Saturday, May 21, 2016

बुद्ध के ध्यान में उतरने के बाद ही ज्ञात होता है कि बुद्ध कितने पवित्र, निर्मल और निराग्रही व्यक्ति हैं।

बुद्ध के ध्यान में उतरने के बाद ही ज्ञात होता है कि
बुद्ध कितने पवित्र, निर्मल और निराग्रही व्यक्ति हैं।
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लेखक : Dr. Purushottam Meena 'Nirankush'
सोशल मीडिया पर हजारों—लाखों ऐसे लोगों से परिचय हुआ है, जिनसे मिलने या जिनको जानने की कभी कल्पना भी नहीं की गयी थी। अनेक प्रकार के मिजाज और विचारों के विद्वानों से इतना सीखने को मिला है कि मैंने कभी कल्पना तक नहीं की थी। इनमें से कुछ सदाशयी मित्रों की अनेक प्रकार की इच्छा और आकांक्षाएं होती हैं। यद्यपि सभी की आकांक्षाओं पर खरा उतरना कम से कम मेरे जैसे छोटे से व्यक्ति के लिये हमेशा सम्भव नहीं हो पाता है। ऐसे ही कुछ सदाशयी मित्रों का कहना है कि मैं बुद्ध के बारे में कुछ लिखूं।


महामानव बुद्ध के बारे में सोशल मीडिया पर इतना अधिक लिखा जाता है कि मुझ जैसे अनाम व्यक्ति के लिये महामानव बुद्ध के बारे में लिखना, बड़ी चुनौती है। मैं जितना समझ सका हूं, गौतम बुद्ध दूसरों की खुशी के लिये हारने में ही खुशी का अनुभव करते थे। बुद्ध ने कभी किसी पर अपने विचार थोपे नहीं। बुद्ध ने ईश्वरीय सत्ता को सिरे से नकारा, लेकिन अपने इन विचारों को मानने के लिये कभी किसी को मजबूर नहीं किया। अपने आप को महामानव बुद्ध ने कभी ईश्वरीय अवतार या भगवान घोषित नहीं किया। सिद्धार्थ के रूप में जन्मे बच्चे का महामानव बुद्ध के रूप में जन्म ही महामानव बुद्ध का वास्तविक जन्मदिन है। शैशवकाल में माँ का साया छिन जाने के बाद, राजा का पुत्र होते हुए भी बिन माँ के बच्चे का संसार को प्रकाश दिखाना और हर आम—ओ—खाश को अपने अन्दर के प्रकाश को प्रज्वलित करने को प्रेरित करना, कोई सामान्य कार्य नहीं था। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अभेद और असमानता से मुक्ति, तनाव और विभ्रम से ग्रस्त व्यक्ति को ध्यान की परामावस्था तक ले जाने का मार्ग, मानना नहीं जानना के साथ तर्क और विज्ञान को दैनिक जीवन से जोड़ना, अन्धश्रृद्धा और पाखण्ड से समूल मुक्ति, ऐसे दुरूह अभीष्ट क्या कोई सामान्य व्यक्ति के लिये सम्भव था? बुद्ध के ध्यान में उतरने के बाद ज्ञात होता है कि बुद्ध कितने पवित्र, कितने निर्मल और कितने निराग्रही व्यक्ति हैं। बुद्ध सा जीवन हजारों, लाखों वर्षों में किसी विरले को प्राप्त होता है। बुद्धिष्ट नहीं हाकर भी बुद्ध का अनुयायी होना भी अपने आप में गौरव की बात है। मुझे फक्र है कि मैं बुद्धानुयाई हूं! मैं हृदय से महामानव बुद्ध को नमन करता हूँ।


अन्त में बुद्ध के प्रति ईमानदार बने रहते हुए मुझे यह लिखना भी जरूरी है कि वर्तमान भारतीय परिदृश्य में कथित बुद्धिष्टों द्वारा बुद्ध को राजनीतिक हथियार की भांति उपयोग किया जा रहा है। ऐसे लोगों में से अनेक अपने आप को कट्टर बुद्धिष्ट तक कहते हैं, जबकि बुद्ध और कट्टर? बुद्ध के साथ इससे घटिया मजाक और क्या हो सकता है? इन्हीं लोगों के कारण लोग बुद्ध के बारे में भिन्न मत रखते हैं। ऐसे लोगों के बारे में यही कहा जा सकता है कि उनको बुद्ध का ककहरा भी नहीं पता। यही वजह है कि उनको बुद्ध से अधिक बुद्ध धर्म प्रिय है। बेशक वे बुद्ध धर्म को बुद्ध धम्म कहकर ज्ञान बांटते ​फिरते हैं।

हमारा मकसद साफ़।
सभी के साथ इंसाफ।
जय भारत। जय संविधान।
नर-नारी, सब एक समान।।
: डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
9875066111/21-05-2016, 07.40 PM


@—लेखक का संक्षिप्त परिचय : मूलवासी-आदिवासी अर्थात रियल ऑनर ऑफ़ इण्डिया। होम्योपैथ चिकित्सक और दाम्पत्य विवाद सलाहकार। राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (BAAS), नेशनल चैयरमैन-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एन्ड रॉयटर्स वेलफेयर एसोसिएशन (JMWA), पूर्व संपादक-प्रेसपालिका (हिंदी पाक्षिक) और पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा एवं अजजा संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ।

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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'/ 21 मई, 2016

Wednesday, May 4, 2016

कांशीराम नहीं होते तो आंबेडकर भुला दिए गए होते

कांशीराम के बिना आंबेडकर अधूरा और निष्फल है।
फ़ूले के बिना अम्बेडकर अजन्मा है।
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लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
इन दिनों अम्बेडकरवादियों की बाढ़ आयी हुई है, लेकिन इन अम्बेडकरवादियों में से 99.99 फीसदी संविधान के बारे में कुछ नहीं जानते! ऐसे में मेरा अकसर इनसे सवाल होता है कि आंबेडकरवाद का मतलब क्या है? अधिकतर का जवाब होता है-बाबा साहब की 22 प्रतिज्ञाएँ, जो बुद्ध धर्म ग्रहण करते समय उनके द्वारा घोषित की गयी थी। फिर मेरा प्रतिप्रश्न-यह अम्बेडकरवाद नहीं बुद्ध धर्म का प्रचार है। ऐसे अम्बेडकरवादी कहते हैं कि हमारे लिए यही सब अम्बेडकरवाद है।

मैं ऐसे लोगों से व्यथित हूँ, क्योंकि ऐसे लोग बाबा साहब के विश्वव्यापी व्यक्तित्व को बर्बाद कर रहे हैं। यदि बाबा साहब ने बुद्ध धर्म ग्रहण नहीं किया होता तो क्या हम उनको याद नहीं करते? बिना बुद्ध धर्म बाबा साहब का क्या कोई महत्व नहीं होता? ऐसे सवालों से अम्बेडकरवादी कन्नी काट जाते हैं।

अम्बेडकरवाद की बात करने वालों से मेरा सीधा सवाल है कि आखिर वे चाहते क्या हैं? संविधान का शासन या अम्बेडकरवादियों के छद्म बुद्ध धर्म का प्रचार? इन लोगों को न तो बाबा के योगदान का ज्ञान है और न हीं संविधान की जानकारी। इसके बाद भी ऐसे लोग वंचित समाज का नेतृत्व करने की हिमाकत करते हैं, वह भी केवल बुद्ध धर्म के बाध्यकारी अनुसरण के बल पर और खुद को अम्बेडकरवादी घोषित कर के ही अपने आप को भारत के भाग्यविधाता समझने लगे हैं।

अम्बेडकरवाद की बात करने वालों को शायद ज्ञात ही नहीं है कि 1980 तक आंबेडकर पाठ्यपुस्तकों में एक छोटा का विषय/चैप्टर मात्र रह गए थे। उनका कोई गैर दलित नाम तक नहीं लेता था। कांशीराम जी का उदय नहीं हुआ होता तो न तो आंबेडकर को याद किया जाता और न ही आंबेडकर को भारत रत्न मिलता। इसके बाद भी मुझे याद नहीं कि कांशीराम जी ने खुद को कभी ऐसा ढोंगी अम्बेडकरवादी कहा या प्रचारित किया हो?

कांशीराम जी ने साईकल से मिशन की शुरूआत की तथा अपने जीते जी मिशन को फर्श से अर्श तक पहुंचाया। यदि कांशीराम जी का अन्तिम अंजाम षड्यंत्रपूर्ण नहीं हुआ होता तो वंचित भारत की तस्वीर बदल गयी होती। कांशीराम जी की कालजयी पुस्तक---"चमचा युग"--- आज के अम्बेडकरवादियों के लिए प्रमाणिक पुस्तक है।

इन दिनों अम्बेडकवाद से कहीं अधिक सामाजिक न्याय की विचारधारा को अपनाने की जरूरत है, जो ज्योतिबा फ़ूले से शुरू होकर कांशीराम जी पर रुक गयी है। जिसमें आंबेडकर का बड़ा किरदार है, लेकिन कांशीराम के बिना आंबेडकर अधूरा और निष्फल है। फ़ूले के बिना अम्बेडकर अजन्मा है। ऐसे में अम्बेडकरवाद की बात करने वाले फ़ूले और कांशीराम के साथ धोखा और अन्याय करते हैं। सबसे बड़ा अन्याय बुद्ध के साथ भी करते हैं, क्योंकि बुद्ध संदेह को मान्यता प्रदान करते हैं और सत्य को तर्क और विज्ञान की कसौटी पर कसते हैं। जबकि अम्बेडकरवादी मनुवादियों की भाँति बाबा के नाम की अंधभक्ति को बढ़ावा देते हैं। बुद्ध और बाबा की मूर्ती पूजा को बढ़ावा दे रहे हैं।

जय भारत। जय संविधान।
नर-नारी, सब एक समान।।
: डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश', 4 मई, 2016
9875066111/04-05-2016/04.04 PM

Tuesday, May 3, 2016

वंचित वर्ग की राह के रोड़े और समाधान-असफल और आऊट डेटेड लोगों से मुक्ति पहली जरूरत है

वंचित वर्ग की राह के रोड़े और समाधान-असफल
और आऊट डेटेड लोगों से मुक्ति पहली जरूरत है
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लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
देश के दर्जनों राज्यों की यात्रा करने के बाद लगातार नये-नये लोगों से मिलने, संवाद करने, आम लोगों के बीच समय बिताने, विभिन्न विद्वानों के विचार पढ़ने/जानने और सुनने के बाद भी वंचित वर्ग की मुक्ति का कोई सर्वमान्य रास्ता जानने या सुनने को नहीं मिलता है। हर जगह कुछ न कुछ दिखावा, ढोंग और नाटक चल रहे हैं, लेकिन वास्तविक समाधान कहीं भी नजर नहीं आता। हजारों संगठन लगातार कार्य कर रहे हैं, फिर भी वंचित वर्ग के साथ हर पल शोषण, उत्पीड़न, भेदभाव, अत्याचार, बलात्कार, हिंसा, अपमान, न्यायिक विभेद और तिरस्कार क्यों जारी है? यह सवाल सोचने को विवश करता है। संवेदनाओं को झकझोरता है।

हर जगह सुनने को मिलता है कि देश की 85/90 फीसदी आबादी से कौन टकरा सकता है? इस सवाल के जवाब में मेरा हर बार यही सवाल/प्रतिप्रश्न होता है कि कौन नहीं टकरा सकता? हकीकत तो यह है कि देश का बहुसंख्यक वंचित वर्ग खुद ही गुमराह है, तब ही तो आपस में लड़ता रहता है। 90 फीसदी आबादी को 10 फीसदी लोग अपने इशारों पर नचाते रहते हैं। आदिवासी-दलित सौहार्द नहीं दिखता। ओबीसी-आदिवासी सौहार्द नहीं दिखता। दलित जातियां आपस में एक दूसरी जाति को छोटी या कमतर समझती हैं। आदिवासियों और ओबीसी जातियों की भी यही दशा है।

वंचित वर्ग के तथाकथित शिक्षित और उच्च पदस्थ लोग अपने ही जाति समाज के लोगों से दूरी बना रहे हैं। वास्तव में ब्राह्मण जनित मनुवादी व्यवस्था की रुग्ण शिक्षा, अंधश्रद्धा और नाटकीय संस्कारों के कारण हीनता के शिकार लोग, खुद को श्रेष्ठ समझने के नकारात्मक अहंकार से ग्रसित हो जाते हैं। दुष्परिणामस्वरूप एक ही जाति में असमानता के नये नये प्रतिमान स्थापित हो जाते हैं। नवधनाढ़य लोग खुद को श्रेष्ठता के शिखर पर स्थापित कर लेते हैं। ऐसे हालात में PAY BACK TO SOCIETY के बारे में कोई विचार ही नहीं करता। करने की जरूरत ही नहीं समझता।

इसके विपरीत वंचित वर्ग के कुछ कथित सामाजिक संगठन वंचित वर्ग के उत्थान के नाम की माला जपते रहते हैं, लेकिन हकीकत में समाज में नकारात्मक और विध्वंशक माहौल पैदा कर रहे हैं। उदाहरण के लिये "मूलनिवासी" शब्द को जोड़कर अनेक संगठन संचालित किये जा रहे हैं। जिनके संचालकों का मूल/उद्भव भारतीय मूल का नहीं है, लेकिन उनकी ओर से समाज में देशी और विदेशी की विनाशक विचारधारा का प्रचार किया जा रहा है। जबकि भारत में विदेशी मूल और देशी मूल के नाम से किसी भी क्षेत्र में न तो कोई विभेद होता है और न ही शोषण किया जाता है।

हकीकत में भारत में जन्मजातीय विभेद है, जिसके मूल में ब्राह्मणों की विदेशी मूल की नीति नहीं, बल्कि भारत में जन्मी वैदिक विचारधारा जिम्मेदार है। जिसे वर्तमान में विदेशी मूल के ब्राह्मण नहीं, बल्कि भारतीय मूल के आदिवासी, यूरेशिया मूल के आर्य-शूद्रों के वर्तमान भारतीय वंशज, अफ़्रीकी मूल के वर्तमान भारती वंशज (कथित अछूत), विदेशी हूँण, कुषाण, शक आदि विदेशी नस्लों के वर्तमान वंशज-ओबीसी इत्यादि लोग लागू कर रहे हैं। वर्तमान में बामण वैदिक व्यवस्था को वंचित वर्ग पर जबरन थोपने नहीं आ रहा है, बल्कि उक्त वर्णित लोग बामणों को और वैदिक व्यवस्था को खुद अपने खर्चे पर आमन्त्रित कर रहे हैं। वंचित वर्ग खुद वैदिक-मनुवादी व्यवस्था का प्रचार, प्रसार और विज्ञापन कर रहा है।

देशभर में सामाजिक न्याय के नाम पर संघर्ष करने वाले संगठन जन्मजातीत विभेद और मनुवादी शोषण से मुक्ति के लिए आज तक कोई ठोस और व्यावहारिक नीति पेश करने में असफल रहे हैं। बल्कि इसके विपरीत नयी पीढ़ी को हिन्दू धर्म को गाली देना सिखा रहे हैं। जैसे संघ ने मुसलमानों के विरोध में घृणा का वातावरण निर्मित किया, वही ऐसे संगठन हिंदुओं के विरुद्ध कर रहे हैं। जबकि ऐसे लोग खुद हिन्दू हैं। जिससे समाज में विभिन्न प्रकार के अपराध और अपकृत्य पनप रहे हैं। बामणवादी व्यवस्था की भाँति व्यक्ति पूजा को बढ़ावा दिया जा रहा है। महापुरुषों के कार्यों को रचनात्मक तरीके से आगे बढ़ाने के बजाय उनके नाम के नारे लगाये जा रहे हैं। उनके नाम की आरती, वन्दना और पूजा का बाजार विकसित हो रहा है। मनुवादी व्यवस्था में मूर्तियां थी, यहां तस्वीर, बिल्ले, कलेंडर, डायरी और ताम्र मूर्ति भी निर्मित करके बेची जा रही हैं। फ़ूहड़ नाचगांन और कानफोड़ू वाद्ययंत्रों के साथ पूजा-आरती की जा रही हैं।

फ़ूले, बिरसा, भीम, कांशीराम, पेरियार, एकलव्य, लोहिया, वीपी सिंह जैसे विशिष्ठ इंसानों को जबरन भगवान बनाया जा रहा है। इनके मन्दिर बनाये जा रहे हैं। इन कारणों से पहले बंटे लोग नये टुकड़ों में बंट रहे हैं। सामाजिक आयोजनों के शुरू में बुद्ध वन्दना को अनिवार्य कर के गैर-हिन्दू/हिन्दू आदिवासियों और हिन्दू/मुस्लिम ओबीसी पर दलितों द्वारा जबरन बुद्ध धर्म को थोपा जा रहा है। इनकी धार्मिक आजादी का सरेआम मजाक उड़ाया जा रहा है। जबकि बुद्ध धर्म हिन्दू धर्म की एक शाखा मात्र है। सभी बुद्धिष्ट भारत में हिन्दू लॉ से शासित होते हैं। सामाजिक न्याय के संघर्ष को जबरन बुध धर्म का आंदोलन बनाया जा रहा है। बाबा साहब को बुद्धिस्ट वर्ग द्वारा हाई जैक करके बाबा साहब को बुद्ध का अवतार घोषित करने की योजना पर काम कर रहे हैं। इस कारण बाबा साहब को दलितों और इन्साफ पसन्द लोगों से छीनकर बुद्ध धर्म की सीमाओं में कैद किया जा रहा है।

इन हालातों में 85/90 फीसदी आबादी की एकता की कल्पना या बात करना, खोखले गाल बजाना ही है। हकीकत में ऐसे लोग अपने छद्म दुराग्रहों के चलते वंचित समाज को गुमराह कर रहे हैं। ऐसे ही लोगों में कल तक रामदास अठावले, राम विलास पासवान, रामराज/उदितराज आदि भी शामिल थे, जो आज संघ की राजनैतिक शाखा भाजपा की गौद में बैठे हुए हैं।

खुद को कांशीराम जैसे महामानव की एक मात्र उत्तराधिकारी बताने वाली मायावती-उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहते अजा/जजा अत्याचार निवारण अधिनियम को निष्प्रभावी कर देती हैं। 2002 में गुजरात में मुसलमानों के एकतरफा कत्लेआम के कथित रूप से प्रमुख आरोपी माने गए, तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के पक्ष में गुजरात जाकर मायावती दलितों से वोट देने की मांग करती हैं। संविधान के प्रावधानों और सामाजिक न्याय की अवधारणा के बिलकुल विपरीत मायावती राज्यसभा में और फिर कुछ दिन बाद अपने जन्मदिन पर नरेंद्र मोदी की केंद्र सरकार से मांग करती हैं कि उच्च जातीय गरीबों को आर्थिक आधार पर आरक्षण प्रदान करने के लिये क़ानून बनाया जावे।

राजस्थान के आदिवासी राजनेता नमोनारायण मीणा (पूर्व आईपीएस) यूपीए की सरकार में 10 साल तक राज्य मंत्री रहे और अपने गृह कस्बे में लोगों को गुमराह करने वाला वक्तव्य देते हैं कि अजा/जजा के लिए नौकरियों का आरक्षण 10 साल के लिए था, जिसे इंदिरा, राजीव और सोनिया की मेहरबानी से बढ़ाया गया। मध्य प्रदेश के आदिवासी राजनेता कांति लाल भूरिया केंद्र में मंत्री रहे, लेकिन पार्टी की लाईन से हटकर आरक्षण व्यवस्था, जातिगत विभेद, उत्पीड़न या नक्सलवाद पर एक वाक्य तक नहीं बोल सके। राजस्थान की आदिवासी मीणा जनजाति के कथित रूप से सबसे बड़े राजनेता डॉ. किरोड़ी लाल मीणा के मुख से कभी भी मनुवादी व्यवस्था, दलित उत्पीड़न और नक्सलवाद के विरूद्ध एक शब्द सुनने को नहीं मिला और राजस्थान में तीसरे मोर्चे को सत्ता में लाने के सपने देखते रहते हैं! ऐसे दर्जनों नहीं, सैकड़ों नाम हैं, जो वंचित समाज के उत्थान के नाम पर अपना उत्थान कर रहे हैं।S

वंचित समाज के नाम पर राजनीति करने वाले ऐसे लोगों पर जब तक हम दाव लगाते रहेंगे, तब तक वंचित समाज ही दाव पर लगाया जाता रहेगा। आज जरूरत इस बात की है कि हम वास्तविक अर्थों में सच्चे, समर्पित और शिक्षित लोगों को हर क्षेत्र में आगे लाएं। हमें शिक्षा के वास्तविक अर्थ को समझना होगा। अभी तक का अनुभव है कि वंचित समाज के डिग्रीधारी और उच्चपदस्थ लोग ही सबसे अधिक समाजद्रोही सिद्ध हुए हैं। अत: हम वर्तमान में सामाजिक व्यवस्था के संक्रमण काल से गुजर रहे हैं। वंचित वर्ग के हर दल और हर राजनेता ने वंचित वर्ग को धोखा दिया है। जमकर गुमराह किया है। समाज के नाम पर खुद को और अपने कुटम्ब को आगे बढ़ाया है।

इसके बावजूद कुछ लोग समस्या को जानबूझकर समझना नहीं चाहते और समाजद्रोही राजनेताओं से मुक्ति के बजाय पहले नए विकल्प खोजने की बात करके चिंतन और सुधार की राह में रोड़े अटकाते रहते हैं। जबकि वास्तव में वंचित वर्ग में विकल्पों की कमी नहीं है, लेकिन सड़े-गले और असफल हो चुके पुराने विचार या सिस्टम से विरक्ति और नये के स्वागत के बिना बदलाव कैसे होगा? मनुवाद से मुक्ति के लिए जैसे बुद्ध के वैज्ञानिक एवं तार्किक विचार और आधुनिक विज्ञान सहायक सिद्ध हो रहा है, उसी तरह से नाकारा और असंवेदनशील नेतृत्व को भी बदलना होगा।

पुरुषों ने धोती को उतारकर की पायजामा और पेंट अपनाया। वंचित वर्ग की लड़कियां लहंगा चोली के बजाय साड़ी और सलवार सूट पहन रही हैं। नये के लिए बदलाव का साहसिक निर्णय जरूरी है। सच यह भी है कि हमारे वे लोग जिनके दिल में समाज का दर्द है, हम उनको पहचान नहीं पा रहे हैं या सच्चे लोग वर्तमान व्यवस्था का सामना करने के लिए सक्षम हैं, इस बात का हमको विश्वास नहीं है। ऐसे हालातों में वंचित वर्ग के हितैषीे बुद्धिजीवियों को गहन-गंभीर और निष्पक्ष चिंतन करने की जरूरत है। लेकिन असफल, आऊट डेटेड और समाजद्रोही सिद्ध हो चुके विचारों तथा लोगों से मुक्ति पहली जरूरत है।

जय भारत। जय संविधान।
नर-नारी, सब एक समान।।
: डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
9875066111/03-05-2016/07.54 PM
@—लेखक का संक्षिप्त परिचय : मूलवासी-आदिवासी अर्थात रियल ऑनर ऑफ़ इण्डिया। होम्योपैथ चिकित्सक और दाम्पत्य विवाद सलाहकार। राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (BAAS), नेशनल चैयरमैन-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एन्ड रॉयटर्स वेलफेयर एसोसिएशन (JMWA), पूर्व संपादक-प्रेसपालिका (हिंदी पाक्षिक) और पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा एवं अजजा संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ।

नोट : उक्त सामग्री व्यक्तिगत रूप से केवल आपको ही नहीं, बल्कि ब्रॉड कॉस्टिंग सिस्टम के जरिये मुझ से वाट्स एप पर जुड़े सभी मित्रों/परिचितों/मित्रों द्वारा अनुशंसितों को भेजी जा रही है। अत: यदि आपको किसी भी प्रकार की आपत्ति हो तो, कृपया तुरंत अवगत करावें। आगे से आपको कोई सामग्री नहीं भेजी जायेगी। अन्यथा यदि मेरी ओर से प्रेषित सामग्री यदि आपको उपयोगी लगे तो इसे आप अपने मित्रों को भी भेज सकते हैं।

यह पोस्ट यदि आपको आपके किसी परिचत के माध्यम से मिली है, लेकिन यदि आप चाहते हैं कि आपको मेरे आलेख और आॅडियो/वीडियो आपके वाट्स एप इन बॉक्स में सदैव मिलते रहें तो कृपया आप मेरे वाट्स एप नं. 9875066111 को आपके मोबाइल में सेव करें और आपके वाट्स एप से मेरे वाट्स एप नं. 9875066111 पर एड होने/जुड़ने की इच्छा की जानकारी भेजने का कष्ट करें। इसक बाद आपका परिचय प्राप्त करके आपको मेरी ब्रॉड कास्टिंग लिस्ट में एड कर लिया जायेगा।
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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'/ 3 मई, 2016

Monday, May 2, 2016

मूलवासी बनाम सवर्ण

मूलवासी बनाम सवर्ण
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लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
भारत के स्वाभाविक और प्राकृतिक वासी, इस देश के आदिनिवासी और मूलवासी कहे जाते हैं। इन्हें ही संयुक्त राष्ट्र संघ ने इंडीजीनियस पीपुल कहा है। लेकिन चालाक सवर्ण आर्यों ने जिस प्रकार से अछूत को हरिजन और दलित, आदिवासी को वनवासी, गिरिवासी और जंगली घोषित कर दिया, उसी तर्ज पर आदिनिवासी-मूलवासी को भी मूलनिवासी (भाड़ेदार) बना दिया।

सवर्ण कौन : सबसे पहले हम सवर्ण कौन, इसे ही समझ लें। बाबा साहब डॉ. आंबेडकर के शोध और निष्कर्ष इस विषय में अधिक प्रासंगिक होंगे। शुद्र कौन थे? नामक ग्रन्थ में बाबा साहब ने जो कुछ लिखा है, उसके अनुसार शूद्र प्रारम्भ में सूर्यवंशी आर्य क्षत्रिय वीर यौद्धा थे, लेकिन ब्राह्मणों से युद्ध और वैमनस्यता के कारण बामणों ने उनका उपनयन संस्कार बन्द कर दिया और उनको क्षत्रिय से शूद्र बना दिया। इस प्रकार शुद्र नामक चौथे वर्ण का उद्भव हुआ। बाबा साहब के अनुसार, वर्ण संरचना के समय----भारत में ब्राह्मण, क्षत्रित, वैश्य और शुद्र चार ही वर्ण थे। जिनमें सभी आर्य थे। जिन्हें सवर्ण कहा गया और उस समय के शेष वाशिंदे, अर्थात भारत के मूलवासी-आदिनिवासी अवर्ण, अर्थात, जिनका कोई वर्ण नहीं, कहलाये गये।

यह चार स्तरीय वर्ण व्यवस्था रची गयी उसके तकरीबन एक हजार साल बाद गैर आर्य प्रजातियों का भारत में आगमन हुआ। जैसे हूँण, कुषाण, शक, मंगोल और बाद में मुगल, ईसाई, पारसी, पुर्तगाली आदि। इस प्रकार वर्ण संरचना के बाद में भारत में आने वाले लोगों के वंशज भी अवर्ण ही हुए। जिनमें से शासक जाति होने के बाद भी अंग्रेजों और मुसलमानों को बामणों ने क्षत्रिय नहीं, बल्कि मुसलमानों को म्लेच्छ और अंग्रेजों को फिरंगी नाम दे दिया। जो किसी वर्ण में शामिल नहीं। इस प्रकार फिर से प्रमाणित हुआ कि उक्त चार वर्णों में शामिल प्रजातियों के अलावा भारत के शेष सब अवर्ण श्रेणी में माने गए।

वर्तमान भारत में खुद को शूद्रों के वंशज मानने वाली कुछ सवर्ण आर्य जातियों ने खुद को भारत के असली निवासी और मूल मालिक सिद्ध करने के लिए--मूलवासी-आदिनिवासी शब्द को तोड़-मरोड़कर मूलनिवासी बना डाला और बाबा साहब के निष्कर्षों के विपरीत खुद को असवर्ण घोषित कर दिया। इन लोगों ने कभी भी अपने आप को भारत के इंडीजीनियश पीपुल या आदिवासी नहीं माना। ये कभी भी विश्व आदिवासी दिवस नहीं मनाते, लेकिन शाब्दिक चालबाजी के जरिये वास्तविक मूलवासी शब्द को, कूट रचित मूलनिवासी शब्द के रूप में गढ़कर और समाज को भ्रमित कर के अपने आप को भारत का मूलवासी और मूलमालिक बताने का षड्यंत्र रच डाला।

जबकि वास्तव में इसकी कोई जरूरत ही नहीं थी, क्योंकि खुद को भ्रमवश शूद्र मानने वालों में अनेक जातियां आर्य शूद्रों की नहीं, बल्कि मूलवासियों की ही वंशज हैं। इसके उपरान्त भी कि बाबा साहब ने अछूतों का जो शोधात्मक अध्ययन किया है, उसके अनुसार वर्तमान में अजा में शामिल या कथित रूप से अछूत मानी जाने वाली या बामणों द्वारा अछूत घोषित जातियों में से केवल "चमार" जाति के अलावा अन्य किसी भी जाति के आर्य-शूद्र-वंशीय होने के प्राथमिक आधार नहीं मिलते हैं। चमार जाति के भी शूद्र होने के अकाट्य प्रमाण नहीं हैं, फिर भी वामन मेश्राम और मायावती/बसपा समर्थक समस्त अनु. जातियों को शूद्रवंशी घोषित करके भारत की वास्तविक मालिक मूलवासी जातियों के वर्तमान वंशजों को और ओबीसी, मुस्लिम और ईसाइयों को भी भारत के मूलनिवासी बनाकर भारत के मालिक मूलवासी बनाने के लिए लगातार भ्रम फैला रहे हैं। झूठ फैला रहे हैं।

इस प्रकार उपनयन संस्कार से तिरस्कृत सवर्ण शूद्र्वंशी आर्य भी संघ पर काबिज आर्य ब्राह्मणों की भाँति खुद को भारत के मूल मालिक सिद्ध करने के षड्यंत्र में बराबर शामिल प्रतीत होते हैं। केवल यही नहीं, इन लोगों की ओर से अपने द्वारा गढ़े गए झूठ और बाबा साहब के महत्वपूर्ण शोधों को असत्य सिद्ध करने के लिए किसी (सम्भवत: इन्हीं के द्वारा) बनावटी और प्रायोजित डीएनए रिपोर्ट का भी आधार लिया जा रहा है। जबकि खुद को शुद्र बताने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि जिस देश में बामणों द्वारा हजारों सालों तक शूद्रों की नवविवाहिता स्त्रियों से यौनि पवित्र संस्कार के नाम पर प्रथम सम्भोग किया जाता रहा था और भारत में विवाहेत्तर सम्बंधों को कटु सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता। जिनसे बामणों और गैरवर्णीय/गैर जातीय मर्दों की औलादें शूद्रों सहित सभी वर्णों में जन्मती रही होंगी, इससे इनकार करना असम्भव है। ऐसे में वर्तमान में डी इन ए की प्रामाणिकता अप्रासंगिक, असम्भव और अकल्पनीय है।

इसके अलावा भारत में नस्लीय भेद नहीं, बल्कि जन्मजातीय विभेद मूल समस्या है, जिसका स्थायी और व्यावहारिक समाधान प्रायोजित तरीके से मूलवासी को मूलनिवासी बनाना या बनावटी डीएनए रिपोर्ट नहीं, बल्कि समान संवैधानिक भागीदारी और राष्ट्रीय संसाधनों में हिस्सेदारी है। जो मूलनिवासी का षड्यंत्र फ़ैलाने से नहीं, बल्कि संवैधानिक और मूलवासी हकों की प्राप्ति से ही सम्भव है। जिसके लिए वंचित समाज को गुमराह करने की नहीं, बल्कि उनको सजग और जागरूक बनाना पहली और अंतिम जरूरत है। जबकि इस दिशा में कुछ नहीं हो रहा है। इसके विपरीत बुद्ध और भीम वन्दना गायी जाकर इनकी पूजा की जा रही हैं। जो मनुवाद का पोषण कर रही हैं।

अंत में यही कहा जा सकता है कि मूलवासियों को यदि अपने प्राकृतिक और मौलिक हक पाने हैं तो आर्य-सवर्ण-षड्यंत्रकारियों से भारत की सम्पूर्ण व्यवस्था को मुक्त करना होगा।

जय भारत। जय संविधान।
नर-नारी, सब एक समान।।
: डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
9875066111/02-05-2016/02.21 AM
@—लेखक का संक्षिप्त परिचय : मूलवासी-आदिवासी अर्थात रियल ऑनर ऑफ़ इण्डिया। होम्योपैथ चिकित्सक और दाम्पत्य विवाद सलाहकार। राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (BAAS), नेशनल चैयरमैन-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एन्ड रॉयटर्स वेलफेयर एसोसिएशन (JMWA), पूर्व संपादक-प्रेसपालिका (हिंदी पाक्षिक) और पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा एवं अजजा संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ।

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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

Saturday, April 30, 2016

मायावती की जीत, क्या सामाजिक न्याय की हार होगी?

मायावती की जीत, क्या सामाजिक न्याय की हार होगी?
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लेखक : Dr. Purushottam Meena 'Nirankush'
मनुवादी एमके गांधी द्वारा आमरण अनशन को हथियार बनाकर बाबा साहब को कम्यूनल अवार्ड को त्यागने को मजबूर किया गया। दुष्परिणामस्वरूप पूना पैक्ट अस्तित्व में आया। जिसके तहत सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े उन वर्गों को, जिनका राज्य (सरकार) की राय में प्रशासन में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं हो को प्रशासनिक प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिए संविधान में मूलाधिकार के रूप में आरक्षण की व्यवस्था की गयी। जिसके तहत सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में अजा, अजजा एवं ओबीसी को आरक्षण प्रदान किया जा रहा है। जिसका मूल मकसद सामाजिक न्याय की स्थापना करना था। यद्यपि न्यायपालिका ने आरक्षण को अनेकों बार कमजोर करने वाले निर्णय सुनाये हैं।

इसके विपरीत संघ की राजनैतिक शाखा भाजपा की राज्य सरकारों द्वारा संविधान को धता बताकर आरक्षण प्रदान करने हेतु आर्थिक आधार को आगे बढ़ाया जाकर भाजपा की सरकारों द्वारा राजस्थान और गुजरात में सामाजिक न्याय की हत्या करने की शुरूआत की जा चुकी है। इस अन्याय के समर्थन के लिए दलित नेतृत्व पासवान, उदितराज और अठावले को भाजपा द्वारा पहले ही अपने साथ मिलाया जा चुका है। मायावती के विरुद्ध जारी आपराधिक मामलों के दबाव के जरिये उसे भी संघ द्वारा आर्थिक आधार पर आरक्षण का समर्थन करने को मजबूर किया जा चुका है। संविधान के विरूद्ध जाकर मायावती राज्यसभा में सवर्णों को आर्थिक आधार पर आरक्षण प्रदान करने की अन्यायपूर्ण मांग कर चुकी हैं।

इस सबके बावजूद भी संविधान में संशोधन के बिना आर्थिक आधार पर आरक्षण को व्यवहार में लागू नहीं किया जा सकता। मगर सबसे बड़ा पेच यह है कि राज्यसभा में भाजपा के बहुमत के अभाव में संविधान संशोधन सम्भव नहीं हो पा रहा है। राज्यसभा में बहुमत के लिए भाजपा और संघ द्वारा उत्तर प्रदेश विधानसभा के अगले आम चुनाव के बाद बदलने वाली तस्वीर का इन्तजार किया जा रहा है।

चूंकि वर्तमान परिदृश्य में राजनैतिक समीक्षकों को उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बहुमत में आने के आसार बहुत ही कम नजर आ रहे हैं। ऐसे में उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनाव के बाद निम्न संभावनाएं और आशंकाएं दिखाई दे रही हैं :-

1. उत्तर प्रदेश विधानसभा में बसपा को बहुमत मिले जिससे राज्यसभा में बसपा की ताकत बढ़े। मायावती तो सीबीआई जांच के शिकंजे में छूट/ढिलाई मिले और बदले में मायावती अपनी पूर्व घोषित संघ समर्थक नीति के अनुसार सवर्णों को आर्थिक आधार पर आरक्षण दिलाने के बहाने संघ/भाजपा के संविधान संशोधन के एजेंडे/प्रस्ताव का समर्थन करे।
2. उत्तर प्रदेश विधानसभा में भाजपा को बहुमत मिले जिससे राज्यसभा में भाजपा की ताकत बढ़े। जिसके बल पर भाजपा अपने एजेंडे को लागू करने के लिए संविधान में संशोधन करे। 
3. उक्त बिंदु एक संघ और भाजपा की पहली आकांक्षा है, क्योंकि बसपा के समर्थन से संविधान में संशोधन करके सामाजिक न्याय की हत्या करने में कथित रूप से दलितों की सबसे बड़ी पार्टी बसपा की सहमति भाजपा के लिए राजनीतिक रूप से दूरगामी लाभ का सौदा होगा। भाजपा की नियत पर कम सवाल उठेंगे।
4. उत्तर प्रदेश में बसपा को जिताने के बदले में केंद्र सरकार बसपा सुप्रीमों को सीबीआई से संरक्षण प्रदान करेगी, जिसके प्रतिफल में मायावती अन्य राज्यों में कांग्रेस को हराने के लिए अपने उम्मीदवार खड़े करके भाजपा को जिताने में योगदान करेंगी।
5. संविधान संशोधन के जरिये एक बार यदि आर्थिक आधार पर आरक्षण का प्रावधान संविधान में जुड़ गया तो आज नहीं तो कल, सीधे नहीं तो सुप्रीम कोर्ट के मार्फत अजा एवं जजा के आरक्षण का मूल आधार भी आर्थिक किया जाना आसान हो जाएगा। जो संघ का मूल मकसद है। इसके बाद आराक्षण का आधार जाति या वर्ग नहीं बीपीएल कार्ड होगा। जिसे खरीदना आसान होगा। आर्थिक आधार लागू होते ही पदोन्नति का आरक्षण अपने आप ख़त्म हो जाएगा और सामाजिक न्याय एक कल्पना मात्र रह जाएगा।

अत: उपरोक्त संभावनाओं को दृष्टिगत रखते हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा में मायावती को जिताना वंचित वर्ग के लिए कितना घातक हो सकता है, यह वंचित MOST वर्ग के लिए समय रहते गंभीर विचार और चिंतन का विषय होना चाहिए।

जय भारत। जय संविधान।
नर-नारी, सब एक समान।।
: डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
9875066111/29-04-2016/03.44 PM
@—लेखक का संक्षिप्त परिचय : मूलवासी-आदिवासी अर्थात रियल ऑनर ऑफ़ इण्डिया। होम्योपैथ चिकित्सक और दाम्पत्य विवाद सलाहकार। राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (BAAS), नेशनल चैयरमैन-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एन्ड रॉयटर्स वेलफेयर एसोसिएशन (JMWA), पूर्व संपादक-प्रेसपालिका (हिंदी पाक्षिक) और पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा एवं अजजा संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ।
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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

Friday, April 29, 2016

भारत की संयुक्त राष्ट्र संघ में घेराबंदी??

भारत की संयुक्त राष्ट्र संघ में घेराबंदी??
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लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
इस बात में कोई दो राय नहीं कि वर्तमान भाजपा की केंद्र सरकार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की विचारधारा का 100 फीसदी नेतृत्व करती है। यह भी सर्वविदित है कि संघ मनुवादी आतंक, जनजातीय विभेद, वर्गवाद, वर्णवाद, जातिवाद, अमानवीयता, साम्प्रदायिकता, अंधश्रद्धा, अंधभक्ति, अंधविश्वास, बामणवाद, सामन्तशाही, भ्रष्टचार, अत्याचार, उत्पीड़न, लिंग भेद, स्त्री अत्याचार जैसी हजारों बुराईयों का पोषक है। अत: ऐसी बुराइयां भारत में अचानक पैदा नहीं हुई हैं, बल्कि सदियों से व्याप्त रही हैं। इसके बावजूद अचानक भारत के मन्दिरों और मस्जिदों/दरगाहों में स्त्रियों के प्रवेश का मुद्दा राष्ट्रीय ही नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गर्माया रहा है। जिसके लिए देशभर में संघ, मनुवाद, भाजपा, बामणवाद, आदि को कोसा जा रहा है। कोसा जाना भी चाहिए, लेकिन इसके पीछे निहित मकसद को भी समझने की जरूरत है। क्योंकि जो कुछ या जिन बुराईयों को प्रचारित किया जा रहा है, वे न तो अचानक पैदा हुई हैं और न ही नयी हैं और न हीं वर्तमान भाजपा की केंद्र सरकार की दैन हैं। अत: इसके पीछे दो कारण हो सकते हैं:-

1. संयुक्त राष्ट्र संघ में वीटो पावर प्राप्त करना भारत का दशकों से सपना रहा है। जिसके लिए पिछले 15 वर्षों में बहुत काम किया गया है। ऐसे में भारत को रोकने के लिये विश्व के सामने भारत की छवि की ध्वस्त करना कुछ विश्वव्यापी ताकतों का दुराशय हो सकता है। अत: सम्भव है कि भारत में स्त्रियों के मानवाधिकारों के हनन को मुद्दा बनाकर भारत को घेरने की योजना पर काम हो रहा है। जिसमें प्राथमिक सफलता मिल चुकी है।
2. दूसरा कारण, जिसका भारत को फायदा होगा। वह, यह कि भाजपा को बदनाम करने के लिए प्रोपेगण्डा चलाया जा रहा है।
पहला मुद्दा अत्यंत गम्भीर और विचारणीय है।

जय भारत। जय संविधान।
नर-नारी, सब एक समान।।
: डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
9875066111/28-04-2016/10.26 PM
@—लेखक का संक्षिप्त परिचय : मूलवासी-आदिवासी अर्थात रियल ऑनर ऑफ़ इण्डिया। होम्योपैथ चिकित्सक और दाम्पत्य विवाद सलाहकार। राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (BAAS), नेशनल चैयरमैन-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एन्ड रॉयटर्स वेलफेयर एसोसिएशन (JMWA), पूर्व संपादक-प्रेसपालिका (हिंदी पाक्षिक) और पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा एवं अजजा संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ।
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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

Wednesday, April 27, 2016

बुद्ध और बाबा को भगवान बनाने वाले वंचित वर्ग के पक्के दुश्मन हैं।

बुद्ध और बाबा को भगवान बनाने
वाले वंचित वर्ग के पक्के दुश्मन हैं।
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लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
पिछले एक-डेढ़ वर्ष के दौरान देश के अनेक राज्यों में दर्जनों कार्यक्रमों, सभाओं और कार्यशालाओं में शामिल होने का अवसर मिला। जितने भी आयोजन अजा के नेतृत्व में सम्पन्न हुए तकरीबन सभी में बुद्ध और बाबा साहब की वन्दना और गुणगान इस प्रकार से किया गया, मानो ये दोनों व्यक्ति इंसान नहीं साक्षात मनुवादी बामणों के ईश्वर हैं। अनेक जगह पर तो दोनों महापुरुषों की ईश्वर की भाँति मूर्तियां लगायी जाकर पूजा अर्चना की जा रही है। नियमित रूप से दीपक या वल्व या केंडल का प्रकाश किया जा रहा है।

लेकिन एक भी आयोजन में बुद्ध की वैज्ञानिक विचारधारा, तर्क तथा सन्देह की महत्ता और बाबा साहब के संवैधानिक ज्ञान की तनिक भी चर्चा नहीं की गयी! बाबा का खूब गुणगान किया जाता है, लेकिन बाबा के संवैधानिक योगदान पर चर्चा करना तो दूर संविधान में अंतर्निहित प्रावधानों के बारे एक शब्द तक नहीं बोला जाता। आयोजनों का सीधा और एक मात्र मकसद बुद्ध और बाबा को भगवान के रूप में स्थापित करना है।

दुःखद आश्चर्य कि ऐसे आयोजनों को 85 से 90 फीसदी वंचित आबादी के आयोजन बताकर प्रचारित तो खूब किया जाता है, लेकिन इनमें 90 से 95 फीसदी लोग केवल अजा के ही होते हैं। सामाजिक न्याय के बजाय आयोजनों को बुद्ध धर्म प्रचार के आयोजन बनाया जा रहा है। केवल यही नहीं, इन आयोजनों में हिन्दू धर्म और हिन्दू देवी-देवताओं के बारे में हिन्दुओं की दृष्टि से घृणित और असहनीय भाषा उपयोग की जाती है। जिसके कारण रामायण, गीता, भागवत आदि का पाठ करवाकर देवलोक की आशा लगाये बैठे अजा, अजजा और ओबीसी के लोग इन आयोजनों में चाहकर भी शामिल नहीं होते हैं। बुद्ध वन्दना के कारण मुस्लिम शामिल नहीं होते या मन मारकर फॉर्मेलिटी करते हैं।

कुल मिलाकर आयोजन कागजी तौर पर ही कामयाब होते हैं या केवल एक राजनैतिक जुंडली के इरादों तक सीमित रहते हैं। इस कारण बकवास वर्ग के लिए बुद्ध और बाबा के मिशन को भगवान से जोड़कर भटकाने का अवसर मिल चुका है। जिसके लिए ऐसे आयोजक जिम्मेदार हैं। एक और तो अजा, ओबीसी और आदिवासी वर्ग को हिन्दू शिकंजे से मुक्ति की बात की जाती हैं और दूसरी ओर ज्योतिबा फ़ूले, बिरसा मुंडा, बाबा साहब, जयपाल सिंह मुंडा, पेरियार, कांसीराम जैसे महापुरुषों के सामाजिक न्याय, समानता, सामान हिस्सेदारी, अंधश्रद्धा निर्मूलन जैसे ऐतिहासिक और अविस्मरणीय प्रयासों को इन आयोजनों में पलीता लगाया जा रहा है। सब कुछ बर्बाद किया जा रहा है।

क्या ऐसे आयोजक इतनी सी बात नहीं समझना चाहते कि बुद्ध और बाबा भगवान नहीं केवल इंसान थे, महान इंसान थे। जिनके अनेक बड़े कार्य वंचित वर्ग के लिए तभ ही उपयोगी होंगे, जबकि इनको भगवान नहीं इंसान माना जाएगा और इनके आचरण, निर्णयों और कार्यों की आज के संदर्भ में खुलकर समीक्षा करने की आजादी होगी। अन्यथा ऐसे आयोजनों के चलते वंचित वर्ग कभी भी वास्तव में एकजुट नहीं हो सकेगा। सामाजिक न्याय की लड़ाई हम कभी नहीं जीत पाएंगे और बकवास वर्ग यही चाहता है।

यही नहीं, बल्कि इन्हीं कारणों से बुद्ध और बाबा साहब को केवल अजा तक सीमित किया जा चुका है। बाबा साहब का विश्वव्यापी पैमाना ऐसे आयोजनों के कारण दलित दृष्टि से मापा जाता है। क्या बाबा साहब और बुद्ध यही चाहते थे?
जय भारत। जय संविधान।
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: डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
9875066111/27-04-2016/09.16 PM
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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

Monday, April 25, 2016

वंचित वर्ग की मूल समस्या नर्क का भय और स्वर्ग का प्रलोभन

वंचित वर्ग की मूल समस्या नर्क का भय और स्वर्ग का प्रलोभन
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लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
मुझे अकसर वंचित वर्ग के मित्रों के घर जाने के अवसर मिलते रहते हैं। जिनमें अधिकतर अजा, अजजा, ओबीसी और मुस्लिम लोग होते हैं। उनके घर का नजारा देखकर कोई नहीं कह सकता कि उनको दरिद्रता, शोषण, विभेद और गैर-बराबरी से आजादी का दर्द है।

जय भीम, जय आदिवासी जैसी कथित क्रांति के नारे बोलकर स्वागत करने वालों के घरों के प्रवेश द्वार पर गणेश विराजमान हैं। मुख्य द्वार पर नींबू मिर्ची लटकी मिलती हैं। घरों में बामणवादी पूजा पद्धति के सभी ढोंग दिखाई देते हैं। ओबीसी के लोग तो इनमें आकंठ दूबे हुए हैं। मुस्लिम धर्म के नाम पर जितने अंधभक्त और अंधश्रद्धा रखते हैं, उसकी अन्य किसी से तुलना नहीं की जा सकती।

जो लोग सोशल मीडिया पर बुद्ध-बुद्ध और नमो बुद्धाय चिल्लाते हैं। उनके घरों पर बुद्ध की वन्दना के नाम पर, बुद्ध को भगवान बना कर बामणवादी व्यवस्थानुसार पूजा-अर्चना जारी है। अब तो बुद्ध की मूर्ती के साथ बाबा साहब की मूर्ती भी लगती जा रही है। जो बुद्ध मूर्ती पूजा को नकारते हैं और विज्ञान की बात करते हैं। उनको ही भगवान बनाया जा रहा है। इसके बाद भी इनके परिवारों बामणवादी भगवानों से भी पूर्ण मुक्ति नहीं मिली है। इनके घर भी दुर्गा, हनुमान, गणेश, कृष्ण, राम और शिवजी बिराजे मिलेंगे। ऐसे ही ढोंगियों के कारण बुद्ध को विष्णु का अवतार घोषित किया जा चुका है और संघ की पूर्ण तैयारी है कि बाबा साहब को भी विष्णु अवतारी घोषित करके बाबा भक्तों को पूर्णत: मनुवादी कैद के शिकंजे में बन्द रखा जावे।

वंचित वर्ग के डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर तक अंधश्रद्धा में आकण्ठ दूबे हुए हैं। राजस्थान का डूंगरपुर-बांसवाड़ा जो भील आदिवासी बहुल क्षेत्र है, वहां के शिक्षित और सम्पन्न भील आदिवासी वैदिक व्यवस्था को अपनाने में गौरव का अनुभव करते हैं और आदिकाल से प्रचलित वधुमूल्य प्रथा के स्थान पर दहेज को बढ़ावा दे रहे हैं। बामण को बुलाकर वैदिक रीति से सप्तपदी अनुसार फेरे सम्पन्न करवाकर विवाह होने लगे हैं। पूर्वी राजस्थान के मीणा आदिवासी तो अपने आप को वैदिक व्यवस्था के संरक्षक मानते हैं। उनके लिए उक्त सब के साथ साथ भागवत कथा और रामायण पाठ तो जैसे मोक्ष का मार्ग है।

कुल मिलाकर सारा खेल नर्क के भय और स्वर्ग के प्रलोभन पर टिका हुआ है। जब तक वंचित वर्ग इस मोहपाश में बंधा रहेगा। बामनवादी विभेदक व्यवस्था से उसका शोषण कोई नहीं रोक सकता। ऐसे उसे बराबरी नहीं मिल सकती। जिसका मूल है-अशिक्षा। हमारे लोग डिग्रियां तो हासिल कर रहे हैं, लेकिन पूर्णत: अशिक्षित हैं। उनको जीवन की वास्तविकता का प्राथमिक ज्ञान भी नहीं हैं। जब तक जीवनोपयोगी शिक्षा नहीं मिलेगी, वंचित समाज मनुवादी शिकंजे से मुक्त नहीं हो सकता। क्योंकि आम व्यक्ति कथित शिक्षित और बड़े लोगों की ओर देखकर आगे बढ़ता है।
: डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
9875066111/25-04-2016/06.11 AM
@—लेखक का संक्षिप्त परिचय : मूलवासी-आदिवासी अर्थात रियल ऑनर ऑफ़ इण्डिया। होम्योपैथ चिकित्सक और दाम्पत्य विवाद सलाहकार। राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (BAAS), नेशनल चैयरमैन-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एन्ड रॉयटर्स वेलफेयर एसोसिएशन (JMWA), पूर्व संपादक-प्रेसपालिका (हिंदी पाक्षिक) और पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा एवं अजजा संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ।
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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

Friday, April 15, 2016

बाबा साहब के 125वें जन्मोत्सव को संविधान खरीदकर ज्ञानोत्सव मनाएं।

बाबा साहब के 125वें जन्मोत्सव को
संविधान खरीदकर ज्ञानोत्सव मनाएं।

ऑल इण्डिया एससी/एसटी रेलवे एप्लाईज एसोशिएशन, कपूरथला कोच फैक्ट्री की जोनल इकाई की ओर से 14 अप्रैल, 16 को आयोजित बाबा साहब के 125वें जन्मोत्सव कार्यक्रम को मुख्य वक्ता के रूप में सम्बोधित करते हुए हक रक्षक दल (HRD) के राष्ट्रीय प्रमुख डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ने आह्वान किया कि वंचित वर्ग के लोगों को संविधान खरीदकर बाबा साहब के जन्मदिन को ज्ञानोत्सव के रूप में मनाना चाहिए। भारी संख्या में उपस्थित जनसमूह की तालियों की गड़गड़ाहट के बीच डॉ. मीणा जी ने बाबा साहब के योगदान और संविधान की जानकारी प्रदान करके लोगों को मन्त्रमुग्ध कर दिया। ऐसी जानकारियां दी जिनसे अधिकतर लोग अनभिज्ञ थे। कार्यक्रम के बाद श्रोताओं ने डॉ. मीणा जी से मिलकर व्यक्तिगत रूप से ख़ुशी का इजहार किया। महिलाओं तक ने डॉ. साहब के भाषण को सराहा। डॉ. मीणा जी कहा कि बाबा साहब ने शिक्षित बनो पहला नारा दिया था, जिसके बाद हम डिग्रीधारी और नौकर तो बन गए लेकिन सच में शिक्षित बनना अभी भी शेष है। लोगों को संविधान तथा नियम कानूनों को पढ़ना चाहिए और जागरूक तथा सतर्क नागरिक बनना चाहिए। जिससे बकवास वर्ग के शोषण से मुक्ति मिल सके और मोस्ट मूवमेंट मजबूत हो सके। डॉ. मीणा जी की ओर से मोस्ट और बकवास की व्याख्या लोगों को बहुत पसन्द आयी। डॉ. साहब ने आह्वान किया कि हमें बाबा साहब का गुणगान करने या बाबा साहब को भगवान बनाने के बजाय, जो कुछ वंचित समाज के लिए बाबा साहब ने किया उसपर विचार, चिंतन और मन्थन करना चाहिए। संविधान का ज्ञान हासिल करना चाहिए। इसके अलावा बहुत सी बातें बतलाई। कार्यक्रम में एसोशिएशन की जोनल बॉडी के अध्यक्ष जीत सिंह, कार्यकारी अध्यक्ष रनजीत सिंह, वरिष्ठ उपाध्यक्ष विजय कुमार, उपाध्यक्ष के एस खोकर, सचिव आर सी मीणा, कोषाध्यक्ष सोहन बैठा, अतिरिक्त सचिव करण सिंह सहित स्थानीय पंजाबी लेखक बी एल सांपला, मैडम आशा क्लियर, के एल जस्सल, धर्मपाल पैंथर, श्रीमती बैठा आदि अनेकों वक्ताओं ने विचार व्यक्त किये। जबकि मैडम दिव्याना इक्का, मैडम बिमला और रूपो वालिया की टीम ने सांस्कृतिक कार्यक्रम पेश किये। कार्यक्रम पूरी तरह से सफल रहा। आयोजन की समाप्ति के बाद डॉ. मीणा जी से फिर से कपूरथला पधारने का निवेदन किया गया। कार्यक्रम के शुरू में डॉ. मीणा जी की ओर से झण्डा वन्दन किया गया, जबकि अंत में प्रमुख कार्यकर्ताओं और वक्ताओं को समृति चिह्न भेंट किये। खुद मीणा जी को भी समृति चिह्न भेंट किया गया।

निवेदक
जीत सिंह-जोनल अध्यक्ष
आर सी मीणा-जोनल सचिव
कपूरथला। पंजाब।

Monday, April 11, 2016

वंचितों पर जिन्दा वंचित वर्ग विरोधी पत्रिका का संघ की सह पर आरक्षण विरोधी अभियान जारी

वंचितों पर जिन्दा वंचित वर्ग विरोधी पत्रिका का
संघ की सह पर आरक्षण विरोधी अभियान जारी
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लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश' 
एक तरफ तो राजनैतिक लाभ उठाने के लिये बकवास@ वर्ग द्वारा देशभर में बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेड़कर की 125वीं जयन्ति मनाने का षड़यंत्रपूर्ण नाटक खेला जा रहा है। जिसकी छद्म और छलपूर्ण खबरें मीडिया में छायी हुई हैं। वहीं दूसरी और वंचित मोस्ट@ वर्ग की ओर से बाबा साहब की जयन्ति मनाने की वास्तविक और देश को जगाने वाली खबरों को बकवासवर्गी मीडिया द्वारा जानबूझकर दबाया जा रहा है। तीसरी ओर बकवासवर्गी मीडिया की ओर से देश के लोगों को लगातार गुमराह करके आरक्षण के विषय पर भड़काया जा रहा है। इस सबके कारण सामाजिक न्याय विषय पर अनारक्षित वर्ग के संविधान के प्रावधानों और आरक्षण व्यवस्था से अनजान युवा लोगों की अज्ञानता को बढावा देकर, रुग्ण मानसिकता को हवा दी जा रही है।

इसी क्रम में राजस्थान पत्रिका के 11 अप्रेल, 2016 के जयपुर शहर संस्करण के सम्पादकीय पृष्ठ आठ आर्य पुत्र एसएन शुक्ला, (महासचिव—लोकप्रहरी) का लेख प्रकाशित किया गया है, जिसका शीर्षक है—'आरक्षण—जातिगत आधार से निकलकर सभी धर्मों के गरीबी रेखा से नीचे वाले लोगों को मिले लाभ अब आर्थिक आधार अपनाने का वक्त'। जिसमें मूल रूप से दो गलत, आपत्तिजनक, असंवैधानिक और भ्रामक बातें लिखी/प्रकाशिक की गयी हैं :—

पहली सुप्रीम कोर्ट के हवाले से कहा गया है कि पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया है कि ''आरक्षण केवल जातिगत आधार पर नहीं दिया जा सकता।'' जबकि इन आर्यपुत्र लेखक शुक्ला और आर्यपुत्र पत्रिका प्रकाशक गुलाबचन्द कोठारी को शायद अच्छी तरह से ज्ञान है कि संविधान में जातिगत आधार आरक्षण है ही नहीं और न केवल पिछले साल, बल्कि​ संविधान लागू होने के तत्काल बाद से सुप्रीम कोर्ट अनेकों बार इस बात को निर्णीत कर चुका है कि आरक्षण जातिगत आधार पर नहीं दिया जा सकता। क्योंकि आरक्षण जातियों को नहीं, बल्कि जातियों के समूह अर्थात् समाज के वंचित वर्गों को प्रदान किया गया है। आरक्षण के लिये सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ी एक समान जातियों को वर्गीकरण करके मिलते-जुलते वर्गों में बांटकर आरक्षण प्रदान किया गया है। जिसकी संवैधानिकता की पुष्टि करते हुए पश्चिम बंगाल बनाम अनवर अली सरकार, एआईआर 1952 एसएसी 75, 88 में सुप्रीम कोर्ट ने साफ शब्दों में कहा है कि
''चूंकि जब तक कानून उन सबके लिये, जो किसी एक वर्ग के हों, एक जैसा व्यवहार करता है, तब तक समान संरक्षण के नियम का अतिक्रमण नहीं होता, (अनुच्छेद 14 समान संरक्षण की बात कहता है) इसलिये व्यक्तियों का तथा जिनकी स्थितियां सारभूत रूप से एक जैसी हों उन्हें एक ही प्रकार की विधि के नियमों के अधीन (आरक्षण प्रदान करके) रखने का असंंदिग्ध अधिकार विधायिका को प्राप्त है।''
डॉ. प्रद्युम्न कुमार त्रिपाठी द्वारा लिखित ग्रंथ 'भारतीय संविधान के प्रमुख तत्व' के पृष्ठ 277 को आर्यपुत्र लेखक शुक्ला, पत्रिका प्रकाशक कोठारी और उन जैसे पूर्वाग्रही एवं रुग्ण मानसिकता के लोगों को निम्न पंक्तियों को समझना चाहिये। जिसमें स्पष्ट शब्दों में लिखा गया है कि—
समानता के मूल अधिकार का संवैधानिक प्रावधान करने वाला ''अनुच्छेद 14 विभेद की मनाही नहीं करता, वह केवल कुटिल विभेद की मनाही करता है, वर्गीकरण की मनाही नहीं करता, प्रतिकूल वर्गीकरण की मनाही करता है।'' इस प्रकार आरक्षण जातिगत नहीं है। अत: यह जाति आधारित विभेद नहीं है, बल्कि जाति आधारित कुटिल विभेद मिटाने के लिये वंचित जातियों के लोगों का न्यायसंगत वर्गीकरण है।
पत्रिका में प्रकाशित उक्त लेख में आर्य—पुत्र लेखक शुक्ला और प्रकाशक कोठारी ने समाज में वैमनस्यता फैलाने वाली दूसरी बात लिखी है कि—'मण्डल आयोग के बाद प्रशासनिक दक्षता नीचे गयी।'' इन दोनों आर्य पुत्रों को क्या यह ज्ञात नहीं है कि मण्डल आयोग की सिफारिशों के आधार पर करीब 55 फीसदी ओबीसी आबादी को बकवासवर्गी सरकारों ने मात्र 27 फीसदी आरक्षण ही प्रदान किया था और अभी तक नीति—नियन्ता प्रशासनिक पदों पर ओबीसी को एक फीसदी भी आरक्षण नहीं मिला है? अजा एवं अजजा को साढे बाईस फीसदी आरक्षण के होते हुए प्रथम श्रेणी प्रशासनिक पदों पर पांच फीसदी भी प्रतिनिधत्व नहीं हैं और नीति—नियन्ता पदों पर प्रतिनिधित्व शून्य है।

ऐसे में प्रशासनिक दक्षता गिरने के लिये आरक्षण व्यवस्था को दोषी ठहराना सार्वजनिक रूप से सम्पूर्ण समाज को गुमराह करने का गम्भीर अपराध है। जिसके लिये ऐसे दुराग्रही लेखक औ प्रकाशक के विरुद्ध सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने, लोगों को संविधान के विरुद्ध उकसाने, वंचित वर्गों के संवैधानिक हकों को छीनने और देशद्रोह का मुकदमा चलाया जाना चाहिये। मगर दु:ख है कि वंचित वर्ग के लोग ऐसे मामलों में चुप्पी साधे बैठे रहते हैं और वंचित वर्ग के संवैधानिक राजनैतिक तथा प्रशासनिक प्रतिनिधि बकवास वर्ग की गुलामी करने में मस्त रहते हैं। जिसका दुखद दुष्परिणाम है—शुक्ला और कोठारी जैसों द्वारा खुलकर संविधान की अवमानना करने वाले लेख लिखकर प्रकाशित करना और समाज को गुमराह करते रहना।
शब्दार्थ :
@बकवास (BKVaS= Brahman + Kshatriy+ Vaishay + Sanghi)
@मोस्ट (MOST=Minority+OBC+SC+Tribals)/ 
- : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
9875066111/03-04-2016/09.02 AM
@—लेखक का संक्षिप्त परिचय : मूलवासी-आदिवासी अर्थात रियल ऑनर ऑफ़ इण्डिया। होम्योपैथ चिकित्सक और दाम्पत्य विवाद सलाहकार। राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (BAAS), नेशनल चैयरमैन-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एन्ड रॉयटर्स वेलफेयर एसोसिएशन (JMWA), पूर्व संपादक-प्रेसपालिका (हिंदी पाक्षिक) और पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा एवं अजजा संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ।
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Sunday, April 3, 2016

निजी क्षेत्र में व्याप्त खुले शोषण को रोकने हेतु सख्त कानूनी सुधार जरूरी

निजी क्षेत्र में व्याप्त खुले शोषण को
रोकने हेतु सख्त कानूनी सुधार जरूरी
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लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

वर्ष 1991 में जैसे नरसिम्हा राव की सरकार ने सत्ता संभाली या यह कहना अधिक उचित होगा कि वीपी सिंह एवं चन्द शेखर की सरकार द्वारा बरबार अर्थव्यवस्था के सुधार के लिये जैसे ही रिजर्व बैंक आॅफ इण्डिया के पूर्व गर्वनर डॉ. मनमोहन सिंह ने भारत के वित्तमंत्री के रूप में जिम्मेदारी संभाली भारत को फिर से कॉर्पोरेट के गुलाम बनाने की शुरूआत हो गयी। खुले बाजार और विश्व अर्थव्यवस्था के साथ प्रतियोगिता के नाम पर डॉ. मनमोहन सिंह की नीति को पीवी नरसिम्हाराव के बाद अटलबिहारी वाजपेयी और अन्तत: स्वयं डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार ने उत्तरोत्तर प्र​गति के साथ जारी रखा। जिसके चलते भारत का पहले से कमजोर तबका लगातार वंचित और बेहाल हो गया तथा किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो गये। स्त्रियों की स्थिति बद से बदतर हो गयी। निम्न श्रेणी की सरकारी नौकरियां समाप्त करने की प्रकिया शुरू हो गयी।

वर्तमान नरेन्द्र मोदी सरकार भारत की अर्थव्यवस्था में निजी क्षेत्र को सौ फीसदी हिस्सेदारी प्रदान करके सम्पूर्ण रूप से कॉर्पोरेट घरानों पर मेहरबान है। जिसके चलते जहां एक ओर भ्रष्टाचार चरम पर है, वहीं दूसरी ओर आम व्यक्ति, किसान, स्त्री और वंचित तबका बेहाल है। अपरिहार्य तकनीकी पदों को छोड़कर ग्रुप डी की सरकारी नौकरियां समाप्त हो चुकी हैं। जिसके चलते वंचित तबकों को प्रशासन में प्राप्त संवैधानिक प्रतिनिधित्व/आरक्षण का मूल अधिकार हमेशा के लिये नेस्तनाबूद किया जा चुका है।

यहां जो सबसे महत्वूपर्ण और विचारणीय तथ्य है, वह यह कि—सरकारी क्षेत्रों में जिन कार्यों के लिये, जितनी पगार मिला करती थी या वर्तमान में मिल रही, उसी कार्य के लिये ठेकदार द्वारा एक चौथाई पगार पर वंचित तबके के लोगों को कार्य पर रखा जा रहा है। जिसके चलते वंचित वर्ग का खुला शोषण हो रहा है। लेकिन इसकी ओर 1991 से आज तक किसी भी सरकार या जनप्रतिनिधि ने जरा सा भी ध्यान नहीं दिया। दुष्परिणामस्परूप वर्तमान में जो कार्य ग्रुप डी सरकारी कर्मचारी 25 से 40 हजार रुपये महावार वेतन में करता है, वही कार्य ठेकदार के अधीन कार्यरत मजदूर 9 से 12 हजार प्रतिमाह में करने को विवश है। जिसे अन्य किसी प्रकार की कोई सुविधा या कानूनी संरक्षण भी प्राप्त नहीं हैं।

इस शोषक व्यवस्था के कारण कारोबारी, ठेकेदार, कॉर्पोरेट घराने और ठेका प्रदान करने वाले सरकारी अफसर लगातार मालामाल होते जा रहे हैं। हों भी क्यों नहीं, जब कार्य की लागत का अनुमान/ऐस्टीमेट सरकारी दर पर बनाया जाता है और ठेकेदार द्वारा मजदूरों से सरकारी दर की तुलना में मात्र एक चौथाई दर पर कार्य करवाया जाता है। इसमें जो मुनाफा होता है, उसकी आपस में बन्दरबांट होती है, जिसका निर्धारित हिस्सा सरकार में उच्चतम स्तर तक​ पहुंचता है। इसी काले धन के कारण भ्रष्ट धनकुबेरों और भ्रष्ट अफसरों की संख्या में बेतहासा बढोतरी हो रही है। इसी के चलते चुनावों में बेतहासा धन खर्च/विनियोग किया जाता है। जीतने के बाद खर्चे गये/विनियोग किये गये खर्चे का सैकड़ों गुणा वसूला जाता है। जिसका सरलतम रास्ता है—ठेकादारी/अनुबन्ध प्रथा।

डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा बिना पर्याप्त कानून बनाये और वंचित तबके के संवैधानिक अधिकारों को संरक्षण प्रदान किये शुरू की गयी खुली अर्थव्यवस्था के कारण वर्तमान में हर एक जिले में हजारों भ्रष्ट लोग तो मालामाल हो गये, लेकिन लाखों—करोंड़ों लोगों को हमेशा—हमेशा के लिये दलित, वंचित और शोषित बना दिया गया है। जिसकी ओर कोई भी ध्यान देने की जरूरत नहीं समझता है। वर्तमान में निर्वाचित होकर विधायिका में पहुंचने वाले जनप्रतिनिधियों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बहुत बड़ी संख्या शोषक ठेकेदारों की भी है। इस कारण इस बारे में कभी भी विधायिका में कोई सुधारात्मक चर्चा नहीं होती है। ऐसे में वंचित तबका लगातार शोषण के दुष्चक्र और गरीबी के अंधकूप में समाता जा रहा है। जिसके चलते दैहिक शोषण सहित अनेकों प्रकार के अपराधों में वृद्धि हो रही है। किसान आत्महत्या करने को विवश हैं और देश का मोस्ट वर्ग प्रशासन में प्रस्तावित संवैधानिक हिस्सेदारी के मूल अधिकार से असंवैधानिक तरीके से वंचित किया जा रहा है।

इस प्रायोजित समस्या का समाधान उन्हीें सत्ताधारी लोगों अर्थात् डॉ. मनमोहन सिंह के मानसपुत्रों के अधिकार क्षेत्र में है, जिन्होंने इसे अर्थव्यवस्था में सुधार के नाम पर जन्म देकर पोषित किेया है। अर्थात् कार्यपालिका और विधायिका द्वारा न्यायसंगत कानून बनकार ठेकेदारों के अधीन कार्यरत मजदूरों एवं कर्मकारों को न्यायसंगत वेतन, भत्ते, भविष्य निधि, चिकित्सा सुविधा, आपात निधि आदि की व्यवस्था करके इस समस्या का स्थायी निराकरण सम्भव है, लेकिन ऐसे जरूरी और न्यायसंगत कानून बनाते ही ऊपर तक पहुंचने वाला कमीशन मिलना बन्द हो जायेगा। इस कारण स्थित विकट हो चुकी है।

अत: शोषण और अन्याय के खिलाफ सच्चे इरादों से प्रयासरत हम लेखकों, चिन्तकों और मीडिया से जुड़े लोगों का दायित्व है कि हम जनागरण के जरिये इस अत्यधिक समस्या को समाज और सरकार के सामने लायें। जिससे शोषण और अन्याय के खिलाफ जनमत खड़ा हो सके और वर्तमान शोषक व्यवस्था से मुक्ति के लिये सख्त कानून बनाने को सरकार को विवश किया जा सके। याद रहे एकजुट जनमत के आगे झुकना सत्ता की मजबूरी है। आइये—एकजुट होना शुरूआत है।
- : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश' 9875066111/03-04-2016/08.25 AM
@—लेखक का संक्षिप्त परिचय : मूलवासी-आदिवासी अर्थात रियल ऑनर ऑफ़ इण्डिया। होम्योपैथ चिकित्सक और दाम्पत्य विवाद सलाहकार। राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (BAAS), नेशनल चैयरमैन-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एन्ड रॉयटर्स वेलफेयर एसोसिएशन (JMWA), पूर्व संपादक-प्रेसपालिका (हिंदी पाक्षिक) और पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा एवं अजजा संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ।

नोट : उक्त सामग्री व्यक्तिगत रूप से केवल आपको ही नहीं, बल्कि ब्रॉड कॉस्टिंग सिस्टम के जरिये मुझ से वाट्स एप पर जुड़े सभी मित्रों/परिचितों/मित्रों द्वारा अनुशंसितों को भेजी जा रही है। अत: यदि आपको किसी भी प्रकार की आपत्ति हो तो, कृपया तुरंत अवगत करावें। आगे से आपको कोई सामग्री नहीं भेजी जायेगी। अन्यथा यदि मेरी ओर से प्रेषित सामग्री यदि आपको उपयोगी लगे तो इसे आप अपने मित्रों को भी भेज सकते हैं।

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Wednesday, March 9, 2016

रियल ऑनर ऑफ़ इण्डिया : मूलवासी-आदिवासी
समस्त प्रजातियों को एकजुट होने की जरूरत है!!
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लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
भारत के मूलमालिक, मूलवासी, आदिनिवासी, जिन्हें आम बोलचाल में आदिवासी कहा जाता है, जबकि संविधानसभा में शामिल मूलवासी प्रतिनिधि जयपाल सिंह मुंडा के तीखे विरोध के बावजूद मूलवासी-आदिवासियों को संविधान में अनुसूचित जन जाति लिखा गया है, जो वर्तमान भारत में सर्वाधिक कष्टमय जीवन जीने को विवश है। जिसका मूल कारण भारत के मूलवासी के साथ संविधान निर्माताओं द्वारा किया गया अन्याय है। मूलवासी प्रजाति का मौलिक अस्तित्व मिटाने के लिए, उसे अजजा नाम दे दिया गया। केवल इतना ही नहीं, बल्कि आदिनिवासी जो हकीकत में रियल ऑनर ऑफ़ इण्डिया हैं, उनकी अनेक प्रजातियों को षड्यंत्र पूर्वक संविधान निर्माताओं, केंद्र सरकार और विधायिका ने अजजा, अजा और ओबीसी में विभाजित कर दिया। इस कारण वर्तमान में भारत के मूलमालिक-मूलवासी की खोज करना, मूलवासियों की पहली और अनिवार्य जरूरत है। जिसमें बकवास वर्ग से प्रभावित और भ्रमित कुछ मूलवासी जो खुद को शूद्र मानते हैं, विदेशी मूल की नस्लों के लिए उपयोग में लाये जाने वाले मूलनिवासी शब्द को गढ़कर और मूलवासियों पर थोपकर बलात् व्यवधान पैदा कर रहे हैं। जिनमें बामसेफी वामन मेश्राम प्रमुख व्यक्ति हैं, जो बामणों द्वारा दी गयी शूद्र नामक गाली को सार्वजनिक रूप से अंगीकार कर के, खुद को शूद्रवंशी मान रहे हैं। जबकि बाबा साहब के अनुसार शूद्र सूर्यवंशी आर्य क्षत्रियों के वंशज थे, जिनका उपनयन संस्कार बन्द कर के बामणों ने उनको शूद्र बना दिया। दूसरी और संसार के सबसे बड़े, क्रूर और दुर्दांत हत्यारे आर्य-ब्राह्मण परशुराम ने समस्त क्षत्रियों की 21 बार अभियान चलाकर निर्ममता पूर्वक हत्या कर दी थी। वहीं बाबा साहब का कहना है कि वर्तमान अजा, दलित और अछूत जातियां ही शूद्र हैं, इस बात का कोई विश्वसनीय प्रमाण नहीं है। बाबा साहब के उक्त निष्कर्ष का आज तक किसी ने खण्डन नहीं किया है। इससे यह तथ्य स्वत: प्रमाणित होता है कि वर्तमान अजा एवं ओबीसी वर्गों में भी अनेक जातियां शूद्रवंशी या विदेशी मूलनिवासी नहीं, बल्कि अदिनिवासी मूलवासी हैं। जो रियल ऑनर ऑफ़ इण्डिया हैं। आज विभिन्न वर्गों में शामिल समस्त रियल ऑनर ऑफ़ इण्डिया-मूलवासी-आदिवासी जातियों को एकजुट होने की जरूरत है। क्योंकि रियल ऑनर ऑफ़ इण्डिया अर्थात अजा, अजजा और ओबीसी में शामिल हम सभी भारत के मूलवासियों की प्रजातियों को एकजुट होकर अनेक मोर्चों पर लड़ना होगा। मूलवासियों को अनेक विदेशी विचारधाराओं से सतत संघर्ष करना होगा। जिनमें गांधीवादी लोग जो मूलवासी को गिरिवासी कहते हैं। याद रहे गांधी ने भारत का वारिसाना हक प्राप्त करने के लिए कोर्ट में याचिका दायर की थी, जिसे निरस्त करके कोर्ट ने निर्णय दिया था कि भारत गांधी या  कांग्रेस का नहीं, बल्कि मूलवासी-आदिवासी का देश है, जिसका वारिसाना हक गांधी और उनकी कांग्रेस को नहीं दिया जा सकता। आर्यवंशी विदेशी लोगों द्वारा प्रतिपादित अमानवीय मनुवादी व्यवस्था के पोषक संघी जो भारत के मूलमालिक आदिवासी को वनवासी कहते हैं। इनसे मुक्ति मूलवासियों की सबसे बड़ी चुनौती है। हमारे की मूलवासियों में शामिल प्रजातियों के कुछ लोग जो बामसेफी प्रभाव में हैं, जबकि बामसेफी जो मूलवासी को मूलनिवासी-विदेशी शूद्रों की औलाद सिद्ध करने में जुटे हुए हैं, ये लोग आज मूलवासी-आदिवासी के विरुद्ध सर्वाधिक मूर्खतापूर्ण और आत्मघाती कार्य कर रहे हैं। केंद्र सरकार और अनेक राज्य सरकारें जो देश के मूलवासियों के प्राकृतिक हकों को बलपूर्वक छीन रही हैं और प्रतिरोध करने पर मूलवासी को नक्सलवादी घोषित कर रही हैं। अंत में अफसरशाही जो हमेशा व्यवस्था के नाम पर सत्ता की चाटुकारिता करती है, वो भी मूलवासियों के हकों के विरुद्ध जारी षडयन्त्रों में सहायक सिद्ध हो रही है। अत: रियल ऑनर ऑफ़ इण्डिया : मूलवासी-आदिवासी की अजा, अजजा और ओबीसी में शामिल समस्त प्रजातियों को सबसे पहले शीघ्रता से एकजुट होने की जरूरत है!!
जय भारत। जय संविधान।
नर-नारी सब एक समान।।
लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
9875066111/09-03-2016/07.37 AM
@—लेखक का संक्षिप्त परिचय : मूलवासी-आदिवासी रियल ऑनर ऑफ़ इण्डिया। होम्योपैथ चिकित्सक और दाम्पत्य विवाद सलाहकार। राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (BAAS), नेशनल चैयरमैन-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एन्ड रॉयटर्स वेलफेयर एसोसिएशन (JMWA), पूर्व संपादक-प्रेसपालिका (हिंदी पाक्षिक) और पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा एवं अजजा संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ।

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Tuesday, March 8, 2016

महिला दिवस को सार्थक बनाने के लिए 7 कदम!

महिला दिवस को सार्थक बनाने के लिए 7 कदम!
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लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
आज 08 मार्च, 2016 है। सभी अखबारों, टीवी चैनलों और रेडियो पर महिलाओं के बारे में बातें होंगी। चर्चा, बहस और लेख सब जगह महिलाओं की बात होनी हैं। इस बारे में मेरा भी कुछ चिंतन है। हजारों सालों से महिलाओं को दोयम दर्जे का नागरिक, बल्कि गीता जैसे कथित धर्मग्रंथ के अध्याय : 9 के 32वें श्लोक में स्त्री को पाप यौनि में जन्मी जीव समझा गया है। अनेक ग्रन्थों में स्त्री को हजारों सालों से दासी, गुलाम और अमानवी प्रावधानों की त्रासदी झेलनी पड़ी है। बलात्कार केवल स्त्री का होना। लज्जा, शर्म और हया को केवल स्त्री का आभूषण बताया जाना। बहुत सी बातें और ऐसे हालात हैं, जो स्त्री को पुरुष से कमतर बनाने के लिए लगातार काम अवचेतन स्तर पर कार्य करते रहते हैं। वास्तव में स्त्री की नैसर्गिक प्रजनन की अनुपम क्षमता और उसके जन्मजात संवेदनशील स्वभाव को समाज ने स्त्री की कमजोरी समझ लिया और उसके साथ हजारों सालों से गुलामों की तरह से व्यवहार किया गया। इन सब मनमानियों से स्त्री की मुक्ति के लिए बातें तो हम खूब करते हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर क्या कुछ होता है, किसी से छिपा नहीं है। मेरा मानना है कि शेष बातें तो बाद में सबसे पहले स्त्रियों को मानवीय दर्जा देने के लिए बहुत थोड़े कदम उठाने की जरूरत है। जैसे-
1. संविधान के अनुच्छेद 13 में मूल अधिकार विरोधी होने के कारण-शून्य घोषित स्त्री विरोधी सभी धर्मग्रंथों के लेखन, प्रकाशन, मुद्रण और विक्रय को आजीवन कारावास से दण्डनीय अपराध घोषित किया जाए।
2. अंधश्रद्धा, अंधविश्वास और अवैज्ञानिक मन्त्र-तंत्रों पर प्रतिबन्ध और इनका उल्लंघन करना आजीवन कारावास से दण्डनीय अपराध हो।
3. शराब हिंसा, दहेज और कन्यादान स्त्री की दुर्दशा के मूल हैं। स्त्री के मानवी होने को ये 3 बातें पल-प्रतिपल कुचलती हैं। अत: इनको कठोरता से निषिद्ध किया जाए और उल्लंघन करने वाले को उम्र कैद की सजा दी जाए।
4. अपनी इच्छानुसार न्यूनतम स्नातक तक की शिक्षा हर लड़की के लिए अनिवार्य और मुफ़्त मूल अधिकार हो, जिसका आवासीय सुविधाओं सहित सम्पूर्ण और वास्तविक खर्चा सरकार वहन करे।
5. कन्या भ्रूण हत्या में किसी भी रूप में लिप्त डॉक्टर और अन्य अपराधियों को कम से कम उम्र कैद की सजा मिले।
6. स्त्रियों को विधायिका में 50 फीसदी भागीदारी हो, लेकिन यह भागीदारी हर वर्ग की स्त्री को आबादी के अनुपात में होनी चाहिए।
7. स्त्रियों के मान-सम्मान को उनकी निजी या पारिवारिक इज्जत से नहीं, बल्कि देश और समाज की इज्जत से जोड़ा जाए। जिससे ऑनर किलिंग की समस्या से निजात मिले।

उक्त मुद्दों पर सरकार, समाज और प्रशासन को मिलकर लगातार काम करने की जरूरत है।
जय भारत। जय संविधान।
नर-नारी सब एक समान।।
लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
9875066111/08-03-2016/08.38 AM
@—लेखक का संक्षिप्त परिचय : होम्योपैथ चिकित्सक और दाम्पत्य विवाद सलाहकार। +राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (BAAS), नेशनल चैयरमैन-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एन्ड रॉयटर्स वेलफेयर एसोसिएशन (JMWA), पूर्व संपादक-प्रेसपालिका (हिंदी पाक्षिक) और पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा एवं अजजा संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ
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Sunday, March 6, 2016

सोशल मीडिया पर नेताओं का मजाक उड़ाने पर जेल सोशल मीडिया हिट में गन्दगी की सफाई भी जरूरी है।

सोशल मीडिया पर नेताओं का मजाक उड़ाने पर जेल
सोशल मीडिया हिट में गन्दगी की सफाई भी जरूरी है। 
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लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
तमिलनाडु से खबर है कि सोशल मीडिया पर नेताओं का मजाक उड़ाने पर जेल की हवा खानी पड़ सकती है। ऐसा करने वालों के खिलाफ भारतीय दण्ड संहिता की धारा 188 के तहत कार्यवाही की जायेगी।
कुछ मित्रों को इस खबर के हवाले से यह बोलने और लिखने का मौक़ा मिल सकता है कि यह अभिव्यक्ति की आजादी पर सरकारी हमला है। मैं इससे सहमत नहीं हूँ।
सोशल मीडिया पर जिस दिन से जुड़ा था, उसी दिन से मेरा स्पष्ट मत है कि जो कोई भी सोशल मीडिया पर हल्की, अभद्र या स्तरहीन भाषा का इस्तेमाल करे, उसे केवल सजा ही नहीं, कठोर सजा मिलनी चाहिए। कारण भी बतला दूँ-
1. स्तरहीन भाषा और असत्य संवाद के कारण सोशल मीडिया को सरकार, प्रशासन और जनप्रतिनिधियों द्वारा गम्भीरता से नहीं लिया जाता है। जबकि वर्तमान में सोशल मीडिया आम व्यक्ति की आवाज है। जो लोग सोशल मीडिया का स्तर गिराते हैं, वे लोग आम व्यक्ति की अभिव्यक्ति के विश्वस्तरीय मुक्त मंच इंटरनेट और सोशल मीडिया की गरिमा को क्षति पहुंचाने के अपराधी हैं। ऐसे लोगों की अनदेखी आत्मघाती नीति होगी।
2. किसी भी गलत व्यक्ति, संगठन, राजनैतिक दल, राजनेता, धर्म, धार्मिक व्यक्ति, प्रतिनिधि, प्रशासक, सरकार या किसी भी गलत विषय की निंदा करने के लिए संसदीय और शिष्ट भाषा में भी विचार रखे जा सकते हैं, बल्कि ऐसे ही विचार अधिक प्रभावी होते हैं। इससे सोशल मीडिया और अंतर्जाल अर्थात इंटरनेट की गरिमा एवं मीडिया के रूप में प्रतिष्ठा भी कायम होती है।
3. सोशल मीडिया पर इन दिनों कोई भी ऐसा व्यक्ति जिसको इतिहास, क़ानून, संविधान, प्रेस एक्ट आदि का कोई ज्ञान नहीं। यहां तक कि जिन लोगों को भाषा तक का ज्ञान नहीं। जो लोग सार्वजनिक संवाद की मर्यादा को तक नहीं जानते, ऐसे लोग सोशल मीडिया के जरिया अशिष्ट, असंसदीय, अभद्र और कलुषित भाषा में अपने पूर्वाग्रह तथा अपनी भड़ास निकालने के लिए आम जनता की मुक्त आवाज सोशल मीडिया का दुरूपयोग कर रहे हैं। जिसके चलते जनप्रतिनिधि, सरकार और प्रशासन द्वारा सोशल मीडिया पर व्यक्त संजीदा विचारों और सही जानकारी तक को गम्भीरता से नहीं लिया जाता है। 
अत: मेरा स्पष्ट मत है कि सोशल मीडिया की प्रतिष्ठा कायम करनी है तो गन्दगी की सफाई जरूरी है। गन्दगी फैलाने वालों को जेल की हवा खिलाने में संजीदा लोगों को मदद करनी चाहिए। ऐसा होने से सोशल मीडिया और आम व्यक्ति की आवाज को ताकत मिलेगी।
जय भारत। जय संविधान।
नर-नारी सब एक समान।।
लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
9875066111/06-03-2016/09.28 AM
@—लेखक का संक्षिप्त परिचय : होम्योपैथ ​चिकित्सक और दाम्पत्य विवाद सलाहकार। +राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (BAAS), नेशनल चैयरमैन-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एन्ड रॉयटर्स वेलफेयर एसोसिएशन (JMWA), पूर्व संपादक-प्रेसपालिका (हिंदी पाक्षिक) और पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा एवं अजजा संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ 
नोट : उक्त सामग्री व्यक्तिगत रूप से केवल आपको ही नहीं, बल्कि ब्रॉड कॉस्टिंग सिस्टम के जरिये मुझ से वाट्स एप पर जुड़े सभी मित्रों/परिचितों/मित्रों द्वारा अनुशंसितों को भेजी जा रही है। अत: यदि आपको किसी भी प्रकार की आपत्ति हो तो, कृपया तुरंत अवगत करावें। आगे से आपको कोई सामग्री नहीं भेजी जायेगी। अन्यथा यदि मेरी ओर से प्रेषित सामग्री यदि आपको उपयोगी लगे तो इसे आप अपने मित्रों को भी भेज सकते हैं।
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Thursday, March 3, 2016

पंतजलि द्वारा कैंसर का भय दिखाना क्या नैतिक है? क्या कानून सम्मत है?

पंतजलि द्वारा कैंसर का भय दिखाना
क्या नैतिक है? क्या कानून सम्मत है?
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लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
आज 03 मार्च, 2016 को राजस्थान पत्रिका के जयपुर संस्करण के मुखपृष्ठ पर एक विज्ञापन के शीर्षक ने चौंका दिया। पतंजलि की ओर से जारी विज्ञापन में कहा गया है कि 'आपके खाने के तेल में कैंसर कारक तत्वों की मिलावट तो नहीं—जरा सोचिए' यह 'जरा सोचिये', जरा सी बात नहीं, बल्कि भयानक बात हो सकती है और उपभोक्ताओं के विरुद्ध भयानक षड़यंत्र हो सकता है? लोगों को 'जरा सोचिये' के बहाने ​कैंसर का भय दिखलाकर पतंजलि द्वारा अपना सरसों का तेल परोसा जा रहा है। क्या यह सीधे-सीधे आम और भोले-भाले लोगों को भय दिखाकर अपना तेल खरीदने के लिये मानसिक दबाव बनान नहीं? क्या यह उपभोक्ताओं की मानसिक ब्लैक मेलिंग नहीं है?
दिमांग पर जोर डालिये रामदेव वही व्यक्ति है—जो 5-7 साल पहले अपने कथित योगशिविरों में जोर-शोर से योग अपनाने की सलाह देकर घोषणा करता था कि उनके योग के कारण बहुत जल्दी डॉक्टर और मैडीकल दुकानदार मक्खी मारेंगे। वर्तमान हकीकत सबके सामने है, कोई भी मक्खी नहीं मार रहा। हां यह जरूर हुआ है कि इन दिनों कथित योगशिविरों में योग कम और पतंजलि की दवाईयों का विज्ञान अधिक किया जाता है। इन दिनों शिविरों में योग के बजाय हर बीमारी के लिये केवल पतंजलि की दवाई बतलाई जाती है। जिसका सीधा सा मतलब यही है कि रामदेव का कथित योग असफल हो चुका है। रामदेव के योग शिविरों में सरकार के योगदान की तेजी के साथ-साथ वृद्धि हो रही है, लेकिन योग निष्प्रभावी हैं, क्यों रागियों और रोगों में तेजी से बढोतरी हो रही है। रामदेव के शिविरों के नियमित कथित योगी भी डॉक्टरों की शरण में हैं, लेकिन बेशर्मी की हद यह है कि अब लोगों को योग के साथ-साथ पतंजलि के उत्पादों के नाम गुमराह करने के साथ-साथ दिग्भ्रमित भी किया जा रहा है। केवल इतना ही नहीं, डराया और धमकाया जा रहा है। विज्ञापनों से जो संदेश प्रसारित हो रहा है, वह यह है कि पतंजलि के अलावा जितने भी तेल उत्पाद हैं, उनमें कैंसर कारक तत्वों की मिलवाट हो सकती है!
यह सीधे-सीधे भारतीय कंज्यूमेबल मार्केट पर रामदेव का कब्जा करने और कराने की इकतरफा मुहिम है, जिसमें केन्द्र और अनेक राज्यों की सरकार के साथ-साथ, बकवासवर्ग समर्थक मीडिया भी शामिल है। मेरा मानना है कि अब आम व्यक्ति को जरा सा नहीं, बल्कि गम्भीरता से इस बात पर भी गौर करना चाहिये कि पहले योग के नाम पर और अब उत्पादों की शुद्धता के नाम पर जिस प्रकार से उपभोक्ताओं को गुमराह और भयभीत किया जा रहा है, उसका लक्ष्य और अंजाम क्या हो सकता है? यह भी विचारणीय है कि रामदेव किस विचारधारा के समर्थक हैं?
अन्त में सबसे महत्वपूर्ण बात : कानूनविदों को इस बात का परीक्षण करना चाहिये कि उपभोक्ता अधिकार संरक्षण अधिनियम तथा विज्ञापन क़ानून क्या इस प्रकार से उपभोक्ताओं को भ्रमित और गुमराह करके या डराकर विज्ञापन के जरिये कैंसर का भय परोसा जाना क्या नैतिक रूप से उचित है? क्या ऐसा विज्ञापन करना कानून सम्मत है?

जय भारत। जय संविधान।

नर-नारी सब एक समान।।
लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
9875066111/03.03.2016/05.42 PM
@—लेखक का संक्षिप्त परिचय : होम्योपैथ ​चिकित्सक और दाम्पत्य विवाद सलाहकार। +राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (BAAS), नेशनल चैयरमैन-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एन्ड रॉयटर्स वेलफेयर एसोसिएशन (JMWA), पूर्व संपादक-प्रेसपालिका (हिंदी पाक्षिक) और पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा एवं अजजा संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ 
नोट : उक्त सामग्री व्यक्तिगत रूप से केवल आपको ही नहीं, बल्कि ब्रॉड कॉस्टिंग सिस्टम के जरिये मुझ से वाट्स एप पर जुड़े सभी मित्रों/परिचितों/मित्रों द्वारा अनुशंसितों को भेजी जा रही है। अत: यदि आपको किसी भी प्रकार की आपत्ति हो तो, कृपया तुरंत अवगत करावें। आगे से आपको कोई सामग्री नहीं भेजी जायेगी। अन्यथा यदि मेरी ओर से प्रेषित सामग्री यदि आपको उपयोगी लगे तो इसे आप अपने मित्रों को भी भेज सकते हैं।
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