Wednesday, March 27, 2013

आदिवासी को गुस्सा क्यों आता है​?

आदिवासी को गुस्सा क्यों आता है​? (1)

पलाश विश्वास

मित्रों, यह आलेख कोई सामान्य आलेख न समझें, कृपया। कृपया इस आलेख के साथ दिये गये लिंक पर क्लिक करके आदिवासी आवाज को सुनें। हमने जिन्हें मुख्यधारा से काटकर अलग कर दिया है, कट जाने के बाद उनके जख्मी दिलो दिमाग से रिसते खून की अनंत धारा को तनिक स्पर्श करें और अपने से पूछें कि क्या हम लोकतंत्र के काबिल हैं!

(वीडियो यहाँ क्लिक करके देख सकते हैं!)


इस आलेख के साथ हमारे परिवर्तन जमाने के बरिष्ठ साथी पत्रकार वीरेंद्र सेंगर के ब्लाग पर छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ आदिवासी भाजपा नेता नंदकुमार साय से जो बातचीत है, उसको भी दे रहे हैं। इसके साथ ही विख्यात इतिहासकार राम चंद्र गुहा का आलेख भी दे रहे हैं।

छत्तीसगढ़ आदिवासियों के विरुद्ध सलवा जुड़ुम के लिए विख्यात है। वहां जब जाते हैं तो रायपुर और दूसरे बड़े शहरों के ​​लोग भाजपा सरकार के कसीदे पढ़ते अघाते नहीं हैं। उनहें अक्सर शिकायत रहती है कि रमणसिंह सरकार ने छत्तीसगढ़ का कायाकल्प कर दिया और आदिवासी इलाकों का विकास करना चाहते हैं, पर आदिवासी तो माओवादी हो गये हैं और अपने इलाकों में विकास के खिलाफ खड़े हैं। वे न सड़क बनाने देते हैं और न स्कूल।

उन्हें यह समझाना मुश्किल है कि विकास के नाम पर आदिवासियों पर कैसे कारपोरेट राज थोंपा जा रहा है। उन्हें यह भी समझाना मुश्किल है कि सैन्य दमन की छतरी में जीने को मजबूर इस देश की आदिवासी आबादी पर रोजमर्रे की जिंदगी में क्या बीतती है।छत्तीसगढ़ में जो नयी राजधानी रायपुर के पास फुखरौती के अगल-बगल में दर्जनों आदिवासी गांवों को उखाड़कर बसायी गयी, उस पर किसी का ध्यान है ही नहीं!

आदिवासियों के ज्यादातर गांव राजस्व गांव बतौर पंजीकृत नहीं हैं। संविधान की पांचवी और छठीं अनुसूचियों के तहत बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने उन्हें जो रक्षाकवच दिया है, कारपोरेट माफिया राज ने उसे तहस नहस कर दिया है। भूमि सुधार तो लागू हुआ ही नहीं है, जल जंगल जमीन, आजीविका और नागरिकता से अनंत बेदखली झेलते आदिवासी को हमने लोकतांत्रिक प्रक्रिया से अलग रखकर ही राजकाज चलाने की गौरवशाली परंपरा स्थापित कर ली है। विकास के हर कार्यक्रम के साथ आदिवासी के दमन का तंत्र मजबूत होता है। शरणार्थी पुनर्वास के बहाने आदिवासी इलाकों में शरणर्थियों को बसाने का मकसद भी ​​आदिवासी इलाके में सत्ता की पकड़ मजबूत करना था।

जैसे आदिवासी मुख्यधारा से काट दिये गये, उसी तरह शरणार्थी, बंजारा तमाम समुदाय और इस देश के शहरी इलाकों में रहने वाले गंदी बस्तियों के लोगों को भी मुख्यधारा से काट दिया गया है।

वरिष्ठ भाजपा नेता नंद कुमार साय पिछले चार-पांच दशकों से सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों में सक्रिय रहे हैं। पहले वे आदिवासी समाज की कुरीतियों के खिलाफ संघर्ष करते थे। इस समाज में शराब की बुरी लत छुड़ाने के लिए उन्होंने हजारों किमी की पद यात्रा भी की थी। एक जगह आदिवासियों ने ताना दिया कि उनके लिए तो शराब वैसे ही है, जैसे खाने में नमक। यदि आप नमक छोड़ सकते हों? तो वे शराब छोड़ देंगे। इस पर साय ने नमक छोड़ने का प्रण 40 साल पहले ले लिया था। तब से आज तक उन्होंने नमक नहीं खाया। इस पक्के संकल्प के चलते आदिवासियों के बीच आदिवासी नेता साय का सम्मान बहुत बढ़ गया है। वे संयुक्त मध्यप्रदेश में भाजपा अध्यक्ष रह चुके हैं। छत्तीसगढ़ विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता भी रहे हैं। वे पांच बार संसद में प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। इस समय वे राज्यसभा के सदस्य हैं। आदिवासी मामलों से जुड़े मुद्दों पर एसपी त्रिपाठी ने उनसे लंबी बातचीत की।

वाकड़े और साय के वक्तव्य का सारांश पूरे आदिवासी समाज का प्रतिनिधित्व करता है।

सशस्त्र बल बिशेषाधिकार कानून आफ्सा के खिलाफ मणिपुर की लौह मानवी इरोम शर्मिला जो बारह साल से आमरण अनशन पर हैं, उसके मूल में भी यही भावना है।

अगर भारतीय संविधान लागू होने की घोषणा​ ​के इतने अरसे के बाद भी संविधान वास्तव में लागू नहीं हुआ है और बेरोकटोक आदिवासियों का नरसंहार हो रहा है, तो इसके खिलाफ आदिवासियों का गुस्सा सौ फीसद जायज है।

अगर कारपोरेट राज इस गुस्से के बहाने दमन का तंत्र मजबूत करता है तो इस देश की जनता भी इसकी जिम्मेवारी से बच नहीं सकती कि हमें आदिवासियों का दर्द समझ में नहीं आता। तब हमें अपने से यह जरुर पूछना चाहिए कि क्या हम इस संविधान, इस लोकतंत्र और इस लोक गणराज्य के लायक हैं!

We the People Rajagopalachari declares India a republic

भारत का संविधान रचते वक्त डा. बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने लोक गणराज्य की अवधारणा के तहत संविधान के मूल ढांचे में लोक कल्याणकारी राज्य समाजवाद को सर्वोच्च स्थान दिया है। बाबा साहेब को अच्छी तरह मालूम था कि वर्चस्ववादी सत्तावर्ग इस देशी के साधन, प्राकृतिक संसाधन, पूंजी और उद्योग समूह पर सत्ता हस्तांतरण के तुरंत बाद झपट्टा मारकर दखल कायम करे लेगा। अंग्रेजों के जाने के बाद लूटमार चलेगी। आम जनता भूखों मरेगी। इसे रोकने के लिए समाजवादी, सामाजिक न्याय और समता को संवैधानिक आधार देने के लिए उन्होंने संविधान में धारा ३९ (बी) ​​और ३९ (सी) का समावेश किया। इन संवैधानिक धाराओं के तहत यह सुनिश्चित किया उन्होंने कि देश के साधन, प्राकृतिक संसाधन और संपत्ति ​​का इस्तेमाल देश के सभी नागरिकों के हित में होना चाहिए।

विकास का मतलब है आदिवासियों का विस्थापन।

प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने कहा कि वन भूमि पर काबिज आदिवासियों पर अब बेदखली की तलवार नहीं लटकेगी, क्योंकि केंद्र सरकार ने वन अधिकार कानून के जरिए महत्वपूर्ण पहल करते हुए उन्हे जमीन के पट्टे सौंपने का निर्णय लिया है! उन्होंने कहा कि साल में 100 दिन अनिवार्य रूप से रोजगार दिलाने वाली रोजगार गारंटी योजना से आदिवासी बहुल पिछडे इलाकों में बेरोजगारी और भुखमरी समाप्त होगी तथा लोगों को उनके निवास स्थान पर ही रोजगार मिलने से पलायन भी थमेगा!

क्या ऐसा हो रहा है?

हम बचपन से यह सिलसिला देख रहे हैं। नैनीताल की तराई में शरणार्थी पुनर्वास से पहले खाम बंदोबस्त 1952 में खत्म होने से पहले आदिवासियों की तमाम जमीन पर बड़े पूंजीवादी घरानों, राजनैतिक नेताओं, फिल्म स्टारों, आईएएस, आईपीएस ​​अफसरों, सेना के अधिकारियों का कब्जा हो गया है। जिसके लिए दर्जनों आदिवासी गांवों बुलडोजर से उखाड़ा गया। इस कार्रवाई को मानवीय चेहरा देने के लिए 1952 के बाद वहां पूर्वी बंगाल और पंजाब के विभाजन पीड़ित शरणार्थियों को बसाने का काम शुरु हुआ।

हमने झारखंड के कोयलांचल से 1980 में पत्रकारिता की शुरुआत की, तभी से पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत समेत देश के तमाम आदिवासी इलाकों में विकास का मंजर का प्रत्यक्षदर्शी हूं। संविधान की पांचवीं और छठीं अनुसूचियों की धज्जियां उड़ाकर प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट-खसोट की व्यवस्था को हम लोकतंत्र समझने लगे हैं।

कश्मीर से लेकर नगालैंड तक समूचे हिमालयी क्षेत्र की कथा-व्यथा भी वही है। हम तो तमाशबीन हैं। हमें तो आग की तपिश भी महसूस नहीं होती। पर जो लोग इस आग में झुलस रहे हैं, उनके दर्द और इस व्यवस्था के खिलाफ गुस्से को समझना जरुरी है। हमने झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड आंदोलनों के जरिये ​​आदिवासियों के संघर्ष को जाना समझा है।

महाश्वेता दीदी की रचनाओं में हिंदी साहित्य में आदिवासी संघर्षों की कथाएं भारी तादाद में उपलब्ध हैं। अब दलित साहित्य बतर्ज आदिवासी साहित्य आंदोलन भी चल रहा है। पर आदिवासी के संघर्ष और उनकी कथा व्यथा के हम कितने समवयाथी हैं, कितने ​​सहभागी हैं, देश ने यह अभी तक साबित नहीं किया है।

बुकर पुरस्कार प्राप्त अतरराष्ट्रीय ख्याति की लेखिका अरुंधति राय आदिवासियों के हक हकूक पर सिलसिलेवार लिख रही हैं, हम उन्हें तक माओवादी कहने से परहेज नहीं करते।

कुछ अरसे पहले हालीवूड की फिल्म अवतार भारत में खूब चली। किसी ग्रहांतर में जाने की कोई जरुरत नहीं है, इस देश के हर आदिवासी इलाके में यह नजारा नजर रोजाना नजर आता है। पर मुख्यधारा से उनके हक हकूक के लिए कहीं से कोई अवतार अवतरित नहीं होता।

यौन सहमति के लिए आयु 18 साल से घटाकर 16 साल करने पर गर्भ निरोधक बाजार जरुर बढ़ेगा, लेकिन इससे लोकतंत्र बालिग नहीं होता। हाशिये पर जो आदिवासी समाज है, उसके दर्द में हिस्सेदारी के बिना यह असंभव है।

बाबा साहेब अंबेडकर ने चेतावनी दी थी कि राजनीतिक लोकतंत्र तब तक जीवित नहीं रह सकता, जब तक कि भारत में सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना नहीं हो जाती। उन्होने साफ-साफ कहा था कि भारतीय समाज की संरचना में सीढ़ीदार असमानता है, और इसे खत्म करने का एजंडा राजनीतिक लोकतंत्र का प्रस्थान बिंदू है। जाति उन्मूलन की उनकी अवधारणा संविधान रचना के मूल में है, सत्ता की राजनीति करने वालों को यह याद नहीं रहेगा, पर बाकी देशवासी?

​बाबा साहेब ने प्रोब्लेम आफ रुपी से शुरु जो अर्थशास्त्रीय विवेचन के माध्यम से बहिस्कृत जनसमुदायों की आवाज बुलंद की, उसके तहत उन्होंने चेतावनी दी थी कि भारतीय समाज में कुछ लोगों के पास अकूत धन संपत्ति है, और बहुसंख्यक जनता भूखों मर रही है। उन्हीं के संविधान की हत्या के जरिये​ ​ कारपोरेट नीति निर्धारण के तहत आर्थिक सुधार के नाम पर जो कारपोरेट राज कायम हुआ है, जो अबाध पूंजी प्रवाह के नाम पर कालेधन​​ की व्यवस्था है, उसके शिकार सबसे ज्यादा इस देश के आदिवासी हैं। तो इसके प्रतिरोध में आदिवासियों की भागीदारी के बिना कोई जनांदोलन ​​कैसे हो सकता है।

भास्कर वाकड़े बाबा साहेब के हवाले से कहते हैं कि क्रांति तभी होगी, जब भूखे लोग सड़क पर उतरेंगे। जिन्हें भरपेट खाना ​​मिलता है, वे न आंदोलन कर सकते हैं और न क्रांति। बामसेफ एकीकरण सम्मलन में उनके क्रांतिकारी वक्तव्य को जारी करने से पहले हम भी ​​दुविधा में थे कि इस देश के लोकतंत्र को आदिवासियों की भाषा की तमीज अभी तक नहीं है, तो इसे जारी किया जाये या नहीं। पर आदिवासियों की आवाज को न सुनकर हम किसी भी स्तर पर कोई लोकतांत्रिक विमर्श की शुरुआत नहीं कर सकते।

इस सम्मेलन में बोलने वाले आदिवासियों में से सिर्फ हम ​​भास्कर वाकड़े का भाषण को सार्वजनिक कर पा रहे हैं। सम्मेलन में आदिवासियों का राज्यवार प्रतिनिधित्व था और देश भर से आदिवासी समूहों का समर्थन हमें हासिल है। इसीलिए देश के सामने भास्कर वाकड़े को पेश करने का जोखिम उठाने के सिवाय हम ईमानदार नहीं ठहराये जा सकते।

वाकड़े जो कहते हैं कि सिर्फ भाषणबाजी हैं, लोकतंत्र के नाम पर बातें, बातें और बातें, राजनीति और आंदोलन के नाम पर धंधा, उस पर गौर किये बिना हम नयी शुरुआत कर ही नहीं सकते। आदिवासी समाज इतना गरीब है कि वह अपनी जान के सिवाय आपको कुछ नहीं दे सकता और इसीलिए इस, देश की राजनीति और लोकतंत्र को उससे कुछ लेना देना नहीं है।

कृपया संथाल विद्रोह और मुंडा विद्रोह पर ब्रिटिश मिलिट्री हिस्ट्री के सिलसिलेवार व्यौरा को पढ़ने का कष्ट करें तो मालूम हो जायेगा कि आदिवासी लड़ाई के मैदान पर जब उतरता है तो या तो मर सकता है या फिर मार सकता है। वह दूसरों की तरह भागता नहीं है। वाकड़े सिर्फ बामसेफ और अंबेडकरवादी आंदोलन पर अपनी खाल बचाकर भरपेट पलायनवादी आंदोलन की शिकायत नहीं कर रहे हैं। यह आरोप भारतीय लोकतंत्र और नागरिक समाज के लिए भी समान रुप से प्रासंगिक है। इस पर सिरे से बहस बेहद जरुरी है, इसीलिए हमने आपके सामने भास्कर को रुबरू खड़ा करने का फैसला किया है।

1928 के अमर्स्टडम ओलंपिक खेलों में रांची के मुंडा आदिवासी जयपालसिंह मुंडा के अधिनायकत्व में भारतीय हाकी टीम ने ओलंपिक स्वर्ण ​​जीता। खूंटी के तपकारा गांव में 3 जनवरी, 1903 में जनमे जयपाल सिंह मुंडा को ध्यान चंद या सचिन तेंदुलकर तो दूर, किसी आम भारतीय खिलाड़ी के मुकाबले हम कितना याद रखते हैं? भारतीय क्रिकेट कप्तान महेंद्र सिंह धोनी से आठ नौ दशक पहले इस आदिवासी खिलाड़ी ने ओलंपिक में भारत का झंडा लहराया। देश ने उन्हें कितना सम्मानित किया? संविधान सभा में यही जयपाल सिंह मुंडा भारतीय आदिवासी समाज का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। यह हमारे लिए गौरव पूर्ण इतिहास है।

..जारी


आदिवासी को गुस्सा क्यों आता है​? (2)
07.03.2013

पलाश विश्वास

The chief spokesman for the tribal interest in the Constituent Assembly was Jaipal Singh Munda, a man of character and flamboyance who deserves to be more widely known today. He was a brilliant hockey player—he captained the Indian team to victory in the 1928 Olympics—and a still more brilliant orator. When Nehru moved a resolution in the Assembly proclaiming India a sovereign and democratic republic, Jaipal made a stirring speech interpreting the proclamation from his people’s point of view. “As a jungli, as an adibasi,” said Jaipal, “I am not expected to understand the legal intricacies of the resolution. But my common sense tells me that every one of us should march in that road to freedom and fight together. Sir, if there is any group of Indian people that has been shabbily treated, it is my people. They have been disgracefully treated, neglected for the last 6,000 years. The history of the Indus Valley civilisation, a child of which I am, shows quite clearly that it is the newcomers—most of you here are intruders as far as I am concerned—it is the newcomers who have driven away my people from the Indus Valley to the jungle fastness.... The whole history of my people is one of continuous exploitation and dispossession by the non-aboriginals of India punctuated by rebellions and disorder, and yet I take Pandit Jawaharlal Nehru at his word. I take you all at your word that now we are going to start a new chapter, a new chapter of independent India where there is equality of opportunity, where no one would be neglected.”

These hopes were to be falsified. For it is Jaipal’s adivasis who have gained least and lost most from six decades of electoral democracy. In terms of access to education, healthcare and dignified employment, they are even worse off than the Dalits. Meanwhile, millions of adivasis have been thrown out of their homes and forests to make way for dams, factories and mining projects intended for the producers and consumers of urban India. Thus the “exploitation and dispossession” have continued, to be answered by a fresh round of “rebellions and disorder”. It is surely no accident that the greatest gains made by the Maoists in the past decade have been in the tribal districts of central and eastern India.

झारखंड से राजीव की इस रपट पर गौर करें और समझे कि हम किस लोकतंत्र में जी रहे हैं!

झारखण्ड के बोकारो जिला के चंद्रपूरा थाना में 3 मार्च को झामुमो विधायक जगन्नाथ महतो ने कंगारू कोर्ट लगाकर जितेन्द्र चौधरी नामक चालक को पेड़ से लटका दिया. चालक की पत्नी सुनीता देवी ने पति के रोज शराब पीने और पैसे मांग-मांग कर प्रतिदिन प्रताड़ित करने का आरोप लगाया था. पत्नी की शिकायत सुनने के बाद विधायक नेअपने आवास के सामने एक पेड़ पर घंटों टांगे जाने की सजा सुनाई.

इलाके का एक स्थानीय दर्शक का कहना था कि विधायक जगन्नाथ महतो पहले भी कई बार कंगारू कोर्ट लगा चुके है और त्वरित न्याय देते रहते हैं. बिलंबित न्याय देने और आम लोगों के बीच पुलिस की अच्छी छवि नहीं होने के कारण राज्य के कई इलाके में समानान्तर कंगारू कोर्ट का प्रचलन जारी है. हालांकि पंचायत के माध्यम से समस्याओं का निपटारा आदिवासी रवायत भी रही है, जहां न्याय त्वरित और सुलभ होता है. खबर है कि झामुमो अपने पार्टी के विधायक जगन्नाथ महतो द्वारा लगातार कंगारू कोर्ट लगाकर न्याय करने की जांच शुरू कर दिया है.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी ) के हालिया रिपोर्ट से पता चलता है कि झारखंड के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के ग्रामीण-आदिवासी पुलिस के वजाय पंचायत व माओवादियों की जनअदालत जाना पसंद करते हैं. एनसीआरबी की 2011 रिपोर्ट के अनुसार लगभग साढ़े तीन करोड़ आबादी वाले झारखंड राज्य में पुलिस केसों की संख्या मात्र 35, 838 दर्ज की गयी, जबकि लगभग समान आबादी वाले राज्यों जैसे केरल, असम व हरियाणा में क्रमश: 1.72 लाख, 60,000 व 66, 000 मूकदमें पुलिस ने वर्ष2011 में दर्ज किए.

लगभग 426 पुलिस थानों वाले राज्य झारखंड में 95 नये थाने पिछले बारह वर्षों में खोले गए, लेकिन आदिवासी थाने जाने के बजाय कंगारू कंगारू कोर्ट, पंचायतों व माओवादियों द्वारा लगायी जाने वाली जनअदालतों में अपनी समस्याओं को सूलझाना पंसद करते हैं. वरिष्ठ आइपीएस अफसर एसएन प्रधान इस बात से इंकार नहीं करते कि ग्रामीण इलाकों में लोग पुलिस के पास जाने से डरती है. रिकॉर्ड के अनुसार चार मुख्य शहरों रांची, बोकारो, धनबाद व जमशेदपुर में कुल मूकदमें का 45 प्रतिशत ही पुलिस थाने में दर्ज होता है.

जन अदालतों और पंचायतों का प्रचलन झारखंड के उन राज्यों में ज्यादा है जो क्षेत्र उग्रवाद प्रभावित रहे हैं. पंचायतों के माध्यम से सिमडेगा, खूंटी, पूर्वी व सिंहभूम,लोहरदगा, गूमला, संथाल परगना व पलामू के लोग अपनी समस्याओं को सूलझाना पंसद करते है. उल्लेखनीय है कि वर्ष 2010 में अंचल स्तरीय भाजपा नेता को लातेहार जिला में माओवादियों ने जनअदालत लगाकर षड्यंत्र दोषी करार देते हुए गोली मार दिया गया था.

इसी तरह वर्ष 2010 में ही गिरिडीह में जनअदालत में सीपीआइ, माओवादी के कार्यकर्ताओं ने एक व्यक्ति को जान से मारने का फैसला सूनाते हुए उसका सर धड़ से अलग कर दिया था.

गौरतलब है कि उग्रवाद प्रभावित इलाकों में जहां ग्रामीण आदिवासी उग्रवादियों के भय से भी पुलिस में मूकदमें दर्ज नहीं कराते वहीं कई मामलों में पुलिस के भय से भी ग्रामीण आदिवासी पंचायतों में अपने विवादों को निपटाना ज्यादा आसान और सुलभ मानते है.

Ignorance Cannot be Basis for Denial of Justice to Jaipal Singh

JAIPAL was born on January 3, 1903 at Tapkara village under Khunti subdivision (now a full-fledged district) in Ranchi district in Jharkhand. Takpara is a Munda village and Jaipal was Munda, a tribe of the sylvan country. His family had embraced Christianity. Sparks of his talent coupled with leadership qualities were noticed early in the day by the missionaries of SPG Mission Church of England. After initial schooling, Jaipal shifted from his village to Ranchi and studied at St. Paul’s run by the said missionaries. His character and qualities enamoured almost all whoever came in touch with him. A hockey player of exceptional calibre and abilities, he exhibited his mark quite early in his youth.

The Principal of St. Paul’s sent him to the Oxford University for higher education. Jaipal did not take much time to demonstrate his mettle as an ace hockey player in the celebrated University and soon charmed his way into the Oxford University Hockey Team. “The hallmarks of his game as a deep defender were his clean tackling, sensible game-play and well-directed hard hits. He was the most versatile player in the Oxford University Hockey Team. His contribution to the University Hockey Team was recognised and he became the first Indian student to be conferred the ‘Oxford Blue’ in Hockey.”2

He was a prolific columnist on sports, particularly hockey. Leading English newspapers used to publish regularly his columns on the game, which were widely acclaimed by readers. In 1928, he was selected for captaincy of the Indian Hockey Team for the Amsterdam Summer Olympics. It was both a unique honour and tough challenge that called for his sacrifice.

Conflict between Personal Interest and National Dignity: Jaipal Sacrificed his Personal Interest

A student of Economics (Honours) at Oxford University, Jaipal passed his examinations with flying colours. He took the ICS examination, which was the dream of every Indian youth in the colonial era. He cleared it with the highest marks in the interview. While he was under-going training in England as an ICS probationer, he was selected as the captain of the Indian team for the Amsterdam Summer Olympics. It was a call from his motherland that presented to him the defining moment. He was asked to reach Amsterdam and join the team immediately. When he applied for leave of absence to take up the charge of captaincy, the India Office, London rejected his prayer outright. He defied the refusal order of the India Office which conducted the affairs of the Government of India from London. The import of his disobedience was pregnant with severe consequences.

Undaunted, Jaipal proceeded to Amsterdam and joined the hockey team for practice. He was well aware that his conscious decision and calculated move was fraught with the inevitable disciplinary action: he had qualified himself by his defiance for major punishment. Charges of disobedience and indiscipline against an ICS probationer were too serious to overlook by the colonial masters. Jaipal was without parallel in this behalf by responding to his patriotic impulse as well as conscience. He was indeed peerless, though history is yet to accord due importance to this event.

The Imperial Service was known for its strict rules, rigid discipline and unplugging adherence to unbending procedures. Jaipal nonchalantly flouted the mighty authorities. The Indian Hockey Team for Amsterdam had the following members: Jaipal Singh (Captain), Richard Allen, Dhyan Chand, Maurice Gateley, William Goodsir-Cullen, Leslie Hammond, Feroze Khan, George Marthins, Rex Norris, Broome Pinniger (Vice-Captain), Michael Rocque, Frederic Seaman, Ali Shaukat and Sayed Yusuf.3

Nine countries divided into two Divisions A and B participated in the Olympic Hockey. In all, 31 players scored 69 goals in 18 matches. Of them, India [in Division A] scored 29 goals—the largest number by Major Dhyan Chand, 14, followed by Feroze Khan and George Martins, five each, Frederic Seaman, three, Ali Saukat and Maurice Gateley, one each. In the final match, India defeated Holland by 3-0 goals. Germany and Belgium had to contend with the third and fourth positions.

In the final against Holland, however, Jaipal Singh did not play. Serious differences of opinion had cropped up between the team manager A. B. Rossier and the Captain. As a result, Jaipal Singh opted out of the final match. The Vice-Captain Broome Pinniger stewarded the team to victory by inflicting a crashing defeat on the rival Holland team.

नियम विरुध्द बिकी आदिवासी की जमीन

रायपुर ! बालोद जिले में आदिवासी किसानों की जमीन बेचने की इजाजत नियम विरूध्द लिए जाने के मामले में शुक्रवार को विधानसभा में राजस्व मंत्री दयाल दास बघेल नेता प्रतिपक्ष रविन्द्र चौबे के सवालों से घिर गए। कांग्रेस सदस्यों ने अनुमति देने वाले अधिकारी पर कार्रवाई करने, मामले की जांच सदन की समिति से कराने व रजिस्ट्री निरस्त कर वापस किसानों को जमीन दिए जाने मांग की। राजस्व मंत्री अपने जवाब में बार-बार यह दुहराते रहे कि नियमो के तहत अनुमति दी गई है। उन्होंने जांच कराने से इंकार कर दिया। श्री चौबे ने कहा मंत्री गैर जिम्मेदारी से उत्तर दे रहे हैं। सत्ता पक्ष से जुड़े लोग इस मामले में शामिल है। मंत्री के जवाब से असंतुष्ट होकर समूचा विपक्ष बर्हिगमन कर गया।

प्रश्नकाल में नेता प्रतिपक्ष रविंद्र चौबे ने यह मामला उठाते हुए कहा कि आदिवासियों की जमीन बेचने के लिए नियम बने हैं। जमीन बेचने की अनुमति उन्हीं किसानों को दी जा सकती है, जिनके पास जीवनयापन के लिए जमीन बची हो। नेता प्रतिपक्ष के प्रश्न के जवाब में राजस्व मंत्री दयालदास बघेल ने कहा कि बालोद जिला बनने के बाद 29 आदिवासी किसानों द्वारा जमीन बिक्री की अनुमति मांगी गई थी। इनमें से 14 आवेदकों को जमीन बेचने की अनुमति दी गई है। नेता प्रतिपक्ष ने जानना चाहा कि गुंडरदेही में जिन तीन मामलों में आदिवासियों फूल सिंह और धीरपाल को जमीन बेचने की अनुमति दी गई उनके पास शेष कितनी जमीन बची है? राजस्व मंत्री ने बताया कि फूल सिंह के पास 0.29 हेक्टेयर, धीरपाल के संयुक्त खाते में 0.93 और 0.43 जमीन बाकी है। श्री चौबे ने जानना चाहा कि यह जमीन शासन द्वारा निर्धारित न्यूनतम मापदंड से कम है या यादा? राजस्व मंत्री ने स्वीकार किया कि जितनी जमीन रहनी चाहिए उससे कम है। नेता प्रतिपक्ष ने सवाल किया कि यदि जमीन कम है तो इसकी अनुमति कैसे दी गई। अनुमति देने वाले अधिकारी पर वे क्या कार्रवाई करेंगे मंत्री ने कहा कि कलेक्टर ने न्यायालयीन प्रक्रिया के तहत इसकी अनुमति दी है। धीरपाल आम मुख्तियार है और इस मामले में नियमत: अनुमति दी गई है। धर्मजीत सिंह ने पूरक प्रश्न किया कि इस पूरे प्रकरण में क्या वे जमीन की गलत तरीके से दी गई अनुमति निरस्त करेंगे और अनुमति देने वाले अधिकारी को जेल भेजेंगे?

मंत्री ने कहा कि जिन लोगों ने जमीन बेची हैं उन्होंने इस संबंध में कोई शिकायत नहीं की है। नेता प्रतिपक्ष ने कहा कि कौन शिकायत करता है कौन नहीं यह प्रश्न नहीं है।जिस व्यक्ति ने जमीन खरीदी है वह किस पार्टी का कितना बडा पदाधिकारी है उसका वे नाम नहीं लेना चाहते। उन्होंने मंत्री से फिर पूछा कि वे अनुमति देने वाले पर क्या कार्रवाई करेंगे। मंत्री ने फिर अपना जवाब दोहराया कि नियमानुसार ही अनुमति दी गई है। इस पर विपक्ष के कई सदस्य एक साथ खडे होकर बोलने लगे। कांग्रेस सदस्य मोहम्मद अकबर ने कहा कि न्यायालयीन प्रक्रिया की आड़ में आदिवासियों की जमीन बेची जा रही है। नियमत: जमीन बेचने के बाद उनके पास कम से कम पांच एकड़ जमीन बचनी चाहिए। उन्होंने मंत्री से पूछा कि क्या वे इस मामले की विधानसभा की समिति से जांच कराएंगे या वीडियोकॉन ने जिस तरह जमीन वापस की थी उसी तरह जमीन वापस करेंगे। राजस्व मंत्री ने फिर दोहराया कि अनुमति नियम के तहत ही हुई है। इस पर आपत्ति करते हुए कांग्रेस सदस्य एक साथ खडे होकर बोलने लगे। मंत्री केजवाब से असंतुष्ट होकर कांग्रेस सदस्यों ने बर्हिगमन कर दिया।
..जारी


आदिवासी को गुस्सा क्यों आता है​? (3)
17.03.2013

पलाश विश्वास

केंद्र की गलत नीतियां ही आदिवासियों को बना रही हैं बदहाल: साय
वीरेंद्र सेंगर
केंद्र सरकार यह स्वीकार कर चुकी है कि देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा नक्सलवाद बन गया है। इसका विस्तार देश के 13 राज्यों तक हो गया है। खासतौर पर आदिवासी आबादी वाले इलाकों में नक्सलवाद का विस्तार हुआ है। कई जगह हथियारबंद माओवादी अपनी समानांतर सरकारें चला रहे हैं। यूपीए सरकार बड़े बजट से नक्सल विरोधी आपरेशन चलाती रही है। लेकिन, नक्सलियों को स्थानीय आदिवासी आबादी से समर्थन मिल जाता है। छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ भाजपा नेता नंद कुमार साय पिछले चार-पांच दशकों से सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों में सक्रिय रहे हैं। पहले वे आदिवासी समाज की कुरीतियों के खिलाफ संघर्ष करते थे। इस समाज में शराब की बुरी लत छुड़ाने के लिए उन्होंने हजारों किमी की पद यात्रा भी की थी। एक जगह आदिवासियों ने ताना दिया कि उनके लिए तो शराब वैसे ही है, जैसे खाने में नमक। यदि आप नमक छोड़ सकते हों? तो वे शराब छोड़ देंगे। इस पर साय ने नमक छोड़ने का प्रण 40 साल पहले ले लिया था। तब से आज तक उन्होंने नमक नहीं खाया। इस पक्के संकल्प के चलते आदिवासियों के बीच आदिवासी नेता साय का सम्मान बहुत बढ़ गया है। वे संयुक्त मध्यप्रदेश में भाजपा अध्यक्ष रह चुके हैं। छत्तीसगढ़ विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता भी रहे हैं। वे पांच बार संसद में प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। इस समय वे राज्यसभा के सदस्य हैं। आदिवासी मामलों से जुड़े मुद्दों पर हमारे विशेष संवाददाताएसपी त्रिपाठी ने उनसे लंबी बातचीत की।

केंद्र सरकार तमाम दावे कर रही है कि उसके कार्यकाल में देश के वंचित वर्गों के लिए सबसे अधिक कल्याणकारी योजनाएं चलाई गई हैं। केंद्र के इस दावे पर आप क्या कहेंगे?केंद्र सरकार वंचित वर्गों के लिए जो भी दावे कर रही है, वे एकदम खोखले हैं। आजादी के बाद से अब तो यह प्रमाणित हो गया है कि केंद्र में जब भी कांग्रेस की सरकार रहती है, महंगाई बढ़ी है। जिसके कारण गरीबों का जीना दूभर हो गया है। पेट्रोल की कीमतें लगातार बढ़ाए जाने से महंगाई बढ़ी है। गरीब, दाल तक नहीं खा पा रहा है। सब्जी खाने के बारे में तो वह कल्पना भी नहीं कर पाता। गरीब बेहाल हैं और किसान आत्महत्या करने के लिए विवश हैं। बहुचर्चित मनरेगा योजना भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई है। यूपीए सरकार देश की संप्रभुता को ‘इटली’ के हवाले करने पर तुली है।

आप भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की राजनीति में आप दशकों से रचे-बसे हैं। आप जिस आदिवासी समाज से आते हैं, उसमें हाल के वर्षों में किस तरह का बदलाव देख रहे हैं?

परिवर्तन के नाम पर आदिवासी समाज में थोड़ी जागरूकता भर आई है। अब वह पढ़ने-लिखने और आगे बढ़ने में दिलचस्पी लेने लगा है। लेकिन अभी भी सुदूर जंगलों और पहाड़ों में रहने वाले आदिवासियों को शिक्षा नहीं मिल पा रही है। प्राथमिक शिक्षा में गिरावट के कारण इन्हें लाभ नहीं मिल रहा है। हालांकि, इन इलाकों में आदिवासी बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे हैं। लेकिन आज भी इनकी आर्थिक प्रगति का तानाबाना संविधान के अनुरूप नहीं चल रहा है। संविधान के मुताबिक वंचित वर्गों के लिए शिक्षा,स्वास्थ्य एवं चहुंमुखी विकास के लिए समुचित प्रयास किए जाने चाहिए। लेकिन, ऐसा नहीं हो रहा है। आदिवासियों की जमीनों को गैर कृषि कार्य एवं उद्योगों को दिया जा रहा है। इस तरह से इन्हें नक्सली बनने पर मजबूर किया जा रहा है। जबकि कोई गरीब आदिवासी शौक से नक्सली नहीं बनता। लेकिन, शोषण से तबाह होकर उसे नक्सली ही सच्चे हमदर्द लगने लगते हैं। सरकार पता नहीं क्यों ये बात समझ नहीं पा रही है? हो यह रहा है कि नक्सलियों को मदद देने के नाम पर सुरक्षा बल गरीब आदिवासियों को तंग करते हैं। कई बार उन्हें जेल में भी डाल दिया जाता है। ऐसे में, नक्सलवाद की जमीन और फलने-फूलने लगती है। हम कह सकते हैं कि केंद्र की गलत आर्थिक नीतियांआदिवासियों को और बदहाल बना रही हैं।

मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकारें हैं। आदिवासी कल्याण के लिए इन सरकारों के भी तमाम दावे हैं। इसके बावजूद भी इन दोनों राज्यों में नक्सल प्रभावित क्षेत्रों का विस्तार हो रहा है। नक्सल प्रभाव खत्म नहीं हो रहा है। ऐसे में सरकार के तमाम दावे खोखले नहीं लगते?

बात केंद्र और भाजपा सरकार की नहीं है। सवाल यह है कि नक्सलियों की समस्या के निराकरण के लिए क्या दृष्टिकोण अपनाया जा रहा है? आदिवासियों को विश्वास मेंलिया जाना जरूरी है। लेकिन इन्हें तो खदेड़ा जा रहा है। बदहाल बनाया जा रहा है। बस्तर, दुनिया के 10 सबसे अशांत क्षेत्रों में है। यहां बैगा और पहाड़ी कोरवा आदि जनजातियां पहाड़ और जंगलों में रहती हैं। वन उपज के बेजा इस्तेमाल का आरोप लगाकर इन्हें खदेड़ा जा रहा है। चापा के पास आदिवासियों की सिंचित जमीन को निजी उद्योगों को दे दिया गया। इसका घोर विरोध हो रहा है। इस तरह से समस्या का समाधान कैसे हो सकता है? एक तरफ आप आदिवासियों को उजाड़ रहे हैं, दूसरी तरफ उनके विकास का डंका पीट रहे हैं। इसी वजह से नक्सल समस्या लगातार जटिल होती जा रही है।

यह माना जाता है कि नक्सलियों को सबसे ज्यादा खाद-पानी आदिवासी गांवों से ही मिलती है। आखिर आदिवासी समाज का सत्ता पक्ष से मोह भंग क्यों हो रहा है? वे मुख्य धारा से क्यों नहीं जुड़ पा रहे हैं?

निर्दोष और भोले-भाले आदिवासी नक्सली और पुलिस दोनों का निशाना बन रहे हैं। नक्सली, आदिवासियों को पुलिस का मुखबिर बताकर हत्या कर रहे हैं। वहीं पुलिस, नक्सलियों को पनाह देने का आरोप लगाकर आदिवासियों को निशाना बना रही है। यह बड़ी विचित्र स्थिति बन गई है। आदिवासियों पर चौतरफा हमला हो रहा है। एक तरफ उन्हें जमीन से बेदखल किया जा रहा है, तो दूसरी तरफ रोजी-रोटी से। अब तो उन्हें जीने के अधिकार से भी वंचित किया जा रहा है। नक्सलियों के सरंक्षण में स्वयंभू मानवाधिकार संगठन खड़े हैं। लेकिन ग्रामीण आदिवासियों के पक्ष में कोई नहीं। जहां तक मुख्यधारा की बात है, आदिवासी हमेशा से ही मुख्यधारा में रहा है। ‘बेटी बचाओ’ के लिए देश में खूब नारे लग रहे हैं। पढ़े-लिखे लोग कन्या भ्रूण हत्या करने में संकोच नहीं करते। जबकि आदिवासी समाज में जिस घर में बेटी नहीं होती, उसे अछूत माना जाता है। दहेज प्रथा जैसी कुरीतियां इस समाज में नहीं हैं। न तो खाप पंचायतों जैसा तालिबानी फरमान ही जारी होता है। महिलाओं का जो सम्मान हमारे समाज में है, वैसा तो विकसित समाज तक में नहीं देखा जाता है। अब बताइये, मुख्य धारा में कौन है? आदिवासी या पढ़ा-लिखा शहरी समाज? आदिवासियों से तो देश के तथाकथित सभ्य समाज को सीखना चाहिए कि महिलाओं का सम्मान वाकई में कैसे किया जाता है?

केंद्र सरकार नक्सली आपरेशन पर प्रचुर धन खर्च कर रही है। लाखों अर्धसैनिक बलों को लगाया गया है। नक्सल विरोधी आपरेशन में सरकार की रणनीति पर आप क्या कहेंगे?

सरकार की यह रणनीति, समस्या का स्थाई हल ढूंढ़ने के बजाए इस समस्या को और जटिल बना रही है। नक्सल विरोधी अभियानों के नाम पर हर साल अरबों रुपये पानी की तरह बहा दिए जा रहे हैं। यदि यही धन आदिवासियों की शिक्षा, स्वास्थ्य और आत्मनिर्भर बनाने पर खर्च होता, तो स्थिति में काफी बदलाव नजर आता। वर्ष 2004 में मैं सरगुजा से सांसद था। वहां की नक्सली समस्या के हल के लिए मैंने स्थानीय लोगों को विश्वास में लिया और सबको संगठित किया। गांवों की रखवाली 24 घंटे होने लगी।इसमें पुलिस प्रशासन और पब्लिक सबको एक लाइन में खड़ा किया। नक्सली जब आते थे, तो दो दिन पहले ही ग्रामीणों को सूचना मिल जाती थी। पुलिस की मदद से उनसे निपट लिया जाता था। इस प्रक्रिया में स्थानीय लोगों को विश्वास में लिया जाना जरूरी है। नक्सल समस्या के निराकरण के लिए भगवान राम की समर नीति का पालन होना चाहिए। उन्होंने रावण जैसे महारथी को मारने के लिए भील, कोल और वानरों का सहारा लिया था। ये आदिवासी ही थे। ये आज भी हमारे गोत्र हैं। मैं तो यही कहूंगा कि केंद्र सरकार की नक्सल विरोधी मुहिम एकदम अव्यवहारिक है।

केंद्र ने आदिवासी कल्याण मंत्रालय बना रखा है। आपकी नजर में यह मंत्रालय आदिवासियों के कल्याण के लिए कितना कारगर है?

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा इस मंत्रालय का गठन किया गया था। वे सच्ची नीयत से आदिवासियों का उत्थान करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने अलग से मंत्रालय बनाया। जबकि कांग्रेस की सरकार आदिवासी और गरीब विरोधी है। आदिवासियों के कल्याण के लिए मंत्रालय के फंड को अन्य मदों में खर्च कर दिया जा रहा है।राष्टमंडल खेल में इस मंत्रालय का बड़ा फंड दे दिया गया था। इस पर संसद में भी हंगामा हुआ था। नकारात्मक सोच के कारण ही यह सरकार आदिवासियों के शिक्षा और स्वास्थ्य पर तो बिल्कुल धन खर्च नहीं कर रही है। आदिवासी इलाकों में बड़े उद्योगों को बढ़ावा दिया जा रहा है। ‘सेज’ कानून बनाकर कृषि योग्य जमीनों को उद्योगों के हवाले कर दिया गया है। इन उद्योगों में स्थानीय आबादी को रोजगार भी नहीं मिल पाता। स्थानीय आबादी को उजाड़कर आप कैसा उत्थान करना चाहते हैं? यदि इस तरह के काम नहीं किए गए होते, तो नक्सल क्षेत्र का इतना विस्तार नहीं हो सकता था।

मनमोहन सरकार की खास चिंता देश की विकास दर बढ़ाने की रहती है। पिछले सालों में यह दर बढ़ी भी है। आपके हिसाब से विकास दर बढ़ने का फायदा आदिवासी आबादी तक कितना पहुंच रहा है?

इससे आदिवासियों पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। आदिवासियों के विकास पर केंद्र सरकार केवल खोखले दावे कर रही है। सच्चे प्रयास नहीं कर रही है। जीडीपी बढ़ाने के चक्कर में केंद्र सरकार की गलत नीतियों के कारण महंगाई बढ़ रही है। जिसके कारण आदिवासी भूखे मरने के लिए विवश हैं। पूरे देश में आदिवासियों के जनजीवन को आगे बढ़ाने के लिए हमारे संविधान निर्माताओं ने जो सपना देखा था, उसे नष्ट करने का काम कांग्रेस सरकार ने किया है।

आप लोग आमतौर पर वंचित वर्ग की बदहाली के लिए कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकारों को कोसते रहते हैं। पक्के दावे से कैसे कह सकते हैं कि छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की भाजपा सरकारों ने आदिवासी क्षेत्रों में बहुत बढ़िया काम किया है? यदि ऐसा होता तो जमीनी स्तर पर कुछ ठोस जरूर दिखाई पड़ता?

यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की सरकारों ने आदिवासियों के कल्याण के लिए चलाई जा रही योजनाओं को लागू करने में सराहनीय प्रयास किया है। जबकि, कांग्रेस सरकार नीतियों का बखान करती है, लेकिन जमीनी स्तर पर लागू नहीं करती। उसकी सारी योजनाएं भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई हैं। जिससे आदिवासियों का कल्याण नहीं हो पा रहा है। अब तो केंद्र सरकार आदिवासियों और दलितों को मिले आरक्षण को भी अप्रत्यक्ष ढंग से खत्म करने में जुटी है। क्योंकि, आर्थिक नीतियां ऐसी हैं कि निजी क्षेत्र को ही बढ़ावा मिल रहा है। इस क्षेत्र में वंचित वर्गों के लिए कोई गुंजाइश कहां है?

छत्तीसगढ़ में इस साल चुनाव होने हैं। कांग्रेस की तरफ से आदिवासी नेता अजीत जोगी का चेहरा दिखाई पड़ रहा है। ऐसे में कांग्रेस का मुख्यमंत्री चेहरा आदिवासी होगा और भाजपा का सवर्ण। इससे प्रदेश का राजनीतिक समीकरण कैसा रहेगा? अजीत की दावेदारी को आप कितना दमदार मानते हैं?

छत्तीसगढ़ के आदिवासियों ने कभी जोगी को अपने बीच के आदमी के तौर पर स्वीकार नहीं किया। वे तो आदिवासी होने का जाली प्रमाण-पत्र बनवा कर आदिवासी बन गए हैं। इस पर मैंने मुकदमा किया था। यह सच है कि आदिवासी चेहरा कांग्रेस की तरफ से आने से प्रदेश में भाजपा के लिए संकटपूर्ण स्थिति पैदा हो सकती है। इससे पार्टी को भारी नुकसान भी हो सकता है। पहले से ही छत्तीसगढ़ में कई कारणों से वंचित वर्गों में नाराजगी है। यहां पिछड़े वर्गों को अभी पूरा आरक्षण लाभ नहीं मिला है। ऐसे में जरूरी हो गया है कि भाजपा नेतृत्व चुनाव के पहले इस ओर ध्यान दे। यदि कांग्रेस से अजीत जोगी चुनावी चेहरा बनते हैं, तो भाजपा को भी मुकाबले की सही तैयारी करनी जरूरी हो जाएगी। किसी न किसी तरीके से आदिवासी समाज का दिल जीतना बहुत जरूरी है।

आप की पार्टी में पीएम की उम्मीदवारी को लेकर चकचक चल रही है। मोदी का नाम उभर कर सामने आया है। नरेंद्र मोदी की दावेदारी पर आप का क्या नजरिया है? क्या वाकई में मोदी आपकी पार्टी में इस पद के सबसे उत्तम उम्मीदवार हैं?

हमारी पार्टी में पीएम पद के लिए कई योग्य उम्मीदवार हैं। मोदी भी उसमें से एक हैं। कांग्रेस जैसी स्थिति भाजपा में नहीं है कि नेहरू-गांधी परिवार ही पीएम के लिए सबसे योग्य हो। भाजपा कार्यकर्ता ही नहीं, देश के तमाम लोग मोदी को पीएम पद के लिए बहुत योग्य मानते हैं। लेकिन मेरा विचार है कि हम सभी को एकजुट होकर लोकसभा चुनाव की तैयारी में जुटना चाहिए, न कि ‘पीएम इन वेटिंग’ के विवाद में उलझना चाहिए। बहुमत मिल जाएगा, तो सर्व सम्मति से नेतृत्व फैसला ले लेगा। मेरी राय तो यही है कि चुनाव अभियान की बागडोर मोदी को सौंप कर पूरे देश में पार्टी के प्रचार में उन्हें अभी से लगाना बेहतर रहेगा। इससे एनडीए की एकजुटता भी मजबूत बनी रहेगी। (virendrasengarnoida@gmail.com)

आदिवासी, नक्सली और भारतीय लोकतंत्र रामचंद्र गुहा अनुवादः अभिषेक श्रीवास्तव यह आलेख इस तथ्य को स्थापित करता है कि भारत में विकास और लोकतंत्र का लाभ छह दशकों के दौरान समूचे आदिवासी समाज को सबसे कम प्राप्त हुआ है और उसने सबसे ज्यादा गंवाया है. लेख में इस बात के साक्ष्य मौजूद हैं कि यह तबका दलितों से भी ज्यादा वंचित है. हालांकि, आदिवासी अपने असंतोष को लोकतांत्रिक और चुनावी प्रक्रिया के माध्यम से प्रभावी रूप से आवाज़ दे पाने में अक्षम रहे हैं, जबकि दलितों को यह मौका मिला है. आदिवासियों के संदर्भ में राज्य और समूचे राजनीतिक ढांचे की विफलता ने ही माओवादी क्रांतिकारियों को इनके बीच प्रवेश करने का अवसर और जगह प्रदान किया है. आदिवासियों के बीच नक्सली प्रभाव के कारणों की पड़ताल के बाद यह आलेख निष्कर्ष देता है कि आदिवासी भारत के मौजूदा दौर में दो त्रासदियों का शिकार बन कर रह गया है. पहली त्रासदी यह है कि राज्य ने अपने ही आदिवासी नागरिकों के प्रति अहसान भरा नज़रिया रखते हुए उपेक्षापूर्ण व्यवहार किया है, और दूसरी यह कि उनके संरक्षक माने जाने वाले नक्सलियों के पास भी उनके लिए कोई दीर्घकालिक समाधान मौजूद नहीं है. समाजशास्त्री वॉल्टर फर्नांडिस का आकलन है कि सरकारी परियोजनाओं के द्वारा विस्थापित कुल आबादी का 40 फीसदी आदिवासी मूल का है. जवाहर लाल नेहरू ने 13 दिसम्बर 1946 को संविधान सभा में संकल्प प्रस्ताव रखा था जिसमें यह घोषणा की गई थी कि जल्द ही औपनिवेशिक दासता से मुक्त होने वाले इस राष्ट्र का चरित्र 'स्वतंत्र सम्प्रभु गणराज्य' का होगा. इसका संविधान अपने नागरिकों को' सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय; अवसरों और दर्जे की समानता; तथा कानून के समक्ष व सार्वजनिक नैतिकता और कानून के दायरे में विचार, अभिव्यक्ति, आस्था, विश्वास, उपासना, व्यवसाय, संगठन और कार्रवाई की स्वतंत्रता' की गारंटी देगा.

प्रस्ताव में आगे कहा गया था, 'अल्पसंख्यकों, पिछड़ों, आदिवासी इलाकों, उत्पीड़ितों और अन्य पिछड़े तबकों के लिए पर्याप्त सुरक्षा कवच मुहैया कराया जाएगा....' प्रस्ताव रखते वक्त नेहरू ने गांधी की भावना और 'भारत के महान अतीत' के साथ ही फ्रेंच,अमेरिकी और रूसी क्रांति जैसी आधुनिक राजनीतिक परिघटनाओं की भी हवाला दिया था. संकल्प प्रस्ताव पर बहस पूरे एक सप्ताह तक चलती रही जिसमें वक्ताओं में प्रमुख थे- संरक्षणवादी हिंदू पुरुषोत्तमदास टंडन, दक्षिणपंथी हिंदू श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दलित नेता बी आर अम्बेडकर, अधिवक्ता एम. आर. जैकर, समाजवादी एम. आर. मसानी, अग्र्रणी महिला आंदोलनकारी हंसा मेहता और कम्युनिस्ट सोमनाथ लाहिड़ी. इन तमाम दिग्गजों के बाद ईसाई धर्म अपना चुके एक पूर्व हॉकी खिलाड़ी जयपाल सिंह बोलने के लिए उठे और उन्होंने शुरुआत कुछ यूं की- “ एक जंगली और एक आदिवासी के तौर पर मुझ से उम्मीद नहीं की जाती है कि मैं इस प्रस्ताव की सूक्ष्म कानूनी जटिलताओं को समझूंगा. लेकिन, मेरी सामान्य समझ यह कहती है कि हम सबको मिलकर स्वतंत्रता के रास्ते पर आगे बढ़ना चाहिए और साथ लड़ना चाहिए. मान्यवर, यदि भारतीय जनता का कोई भी ऐसा समूह है जिसके साथ दरिद्रतापूर्ण व्यवहार किया गया है, तो वे मेरे लोग हैं. पिछले 6000 वर्षों से इनकी उपेक्षा की जा रही है और इनके साथ अपमानजनक व्यवहार हो रहा है. सिंधु घाटी सभ्यता का इतिहास जिसकी मैं पैदाइश हूं, स्पष्ट तौर पर यह दिखाता है कि यहां आए अतिक्रमणकारियों ने ही मेरे लोगों कोसिंधु घाटी से जंगलों में खदेड़ दिया था. जहां तक मेरा सवाल है, यहां मौजूद आप में से अधिकतर इन्हीं में शामिल हैं. हमारे लोगों का सम्पूर्ण इतिहास बाहर के आक्रमणकारियों द्वारा निरंतर शोषण और बेदखली का इतिहास रहा है, जिस पर समय-समय पर विद्रोहों और असंतोष ने लगाम कसने का काम किया है. इसके बावजूद मैं पंडित जवाहर लाल नेहरू के शब्दों पर विश्वास जाहिर करता हूं. मैं आप सभी के शब्दों पर भरोसा जाहिर करता हूं कि अब हम एक नया अध्याय शुरू करने जा रहे हैं-स्वतंत्र भारत का नया अध्याय जहां अवसरों की समानता होगी और जहां किसी की भी उपेक्षा नहीं की जाएगी.” साठ साल बीत गए जब जयपाल ने नेहरू और अन्य लोगों के शब्दों को पकड़ा था.

सवाल उठता है कि इस वक्त उनके लोगों यानी आदिवासियों का भाग्य कहां तक पहुंचा है? यह आलेख तमाम तरीकों से इस तर्क को स्थापित करेगा कि भारतीय प्रायद्वीप के आदिवासी लोकतांत्रिक विकास के छह दशकों के अचिन्हित शिकार रहे हैं. उन्हें इस दौरान लगातार व्यापक आर्थिक और राजनीतिक तंत्र द्वारा शोषित और बेदखल किया जाता रहा है (ठीक इसी दौरान बेदखली की इस प्रक्रिया के समानान्तर भड़के असंतोष और विद्रोहों ने इस पर लगाम भी कसी). ध्यान देने वाली बात यह है कि यदि हम अन्य अवसरविहीन समूहों जैसे दलितों और मुस्लिमों के साथ आदिवासियों की सनातन वंचना की तुलना करें, तो यह हमें चौंकाता है. एक और जहां लोकतंत्र व प्रशासन पर राष्ट्रीय विमर्शों को आकार देने और गढ़ने में दलितों और मुस्लिमों का कुछ प्रभाव मौजूद रहा है, वहीं दूसरी ओर इनकी तुलना में आदिवासी न सिर्फ हाशिए पर बल्कि अदृश्य रहे हैं. भारत में करीब 8.5 करोड़ की आबादी ऐसी है जिसे आधिकारिक तौर पर अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त है. इनमें से करीब 1 करोड़ 60 लाख पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में रहते हैं. हालांकि, इस आलेख में मोटे तौर पर उन सात करोड़ आदिवासियों के बारे में बात की गई है जो भारत के हृदय में निवास करते हैं, जो कमोबेश उस पहाड़ी और जंगली क्षेत्र में आता है जिसका विस्तार गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, बिहार और पश्चिम बंगाल तक विस्तारित है. पूर्वोत्तर के आदिवासी देश के अन्य हिस्सों के आदिवासियों से कई निर्णायक मायनों में बुनियादी तौर पर भिन्न हैं. पहली बात, कि हाल के ही कुछ दिनों तक वे हिंदू प्रभाव से कमोबेश अछूते रहे थे. दूसरे, पर्याप्त मात्रा में उनका जुड़ाव आधुनिक शिक्षा, खासकर अंग्रेजी के साथ रहा जिसका परिणाम यह हुआ कि उनके बीच साक्षरता दर अधिक है और इसलिए देश के अन्य हिस्सों के आदिवासियों की तुलना में आधुनिक अर्थव्यवस्था का हिस्सा बनने के उनके अवसर भी ज्यादा हैं. तीसरी बात यह कि वे अब तक बेदखली से उपजे सदमे से बचे रहे हैं जिसका सामना देश के अन्य हिस्सों के आदिवासियों को करना पड़ा है. भौगोलिक रूप से देखें, तो देश के एक कोने में उनकी अवस्थिति बांध निर्माताओं और खाद्यान्न मालिकों को उनके पास फटकने से रोके हुए है. जब विकास के पारम्परिक सूचकांकों के पैमाने पर हम तौलते हैं तो पाते हैं कि आदिवासियों की स्थिति दलितों से भी खराब है. अनुसूचित जनजाति के दर्जे में आने वाले तमाम जनजातीय समुदायों की संख्या 500 से भी ज्यादा है. हालांकि, इनके बीच के आंतरिक फर्क को अगर छोड़ दें, तो मोटे तौर पर मध्य और पूर्वी भारत के आदिवासी एक समान सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तत्वों को साझा करते हैं जिसके चलते हमें उन्हें एक इकाई के रूप में देखने को बाध्य होना पड़ेगा.

इसके अलावा इसी वजह से वे न सिर्फ पूर्वोत्तर के आदिवासियों, बल्कि भारत के शेष निवासियों सेभी भिन्न है. रोजमर्रा की भाषा में अगर कहें तो हम इनके बीच की समानता को एक शब्द 'आदिवासी' में पिरो सकते हैं. लेकिन, इसी शब्द को एक नगा या मिजो के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. हालांकि, जब हम किसी गोंड, कोरकू, भील या उरांव की बात करते हैं तो बड़ी आसानी से ये शब्द खुद-ब-खुद जुबान पर आ जाता है क्योंकि ये आदिवासी समुदाय किसी-न-किसी समानता को आपस में लिए हुए हैं. आम तौर पर जिन चीजों को वे साझा करते हें, वे उनके सांस्कृतिक या पारिस्थितिक जीवन का हिस्सा होती हैं. मसलन, ये आदिवासी आम तौर पर ऊंचे इलाकों या कहें जंगलों में रहते हैं. हिंदुओं की तुलना में ये अपनी महिलाओं से बहुत बेहतर व्यवहार करते हैं. संगीत और नृत्य की इनकी परम्परा बहुत समृध्द है, कभी कभार भले ही वे विष्णु या शिव के किसी अवतार की पूजा कर लें, लेकिन उनके त्यौहार और कर्मकाण्ड ग्राम देवताओं व आत्माओं के ही इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं. आदिवासियों की रोजमर्रा के जीवन के बारे में यह समझ पिछले कई वर्षों के दौरान लिखे उनके जातीय इतिहास पर आधारित है. भारतीय लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य में देखें तो, हालांकि आदिवासियों को एक सूत्र में पिरोने वाला तत्व उनकी सांस्कृतिक या पारिस्थितिक भिन्नता नहीं है, बल्कि उनकी सामाजिक और आर्थिक अवसरविहीन परिस्थितियां हैं. जैसा कि हाल ही में अपनी पुस्तक में जनसांख्यिकी विद अरुप महारत्ना ने बताया है, कि जब विकास के पारम्परिक सूचकांकों के पैमाने पर हम तौलते हैं तो पाते हैं कि आदिवासियों की स्थिति दलितों से भी खराब है. मसलन, आदिवासियों में साक्षरता दर 23.8 फीसदी है जो दलितों की साक्षरता दर 30.1 फीसदी के मुकाबले काफी कम है. स्कूलों में नाम लिखाने वाले कुल आदिवासी बच्चों में से 62.5 फीसदी मैट्रिक से पहले ही स्कूल छोड़ देते हैं जबकि दलितों में यह स्थिति सिर्फ्र 49.4 फीसदी बच्चों के साथ है. चौंकाने वाली बात यह है कि भारत के दलितों की 41.5 फीसदी आबादी जहां सरकार द्वारा तय की गई गरीबी रेखासे नीचे रहती है, वहीं इस कोटे में आने वाले आदिवासियों की संख्या तकरीबन आधी यानी 49.5 फीसदी है. स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में देखें तो, दलितों की तुलना में आदिवासियों की हालत यहां भी खराब है. डॉक्टरों और क्लीनिकों तक पहुंच से जहां 28.9 फीसदी आदिवासी वंचित रह जाते हैं, वहीं दलितों में यह स्थिति 15.6 फीसदी के साथ है. आदिवासी बच्चों में सिर्फ 42.2 फीसदी का ही टीकाकरण हो पाता है जबकि दलितों में यह दर 57.6 फीसदी है. स्वच्छ जल तक 63.6 फीसदी दलितों की पहुंच है जबकि आदिवासियों में यह स्थिति 43.2 फीसदी है.

एक ओर जहां भारत सरकार ने शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधाएं आदिवासियों को उपलब्ध न कराकर उनके सामाजिक और आर्थिक विकास सम्बन्धी संवैधानिक गारंटी का असम्मान किया है, वहीं दूसरी ओर सरकार की नीतियों में ज्यादा सक्रिय तरीके से तमाम आदिवासियों को उनकी परम्परागत जीवनशैली और आजीविका से बेदखल कर दिया है. गौरतलब है कि भारत के आदिवासियों की रिहाइश यहां के सबसे बेहतरीन जंगलों, तेज प्रवाह वाली नदियों और सम्पन्नतम खनिज संसाधनों के बीच पारम्परिक रूप से रही है, प्रकृति के साथ इसी निकटता ने उनके अस्तित्व के लिए साधन भी मुहैया कराएं हैं. हालांकि, आजादी केबाद जैसे-जैसे आर्थिक और औद्योगिक विकास की गति बढ़ती गई, आदिवासियों को व्यावसायिक वानिकी, बांधों और खदानों के लिए रास्ता खाली करना पड़ा. अक्सर आदिवासी उन दबावों और परिणामों के चलते विस्थापित हो जाते हैं जिन्हें आम तौर पर 'विकास' का नाम दिया जाता है और कभी-कभार इसलिए क्योंकि इसी विकास का एक अन्य आधुनिक पर्याय भी परिदृश्य में काम करता है जिसे तथाकथित 'संरक्षण' कहा जाता है. इस तरह, बड़ें बांधों और औद्योगिक नगरों के अलावा आदिवासियों को बेघर करने में राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों का भी हाथ रहा है. हमने आदिवासियों को पहाड़ों में इसलिए खदेड़ा क्योंकि हमें उनकी जमीन चाहिए थी और अब हम उन पर यह आरोप लगाते हैं कि वे उस जमीन पर अपने तरीके से उसी हाल में खेती कर रहे हैं जैसे हमने उनके पास छोड़ा था. आखिर कितने आदिवासी इस सचेतन सरकारी नीति केचलते अपना घर-बार और जमीनें खो चुके हैं.? आकलन बताते हैं कि इनकी संख्या 2 करोड़ तक हो सकती है. संभव है कि हम इस सवाल का कोई सटीक जवाब न दे पाएंकि भारत सरकार की नीतियों की वजह से कितने आदिवासियों को उनकी इच्छा के विरुध्द विस्थापित होना पड़ा है, लेकिन इसका एक मोटा जवाब यही होगा 'कई सारे'.समाजशास्त्री वॉल्टर फर्नांडिस का आकलन है कि सरकारी परियोजनाओं के द्वारा विस्थापित कुल आबादी का 40 फीसदी आदिवासी मूल का है. चूंकि, भारत की आबादी कातकरीबन 8 फीसदी आदिवासी ही हैं, इसका अर्थ यह हुआ कि एक आदिवासी पर एक गैर आदिवासी की तुलना में 5 गुना ज्यादा खतरा विकास या/और संरक्षण का होता हैजिसके लिए उससे जबरन उसका आशियाना छोड़ देने को बाध्य किया जाता है. आदिवासियों को उनकी जमीनों और गांवों से विस्थापित किए जाने की प्रक्रिया तब शुरू हुई जब राज्य की भूमिका अर्थव्यवस्था में नियंता की स्थिति तक पहुंच गई. आज भी उन्हें उदारीकरण और भूमंडलीकरण के तहत विस्थापित किया जाना जारी है.

भारतीय अर्थव्यवस्था के विदेशी पूंजी के लिए खोले जाने का देश के कुछ हिस्सों में जहां यह असर हुआ है कि शिक्षित मानव संसाधन की पर्याप्त उपलब्धता के चलते सॉफ्टवेयर जैसेउत्पादों का निर्यात किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर अप्रसंस्करित कच्चे माल के निरंतर बढ़ते दोहन ने भूमंडलीकरण का बर्बर चेहरा भी उजागर कर डाला है. ऐसी ही एक स्थिति उड़ीसा के कुछ आदिवासी जिलों में बनी है जहां राज्य के गैर आदिवासी सत्ताधारी नेतृत्व में भारतीय और विदेशी खनन कंपनियों के साथ भारी संख्या में सिलसिलेवार समझौते किए हैं जिनके तहत इन कंपनियों को न सिर्फ अनुमति दी जाती है, बल्कि प्रोत्साहित भी किया जा रहा है कि वे आदिवासियों की जमीनें छीन कर उन्हें बेदखल कर दें जिसके नीचे लौह अयस्क या बॉक्साइट के भारी खजाने मौजूद हैं. 2. राज्य की सचेतन नीतियों के परिणामस्वरूप आदिवासियों की पीड़ा को पिछले कुछ दशकों के दौरान कई आधिकारिक रिपोर्टों में रेखांकित किया गया है. आजादी के एक दशक बाद गृह मंत्रालय में आदिवासी इलाके में सरकारी योजनाओं के संचालन की पड़ताल करने के लिए मानवशास्त्री वेरियर एल्विन की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था. इसने पाया कि इन योजनाओं के लिए जिम्मेदार अधिकारी 'अपने लोगों के बारे में बहुत करीबी ज्ञान से अनभिज्ञ थे और उन्हें आदिवासी विकास की सामान्य नीतियों का भी शायद ही कोई अंदाजा था'. इससे भी बुरा यह था कि 'अधिकारियों के भीतर श्रेष्ठता का एक भाव था जैसे कि वे उच्च सभ्यता-संस्कृति के स्वर्ग से उतरे वाहक हों. वे लोगों पर हुकूम चलाते; उनके चपरासी उन्हें गाली देते; काम पूरा हो जाने के लिए वे किसी को धमकाने-डराने में भी संकोच नहीं करते. किसी भी विफलता को आदिवासियों के मत्थे मढ़ दिया जाता; ब्लॉक अधिकारी सारा आरोप लोगों की सुस्ती,निष्क्रियता, आशंका और अंधविश्वासों पर मढ़ देता.' देश भर में 20 ब्लॉकों के अध्ययन के बाद समिति ने निष्कर्ष निकाला कि 'आदिवासियों की तमाम समस्याओं के बीचउनकी सबसे बड़ी समस्या गरीबी है.' समिति का कहना था कि उन्होंने इन इलाकों में जो भी गरीबी देखी, वह 'सभ्य' लोगों यानी हमारी ही गलती थी. हमने आदिवासियों को पहाड़ों में इसलिए खदेड़ा क्योंकि हमें उनकी जमीन चाहिए थी और अब हम उन पर यह आरोप लगाते हैं कि वे उस जमीन पर अपने तरीके से उसी हाल में खेती कर रहे हैंजैसे हमने उनके पास छोड़ा था. हमने अपनी व्यावसायिक अर्थव्यवस्था के सस्ते उत्पादों को उनके बीच पहुंचाकर उनकी कला छीन ली है.

हमने यहां तक कि उनका भोजनभी शिकार पर प्रतिबंध लगाकर अथवा कुछ नई रूढ़ियां लादकर उनसे छीन लिया है जिससे कि अब वे मांस-मछली में मौजूद बहुमूल्य प्रोटीन से वंचित होते जा रहे हैं. हमउन्हें तेज कच्ची शराब बेचते हैं जो घर में बनाई बीयर या वाइन की तुलना में बहुत घातक होती है और उसके बाद उन्हें शराब न पीने का आदर्श सिखाते हैं. हम उन्हें नीचीनजर से देखते हैं, उनके आत्मविश्वास को उनसे छीन लेते हैं और कानून द्वारा दी गई उन बुनियादी स्वतंत्रताओं से उन्हें वंचित कर देते हैं जिसकी उन्हें कोई समझ नहीं.'बहुत दिन नहीं बीते थे कि एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष यू एन ढेबर से आदिवासी इलाके की हालत का जायजा लेने के लिए बनाई गई एक उच्च पदस्थसमिति की अध्यक्षता करने को कहा गया. इस समिति में 6 सांसद थे जिनमें जयपाल सिंह भी थे तथा कुछ वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता थे. इस समिति ने आदिवासियों की प्रमुख समस्याओं में भूमि का अलगाव, वन अधिकारों का हनन और विकास परियोजनाओं से होने वाले विस्थापन को दर्ज किया. अक्सर ऐसा हुआ है कि सरकारी नीतिआदिवासियों के बचाव में नहीं आ पाई है और कभी-कभार तो इन नीतियों ने उन्हें खुद और ज्यादा बदहाल करने का काम किया है. राज्य की मशीनरी बाहरी व्यक्तियों द्वारा आदिवासियों की जमीनें छीने जाने या सूदखोरों की शोषक गतिविधियों पर लगाम कसने में नाकाम रही है. इस दौरान प्रमुख ऊर्जा परियोजनाओं और पंचवर्षीय योजनाओं केतहत लगाए गए स्टील संयंत्रों ने 'पर्याप्त मात्रा में आदिवासियों को विस्थापित किया है. समिति की चिंता यह थी कि ऐसा औद्योगिक विकास आदिवासियों के बीच यहअहसास है कि संरक्षण और विकास के पक्ष में सारे तर्क दरअसल उनकी मांगों को खारिज करने की नीयत से बनाए गए हैं. तो 'आदिवासियों के पांव के नीचे की जमीन खींचलेगा'... हमें यह देखना होगा कि आदिवासी जीवन की नींव न हिलने पाएं और उनके आशियाने कहीं ढह न जाएं.' पहले से ही बने बांधों और मिलों की वजह से 'आदिवासी अपनी रिहाइश और आजीविका के पारम्परिक स्रोतों से उजड़ चुके थे. अधिग्रहण की कार्यवाही से बहुत परिचित न होने के चलते उन्हें जो कुछ भी नकद मुआवजा दिया गया,उसे लेकर वे पलायन कर गए. हाथ में पैसा था और पास के औद्योगिक शहरों का आकर्षण, जिसके चलते बहुत तेजी से उनके हाथ से यह पैसा जाता रहा और आखिरकार नतो पैसा ही रहा न जमीन. वे अब भूमिहीन मजदूरों की जमात में शामिल हो चुके थे जिनके पास किसी भी नौकरी के लिए आवश्यक न तो प्रशिक्षण था, न ही दक्षता अथवा योग्यता.

ढेबर समिति की रिपोर्ट में सबसे ज्यादा चिंता वनों में आदिवासी अधिकारों के दमन पर जताई गई थी. अंग्रेजों द्वारा लाए गए वन कानूनों और भारत सरकार द्वारा उसे जारी रखे जाने का नतीजा यह हुआ था कि 'वह आदिवासी जो पहले खुद को जंगल का राजा समझता था, उसे एक सचेतन प्रक्रिया में धीरे-धीरे रंक की भूमिका में ला दिया गया और वन विभाग के रहमोकरम पर छोड़ दिया गया.' अधिकारियों और उनके शहरी संरक्षणवादी समर्थकों का दावा था कि जंगलों को बचाने के लिए आदिवासियों को उनसे दूर रखना बहुत जरूरी है, जिस पर ढेबर समिति ने निम्न टिप्पणी की: लगातार यह दुष्प्रचार किया जा रहा है कि आदिवासी लोग जंगलों को नष्ट कर रहे हैं. हमने यह शिकायत कुछ आदिवासियों के सामने रखी. उन्होंने इसके जवाब में यह पूछा कि वे जंगल को आखिर कैसे नष्ट कर सकते हैं उनके पास न तो ट्रक हैं और न ही बैलगाड़ियां हैं. अधिक से अधिक वे अगर कुछ भी ले जा सकते हैं तो वह कुछ जलावन है जिससे वे सर्दियों में खुद को गर्म रख सकें, उस लकड़ी जिससे अपनी झोपड़ियों की मरम्मर कर सकें और अपने लघुकरघा उद्योग को जारी रख सकें. उनका कहना था कि खाना बनाने के लिए ईंधन की उन्हें बहुत जरूरत नहीं है क्योंकि वे बहुत ज्यादा भोजन पकाते ही नहीं. अपनी स्थिति का विवरण देने के बाद वे यह बताने लगे कि उनके इर्द-गिर्द कितना बड़ा विनाश जारी है. उन्होंने दोहराया कि किस तरह से पूर्व जमींदारों ने समझौतों,वन कानूनों और नियमों का उल्लंघन कर अधिकारियों की आंखों के सामने जंगल के एक बड़े हिस्से को तबाह कर दिया. उन्होंने यह भी बताया कि किस तरह ठेकेदार बाहर रहकर भी निर्धारित क्षमता से ज्यादा भार ढुलवाते हैं और इस तरह जंगल व आदिवासियों का दोहरा शोषण करते हैं. आदिवासियों के बीच यह अहसास है कि संरक्षण और विकास के पक्ष में सारे तर्क दरअसल उनकी मांगों को खारिज करने की नीयत से बनाए गए हैं. वे कहते हैं कि जब उद्योग, औद्योगिक नगरों, विकास कार्यों या पुनर्वास परियोजनाओं की बात आती है, तो सारे तर्क भुला दिए जाते हैं और विस्तृत जनजीवन को बाहरी लोगों के रहमोकरम पर छोड़ दिया जाता है जो जरूरत हो या न हो, वनसम्पदा का बेरहमी से नाश करते हैं.
स्त्रोत : जर्नलिस्ट कम्यूनिटी 

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