मीडिया मैनेजमेंट की उपज है नरेन्द्र मोदी का राष्ट्रीय कद!
मोदी को भाजपा का आइकन बनाने में मीडिया की कितनी बड़ी भूमिका है, इसका अंदाजा आप इसी बात ये लगा सकते हैं कि हाल ही में एक टीवी चैनल पर लाइव बहस के दौरान एक वरिष्ठ पत्रकार ने मोदी को अपरिहार्य आंधी कह कर इतनी सुंदर और अलंकारयुक्त व्याख्या की, जितनी कि पैनल डिस्कशन में मौजूद भाजपा नेता भी नहीं कर पाए। आखिर एंकर को कहना पड़ा कि आपने तो भाजपाइयों को ही पीछ़े छोड़ दिया। इतना शानदार प्रोजेक्शन तो भाजपाई भी नहीं कर पाए। हो सकता है उस पत्रकार अपनी निजी सोच वैसी ही हो जैसा वह बोल रहा था लेकिन एक हकीकत यह भी है कि मोदी ने मीडिया मैनजमेन्ट पर जितना ध्यान दिया है उतना और किसी दूसरे काम पर नहीं। पिछले छह सालों में मोदी की ओर से टेलीवीजन और न्यू मीडिया को साधने की जमकर कोशिश की गई है। उसी का परिणाम है कि मोदी के जितने मित्र और समर्थक उनकी अपनी पार्टी भाजपा में नहीं हैं उससे ज्यादा मीडिया में हैं। मोदी और उनकी टीम द्वारा मीडिया में जनसंपर्क का जो सघन अभियान चलाया गया उसका सुखद परिणाम आज मोदी के सामने है।
तेजवानी गिरीधर
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी वर्तमान में भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के दावेदारों में सबसे आगे आ चुके हैं, इसमें अब कोई दो राय नहीं हो सकती। मगर जितना सच यह है उतना ही सच यह भी है कि यह सब मीडिया का किया धरा है और जो कुछ है वह सब मोदी के मीडिया मैनेजमेंट का कमाल है। आज भले ही निचले स्तर पर भाजपा के कार्यकर्ताओं को मोदी में ही पार्टी के तारणहार के दर्शन हो रहे हों, मगर सच ये है कि उन्हें भाजपा नेतृत्व ने जितना प्रोजेक्ट नहीं किया, उससे कई गुना अधिक मीडिया ने शोर मचाया है। जैसा कि हमारे देश में भेड़चाल का चलन है, इसी प्रोपेगंडा से प्रभावित होकर भाजपा की दूसरी पंक्ति के नेता, छुटभैये और कार्यकर्ता उनके नाम की रट लगाए हुए हैं।
उनके विकास का मॉडल भी धरातल पर उतना वास्तविक नहीं है, जितना की मीडिया और सोशल नेटवर्किंग साइट्स ने खड़ा किया है। इसका बाद में खुलासा भी हुआ। पता लगा कि ट्विटर पर उनकी जितनी फेन्स फॉलोइंग है, उसमें तकरीबन आधे फाल्स हैं। फेसबुक पर ही देख लीजिए। मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताने वाली पोस्ट बाकायदा योजनाबद्ध तरीके से डाली जाती रही हैं। गौर से देखें तो साफ नजर आता है कि इसके लिए कोई प्रोफेशनल्स बैठाए गए हैं, जिनका कि काम पूरे दिन केवल मोदी को ही प्रोजेक्ट करना है। बाकी कसर भेड़चाल ने पूरी कर दी। हां, इतना जरूर है कि चूंकि भाजपा के पास कोई दमदार चेहरा नहीं है, इस कारण मोदी की थोड़ी सी भी चमक भाजपा कार्यकर्ताओं को कुछ ज्यादा की चमकदार नजर आने लगती है। शाइनिंग इंडिया व लोह पुरुष लाल कृष्ण आडवाणी का बूम फेल हो जाने के बाद यूं भी भाजपाइयों को किसी नए आइकन की जरूरत थी, जिसे कि मोदी के जरिए पूरा करने की कोशिश की जा रही है।
आपको जानकारी होगी कि मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताने की शुरुआत उनके तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने से पहले की शुरू हो गई थी। मुख्यमंत्री पद पर फिर काबिज होने के लिए मोदी ने मीडिया के जरिए ऐसा मायाजाल फैलाया कि विशेष रूप से गुजरात में उनके पक्ष में एक लहर सी चलने लगी। और जीतने के बाद तो मानो भूचाल ही आ गया। सच तो ये है कि प्रधानमंत्री पद के दावेदारों तक ने कभी अपनी ओर से यह नहीं कहा कि मोदी भी दावेदार हैं। वे कहने भी क्यों लगे। मीडिया ने ही उनके मुंह में जबरन मोदी का नाम ठूंसा। मीडिया ही सवाल खड़े करता था कि क्या मोदी प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं तो भाजपा नेताओं को मजबूरी में यह कहना ही पड़ता था कि हां, वे प्रधानमंत्री पद के योग्य हैं। इक्का-दुक्का को छोड़ कर अधिसंख्य भाजपा नेताओं ने कभी ये नहीं कहा कि मोदी ही प्रधानमंत्री पद के दावेदार हो सकते हैं। वे यही कहते रहे कि भाजपा में मोदी सहित एकाधिक योग्य दावेदार हो सकते हैं। और इसी को मीडिया ने यह कह कर प्रचारित किया कि मोदी प्रबल दावेदार हैं। सीधी सी बात है कि भला कौन यह कहता कि नहीं, वे इस पद के योग्य नहीं हैं अथवा दावेदार नहीं हो सकते। और आज हालत ये है कि चारों ओर मोदी की ही आंधी चल पड़ी है।
मोदी को भाजपा का आइकन बनाने में मीडिया की कितनी बड़ी भूमिका है, इसका अंदाजा आप इसी बात ये लगा सकते हैं कि हाल ही में एक टीवी चैनल पर लाइव बहस के दौरान एक वरिष्ठ पत्रकार ने मोदी को अपरिहार्य आंधी कह कर इतनी सुंदर और अलंकारयुक्त व्याख्या की, जितनी कि पैनल डिस्कशन में मौजूद भाजपा नेता भी नहीं कर पाए। आखिर एंकर को कहना पड़ा कि आपने तो भाजपाइयों को ही पीछ़े छोड़ दिया। इतना शानदार प्रोजेक्शन तो भाजपाई भी नहीं कर पाए। हो सकता है उस पत्रकार अपनी निजी सोच वैसी ही हो जैसा वह बोल रहा था लेकिन एक हकीकत यह भी है कि मोदी ने मीडिया मैनजमेन्ट पर जितना ध्यान दिया है उतना और किसी दूसरे काम पर नहीं। पिछले छह सालों में मोदी की ओर से टेलीवीजन और न्यू मीडिया को साधने की जमकर कोशिश की गई है। उसी का परिणाम है कि मोदी के जितने मित्र और समर्थक उनकी अपनी पार्टी भाजपा में नहीं हैं उससे ज्यादा मीडिया में हैं। मोदी और उनकी टीम द्वारा मीडिया में जनसंपर्क का जो सघन अभियान चलाया गया उसका सुखद परिणाम आज मोदी के सामने है।
यह मीडिया की ही देन है कि हाल ही अमरीकी प्रतिनिधिमंडल की मोदी से मुलाकात को इस रूप में स्थापित करने की कोशिश की कि अब अमरीका का रुख मोदी के प्रति सकारात्मक हो गया है। उन्हें अमरीका अपने यहां बुलाने को आतुर है। बाद में पता लगा कि वह प्रतिनिधिमंडल अधिकृत नहीं था और एक टूर प्रोग्राम के तहत उस प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों से राशि वसूली गई थी। खैर, जहां तक उनके लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने का सवाल है तो वे पहले व्यक्ति नहीं है। और भी उदाहरण हैं। और लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री बनना यानि प्रधानमंत्री पद का दावेदार हो जाना भी गले उतरने वाली बात नहीं है। इसी प्रकार इस बार जब मोदी को भाजपा संसदीय दल में शामिल किया गया तो मीडिया ने उसे इतना उछाला है, मानो कोई अजूबा हो गया है। संसदीय बोर्ड में तो वे पहले भी रहे हैं।
भाजपा के थिंक टैंक रहे गोविंदाचार्य ने इसको कुछ इस तरीके से कहा है-मोदी 6 साल पहले भी संसदीय बोर्ड में थे और अगर फिर उनको शामिल कर दिया गया है तो इसमें कौन सी बड़ी बात हो गई है। गोविंदाचार्य ने आगे कहा कि मोदी को देश के बारे में कोई ठोस समझ नहीं है, मीडिया प्रबंधन की वजह से कई बार व्यक्ति पद तो पा जाता है, लेकिन काम नहीं कर पाता। अभी मोदी को बहुत कुछ सीखने और समझने की जरूरत है। जरूरी नहीं की जो अच्छा पत्रकार हो वो अच्छा सम्पादक ही हो जाए या अच्छा अध्यापक बहुत अच्छा प्रधानाध्यापक बन जाए, उसी तरह जरूरी नहीं की एक अच्छा मुख्यमंत्री, अच्छा प्रधानमंत्री ही बन जाए।
कुल मिला कर आज हालत ये हो गई है कि मोदी भाजपा नेतृत्व और संघ के लिए अपरिहार्य हो गए हैं। व्यक्ति गौण व विचारधारा अहम के सिद्धांत वाली पार्टी तक में एक व्यक्ति इतना हावी हो गया है, उसके अलावा कोई और दावेदार नजर ही नहीं आता। संघ के दबाव में फिर से हार्ड कोर हिंदूवाद की ओर लौटती भाजपा को भी उनमें अपना भविष्य नजर आने लगा है। यह दीगर बात है कि उनके प्रति आम सहमति बन पाती है या नहीं, उसकी घोषणा करना मीडिया की जिम्मेदारी नहीं, फिर भी वह करने से बाज नहीं आ रहा। सहयोगी दलों की स्वीकार्यता तो अभी दूर की कौड़ी है।
स्त्रोत : राजनामा,
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