१९९१ में लागू नयी आर्थिकनीतियों को वैश्वीकरणवादी नीतियॉं भी कहा जाता हैं| क्योंकि ये नीतिया वैशिवक आर्थिक संबन्धों को बढाने वाली, उसमें राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय स्तर पर लगी रोक को हटाने वाली नीतियॉं हैं| उदारीकरणवादी नीतियों की तरह ही वैश्वीकरणवादी नीतियों को केवल इस देश में ही नहीं बल्कि विश्व के अन्य देशों में भी लागू किया जाता रहा हैं| उसे प्रस्तुत करने व वैश्विक स्तर पर लागू कराने का काम भी अन्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे संगठनों द्वारा तथा विश्व पर अपनी पूंजी तकनीक, उत्पादन, विनिमय मुद्रा, बाज़ार के जरिये सर्वाधिक पहुँच रखने वाले अमेरिका, इंग्लैण्ड जैसे साम्राज्यी देशों द्वारा किया जाता रहा हैं| हॉं, इस देश में और अन्य पिछड़े देशों में उसे लागू करवाने का काम इन देशों के धनाढ्य एवं उच्च हिस्सों तथा सरकारों द्वारा किया जाता रहा| दरअसल भारत और अन्य पिछड़े विकासशील देशो की धनाढ्य कम्पनियों, उच्च तबकों और सरकारों के लिए ये अन्तराष्ट्रीय सम्बन्ध नये नहीं हैं, बल्कि पुराने हैं| अंग्रेजों के समय से चले आ रहे हैं| इन्हीं संबंधों में देश के धनाढ्य तबके आधुनिक उद्योग, व्यापार के आधुनिक मालिक बने| इनकी पूंजियों, परिसम्पत्तियों में निरंतर वृद्धियॉं होती रही| लेकिन १९८९-९० तक विदेशी पूंजी तकनीक के आयात पर विदेशी व्यापार, विदेशियों के साथ सहयोग व साठ -गांठ पर कुछ न कुछ रोक या नियंत्रण लगा हुआ था| अब वैश्वीकरणवादी नीतियों के तहत इन वैश्विक आर्थिक संबंधो में अब तक लगी रही रोक को हटाकर उसे और ज्यादा बढाने या कहिये खुल्लम-खुल्ला बढाने का काम देश की सरकारों द्वारा किया जाता रहा हैं| १९९१ में इन नीतियों को लागू किए जाने के बाद विदेशी कम्पनियों पर विदेशी पूंजी व तकनीक पर विदेशी व्यापार पर थोड़ी बहुत लगी रोक को हटाकर उन्हें इस देश की धनाढ्य कम्पनियों जैसी छूटे व अधिकार मिलते रहे| देश की अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में उद्योग व्यापार कृषि यातायात, संचार आदि सभी क्षेत्रो में अधिकाधिक घुसने की छूट व अधिकार दिए जाते रहे| यह काम आज भी जारी हैं|
देश की समूची अर्थव्यवस्था को अन्तराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के साथ खासकर अमेरिकी अर्थव्यवस्था के साथ और उसके अन्तराष्ट्रीय नियमन व संचालन के साथ जोड़ा जाता रहा| लेकिन इसका नतीजा देश के व्यापक जनसाधारण के लिए क्षेत्रीय व स्थानीय स्तर पर भी अपना अस्तित्व बचाने के बढ़ते संकट के रूप में आता रहा| उन्हीं वैश्विक संबंधो को बढाने के लिए लागू किए गये डंकल-प्रस्ताव के अंतर्गत किसानों की परम्परागत बीजों से होने वाली आत्म निर्भर खेती को उजाड़ा जाता रहा| उन्हें विदेशों से आयातित बीजों को अपनाने के लिए मजबूर किया जाता रहा| फिर अब उन्हें भूमि अधिग्रहण के जरिये खेतियों का मालिकाना हक छोड़ने के लिए भी मजबूर किया जा रहा हैं| देश में खाद्यान्नों के उत्पादन को बढावा देने की जगह विदेशों से खाधान्नों के आयात को बढावा दिया जा रहा है| इसी तरह से लघु एवं कुटीर उद्योगों के उत्पादकों के इस देश के बाज़ार को विदेशी मालों, सामानों से पाटकर उन उद्योगों के देशी मालिकों को भी अपने उद्योग व्यापार छोड़ने -तोड़ने के लिए मजबूर किया जाता रहा है| पहले के उनके उत्पादन, व्यापार बाज़ार के आरक्षित अधिकारों को वैश्वीकरणवादी नीतियों के अंतर्गत काटा-घटाया जाता रहा| बहुतेरे मालों के आयात पर दशकों से प्रतिबंधों को हटाया जाता रहा| वैश्वीकरणवादी नीतियों के अंतर्गत जहॉं देश में विदेश के धनाढ्य एवं उच्च हिस्सों के लिए राष्ट्रीय व अन्तराष्ट्रीय स्तर पर फैलने बढने में लगी हर तरह की रोक या अवरोध को हटाकर उन्हें अधिक धनाढ्य व उच्च बनने के अवसर दीये जाते रहे, वहीं आम किसानों, दस्तकारों एवं छोटे उद्योगों व कारोबारियों को स्थानीय स्तर पर भी टिके रहने में हर तरह की अड़चन, अवरोध खड़े करके उनसे जीने का बुनियादी अवसरों तक को छिना जाता रहा| यह प्रक्रिया निरंतर जारी है| वैश्वीकरणवादी नीतियों की यह दोहरी और परस्पर विरोधी सच्चाई एकदम नग्न रूप में हमारे सामने आ रही हैं| स्वाभाविक है की देश के धनाढ्य व उच्च हिस्से अपने स्वार्थों में वैश्वीकरणवादी नीतियों का पुरजोर समर्थन कर रहे हैं और करेंगे भी| वहीं देश के व्यापक जनसाधारण के हित में जनसाधारण किसानों, मजदूरों एवं छोटे कारोबारियों द्वारा इनका विरोध किया जाना एकदम आवश्यक व अनिवार्य हैं|
निजीकरणवादी नीतियों को यह कह कर लागू किया गया था कि देश में अब तक सरकार के मालिकाने में चलते सार्वजनिक उद्योग व लाभ के बजाए घाटे का सौदा बन गये हैं| देश कि अर्थव्यवस्था पर बोझ बनकर उसका विकास अवरुद्ध कर रहे हैं| अत: अब इन सार्वजनिक उद्योगों के मालिकाने व प्रबन्धन, संचालन को सक्षम उद्यमियों को सौंप देना चाहिए| ताकि वे उसे घाटे से उबारकर लाभकारी बना दें| देश की अवरुद्ध होती अर्थव्यवस्था को गतिमान कर दें| इसे आगे करके राष्ट्र की समस्त जनता के श्रम व धन से खड़े किए गये सार्वजनिक उद्योगों को निजी क्षेत्र के धनाढ्य मालिकों को, धनाढ्य एवं विशाल कम्पनियों को देना शुरू किया गया| यह क्रिया १९९१ से आज तक निरंतर जारी है| उसी के साथ अब तक सरकारों के मालिकाने व नियंत्रण में चलते रहे सार्वजनिक शिक्षा , चिकित्सा जैसे क्षेत्रों को निजीकरण के तहत निजी मालिकों को सौपने या फिर जनहित के इन क्षेत्रों में निजी मालिकाने को बढावा देने का काम किया जाता रहा हैं| साथ ही यह प्रचार भी आता रहा कि सरकार का काम उद्योग व्यापार बैंक चलाना नहीं बल्कि देश की सत्ता सरकार शासन-प्रशासन चलाना है| कानून बनाना और उसे लागू करना है| अत: सरकार को सरकारी क्षेत्र के आर्थिक संसाधनों को तथा शैक्षणिक व चिकित्सकीय सेवाओं संस्थानों को चलाने से अपना हाथ खींच लेना चाहिए| उस पर सरकारी खजाने के राष्ट्रीय धन को खर्च करने की जगह उसे निजी मालिकों को सौंप देना चाहिए|
स्त्रोत/साभार : सुनील दत्ता, पत्रकार, ०९४१५३७०६७२, लोक संघर्ष
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