लोकपाल के मुद्दे पर देश में अंधी बहस छिड़ चुकी है और मैं समझता हूँ कि इस समस्या की जड का शायद या तो इन लोगों को सम्यक ज्ञान नहीं है अथवा वे इसे स्पष्ट शब्दों में व्यक्त करने में घबराते हैं | देश में अन्य अपराधियों के समान भ्रष्टाचारियों को भी दण्डित करने के लिए अनुसंधान एजेंसी एवं न्यायालय स्थापित हैं | अलबता भ्रष्टाचार के मामलों के लिए अलग से विशेष जांच एजेंसी केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो , भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ,इंटेलीजेंस विभाग , सतर्कता आयोग आदि देश में कार्यरत हैं और इन मामलों के परीक्षण के लिए विशेष न्यायलय भी कार्यरत हैं | भ्रष्टाचार रोक थाम अधिनियम की धारा19 में यह प्रावधान है कि भ्रष्टाचार संबंधिंत किसी भी मामले में सुनवाई में न्यायालय द्वारा रोक नहीं लगायी जावेगी और हमारा उच्चतम न्यायालय सत्यनारायण शर्मा के मामले में इस प्रावधान को पुष्ट भी कर चुका है | किन्तु न्यायालयों द्वारा इसकी अनुपालना की वास्तविकता पर मैं कोई टिपण्णी करने की आवश्यकता नहीं समझता हूँ |
यह निर्विवादित तथ्य है कि भ्रष्टाचारियों के मामलों में न तो अनुसन्धान उचित रूप से होता है और न ही न्यायालयों द्वारा उनका परीक्षण कानून सम्मत ढंग से होता है| हमारी सम्पूर्ण न्याय व्यवस्था भ्रष्टाचार से संक्रमित है| हमारे संविधान निर्माताओं की सबसे बड़ी भूल यह रही है कि उन्होंने न्यायपालिका को देवीय स्थान देकर उन्हें जनता के प्रति जवाबदेह नहीं बनाया | भ्रष्टाचार के मामले बढ़ने का सीधासा अर्थ यह है कि इन मामलों का अच्छे न्यायधीशों द्वारा अच्छे कानून लागू कर निर्णय नहीं दिया जा रहा है| यदि इन मामलों का अच्छे न्यायधीशों द्वारा निस्तारण किया जाये तो स्थिति पर नियंत्रण पाया जा सकता है |लोकपाल की आवश्यकता इसलिए अनुभव की जा रही है कि न्यायालयों द्वारा भ्रष्टाचारियों को दण्डित नहीं किया जा रहा है |
एशियाई मानवाधिकार आयोग के शब्दों में भारत में अधिकांश लोक अभियोजक कार्यालय ऐसी दलाली के कार्यालयों की तरह कार्य करते हैं जहाँ पुलिस , बचाव के वकील और लोक अभियोजक के बीच अपवित्र लेनदेन संपन्न होते हैं| जब एक लंबी खरीद फरोख्त के बाद भ्रष्ट राजनेताओं की इच्छा और पसंद के अनुसार राज्य द्वारा अभियोजक नियुक्त किये जाते हों तो इसे बुरा नहीं माना जा सकता | भारत में न्याय प्रदानगी निकाय की नींव को ही क्षति पहुँच चुकी है |यह निकाय भ्रष्टाचार और अक्षमता की बदबूदार नाली में रेंगता है . जो अधिकारी जन सामान्य के हितों की रक्षा करने के बहाने से कार्य ग्रहण करते हैं वे भी इस गंदी नाली में जहरीले साँपों की तरह जहर छोड़ते हुए और अपनी शैतानी पूंछ हिलाते हुए रेंगते हैं व आम नागरिक ,जो मात्र उनकी दया पर आश्रित होते हैं, का उपहास करते हैं |
हमारे यहाँ कानून निर्माण में अंग्रेजी पद्धति का अनुसरण किया जाता है और हमारी व्यवस्था की भिन्नताओं को ध्यान नहीं रखा जाता है |इस सन्दर्भ में भ्रष्टाचार की पृष्ठभूमि और हमारे सामाजिक–सांस्कृतिक ढांचे पर भी विचार करना समीचीन रहेगा| पाश्चत्य देशों में विवाह व परिवार कोई बंधन या दायित्व नहीं हैं| वहाँ एक औसत व्यक्ति अपने जीवन में ५-६ विवाह करता है और विवाह वहाँ एक आपसी किराये के अनुबंध के समान हैं | सेवानिवृति के बाद पेंशन का प्रावधान इसलिए रखा गया था कि एक लोक सेवक को सेवानिवृति के बाद जीवनयापन की चिंता नहीं रहे और वह सेवाकाल के दौरान सेवानिवृति के बाद जीवनयापन के लिए भ्रष्ट साधनों से सम्पति संचित करने का प्रयास नहीं करे| हमारी संस्कृति में विवाह और परिवार एक बंधन हैं और एक शक्तिसंपन्न लोकसेवक अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए सम्पति संचित करना चाहते हैं |
अब यदि लोकपाल बन गया और उनमें उचित अनुसन्धान हो भी गया तो मामलों का परीक्षण तो अंग्रेजी कानून पर आधारित इन न्यायालयों ने ही करना है जो कानूनन किसी के भी प्रति जवाबदेह नहीं हैं| अतः यदि स्वयं न्यायपलिका को लोकपाल के दायरे से बाहर रखा जाये तो लोकपाल बनाने का उद्देश्य ही समाप्त जो जायेगा क्योंकि भ्रष्ट न्यायधीशों को अभयदान मिल जायेगा और वे भ्रष्टाचारियों को निस्संकोच दोषमुक्त कर देंगे |
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