डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
अनुशासनहीनता करने या कानून का उल्लंघन करने पर लोक सेवकों के विरुद्ध आरोप लगाये जाते हैं, अभियोग चलाये जाते हैं और दोष सिद्ध होने पर उन्हें दण्डित भी किया जाता है, लेकिन लोक सेवक की परिभाषा में शामिल होने के उपरान्त भी हाई कोर्ट तथा सुप्रीम कोर्ट के जजों के खिलाफ आमतौर पर न तो
किसी प्रकार का आरोप लगाया जाता है और न हीं उनके खिलाफ कोई अभियोग चलाया जाता है| हाँ यदि कोई भयंकर मामला बन जाये तो हाई कोर्ट तथा सुप्रीम कोर्ट के जजों के खिलाफ संसद में महाअभियोग लाया जा सकता है| यद्यपि संविधान लागू होने से आज तक किसी भी जज के खिलाफ महाअभियोग पारित करके संसद द्वारा किसी भी जज को अपदस्थ नहीं किया है|
किसी प्रकार का आरोप लगाया जाता है और न हीं उनके खिलाफ कोई अभियोग चलाया जाता है| हाँ यदि कोई भयंकर मामला बन जाये तो हाई कोर्ट तथा सुप्रीम कोर्ट के जजों के खिलाफ संसद में महाअभियोग लाया जा सकता है| यद्यपि संविधान लागू होने से आज तक किसी भी जज के खिलाफ महाअभियोग पारित करके संसद द्वारा किसी भी जज को अपदस्थ नहीं किया है|
दो बार ऐसी स्थिति निर्मित हुई जब हाई कोर्ट तथा सुप्रीम कोर्ट के जजों के खिलाफ विशेष हालातों में प्रयोग किये जाने वाल महाअभियोग के प्रस्ताव पर संसद में विचार हुआ और उस पर मतदान की नौबत भी आई! पहली बार तो प्रस्ताव पारित नहीं किया जा सका, लेकिन दूसरी बार पिछले दिनों कलकत्ता हाई कोर्ट के जज सोमित्र सेन के खिलाफ राज्यसभा द्वार महाभियोग का प्रस्ताव पारित कर दिया गया और लोकसभा में उस पर चर्चा होने से पूर्व ही जज सोमित्र सेन ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया| जिसे राष्ट्रपति द्वारा स्वीकार कर लिये जाने के कारण महाअभियोग का प्रस्ताव बीच में ही स्थगित हो गया|
यहाँ पर सबसे बड़ा सवाल यह है कि "क्या महाअभियोग के संवैधानिक प्रावधान का मकसद केवल किसी जज को पद से हटानाभर ही है!" सोमित्र सेन और इससे पूर्व में महाअभियोग के आरोपी रहे जज रामास्वामी के मामलों को देखा जाये तो यही लगता है कि "महाअभियोग के जरिये जज विशेष को पद से अपदस्थ करना मात्र ही महाअभियोग का अन्तिम मकसद है!"
जबकि इसके विपरीत लोक सेवकों के विरुद्ध जो आचरण संहिता तथा अनुशासन एवं विभागीय जाँच प्रक्रिया लागू की जाती है, उसका मकसद होता है-आरोपी या अभियोगी लोक सेवक के विरुद्ध समुचित तरीके से जाँच कर सच्चाई का पता लगाना और दोषी पाये जाने पर ऐसे लोक सेवक को दण्डित करना! जिसके तहत विभागीय अनुशासनिक कार्यवाही और, या आपराधिक अभियोजन दोनों या दोनों में कोई एक प्रक्रिया अपनाई जाती हैं|
एक बार अभियोजन प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाने या आरोप-पत्र जारी हो जाने के बाद और जाँच प्रक्रिया लम्बित रहने के दौरान यदि कोई लोक सेवक जाँच प्रक्रिया और सम्भावित दण्ड से बचने के लिये बीच में ही स्वेच्छिक सेवानिवृत्ति प्राप्त करना चाहे या अपनी सेवा को त्यागना चाहे तो ऐसा करना विभागीय अनुशासनिक कानूनों में स्वीकार्य नहीं होने के कारण सक्षम प्राधिकारी द्वारा त्याग-पत्र या स्वेच्छिक सेवानिवृत्ति का आवेदन स्वीकार नहीं किया जाता है| या अस्वीकार कर दिया जाता है!
इसका कानूनी और न्यायिक मकसद यह है कि "एक बार जिस किसी भी लोक सेवक के विरुद्ध आरोपों का प्रथमदृष्टया निर्धारण किया जा चुका है, जब तक उन पर विभागीय या अन्य जो भी प्रक्रिया हो, वह पूर्ण नहीं हो जाये तब तक प्रकृतिक न्याय के सिद्धान्त के तहत ऐसे लोक सेवक को निर्दोष नहीं माना जाता और ऐसे संदिग्ध दोषी या आरोपी लोक सेवक को ससम्मान सेवानिवृत्ति या सेवा से ससम्मान त्यागपत्र का अवसर प्रदान नहीं किया जाता है|"
ऐसे अनेक प्रकरण भी हैं, जिनमें विभागीय जाँच या आपराधिक अभियोजन कार्यवाही का सामना कर रहे लोक सेवक की आयु 60 (या जो भी निर्धारित हो) पूर्ण हो जाने के कारण, उन्हें सेवा से निवृत्त तो कर दिया जाता है, लेकिन उन्हें सेवानिवृति के कोई भी लाभ नहीं दिये जाते हैं|
इस पृष्ठभूमि में विचारणीय तथ्य यह है कि "जज सोमित्र सेन पर महाअभियोग की कार्यवाही प्रारम्भ हो जाने के बाद और राज्यसभा द्वारा महाअभियोग स्वीकार कर, बहुमत से पारित कर दिये जाने के बाद राष्ट्रपति द्वारा महाअभियोगी जज का त्यागपत्र स्वीकार करके कौनसी न्यायिक पवित्रता का परिचय दिया है?"
क्या इसका मतलब यह नहीं हुआ कि "सारे नियम और कानून कायदे केवल निम्न और मध्यम वर्ग के लोगों और लोक सेवकों के लिये होते हैं? उच्च पदों पर आसीन महामानवों के विरुद्ध निर्णय लेते समय-न्याय करने के बारे में सोचा भी नहीं जाता है? आखिर क्यों?"
जज सोमित्र सेन का मामला तो और भी गम्भीर है, क्योंकि उन पर जो आरोप लगाये गये और जिनके आधार पर उनके विरुद्ध महाअभियोग लाया और राज्यसभा द्वारा पारित किया गया वे सभी मामले सोमित्र सेन के जज बनने से पूर्व के हैं, जो इस बात पर विचार करने के लिये भी आधारभूत कारण उपलब्ध करवाते हैं, कि जजों की नियुक्ति से पूर्व उनके पूर्ववर्ती जीवन और चरित्र के बारे में की जाने वाली "जाँच-पड़ताल और खोजबीन" अपर्याप्त होने के साथ-साथ निष्पक्ष एवं पारदर्शी भी नहीं है! अन्यथा सोमित्र सेन जैसे संदिग्ध एवं आरोपों में लिप्त लोग जज कैसे बन सकते हैं?
इन हालातों में न मात्र त्यागपत्री सोमित्र सेन के विरुद्ध आपराधिक मामला दर्ज करके, उन्हें महाअभियोग में वर्णित आरोपों के लिये न्यायिक विचारण के बाद दोषी पाये जाने पर दण्डादिष्ट किया जाना चाहिये, बल्कि इसके साथ-साथ उन सभी लोगों और प्राधिकारियों के विरुद्ध भी सख्त कार्यवाही होनी चाहिये, जिनके कारण सोमित्र सेन पूर्व ही (जज बनने से) दागी चरित्र का व्यक्ति होने के उपरान्त भी जज बन गया! यह कैसे संभव हो सका? जयपुर| 0141-2222225, मो. 098285-02666
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