लिए जो बल चाहिए, उसके लिए तपस्या करना।
8. त्याग- पात्र को ज्ञान, अभय, आहार, औषधि आदि सद्वस्तु देना।
9. अकिंचनता- किसी भी चीज में ममता न रखना। अपरिग्रह स्वीकार करना।
10. ब्रह्मचर्य- सद्गुणों का अभ्यास करना और अपने को पवित्र रखना।
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