आज की चुनौतियां और भगत सिंह भाग-2
भगतसिंह ने मात्र 23 साल की उम्र में शहादत पायी, लेकिन शोषण मुक्त समाज की स्थापना के लिए यह उनकी वैचारिक प्रखरता ही थी कि अंग्रेजी जेलों से मुक्त होने के बाद उनके साथ काम करने वाले अधिकांश साथी कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़ गये। शिव वर्मा, किशोरीलाल, अजय घोष, विजय कुमार सिन्हा तथा जयदेव कपूर आदि इनमें शामिल थे। अजय घोष तो 1951-62 के दौरान संयुक्त सीपीआई के महासचिव भी बने। शिव वर्मा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के प्रखर नेता बने। उन्होनें भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरू आदि के बारें में उनकी मानवीय कमजोरियों, खूबियों के साथ बेहतरीन संस्मरण भी लिखे हैं। भगतसिंह और उनके साथियों की यह लड़ाई आज भी देश की प्रगतिशील जनवादी-वामपंथी ताकतें ही आगे बढ़ा रही है। वे ही आज भगतसिंह की क्रांतिकारी विरासत के सच्चे वाहक हैं।
भगतसिंह ने तीन प्रमुख नारें दिये .. इंकलाब जिंदाबाद! मजदूर वर्ग जिंदाबाद!! और साम्राज्यवाद का नाश हो!!! ये नारे आज भी देश के क्रांतिकारी आंदोलन के प्रमुख नारे हैं और “इंकलाब जिंदाबाद” का नारा तो लोक प्रसिद्ध नारा बन चुका है। ये तीनों नारे उनके संघर्षों के सार सूत्र हैं। अपने मुकदमे में उन्होने अदालत से कहा ..
“समाज का प्रमुख अंग होते हुये भी आज मजदूरों को उनके प्राथमिक अधिकार से वंचित रखा जा रहा है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन पूंजीपति हड़प जाते हैं। दूसरों के अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने के लिए मोहताज है। दुनिया भर के बाजारों को कपड़ा मुहैया कराने वाला बुनकर अपने तथा अपने बच्चों के तन को ढंकने को भी कपड़ा नही पा रहा है। सुन्दर महलों का निर्माण करने वाले राजगीर, लोहार तथा बढ़ई स्वयं गंदे बाड़ों में रहकर ही अपनी जीवन लीला समाप्त कर देते हैं। इसके विपरित समाज में जोंक रूपी शोषक पूंजीपति जरा-जरा सी बातों के लिए लाखों का वारा न्यारा कर देते हैं।यह भयानक असमानता और जबरदस्ती लादा गया गया भेदभाव दुनियां को एक बहुंत बड़ी उथल-पुथल की ओर लिए जा रहा है। यह स्थिति अधिक दिनों तक कायम नही रह सकती। स्पष्ट है कि आज का धनिक वर्ग एक भयानक ज्वालामुखी के मुंह पर बैठकर रंगरेलियां मना रहा है।
सभ्यता का यह प्रासाद यदि समय रहते संभाला नहीं गया तो शीघ्र ही चरमराकर बैठ जायेगा। देश को एक आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है और जो लोग इस बात को महसूस करते हैं, उनका कर्तव्य है कि साम्यवादी सिद्धान्तों पर समाज का पुनर्निर्माण करें।
क्रांति मानवजाति का जन्मजात अधिकार है, जिसका अपहरण नहीं किया जा सकता। स्वतंत्रता प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। श्रमिक वर्ग ही समाज का वास्तविक पोषक है, जनता की सर्वोपरि सत्ता की स्थापना श्रमिक वर्ग का अंतिम लक्ष्य है।
इन आदर्शों और विश्वास के लिए हमें जो भी दण्ड दिया जायेगा, हम उसका सहर्ष स्वागत करेंगे। क्रांति की इस पूजा वेदी पर हम अपना यौवन नैवद्य के रूप में लाए हैं क्योंकि ऐसे महान आदर्श के लिए बड़े से बड़ा त्याग भी कम है।“
भगतसिंह के इस बयान से साफ है कि जनसाधारण और मेहनतकश मजदूर-किसानों के लिए जीवन स्थितियां और ज्यादा प्रतिकूल हुई हैं, क्योंकि साम्राज्यवादी शोषकों की जगह पूंजीवादी-सामंती शोषकों ने लिया है। ये काले शोषक अपनी तिजोरियां भरने के लिए साम्राज्यवादपरस्त उदारीकरण की नीतियों को बड़ी तेजी से लागू कर रहे हैं और हमारे देश का बाजार उनकी लूट के लिए खोल रहे हैं। अमीरों और गरीबों की बीच की असमानता, शोषक और शोषितों के बीच का संघर्ष भगतसिंह के बाद के 84 सालों में सैकड़ों गुना बढ़ गया है, इसलिए समाजवादी क्रान्ति की आवश्यकता और समानता के सिद्धान्त पर आधारित शोषणविहीन समाज की स्थापना की जरूरत पहले की अपेक्षा और ज्यादा प्रासंगिक हो गई है। लेकिन समाज का यह पुनर्गठन मजदूर-किसानों और समाज के तमाम उत्पीड़ित-दलित तबकों की एकता के बिना और इसके बल पर व्यापक जनसंघर्षों को संगठित किये बिना संभव नही है। वैज्ञानिक समाजवाद पर आधारित मार्क्सवादी-लेनिनवादी दृष्टिकोण ही इस एकता और संघर्ष को विकसित करने का हथियार बनेगा। लेकिन व्यवस्था में ऐसे आमूलचूल परिवर्तनों के लिए आवश्यक साधनों का संगठन आसान काम नहीं है और राजनैतिक कार्यकर्ताओं से बहुंत बड़ी कुर्बानियों की मांग करता है। ये रास्ता काटों भरा है, जिसमें यंत्रणा, उत्पीड़न, दमन और जेल है। लेकिन केवल इसी रास्ते से होकर क्रांति का रास्ता आगे बढ़ता है।
ऐसा क्यों, इसलिए कि भगतसिंह के समय में जो साम्राज्यवाद उपनिवेशवाद के रूप में जिंदा था, आज वह वैश्वीकरण के रूप में फल-फूल रहा है। भगतसिंह के समय में विश्व स्तर पर समाजवाद की ताकतें आगे बढ़ रही थीं, सोवियत संघ के पतन के बाद आज वह कमजोर हो गया है। स्वतंत्रता आंदोलन के राष्ट्रवादी मूल्यों ने जाति भेद की दीवारों ने कमजोर किया था और सांप्रदायिक ताकतों को पीछे हटने के लिए मजबूर किया था, लेकिन आजादी के बाद सत्ताधारी पूंजीपति-सामंती वर्ग ने ठीक उन्हीं ताकतों से समझौता किया, नतीजन समाज में जाति आधारित उत्पीड़न और जातिवादी विचारों को फिर फलने-फूलने का मौका मिला और सांप्रदायिक-फासीवादी विचारों की वाहक ताकतें तो सीधे केन्द्र की सत्ता में ही है। विश्व स्तर समाजवाद की ताकतों के कमजोर होने और इस देश में वामपंथ की संसदीय ताकत में कमी आने के कारण कार्पोरेट मीडिया को पूंजीवाद के अमरत्व का प्रचार करने का मौका मिल गया। इस प्रकार आज के समय में भगतसिंह के विचारों और समाजवादी क्रांति की प्रासंगगिकता तो बढ़ी है, लेकिन इस रास्ते पर अमल की दुश्वारियां तो कई गुना ज्यादा बढ़ गई हैं।
1990 के दशक में हमारे देश में वैश्वीकरण-उदारीकरण की जिन नीतियों को लागू किया गया जा रहा है, उसका चौतरफा दुष्प्रभाव समाज और अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में पड़ा है। ये ऐसे दुष्प्रभाव हैं कि एक-दूसरे के फलने-फूलने का कारण भी बनते हैं और हमारा सामाजिक-आर्थिक जीवन चौतरफा संकटों से घिरता जाता है। इससे उबरने, बाहर निकलने का कोई उपाय आसानी से नजर नही आता। हमारे देश की शासक पार्टियां विशेषकर कांग्रेस और भाजपा इन संकटों से उबरने का जो नुख्सा पेश करती है, उससे और एक नया संकट पैदा हो जाता है। वास्तव में उनकी नीतियां संकट को हल करने की नहीं, देश को संकटग्रस्त करने की ही होती हैं।
हमारा देश कृषि प्रधान देश है और इस देश के विकास की कोई भी परिकल्पना कृषि को दरकिनार करके नहीं की जा सकती। इस देश में कृषि और किसानों का विकास करना है, तो भूमिहीन व गरीब किसानों को खेती व आवास के लिए जमीन देना होगा। आज देश में तीन-चौथाई भूमि का स्वामित्व केवल एक तिहाई संपन्न किसानों के हाथों में है। आजादी के बाद भूमि सुधार कानून बनाए गये, लेकिन लागू नहीं किए गए। इसलिए गरीबों को देने के लिए जमीन की कोई कमी नहीं है। इसी प्रकार लगभग दो करोड़ आदिवासी परिवारों का वनभूमि पर कब्जा है। आदिवासी वनाधिकार कानून तो बनाए लेकिन इसका भी सही तरीके से क्रियान्वयन नहीं किया गया और आज भी वे जंगलों से बेदखल किये जा रहे हैं। इन गरीबों को जमीन दिये जाने के साथ ही उन्हें खेती करने की सुविधाएं यथा सस्ती दरों पर बैंक कर्ज, बीज, खाद, दवाई, बिजली, पानी देना चाहिये। खेती किसानी के मौसम के बाद इन्हें मनरेगा में गांव में ही काम मिलना चाहिये। इसके लिए ग्रामीण विकास के कार्यो में सरकार को निवेश करना होगा। किसानों की पूरी फसल को लाभकारी दामों पर खरीदने की व्यवस्था सरकार को करनी चाहिये। इस अनाज को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत सस्ते दामों पर देश के सभी नागरिकों को वितरित करना चाहिये, ताकि गरीब लोग बाजार के उतार-चढ़ाव के झटकों तथा कालाबाजारी व महंगाई से बच सके।
इन उपायों से कृषि उत्पादन को बढ़ावा मिलेगा और उसका वितरण भी सुनिश्चित हो सकेगा। इससे ग्रामीण जनता की आय में वृद्धि होगी और बाजार में उनके खरीदने की ताकत बढ़ेगी। इससे औद्योगिक मालों की मांग बढ़ेगी, नये कारखाने खुलेंगे तथा बेरोजगारों को काम मिलेगा। शहरी बेरोजगारों को काम मिलने से और पुनः उनकी भी क्रय शक्ति बढ़ने से अर्थव्यवस्था को और गति मिलेगी। भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास का यही सीधा-सरल सूत्र है।
लेकिन आजादी के बाद और खासकर वैश्वीकरण-उदारीकरण के इस जमाने में हो उल्टा रहा है। किसानों को जमीन नही दी गई और जिनके पास थोड़ी बहुत जमीन है, उसे कानून बदलकर या षड़यंत्र रचकर पूंजीपतियों के लिए छीना जा रहा है। आदिवासी, दलितों व आर्थिक रूप से वंचितों पर इसकी सबसे ज्यादा मार पड़ रही है। कृषि सामग्रियों पर सब्सिडी खत्म की जा रही है, जिससे फसल का लागत मूल्य बढ़ रहा है। सरकार न तो न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने के लिए तैयार और न ही उसका अनाज खरीदने के लिए। बाजार में लुटने के सिवा उनके पास कोई चारा नहीं है। मनरेगा कानून को भी खत्म कर उन्हें ग्रामीण रोजगार से वंचित किया जा रहा है। सस्ते राशन की प्रणाली से सभी गरीब व जरूरतमंद धीरे-धीरे बाहर किये जा रहे हैं और उन्हें बाजार में महंगे दरों पर खाद्यान्न खरीदने के लिए बाध्य किया जा रहा है। इससे ग्रामीण जनता की क्रय शक्ति में भंयकर गिरावट आ रही है, वे कर्ज के मकड़जाल में फंस रहे हैं, खेती-किसानी छोड़ रहे हैं और पलायन करने या आत्महत्या करने को विवश हो रहे हैं। जब 75 प्रतिशत जनता की खरीदने की शक्ति कमजोर होगी, तो मांग भी घटेगी। मांग घटने से कारखाने बंद होंगे और जिन लोगों के पास काम है, वे भी बेरोजगारी की दलदल में ढकेले जायेंगे। इससे पूरे देश की अर्थव्यवस्था मंदी फंस जायेगी। और वास्तव में यही हो रहा है। खेती-किसानी भी बर्बाद हो रही है और कारखाने भी बच नही रहे हैं।
इस मंदी और संकट के लिए जिम्मेदार कौन है, निश्चित ही वे पूंजीवादी पार्टियां, जिन्होंने आजादी के बाद इस देश पर राज किया है और लम्बे समय तक राज करने वाली क्रांग्रेस और भाजपा भी इसमें शामिल हैं। इन्हीं के राज में विश्व व्यापार संगठन से समझौता किया गया था कि हमारे देश के बाजार में विदेशी जितना चाहे, जो चाहें, बेच सकते हैं और यहां के अनाज मगरमच्छों को भारी सब्सिडी देकर। इसलिए इस देश के किसानों का अनाज खरीदने के लिए कोई तैयार नहीं है। इन्हीं के राज में मांग घटने पर सरकारी कारखानें बंद किये जा रहे हैं, ताकि पूंजीपतियों के कारखाने चलते रहे और वे भारी मुनाफा बटोरते रहें। बेरोजगारी बढ़ने का फायदा वे उठाते हैं मजदूरी में और कमी कर, ज्यादा मुनाफा बटोरने के लिए। वे इसी कारण से स्थानीय मजदूरों को जानबूझकर काम नहीं देते, बल्कि बाहर से मजदूर मंगाते हैं और ठेकेदारों के जरिए काम करवाते हैं। ये पूंजीपति विदेशी पूंजीपतियों से सांठगाठ करते हैं और इनके जरिये बाजार में निवेश करते हैं, जिसे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) कहते हैं। खुदरा व्यापार में ये निवेश कर रहे हैं और 4 करोड़ खुदरा व्यापारियों, जिनमें ठेले वाले से लेकर सड़क पर बैठने वाले खुदरा कारोबारी और छोटे-मोटे दुकानदार शामिल हैं, की रोजी-रोटी संकट में है। विदेशी पैसो की ताकत इन सबको तबाह करने में पर तुली है। वे इस देश के बीमा क्षेत्र को, बैंक को, रेल को, रक्षा क्षेत्र को .. अर्थव्यवस्था के सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों को .. हड़पनें में लगे हैं। जनता तबाह हो जाए, लेकिन इनका मुनाफा बढ़ता रहे, यही इन सरकारों की नीति है।
इस संकट का एक और आयाम है। ये कारखाना बनाने के नाम पर केवल किसानों की जमीन ही नहीं, इस देश की प्राकृतिक संपदा को छीन रहे हैं। बिजली, सीमेंट या इस्पात कारखाना बनाने के लिए कोयला खदानों की मांग वे करते हैं। कोयला खोदने के लिए जंगलों को उजाड़ते हैं और वहां बसे आदिवासियों को भगाते हैं। कोयला खदानों के स्वामित्व के बल पर वे अपनी कंपनियों के शेयरों के भाव बढ़ाकर जमकर मुनाफा कमाते है। बिजली, सीमेंट इस्पात आदि बने या ना बने, कोयला खोदकर मुनाफा कमाते हैं। यदि कारखाने शुरू हो जाये, तो इसे चलाने के लिए नदियों पर कब्जा करते हैं और समाज को नदियों के जल के उपयोग तक से वंचित करते हैं। और ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए वे पूरा औद्योगिक कचरा नदियों में बहाते हैं, पर्यावरण व जैव-पारिस्थितिकी को बर्बाद करते हैं। इस कारखाने को चलाने के लिए वे बैंको से कर्ज लेते हैं, जहां हमारा ही पैसा जमा होता है। यानी, इन पूंजीपतियों की गांठ से कुछ नही जाता, वे हमारे ही पैसे से हमको उजाड़ने का खेल खेलते हैं और मुनाफा, मुनाफा… और मुनाफा ही कमाते हैं। इस सबके बावजूद, इस मुनाफे पर वे कानूनी टैक्स भी नही देते और कांग्रेस-भाजपा की सरकारें हर साल 6 लाख करोड़ रूपयों का टैक्स वसूलना छोड़ देने की घोषणा करती हैं। जन साधारण के लिए समाज कल्याण के कार्यो के लिए इन सरकारों के पास फंड नही होते, लेकिन पूंजीपतियों को लुटाने के लिए पूरा बजट है। इस लूट को और तेज करने के लिए आम जनता के हित में बनाये गये तमाम कानूनों को वो खत्म कर रहे हैं, तोड़.मरोड़ रहे हैं, या कमजोर कर रहे हैं। इनमें तमाम श्रम कानून शामिल हैं, भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास कानून है, मनरेगा कानून है, आदिवासी वनाधिकार कानून, पेसा कानून आदि सभी शामिल है। प्राकृतिक संपदा की हड़प नीति को इस सरकार का संरक्षण मिला हुआ है, जिसने लाखों करोड़ों रूपयों के 2.जी, कोल घोटाला जैसे घोटालों को जन्म दिया है।
…….. जारी …….
लेखक : …संजय पराते
स्रोत : http://www.hastakshep.com/intervention-hastakshep/ajkal-current-affairs/2015/03/24/%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%9C%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%9B%E0%A5%80%E0%A4%A8%E0%A5%8B
No comments:
Post a Comment