Saturday, April 6, 2013

औरतों की खरीद फरोख्त का असली रूप




मूललेखः सौम्या शिवकुमार 

मेवात के हरे पीले खेतों के चमक दमक के पीछे ऐसी औरतों की दर्द भरी दास्तान छुपी है, जिनके चेहरों पर हिंसा, पराधीनता और कभी-कभी उम्मीद की अनकही कहानियां साफ दिखाई देती हैं। ये औरतें जो देशभर से दुल्हन बनाकर राज्य में वंशवृद्धि के लिए लाई जाती हैं। इन्हें ‘पारो’ नाम मिला है। ‘पारो’ मतलब यमुना उस पार से लाई गई। कभी खरीदकर तो कभी बहला फुसलाकर अनेक छोटी उम्र की बालिकाओं को लाया जाता है, क्योंकि हमारे राज्य में कुछ खास इलाकों में लिंग अनुपात इतना गिर गया है कि हमारे लाडले बेटों को ब्याह करने के लिए दुल्हनें नहीं मिल रही हैं।
बिलासीपारा असाम की आठ साल की समीरा (बदला हुआ नाम) उस समय हैरान रह गई जब चार औरतें और एक आदमी एक दिन उसके गांव आए और कहने लगे हम तुम्हें तुम्हारे मामा के घर ले जाने आए हैं। समीरा बहुत छोटी थी जब उसकी मां की मृत्यु हो गई थी। उसे इतना ही याद था कि मामा कहीं बहुत दूर रहते थे। कुछ समझ पाती इससे पहले ही उसे एक टेम्पू में बिठाकर उसका सब कुछ छीन लिया गया था। इस तरह वह राजस्थान के अलवर जिले में ले आई गई थी। समीरा ने बताया कि यहां मुझसे कठोर श्रम कराया जाता। सफाई, भोजन बनाना, बर्तन धोना, जानवरों की देखभाल आदि। मुझसे जब कोई काम ठीक से नहीं हो पाता था तो वे मुझे भूखा रखते थे। कई बार सिर्फ पानी पीकर ही रहना पड़ता था। मेरे पड़ोस में रहने वाला एक बूढ़ा आदमी मेरे इस हाल पर दुखी था। उसने 5 हजार रुपए में मुझे खरीद लिया और अपने एक संबंधी से मेरी शादी करवा दी। तब ही से उसकी जिंदगी एक अनवरत और कठोर दुखभरी दास्तान बन कर रह गई। वह वापिस कभी अपने गांव नहीं जा सकी, क्योंकि न तो उसके पास पैसा था और न ही इस बात की आजादी। उसे तो यह भी पता नहीं था कि उसके पिता जिंदा भी हैं या नहीं। आठ साल की बच्ची अब 30 साल से अधिक की महिला बन चुकी है और उसके 16 साल का लड़का भी हैं। समीरा को लगता है कि आठ साल की उम्र में उसके साथ जो हुआ जैसे कल की ही बात हो। बड़े बेटे हमीद को उस पर विश्वास नहीं। वह कहता है, मैं इसे कभी अकेला नहीं जाने देता। क्या पता यह हमें छोड़कर कहीं भाग जाए, लेकिन समीरा के लिए किसी दिन अपने घर जा सकने का सपना ही उसके जीवन में बदलाव ला सकता है, अन्यथा दुखभरी मुस्कान उसके चेहरे पर फैल जाती है।

इस तरह की कई लड़कियां अलवर के मेवात इलाके में दिखाई देती हैं, जिन्हें ‘पारो’ कहा जाता है। पारो व्यवस्था प्रारंभ होने का मुख्य कारण महिलाओं व लड़कियों के प्रति गिरता हुआ दृष्टिकोण, कन्यावध व भ्रूण हत्या, गरीबी व घटती जमीन है। सारी व्यवस्था आदमियों की यौनिक इच्छा पूर्ति व मजदूरों की आवश्यकता के कारण बनी है। यह व्यवस्था मांग, पूर्ति व स्थानीय परिस्थितियों के आधार पर चलती है। अगर पुरुष निकम्मा है, गरीब है, बड़ी उम्र का है या विधुर व निशक्त है तो उन्हें स्थानीय स्तर पर वधुएं नहीं मिलती है और तब वे बाहर देखना प्रारंभ कर देते हैं। इसमें खाप पंचायतें इस आधार पर कोई प्रश्न खड़ा नहीं करती है कि पारो किस जाति की है। इस तरह कट्टरवादी खाप पंचायतों की भी इस पर स्वीकृति है। यहां गोत्र जाति सब गौण हो जाती है।

इसमें मानवाधिकारों का कितना उल्लंघन हो रहा है इसकी पूरी अवहेलना होती है। बाल विवाह, अपहरण, खरीद फरोख्त, बालश्रम, वैवाहिक बलात्कार, हिंसा रोजमर्रा की हिंसा, विवाह से बाहर बलात्कार, घूमने फिरने की आजादी पर रोक, बच्चा पैदा करने की आजादी में निर्णय लेने की स्वतंत्रता नहीं जैसे मुद्दे इस पूरी प्रक्रिया से जुड़े है। यह पारो व्यवस्था सिर्फ आपराधिक गतिविधि नहीं है। इसका सामाजिक पहलू भी है, परंतु अलवर कलक्टर का कहना है कि अब यह व्यवस्था धीरे-धीरे कमजोर हो रही है और चेतना भी आ रही है, जबकि एक दूसरा समूह यह मानता है कि इस व्यवस्था का विस्तार हो रहा है। (विविधा फीचर्स)
स्त्रोत : खबरकोश 

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